चिरइ चुरमुन और चीनू दीदी
(कहानी पंकज सुबीर)
(2)
हम बच्चे फिर हैरान परेशान हो गये कि रानी और सेनापति को साथ देख लिया तो उसमें मार डालने की क्या बात थी । हमने हिम्मत करके प्रश्न किया मगर नानी का उत्तर वही रहा ‘सो जाओ रात हो रइ है ।’ कन्टेन्ट के हिसाब से देखा जाये तो कहानी हॉरर कहानी थी, जिसमें आख़िर में रानी का भूत आता था, मगर हम बच्चे कहानी को सुनने के बाद डरने के बजाय हैरत में थे । हममें से एक ने फिर से हिम्मत की और पूछा कि नानी, रानी में अगर आग भरी थी तो वो ज़िंदा कैसे थी । नानी कुछ कहतीं उससे पहले ही बाहर बैठे नानाजी के बड़बड़ाने की आवाज़ आई ‘कछु समझ भी है कि नइ है ? मोड़ा मोड़ी को कौन सी कहानी सुनाबे की है और कौन सी नइ सुनानी है।’ नानाजी की आवाज़ आते ही कमरे में मानो कर्फ़्यू लग गया, नानाजी का बड़ा ख़ौफ़ रहता था उन दिनों । नानाजी की आवाज़ सुनते ही नानी भी एकदम से चुपा गईं । हम समझ गये थे कि ये जो आग है ये भी एनफ्रेंच की तरह की कोई चीज़ है । इसके बारे में यदि ज़्यादा पूछा गया तो चमाटे पड़ने की संभावना है । रानी के अंदर की उस आग को अपने अपने दिमाग़ में लगा कर हम सो गये ।
कहानी की अगली सुबह हम बच्चे सुबह होने की जैसे प्रतीक्षा ही कर रहे थे । दूध पीया और लोटे उठा कर भागे जंगल की तरफ । नानी के घर में उस समय शौचालय नहीं था। जैसा कि उस समय अमूमन गाँवों में होता था, सुबह होते ही पूरा गाँव जंगल या खेतों की तरफ निकल जाता था, शौच करने के लिये । हम क़स्बे से जाते तो हमारे मन में इस जंगल में शौच करने को लेकर भी एक अतिरिक्त एडवेंचर होता था । क़स्बे में तो घर में ही शौचालय बना हुआ था सो वहाँ ये सुख नहीं था । सावन की ताज़ा ताज़ा उगी हुई घास पर बैठे हैं लोटा लेकर, दुनिया जहान की बातें कर रहे हैं, हँसी मज़ाक कर रहे हैं । हम बच्चे अलग अलग बैठने की बजाय एक साथ ही बैठते थे । एक साथ मतलब थोड़ी थोड़ी दूरी पर ताकि सबको एक दूसरे के चेहरे दिखते रहें । उससे चर्चा करने में आसानी रहती थी । हाँ उस बीच अगर कोई बड़ा बूढ़ा उधर से गुज़रता तो फटकारता हुआ जाता ‘ऐ मोड़ा होन जा बख़त तो चुपाय के बैठा करो । लच्छन नइ सिखाए क्या बाप मतारी ने ।’ उस दिन भी रात की कहानी को लेकर बहुत सारी बातें हुईं । हमने उन बातों में अपनी टीवी की एनफ्रेंच और महीने के उन खास दिनों वाली बात भी जोड़ी । कड़ी से कड़ी जोड़ने की बहुत सारी कोशिशें हुईं लेकिन बात कुछ बनी नहीं । हाँ इतना ज़रूर हुआ कि बड़े मामा के लड़के ने बताया कि ये आग वाली बात वो एक बार और भी सुन चुका है । एक दिन छोटे चच्चू को कलुआ की माँ (मामा के हरवाहे की पत्नी) के घर से निकलते देख अम्मा (नानी) ने खूब हंगामा किया था, और घर बुला कर कलुआ की माँ को डाँटते हुए कहा था ‘काय री कित्ती आग भरी है री तेरे भीतर ?’ । उस दिन छोटी चाची दिन भर ख़ूब रोईं भी थीं । खाना भी नहीं खाया था उनने ।
इस घटना से भी हम किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाये थे, मगर ये ज़ुरूर पता चल गया था कि वो जो आग रानी के अंदर भरी थी वो ही कलुआ की माँ के भी अँदर है । एक हैरत की बात ये लगी कि कलुआ की माँ के घर तो छोटे मामा गये थे, जले तो वो ही होंगे फिर मामी क्यों रोईं । नदी पर नहाते समय ये तय हुआ कि यहाँ से घर लौटते समय हम सब कलुआ के घर जाएँगे । उसकी माँ को देखने, शायद वहाँ से ही कुछ सूत्र मिल जाये । वैसे भी कलुआ के घर हमारा आना जाना था । लौटते समय हम बच्चे योजना के अनुसार कलुआ की माँ के घर गये थे, उन्होंने खूब आवभगत की थी हमारी । चना, गुड़, सत्तू और गुड़ की मीठी चाय भी पिलाई । सब कुछ मिला मगर हम जो देखने गये थे वो हमें नहीं मिला । हममें से एक दो ने कलुआ की माँ के हाथ से गुड़ चने की प्लेट पकड़ने के बहाने उनको छूकर भी देखा, डरते डरते । डरते डरते इसलिये कि कलुआ की माँ की आग हमें जला न दे और फिर अम्मा हंगामा न कर दें पिछली बार की तरह । मगर कलुआ की माँ में हमें कहीं आग का कोई निशान नहीं दिखा था। उनके हाथ तो बिल्कुल हमारी ही तरह ठंडे थे ।
और फिर नानी के गाँव से हम वापस क़स्बे लौट आये अपने अनुत्तरित प्रश्नों को लेकर । इस बार जब हम गाँव से लौटे तो हमारे पास अपने कैम्पस के दोस्तों के साथ डिस्कस करने के लिये एक नया विषय था, आग का विषय । मगर अफ़सोस की हमारी टोली का सबसे बड़ा से बड़ा बंदा भी इस आग के बारे में कुछ नहीं जानता था कि ये आग क्या होती है । ज़िंदगी फिर से पुराने ढर्रे पर आ गई थी। वही स्कूल-विस्कूल और वही टीवी-वीवी । हम उसी प्रकार दूरदर्शन की संडे वाली फिल्में देखते हुए बड़े होने लगे । फिल्में हम केवल मारधाड़ के लिये देखते थे । साँस रोक के इंतज़ार करते थे कि कब ‘ढिशुम ढिशुम’ शुरू होगी । हीरो कब गद्दार (विलन को हम लोग गद्दार कहते थे ।) की पिटाई शुरू करता है । जैसे ही शुक्रवार को संडे की फिल्म के नाम की घोषणा होती हमारी टोली इस बात की खोज में लग जाती कि फिल्म में बुटबाज़ी (मारधाड़) है कि नहीं और है तो कितनी है । हीरो और हीरोइन की चिपका चिपकी हमें बिल्कुल पसंद नहीं आती थी, हमें समझ ही नहीं आता था कि ये लोग ऐसा कर क्यों रहे हैं । क्यों अचानक पेड़ के पीछे से हीरोइन अपने होठों पर हाथ रखे निकलती है और पीछे हीरो शरारत से मुस्कुराता हुआ आता है । ऐसे ही एक संडे को एक फिल्म दूरदर्शन पर आई जिसका नाम था आप आये बहार आई, फिल्म में बड़ा अजब सा कुछ हुआ । हीरो, हीरोइन और गद्दार तीनों एक रेस्ट हाउस में ठहरे थे । हीरो और हीरोइन दोनों को पता नहीं था कि गद्दार के मन में गद्दारी है । हीरोइन रात को उठकर हीरो के कमरे में आई, कमरे में अंधेरा था केवल एक तरफ आग (फायर प्लेस) जल रही थी । हीरोइन चादर ढंक कर सोते हुए हीरो के पैरों के पास बैठ कर प्यार मोहब्बत के डॉयलाग बोलने लगी । हीरो ने उसे चादर में खींच लिया और उसके बाद कैमरा कमरे में एक तरफ जलती हुई आग पर चला गया । आग के बाद एकदम हीरोइन के ज़ोर से चीखने की आवाज़ आई । हीरो जो हक़ीक़त में कमरे में नहीं था बल्कि, बाहर झील के पास बैठा था वो हीरोइन की चीख सुनकर वहाँ से दौड़ता हुआ आया । हीरोइन दौड़ती हुई कमरे से बाहर आई और हीरो के गले लग के रोने लगी ‘मैं लुट गई, मैं लुट गई ।’ और बात की बात में दोनों गाना गाने लगे कि ‘मुझे तेरी मुहब्बत का सहारा मिल गया होता, अगर तूफाँ नहीं आता किनारा मिल गया होता ।’
दूसरे दिन हमारी टोली के पास दो और ज्वलंत विषय थे चर्चा करने के लिये । हमारी टोली हस्पताल के पीछे के सुनसान इलाके में गिलकी बीड़ी पीने एकत्र हुई तो चर्चा इसी बात पर थी । गिलकी बीड़ी हमारा ही आविष्कार था, गिलकी की सूखी हुई बेल का बीड़ी के बराबर टुकड़ा तोड़ कर उसे एक तरफ से सुलगा कर बीड़ी की तरह पीना । बेल का सूखा तना अंदर से स्पंजी होता था और बीड़ी की तरह काम करता था । इस काम में गिलकी, लौकी, कद्दू, ककड़ी किसी की भी सूखी हुई बेल का उपयोग किया जा सकता था, लेकिन आविष्कार के आधार पर हम उसे गिलकी बीड़ी ही कहते थे । तो चर्चा में सुरेश का कहना था कि हीरोइन झूठ बोल रही थी कि मैं लुट गई मैं लुट गई, जबकि वो जब कमरे में गई थी तो कोई ऐसा सामान लेकर ही नहीं गई थी जिसको कोई लूटे । सुधीर का कहना था कि दोनों जने मिल कर गाना भी झूठा गा रहे हैं कि अगर तूफाँ नहीं आता, जबकि कहीं कोई तूफान आता हुआ फिल्म में नहीं दिखाया है । मोहन को इस बात पर हैरानी थी कि हीरोइन बार बार ये क्यों कहती रही कि अब मैं आपके लायक नहीं बची । हाँ मनीष ने अलबत गंभीर टिप्पणी की थी ये कह कर कि हीरोइनी (मनीष हीरोइन को हीरोइनी ही कहता था उसको लगता था कि हीरो का स्त्रीलिंग बनाने के लिये ई की मात्रा आख़िर में जुरूरी है जैसे मास्टर की मास्टरनी, डॉक्टर की डॉक्टरनी आदि आदि) जब बिस्तर पर गई तो वहाँ हीरो तो सो नहीं रहा था, वहाँ तो प्रेम चोपड़ा था । प्रेम चोपड़ा ने ही ज़रूर कुछ ऐसा किया जिसे हीरो हीरोइनी तूफान कह रहे हैं । जब हीरोइनी कमरे से बाहर आकर हीरो के गले लगी थी तो उसकी मेक्सी (उस समय नाइटी नहीं कहलाती थी ) की एक तरफ की बाँह फटी हुई थी । इस गंभीर टिप्पणी पर हम सब सहमत थे, क्योंकि प्रेम चोपड़ा हर फिल्म में ग़लत काम ही करता था । सहमत होने के अलावा कोई और चारा भी तो नहीं था । हम सब में सबसे हरामी माना जाने वाला क़मर हसन अपनी गिलकी बीड़ी को पूरी कर चुका था उसका कहना था कि कैमरे को ग़लत समय आग की तरफ घुमा दिया गया, अगर थोड़ी देर और पलंग पर टिकाये रखते तो पता चल जाता कि कौन सा तूफान आया था । जैसे ही गद्दार ने हीरोइन को ऊपर खींचा वैसे ही सालों ने कैमरा आग की तरफ कर दिया । बहरहाल हुआ ये कि हमारे और बहुत सारे सवालों की ही तरह ये सवाल भी अनसुलझा रह गया कि आप आये बहार आई में आख़िर वो कौन सा तूफान आया था ।
इसी बीच हम लोगों के साथ एक बड़ी शर्मनाक घटना हुई । हालाँकि हम लोगों की नज़रों में वो शर्मनाक घटना न होकर धार्मिक घटना थी, लेकिन, बड़े लोगों का मानना था कि वो अत्यंत शर्मनाक घटना थी । जिसके बाद हम लोग कुछ दिनों तक किसी को मुँह दिखाने के क़ाबिल भी नहीं रहे थे । हुआ दरअसल ये था कि हमारे क़स्बे में कुछ दिनों के लिये साधुओं की एक टोली आई हुई थी । हमें नहीं मालूम कि वो साधु कौन थे, कहाँ से आये थे, किस धर्म के थे, किन्तु, वो साधु पूरी तरह से नग्न रहते थे । एक दो दिन के लिये वो हमारे शहर में आये थे । हम अक्सर स्कूल आते जाते उनको शहर में घूमते देखते थे । लोग उनकी खूब आवभगत करते थे । आगे आगे साधु चलते थे और उनके पीछे पीछे उनके भक्तों की टोली जय जय कार करती हुई चलती थी । हमें ये खेल बहुत पसंद आया । एक दिन संडे को जब हस्पताल का पूरा कैम्पस सूना पड़ा था (वैसे भी हमारे उस छोटे से हस्पताल में मरीज़ आते ही कहाँ थे ) । तो हम लोग चुपके से स्टोर रूम के पीछे के बरामदे में इकट्ठे हो गये । ये बरामदा दोपहर बाद सन्नाटे में डूब जाता था। बस वहाँ पर हमने साधु-साधु का खेल शुरू कर दिया । हममें से आधे लोग साधु बन गये (ठीक उन्हीं साधुओं की तरह)और बाक़ी के हम उनके भक्त बन गये । भक्त वही लोग बने थे जिनका ज़मीर उनको साधु बनने की इजाज़त नहीं दे रहा था । वैसे तो हमारी प्लानिंग ये थी कि सभी लोग ही साधु बनेंगे, और इसके लिये सभी सहमत भी थे । लेकिन, कुछ लोगों ने यहाँ बरामदे में आने के बाद हौसला छोड़ दिया और साधु बनने से एकदम साफ ही इनकार कर दिया । खेल नहीं बिगड़े इस कारण बहस नहीं करते हुए उनको भक्त बना दिया गया था।
साधुओं ने अपने कपड़े उतार कर एक तरफ रख दिये और बरामदे में गंभीरता से टहलना शुरू कर दिया । क़मर हसन साधुओं का सरदार बना हुआ था । बाक़ी के लोग उनके पीछे पीछे जय जय कार करते हुए भक्तों की तरह घूम रहे थे । भक्त गण पीछे से गुलतेवड़ी, ज़ीनिया और गेंदे फूलों की पंखुड़ियाँ साधुओं पर उछाल रहे थे । कुल मिलाकर बहुत ही भक्तिमय माहौल बना हुआ था । अभी हमारा खेल चल ही रहा था कि अचानक कम्पाउण्डर आ गये, उन्होंने हमारे साधुओं को देखा तो ग़ुस्से से चिल्ला पड़े ‘क्या हो रहा है ये सब ?’ । बात की बात में और लोग भी एकत्र हो गये । हममें से भक्तों का तो कुछ नहीं, लेकिन साधुओं का बुरा हाल था, क्योंकि, साधु तो साधु अवस्था में थे । सारे साधु रो रहे थे और भक्त सिर झुकाए खड़े थे। लेकिन बाद में जब हम सबकी अपने अपने घरों में पिटाई हुई तो उसमें साधु और भक्तों को समान रूप से मारा गया, उसमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया । क़मर के अब्बा ने उसे पछीट-पछीट (धोबी जिस प्रकार कपड़ों को पटक पटक कर धोता है उस प्रकार) कर मारा था । हमारे कई सारे सवालों में एक सवाल ये भी बढ़ गया था कि हम ग़लत कहाँ थे, हमने तो साधुओं की नक़ल की थी । जब वे असली साधु लोग इसी प्रकार की अवस्था में शहर में घूम रहे थे तो पूरा का पूरा शहर उनकी जय जय कार, उनका स्वागत कर रहा था और हमने जब वो किया तो हमें सज़ा मिली । हमने तो धार्मिक काम किया था, उसमें ऐसा क्या हो गया कि हमें इस प्रकार जानवरों की तरह मारा गया ।
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