चिरइ चुरमुन और चीनू दीदी
(कहानी पंकज सुबीर)
(4)
अम्मा जी हमें नानी की कहानियों की वो दुष्ट राक्षसी लगती थीं जो राजकुमार को क़ैद करने के लिये हमेशा नये नये जाल बिछाती थी । अम्मा जी से हमें एक और कष्ट था, वो ये कि जब उनको कोई काम नहीं होता तो वो हमें देखते ही चिल्लातीं ‘ऐ लड़के इतनी गर्मी (सर्दी, बरसात) में बाहर क्यों घूम रहे हो, चलो घर ।’ ये वो समय था जब किसी भी बच्चे को पूरे मोहल्ले का कोई भी बड़ा, डाँट सकता था, मार सकता था, जलील कर सकता था । ये आज का समय नहीं था कि बच्चों को उनके घर का ही बड़ा नहीं डाँट सकता । डाँट सुन कर हम मन ही मन गालियाँ देते हुए घर भाग जाते थे । हम चाह कर भी अम्मा जी का कुछ नहीं कर पाते थे । मगर हमने अपना ग़ुस्सा निकालने का एक तरीक़ा निकाल लिया था । हम अम्मा जी के छोटे से पॉमेरियन कुत्ते से उनका बदला लेते रहते थे । अम्मा जी को कुछ समझ में नहीं आता था कि उनके कुत्ते को रह रह कर चोट क्यों लगती रहती हैं । हम इसी ताक में रहते थे कि कब वो कुत्ता अकेला मिले और हम उससे अम्मा जी का बदला लें । हमारा पूरा आक्रोश वो कुत्ता झेल रहा था । क़मर हसन ने एक बार तो उसकी टाँग ही तोड़ डाली थी । अपनी फ़ाख़्ता मारने वाली गुलेल से उसने साध कर ऐसा पत्थर मारा था कि कई दिनों तक वो कुत्ता तीन पैरों से घूमता रहा था । हमारी दुनिया जो पहले से ही बहुत सी मुश्किलों से भरी थी उसमें एक अम्मा जी और आ गईं थीं ।
चीनू दीदी से हमें कोई शिकायत नहीं थी । चीनू दीदी से तो वैसे भी हम लोगों को कोई काम नहीं पड़ता था । बाक़ी चीनू दीदी पूरे मोहल्ले के लोगों से बतियाती रहती थीं, स्त्रियों से भी और पुरुषों से भी। हमारे चाचा टाइप के लोगों से उनकी ख़ूब पटती थी । वो कॉलेज में पढ़ती थीं और हमारे चाचा टाइप के लोग भी कॉलेज में पढ़ते थे सो हमारे लिये ये स्वाभाविक बात थी । हमारे उस कैम्पस में चाचा टाइप के लोग चार-पाँच ही थे । बाकी उनसे बड़े वाले पुरुष थे जो हम बच्चों के पिता लोग थे । चीनू दीदी की उन पिता टाइप के लोगों में से भी एक दो के साथ अच्छी पटती थी । ख़ैर ये एक और समस्या आ चुकने के बाद भी हम सबका जीवन वैसे ही स्थगित सा चल रहा था । सपने रात में आते थे और दिन भर उनका हैंग ओवर रहता था । ऐसे ही किसी उदास से समय में अचानक ही एक दिन हमारे कानों में, हम सबके कानों में एक वाक्य पड़ा । वाक्य जो हम सबके लिये किसी धमाके से कम नहीं था । मगर ये धमाका भी सुखद धमाका था ।
क़िस्सा ए मुख़्तसर ये कि उस दिन हम सारे बच्चे हस्पताल के नल के पास झुंड बना कर बैठे थे । और वहीं पर खड़ा था सब्ज़ी वाली कान्ता बाई का ठेला । मोहल्ले की सारी महिलाएँ सब्ज़ी ख़रीद रहीं थीं । हम अपनी गप्पबाज़ी में लगे थे । तभी अचानक चीनू दीदी कॉलेज से घर लौटीं । महिलाओं को सब्ज़ी ख़रीदते देखा तो इधर आ गईं । कुछ देर तक अपनी बकर बकर करती रहीं और फिर अपने घर चली गईं । उनके जाते ही महिलाओं का विषय चीनू दीदी हो गईं । इधर उधर की बातें होती रहीं और फिर अचानक ही किसी महिला का स्वर आया ‘कितनी आग भरी है कि दिन भर मुँह मारती फिरती है ।’ आग....? चीनू दीदी में.....? ओ तेरी, ये तो आज ही पता चल रहा है । हमारी पूरी की पूरी मंडली के कान खड़े हो गये । ये हमारे लिये बगल में बच्चा और शहर में ढिंडोरा जैसी ही बात थी । ‘कितनी आग भरी है.......’ ये एक वाक्य हमारे जीवन में उम्मीद की किरण लेकर आया था । उसके बाद महिला मंडली में और भी बातें होती रहीं, कुछ बातें हमें समझ में आईं कुछ बिल्कुल पल्ले नहीं पड़ीं । कांता बाई ने कुछ बातें ऐसी कहीं जिस पर दबे स्वरों में महिलाएं हँसीं । जो बातें हमें समझ में पड़ीं वो भी पीरिया गुरू की कृपा से ही पड़ीं । और उनको सुनने के बाद हम सब हैरत में पड़ गये, कि कितनी गंदी गंदी बातें हो रही हैं चीनू दीदी के बारे में । हम कनखियों से एक दूसरे को देख देख कर मुस्कुरा रहे थे । हमारे बारे में ये समझा जा रहा था कि हम तो कुछ समझ ही नहीं रहे हैं सो कांता बाई की बातों का पूरा महिला मंडल खुल कर आनंद ले रहा था। बीच बीच में कुछ कविताएँ भी कांता बाई कह रही थी जैसे ‘आगड़ जाऊँ , बागड़ जाऊँ, तीन ख़सम मैं रोज बनाऊँ’ । चीनू दीदी के कई सारे रहस्य हम पर उजागर हो रहे थे । हमारी आँखें हैरत से फटती जा रही थीं । हमें दुख बस इस बात का था कि कांता बाई कई सारी बातों में प्रतीक और बिम्बों के माध्यम से बात कर रही थी, जिनको समझना हमारे लिये उस समय तो मुश्किल था, हाँ बाद में पीरिया गुरू से उनको हल करवाया जा सकता था ।
उस दिन हमारी मंडली मानो बादलों पर तैर रही थी । उस दिन की गिलकी बीड़ी बैठक में काफी सारे महत्वपूर्ण मामलों पर विस्तार से चर्चा की गई । सबसे पहली आपत्ति तो यही आई थी कि हम लोग तो दीदी कह चुके हैं, ऐसे में .....। मगर उस आपत्ति को तुरंत इन दलीलों से उड़ा दिया गया कि दीदी तो हमने उम्र का लिहाज़ करते हुए कहा है उसमें सचमुच बहन मानने जैसी कोई बात ही नहीं है । इन दलीलों को पूर्ण बहुमत के साथ स्वीकार भी कर लिया गया । लेकिन अभी भी समस्या ये थी कि इस योजना पर काम कहाँ से शुरू किया जाये और कौन इस योजना पर काम करना शुरू करे । क़मर हसन ने प्रस्ताव रखा कि ‘कद्दू कटेगा तो सब में बँटेगा’ शुरूआत कोई भी करे लेकिन योजना का फल सब को मिलना चाहिये । ये प्रस्ताव तो सर्वमान्य होना ही था । मगर बात वहीं पर उलझी थी कि पहल करेगा कौन ? और ये शुरूआत होगी किस प्रकार से । इस पर काफी बहस के बाद दयानन्द ने कहा कि इस मामले में दो ही विकल्प हैं या तो पीरिया से सलाह ली जाये, मगर उसमें एक ख़तरा ये है कि वो भी इस योजना में शामिल होना चाहेगा । और उसका शामिल होना मतलब फिर हम लोगों के लिये बचेगा ही क्या । फिर अपने मोहल्ले की बात बाहर चली जायेगी, बाहर के लोग भी ट्राई करने आ सकते हैं । दूसरा विकल्प ये है कि इस मामले में भी आत्मा बुलाकर उसीसे पूछ लिया जाय । आत्मा को बुलाकर उससे पूछना यानी ‘प्लेन चिट’ ।
प्लेन चिट हमने अपने चाचा लोगों को करते देख कर सीखी थी । हम बच्चे अक्सर इसे ट्राई करते थे । ज़्यादातर परीक्षाओं में पास फेल के बारे में जानने तथा अपनी डिवीज़न पता करने के लिये । लोहे की टेबल पर चॉक या खड़िया से अंग्रज़ी के अक्षर और अंक गोल घेरे में लिखे जाते थे । गोले के केन्द्र के एक तरफ यस और दूसरी तरफ नो लिखा जाता था । बीच में एक उल्टी कटोरी में किसी की भी आत्मा बुलाकर उससे सवाल पूछे जाते थे। कटोरी के ऊपर दो लोग अपनी उँगली रखते थे । कटोरी में आई आत्मा अंग्रेज़ी के अक्षरों और अंकों के माध्यम से पूछे गये सवाल का उत्तर देती थी । अनपढ़ से अनपढ़ आत्मा भी अपने उत्तर अंग्रेज़ी में ही देती थी । ये काम हम लोग उस घर में करते थे जहाँ कोई नहीं होता था । रात के समय लोहे की टेबल पर उल्टी कटोरी किरकिराती हुई चलती थी तो अजीब दहशत का माहौल कमरे में हो जाता था । अक्सर किसी परिचित की ही आत्मा को हम लोग बुलाते थे, जिसका हाल में ही निधन हो गया हो । कटोरी को अच्छी तरह से धोकर उसमें अगरबत्ती से धूनी देते हुए उस व्यक्ति का नाम लेकर उसकी आत्मा का आह्वान करते थे । और कटोरी को गोले के केन्द्र पर उल्टा रख दिया जाता था । इसके कुछ देर बाद पूछा जाता था ‘क्या आप आ गये हैं ?’ यदि आत्मा आ जाती थी तो कटोरी किरकिराती हुई यस की तरफ चली जाती थी । फिर शुरू हो जाता था प्रश्नों का दौर । गोपनीयता हो तो प्रश्न मन में भी पूछे जा सकते थे । सारे प्रश्न हो चुकने के बाद कटोरी से पूछा जाता था कि क्या आप जाना चाहते हैं, अक्सर कटोरी यस की तरफ बढ़ जाती थी और कहा जाता था कि आप जा सकते हैं । उसके बाद भी उँगली कटोरी से उठाई नहीं जा सकती थी । एक बार फिर से पूछा जाता था कि क्या आप जा चुके हैं । यदि कोई उत्तर नहीं आये तो उँगली हटा सकते थे किन्तु यदि नो उत्तर आ जाये तो उँगली रखे रहो । हमें बताया गया था कि यदि आत्मा के अंदर रहते कटोरी पर से उँगली हटा ली गई तो आत्मा वहाँ बैठे किसी न किसी के अंदर घुस जायेगी ।
प्लेन चिट वाली बात पर तुरंत आम सहमति बन गई । क़मर हसन के घरवाले कहीं बाहर गये हुए थे इसलिये उसी के घर को आत्मा के लिये चुना गया । लोहे की टेबल नहीं थी सो फ़र्श को ही अच्छी तरह से धोकर वहाँ गोला बनाया गया । अपने हाथ पाँव अच्छी तरह से धोकर हम सब उस गोले के चारों तरफ घेरा बना कर बैठ गये । अब प्रश्न था कि आत्मा किस की बुलाई जाये ? अपने किसी रिश्तेदार को बुलाकर उससे इस प्रकार के प्रश्न तो किये नहीं जा सकते थे । ये समस्या भी बड़ी विकट थी । अपने रिश्तेदार या परिचित को बुलाकर उससे कैसे पूछते कि चीनू दीदी....। पिछले दो तीन सालों में मरने वालों के नाम याद किये । कई सारे नामों पर चर्चा की गई और बहुत देर की बहस के बाद तय किया गया कि संजय गाँधी की आत्मा को बुलाया जाये । आत्मा को बुलाया गया । आत्मा कुछ मुश्किल से आई । और आत्मा के आते ही हमारे सवाल शुरू हो गये ।
‘क्या सचमुच चीनू दीदी......?’ दयानंद ने पूछा, बाक़ी का आधा वाक्य मन में पूछा क्योंकि आत्मा से मन ही मन भी पूछा जा सकता था । आत्मा वाली कटोरी सीमेंट के फर्श पर किरकिराती हुई यस की तरफ बढ़ी और उसको छूकर वापस केन्द्र की तरफ आ गई । हम सब की बाँछें खिल चुकी थीं ।
‘चीनू दीदी में जो आग है वो..........?’ सुशील ने बाक़ी का प्रश्न मन में पूछा । उत्तर में कटोरी एक बार फिर से यस को छूकर वापस आ गई ।
‘चीनू दीदी के बारे में जो कांता बाई कह रही थीं क्या वो सब सच है ?’ इस बार राजेश ने पूरा प्रश्न किया, इसमें कुछ भी ऐसा नहीं था जो छुपाया जाये । राजेश के प्रश्न के बाद कटोरी सरकी और यस को छूकर लौट आई । हम सबने एक दूसरे की तरफ देखा और मुस्कुरा दिये ।
‘चीनू दीदी को कौन.......?’ कालू ने पूछा । कटोरी अंग्रेज़ी के अक्षरों की तरफ बढ़ी मगर किसी अक्षर पर न रुक कर गोल गोल घूमने लगी । हम सब भयभीत हो गये । ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ । अचानक हमने देखा कि गोले के बाहर लिखे अक्षरों में आर के बाद सीधा टी लिखा है एस ग़ायब है । हमने तुरंत चॉक से दोनों अक्षरों के बीच में एस लिख दिया । कटोरी अगले चक्कर में एस के सामने रुकी और केन्द्र पर लौट आई । कटोरी कभी भी नाम पूरा नहीं बताती थी, नाम का पहला अक्षर ही बताती थी । एस....? सुरेश, सुशील, सुधीर, शोएब और हाँ मोहन भी क्योंकि उसका घर का नाम सुट्टू था ।
‘इसमें कोई ख़तरा तो नहीं है ?’ पूछने वाला शोएब था । कटोरी किरकिराती हुई बढ़ी और नो को छूकर वापस आ गई ।
‘कितना समय लगेगा ?’ मोहन के प्रश्न पर कटोरी 2 को छूकर आ गई । दो का मतलब क्या ? हमने अनुमान लगाया कि दो माह ही होगा । साल तो हो नहीं सकता ।
‘ऐसा करना कुछ ग़लत तो नहीं होगा ?’ इस बार मोहन ने पूछा । कटोरी कुछ देर में सरकी मगर सरकी नो की तरफ । हम सबने ठंडी साँस ली । एक अपराध बोध मन पर से हट गया ।
रात धीरे धीरे बढ़ रही थी । हम लोगों को अपने अपने घर भी जाना था । और सही बात ये भी थी कि वहाँ क़मर हसन के उस छोटे से कमरे में संजय गाँधी की आत्मा के साथ अकेले में हम सबकी अपने अपने हिसाब से फट भी रही थी । संजय गाँधी के बारे में जो कुछ सुन रखा उसके चलते हम बहुत डरे हुए थे । ज़िदा संजय गाँधी से ही अच्छों अच्छों की फटती थी तो फिर ये तो संजय गाँधी की आत्मा थी । आप ज़रा सोच कर तो देखिये एक छोटा सा कमरा, रात का समय, कुछ बच्चे और संजय गाँधी की आत्मा । किरकिराती हुई कटोरी जब फर्श पर चलती तो हमारी रीढ़ की हड्डी में झुनझुनी होने लगती । बहुत ख़तरनाक माहौल था । इससे पहले हमने हर बार अपने ही किसी रिश्तेदार की आत्मा को बुलाया था सो उनसे डरने की तो कोई बात ही नहीं थी ।
अचानक कटोरी एक बार फिर से चली, हम सब चौंक गये । किसी ने कुछ नहीं पूछा फिर ये कटोरी क्यों चली । कटोरी चली और 7 को छू कर वापस आ गई । सात ? ये सात का क्या मतलब है । हम आश्चर्य में थे कि कटोरी पर उँगली रखा सुशील बोला ‘मैंने पूछा था मन ही मन में । कि मीनू दीदी अभी तक........?’
‘कोई मन में नहीं पूछेगा । यहाँ कौन ऐसा है जिससे छुपाने की बात है । बिला वजह के हालत ख़राब हो जाती है सबकी ।’ क़मर हसन ने कुछ ग़ुस्से में कहा ।
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