चिरइ चुरमुन और चीनू दीदी
(कहानी पंकज सुबीर)
(5)
हमारे प्रश्न अब ख़त्म हो चुके थे । जो कुछ जानना था वो पता चल चुका था । अब कुछ और जानने की आवश्यकता भी नहीं थी । हमने पूछा ‘क्या आप जाना चाहते हैं ?’ कटोरी खसकी और नो को छूकर वापस आ गई । नो....? आज तक तो किसी आत्मा ने नहीं कहा था । जब भी पूछो तो चुपचाप यस करके चली जाती है । हम सबके पसीने छूट गये । जिन दोनों सुरेश और सुशील ने उँगली कटोरी पर रखी थी उनकी हालत और ख़राब थी । कुछ देर तक सन्नाटा रहा फिर क़मर ने एक बार फिर से हिम्मत करके पूछा ‘क्या आप चले गये हैं ?’ उत्तर में कटोरी एक बार फिर से नो को छू कर वापस आ गई । हम सबकी अधिकतम सीमा तक फट चुकी थी । मुँह सूख चुके थे और कुछ सूझ नहीं रहा था । मनीष अचानक रो पड़ा और रोते हुए हाथ जोड़ कर बोलने लगा ‘हमसे ग़लती हो गई, आगे से आपको परेशान नहीं करेंगे । आप चले जाइये हम आपके हाथ जोड़ते हैं । ’ मनीष की देखा देखी हम सबने भी हाथ जोड़ लिये । कुछ देर तक फिर सन्नाटा छाया रहा । सुरेश ने कुछ देर की ख़ामोशी के बाद पूछा ‘क्या आप चले गये हैं ?’ कटोरी में कोई हलचल नहीं हुई । वो जस की तस बनी रही । हम सब की मानो साँस में साँस वापस आ गई । संजय गाँधी जा चुके थे । बाद में हम सबमें संजय गाँधी को बुलाने पर काफी झगड़ा हुआ । जिसने संजय गाँधी की आत्मा को बुलाने का सुझाव दिया था उसको हम सबने सारी गालियाँ एक एक कर के दीं । वो चुपचाप सुनता रहा । ग़लती जो कर बैठा था । ख़ैर कुछ देर में जब हम वापस अपने मूल विषय पर आये तो हमें इस बात की राहत थी कि संजय गाँधी के आने से एक लाइन तय हो गई थी कि चीनू दीदी को.....। और ये भी तय हो चुका था कि कौन कौन ये काम करने वाला है । लेकिन अभी ये तय नहीं था कि काम होगा कैसे ।
उस दिन के बाद हमारे एस अक्षरों ने चीनू दीदी से निकटता बढ़ाने का प्रयास करना शुरू कर दिया । हमारे एस अक्षर ही अब अम्मा जी के घर के सारे काम करते थे । मगर निकटता तो तब बढ़े जब अम्मा जी घर में घुसने दें । अम्माजी हमारे एस अक्षरों तथा चीनू दीदी के बीच में पहाड़ बन कर अड़ी हुईं थीं । बाहर से ही सामान की थैली ले लेतीं और टरका देतीं । हमने उन दिनों में अम्माजी के कुत्ते को परेशान करना भी बंद कर दिया था । लेकिन उससे भी कुछ हो नहीं पा रहा था । हम सब एक बार फिर से उदास थे । इस बार उदास होने के साथ-साथ परेशान भी थे । मगर जहाँ चाह वहाँ राह की तर्ज़ पर गणेश उत्सव का त्यौहार आ गया । हमारे हस्पताल के चाचा टाइप के लोग कैम्पस में दस दिन तक स्थापना करते थे और झाँकियाँ बनाते थे । उन झाँकियों में हम लोग ही राधा, कृष्ण, राम, लक्ष्मण आदि आदि बन कर खड़े रहते थे । झाँकी स्थिर होती थी । मतलब ये कि इमली के पेड़ में रस्सी बाँध कर उससे एक बड़ी सी टाट की पहाड़ टाइप की आकृति बना कर लटका दी और नीचे हममें से कोई कृष्ण बन कर उस लटके हुए पहाड़ में उँगली लगाकर खड़ा हो जाता । आस पास गोप गोपियाँ खड़े हो जाते । ये हो जाती गोवर्धन परबत की झाँकी । पूरे तीन घंटे तक हम लोगों को एक ही एक्शन में खड़ा रहना होता था । चाचा टाइप के लोग व्यवस्था में लगे रहते थे । परशाद बाँटना, चंदा उगाहना आदि आदि । पीरिया से मिलने के बाद हमें पता चला था कि हमारे ये चाचा टाइप के लोग जो दस दिन गणेश स्थापना करते थे उसका मुख्य कारण ये था कि झाँकी देखने के बहाने उनकी अपनी अपनी सेटिंगें आया करती थीं । जिस चाचा ने जिसको भी दो बार मुट्ठी भर भर के परशाद दे दिया समझ लो ये उस चाचा की सेटिंग है । उस समय में अपनी सेटिंगों को घर से बाहर निकालने के लिये क्या क्या करना पड़ता था । समझ पड़ने लगने के बाद हम झाँकी में सज धज कर खड़े खड़े अपने चाचा लोगों और उनकी सेटिंगों के नैन मटक्के देखा करते थे । तो इस बार हम लोगों ने चाचा टाइप के लोगों से ज़िद की, कि हम लोगों को झाँकी के लिये तैयार करने का काम चीनू दीदी से करवाया जाय । बात मान ली गई । चीनू दीदी भी मान गईं । हम सबको झाँकी के लिये तैयार होने में डेढ़ दो घंटे का समय लगता था । और पूरे दस दिन तक ये रोज़ होना था ।
हस्पताल के एक बरामदे में प्रतिमा की स्थापना होती थी, बरामदे के ठीक सामने इमली के पेड़ के नीचे हम सब झाँकियाँ बन कर खड़े होते थे । बरामदे के ठीक पीछे एक कमरा था, दस दिन के लिये वही हमारा ग्रीन रूम हो जाता था । ये एक लम्बा सा कमरा था । बरामदे की पूरी लम्बाई में फैला हुआ, जिसे एक सामान्य चौड़ाई तथा बहुत अधिक लम्बाई वाला हॉल कह सकते हैं । यह वैसे हस्पताल का आपातकालीन कक्ष भी था। इस कक्ष का गणेश उत्सव के अलावा कभी कोई उपयोग नहीं होता था । हस्पताल में सामान्य मरीज़ ही नहीं आते थे तो आपातकालीन कौन आता । उस समय बच्चे घरों में पैदा होते थे और बूढ़े घरों में मरते थे । हस्पताल पर किसी को भरोसा नहीं था । या शायद ज़रूरत ही नहीं थी क्योंकि बच्चे सामान्य रूप से पैदा होते थे और मरने वाले सामान्य रूप से मरते थे । पैदा करने और मारने में डॉक्टरों की आवश्यकता नहीं पड़ती थी । न पैदा होने के लिये ऑपरेशन की ज़रूरत होती थी और न मरने के लिये । कक्ष के एक कोने में स्ट्रेचर, ट्राली जैसे आपातकालीन सामान सहित और भी बहुत अगड़म बगड़म रखा था, जो सरकार ने आपातकालीन सेवाओं के लिये भेजा था पर जो उपयोग में नहीं आया था । इस कमरे में सामान्य दिनों में रात के समय चौकीदार रहता था, लेकिन झाँकी के दस दिन उसकी व्यवस्था और कहीं रहती थी। इस ग्रीन रूम का आगे का दरवाज़ा बरामदे में खुलता था, जहाँ से हम सारे भगवान जनता के सामने प्रकट होते थे । दरवाज़ा खुलने की बात कही ज़रूर गई लेकिन यहाँ बाक़ायदा कोई दरवाज़ा नहीं था, बस एक हस्पताल का हरा परदा टँगा रहता था जो दरवाज़े का काम करता था । आपातकालीन कक्ष में दरवाज़े का क्या काम ? झाँकी के समय इस परदे के आगे एक और परदा लग जाता था, झाँकी के लिये लगायी गयी टेंट हाउस की फूलों वाली कनात का परदा। हस्पताल के परदे और कनात के बीच के हिस्से में घना अँधेरा पसरा रहता था । कनात को दरवाज़े के पास थोड़ा खुला रखा जाता था ताकि देवता और राक्षस आ जा सकें । इस ग्रीन रूम में पीछे भी एक दरवाज़ा था, जो कि हस्पताल के पिछवाड़े में खुलता था । झाँकी के दौरान इसी पीछे के दरवाज़े से हम अपने घर आते जाते थे। यहाँ अलबत एक लकड़ी का दरवाज़ा लगा था, और एक खिड़की थी, जिसकी फ्रेम में बीच बीच में काँच लगे थे। पीछे का ये हिस्सा एकदम सुनसान पड़ा रहता था । लैम्प पोस्ट पर जल रही ट्यूब लाइट के उजाले का सहारा लेकर हम आते जाते थे । इस कमरे का विन्यास जानना इसलिये आवश्यक है कि ये कमरा आगे एक पात्र की तरह उपस्थित रहना है । क़स्बे की रामलीला मंडली से काजल, चन्दन, सुरमा, गेरू, खड़िया, राख, रोली, मुर्दासिंगी, पन्नियों से चमकाये मुकुट, लकड़ी के अस्त्र-शस्त्र, दाढ़ी-मूंछे, गेरूआ कपड़े, कमण्डल, पूंछें, राम-लक्ष्मण के लिए जरी के अंगरखे, धुनष वाण आदि सामग्री आकर ग्रीन रूम में रखा जाती थी । चेहरे पर मुर्दासिंगी पोत पोत कर हम सब इन्सान से भगवान बनना शुरू कर देते थे । उसी ग्रीन रूम में दस दिन तक हमें तैयार करने के लिये चीनू दीदी को आना था ।
हमने झाँकी की मुख्य भूमिका के लिये अपने सारे एस अक्षरों को आगे रख कर सोचा । ऐसा करना इसलिये ज़रूरी था कि समय की कमी के कारण चीनू दीदी केवल मुख्य भूमिका वाले पात्र को ही तैयार करने वाली थीं । बाक़ी सहायक देवताओं, राक्षसों, वानरों आदि को अपने ही हाथ से तैयार होना था । तो हमने सारे एस अक्षरों शोएब, सुधीर, सुशील, सुरेश और सुट्टू को आगे कर के विचार किया । हमारा बहुमत शोएब के पक्ष में झुका हुआ था । शोएब वैसे भी हर साल ही राम और कृष्ण की मुख्य भूमिका में होता था । बस इसमें एक ही परेशानी उसे ये थी कि उसे पूरे दस दिन रोज़ नहाना पड़ता था । दस दिन तक वो रोज़ गुडलुकिंग होता था । सच कहें तो हमें अपने सारे एस अक्षरों में सबसे ज़्यादा भरोसा भी शोएब पर ही था । हमारे बाकी के सारे एस अक्षर तो बस एस अक्षर होने के कारण चर्चा में शामिल किये गये थे, उनसे हमें कोई उम्मीद नहीं थी, हाँ बस ये था कि चूँकि संजय गाँधी ने एस अक्षर का कहा था तो उनके भी नामों पर विचार तो करना ही था ताकि उनको बुरा न लगे। शोएब की बात अलग थी वो सुंदर था और भरा पूरा भी था। पीरिया ने भी उसको ज्ञान देने में बहुत खुला दिल बरता था। एक बार जब हम सारे लोग पिकनिक पर गये थे तो तालाब पर फुल वस्त्रहीन टाइप में नहाते समय पीरिया ने शोएब की बॉडी देखकर उससे कहा था ‘तेरी बॉडी भोत सालिड है भाई, कोई भी लड़की अगर तेरी खुली बॉडी देख ले तो उसी टैम मर मिटे तेरे पर । तुझे ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत नहीं है, ख़ाली बॉडी दिखाने से ही तेरा काम हो जायेगा ।’ पिकनिक मतलब संडे के दिन अपने अपने टिफिन लेकर साइकिलों से जंगल के किसी भी तलाब पर जाना। पहले तालाब में नहाना और फिर खाना खाकर वापस आ जाना ।
हममें से कुछ बच्चे उस पिकनिक में तलाब पर नहाते समय फुल वस्त्रहीन नहीं हो रहे थे । ये वही लोग थे जिन्होंने पिछली बार वहाँ हस्पताल के स्टोर रूम के बरामदे में साधु बनने से भी इन्कार कर दिया था, ये तब भी भक्त ही बन कर रह गये थे । पूरे कपड़े पहने हुए भक्त । लज्जा, संकोच, शर्म, डर, लिहाज, संस्कार जैसी बेफ़िज़ूल की चीजों ने उनको ऐसा करने से तब भी रोका था और पिकनिक में भी रोक रहीं थीं । तब पीरिया गुरू ने, जो उस समय तालाब किनारे के पत्थर पर पूरी तरह से वस्त्रहीन अवस्था में बैठे बीड़ी का पावन धुँआ रह रह कर अपने मुँह से छोड़ रहे थे, उन्हें दिव्य ज्ञान दिया था ‘ये कपड़े तो क़ैद हैं, जब भी मौक़ा मिले इस क़ैद से आज़ाद हो जाना चाहिये। जब अचार, पापड़, अनाज सबको धूप दिखाना और हवा लगाना ज़रूरी है तो हमारे शरीर को क्यों नहीं। हवा नहीं लगाओगे और धूप नहीं दिखाओगे तो ये अंदर की चीज़ें भी अचार, पापड़, बड़ी की तरह ख़राब हो जाएँगीं, इनमें भी फफूँद लग जायेगी।’ ख़राब हो जाने के डर से वो सब भी तुरंत दिगम्बर हो गये थे । उन लोगों ने बचपन छूट जाने के बाद पहली बार हवा लगाने और धूप दिखाने का ये काम पीरिया गुरू की कृपा से उनके मार्गदर्शन में सम्पन्न किया था । और बाद में उस निर्मल आनंद के लिये दिल की गहराइयों से पीरिया गुरू का आभार भी व्यक्त किया था । उन सबके चेहरे अनुपम कांति से खिल उठे थे । सार्वजनिक रूप से नंगे हो जाने का रोमांच, थ्रिल, एडवेंचर इनको इससे पहले पता ही कहाँ था । ये सारे अर्जुन तो उस दिन भी युद्ध के मैदान में उतरने से पहले ही हथियार डाल चुके थे और डाले ही रहते, यदि पीरिया गुरू का ज्ञान नहीं मिलता । इन सारे अर्जुनों ने उस दिव्य स्नान के बाद वस्त्रहीन क्रिकेट मैच में भी भाग लिया था जो मोजे में कपड़े भर कर बनाई गई बॉल और लकड़ी के फट्टे के बैट से खेला गया था । यह दिव्य स्नान के बाद खेला गया एक दिव्यतम क्रिकेट मैच था । इस दिव्यतम क्रिकेट मैच के दौरान ही पीरिया ने हमें दूसरा ज्ञान दिया था ‘दुनिया में नंगा होना सब चाहते हैं, लेकिन हो कोई नहीं पाता । नंगे होने में सबकी फटती है । इसका मज़ा वही जानता है जो नंगा हो जाता है, इसलिये डरो मत हो जाओ । एक बार हो गये तो बार बार होओगे । ऊपर वाला भी चाहता है कि हम नंगे ही रहें इसलिये ही वो हमें नंगा पैदा करता है ।’
तो गणेश उत्सव के ठीक पहले दिन कालिया मर्दन की झाँकी थी। कालिया मर्दन में एक ही मुख्य हीरो कृष्ण को होना था सो ग्रीन रूम में एक तरफ चीनू दीदी शोएब को तैयार करती रहीं । बाकी हम सब सहायक भूमिकाओं में जो गोप, ग्वाले थे अपने ही हाथों से हॉल के दूसरे सिरे पर तैयार होते रहे । मगर हमारी नज़र उधर ही टिकी थी । शोएब और चीनू दीदी में धीरे धीरे कुछ बातें भी हो रहीं थीं जो दूरी होने के कारण हमें सुनाई नहीं दे रही थीं । चीनू दीदी ने जब हल्का गुलाबी रंग लेकर उँगलियों से शोएब के होंठों पर लगाया तो हम सब के सब मानो आसमान पर पहुँच गये । हमारे मन में शोएब के लिये कोई जलन, ईर्ष्या आदि नहीं थी । होती भी क्यों, असल में तो शोएब के रूप में हम सब के ही होंठों पर गुलाबी रंग लग रहा था । चीनू दीदी ने पीली साड़ी की धोती शोएब को पहनाई। उसकी शर्ट उतार कर रख दी और पावडर में नील मिला कर हलका नीला रंग तैयार कर शोएब के खुले बदन पर लगाने लगीं । फिर वही नीला पावडर उसके चेहरे पर भी लगाया । जब शोएब का पूरा शरीर नीला हो गया तो उसके गले में एक पीला दुपट्टे का अंगवस्त्र डाला, केसरिया कमरबंद कमर पर बांधा और सर पर चमकीली पन्नियों का मुकुट रख दिया । हम हर साल झाँकियों में तैयार होते थे, लेकिन चीनू दीदी ने जो शोएब को तैयार किया था वो कमाल था । शोएब सचमुच का ही कृष्ण लग रहा था ।
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