योगिनी
17
हेमंत और शरत को नींद तो पहले भी नहीं आ रही थी और चाय पीने से जब शीत लगना भी कम हो गया, तो हेमंत ने कथा की डोर को पुनः पकड़ लिया। उसने मीता के वापस आ जाने पर भुवन की उसके प्रति बढ़ी हुई आसक्ति की बात रससिक्त शब्दों में सुनाई। फिर गम्भीर होकर बताया कि योगी जब योगिनी की आसक्ति में आकंठ डूबे हुए थे तभी माइक का, यह जानने हेतु कि मीता बिना बताये अमेरिका से वापस क्यों चली आई थी, आश्रम पर पुनरागमन हो गया। योगिनी अपने खुले दिल के स्वभाववश एवं अमेरिका में रह चुकने से आये अभ्यासवश माइक से बड़े खुले मन से मिलीं थीं, जिसे योगी सामान्य रूप में न ले सके थे। तत्पश्चात हेमंत ने योगी के पुनः आशंकाग्रस्त हो जाने, अवसाद की स्थिति में रात्रिकाल में चुपचाप मानिला छोड़कर चले जाने और हेड़ाखान, जागेश्वर, पातालभुवनेश्वर होते हुए आदिकैलाश के निकट पहुंच जाने, और किसी संन्यासिनी द्वारा उसके प्रति आसक्ति के उच्छृंखल प्रदर्शन करने पर मानिला वापस आ जाने की सुनी सुनाई घटनाओं का वर्णन किया। हेमंत ने बताया कि योगी के चले जाने पर योगिनी गम्भीर अवश्य हो गई थीं परंतु उनके मुख पर यदा कदा ही विषाद की छाया परिलक्षित होती थी, तथा उसने उन्हें कभी अश्रु बहाते हुए नहीं देखा था और न योगी की भांति प्रलाप करते हुए। योगिनी उूपर से जितनी हंसमुख एवं कोमलमना दिखाई देतीं थीं, अंतर्मन से उतनी ही दृढ़ एवं कठोर थीं। योगी की अनुपस्थिति में वह आश्रम का कार्य यथावत चला रही थीं और दर्शनार्थियों को किसी अभाव की अनुभूति नहीं होने देतीं थीं- बस यदा कदा योगिनी का व्यवहार कुछ रुक्ष हो जाता था। यह रुक्षता ही इस बात की द्योतक थी कि कोई झंझावात उनको उद्वेलित करता रहता था, परंतु उस गरल को वह शंकर सम अपने कंठ में अटका लेतीं थीं। फिर जिस प्रकार योगी अकस्मात अंतर्धान हो गये थे, उसी प्रकार अकस्मात एक दिन प्रकट हो गये।
योगी के वापस आने पर योगी एवं योगिनी ऐसे प्रेमपूर्वक रहने लगे थे जैसे कुछ अघट घटा ही न हो। कुछ दिनों पश्चात ज्ञात हुआ कि योगिनी ने अपने अमेरिका चले जाने के कारण का और योगी ने अपने मानिला से दूर चले जाने के कारण का एक दूसरे को स्पष्टीकरण दे दिया था। योगिनी ने बताया था कि योगी के मन में उठने वाले झंझा को शांत करने के लिये उसे कुछ समय का विछोह आवश्यक प्रतीत हुआ था, अतः वह कुछ माह के लिये माइक के साथ चली गई थी। योगी ने बताया था कि माइक के पुनरागमन एवं योगिनी के उसके साथ खुलेपन से वह अवसादग्रस्त हो गया था एवं अवसाद की उन्मत्त अवस्था में यह सोचकर गया था कि अब कभी वापस नहीं आयेगा। विभिन्न तीर्थों में घूमते घूमते उसे आदि कैलाश ऐसा भा गया था कि यदि सन्यासिनी सुमना द्वारा उसके साथ अघटनीय आचरण न कर दिया गया होता, तो वह वहीं बस जाने का मन बना रहा था। योगी ने ऐसे मन से आदि कैलाश की अनिर्वचनीय सुंदरता की प्रशंसा की थी, जैसे वह उनके मानस में बस गई हो और उनको पुनः वहां आने को बाध्य कर रही हो।
हेमंत कुछ देर के लिये रुक गया जैसे अपने भावों को समुचित शब्दों में पिरोने का प्रयत्न कर रहा हो। फिर बोला,
‘‘योगी तथा योगिनी के पारस्परिक व्यवहार का अवलोकन कर मुझे अब ऐसा लगने लगा था कि उनके प्रेम का प्रवाह एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गया था, जहां से किसी सरिता के लिये उूबड़-खाबड़ रास्ते समाप्त होकर समुद्र के निकट की सीधी और शनैः शनैः ढलने वाली भूमि का आरम्भ हो जाता है। आरम्भिक प्रेम में प्रेमियों के मध्य संयोग का उछाह, वियोग की कसक, किसी तृतीय की उपस्थिति से आशंका का उद्भव, उलाहना, आशंकाओं के निर्मूल सिद्ध होने पर अश्रुपूरित नेत्रों के साथ हृदयों का पुनर्मिलन, एवं पुनः एक दूसरे में समा जाने की अदम्य इच्छा सामान्य व्यवहार हैं। एक दूसरे के लम्बे संग-साथ से उत्पन्न पारस्परिक विश्वास से एक ऐसी मनःस्थिति का उद्भव, जिसमें प्रेमी का प्रत्येक व्यवहार संतोष का स्रोत बने और उसके द्वारा दूरी बनाये रखना भी क्लेश न उत्पन्न करे वरन् केवल उसकी मजबूरी प्रतीत हो, प्रेम की सीमा हो सकती है। परंतु यह स्थिति इस परिणति का द्योतक भी है कि कूलांे कगारों को तोड़ने वाली उच्छ्ंखल सरिता अब सागर के निकट पहुंच रही है और उसमें समाने वाली है। यह मोक्ष की स्थिति की निकटता है- और मोक्ष चाहे उसको प्राप्त करने वाले के लिये परमानंद का दाता हो, उसके चाहने वालों के लिये केवल दुख का कारण होता है। मेरी समझ में उद्वेलन ही जीवन है और जीवन के उद्वेलन को बनाये रहने की चाह स्वाभाविक प्रकृति है। हां, जीवन एवं समाज में सामंजस्य बनाये रखने के लिये उद्वेलन को एक सीमा में नियंत्रित रखना आवश्यक होता है।
मैने जब से योगी एवं योगिनी के मघ्य ऐसी प्रशांत स्थिति उत्पन्न होने का आभास पाया था, मेरा अपना मन उद्विग्न रहने लगा था।’’
***
हेमंत फिर कुछ रुककर बताने लगा कि पता नहीं प्रकृति का यह क्या नियम है कि कोई परिस्थिति, वस्तु अथवा भाव स्थायी नहीं रह पाते हैं। योगिनी एवं योगी द्वारा एक दूसरे के गिले-शिकवे दूर कर देने, एवं मन-वचन से पूर्णतः समर्पित होकर दिन बिताने लगने के कुछ दिन पश्चात ही लखनउू से उसके पति अनुज का पत्र आ गया था, जिसमें उसने बीमारी के कारण अपनी गम्भीर एवं असहाय स्थिति का वर्णन करते हुए सहायता हेतु मीता से लखनउू आने की याचना की थी। मीता जाने में हिचकिचा रही थी, परंतु योगी ने उससे ऐसी नीतिगत बात कह दी थी कि कोमलमना मीता द्रवित हो गई थी और लखनउू चली गई थी। उसने अपनी सेवा सुश्रूषा से कुछ माह में ही अनुज को रोगमुक्त कर दिया था परंतु स्वस्थ होते ही अनुज ने अपनी प्रकृति के वशीभूत होे उसके साथ ऐसा कुछ कर दिया था कि वह रातोंरात मानिला वापस आ गई थी।
फिर हेमंत एक उच्छवास भरकर बोला,
‘‘परंतु दुर्दैव, इस बार योगिनी को मंदिर सूना मिला। योगी कहीं जा चुके थे। वास्तविकता यह थी कि अनुज का पत्र आने पर योगी ने मानवता एवं कर्तव्य की बात कह कर योगिनी को लखनउू चले जाने की सलाह तो दे दी थी, परंतु उनकी योगिनी को दी गई इस सलाह का प्रेरक उनका मस्तिष्क मात्र था, हृदय नहीं था। योगिनी के सान्निध्य में योगी आत्मविश्वासपूर्ण रहते थे अतः मस्तिष्क की बात मानकर उन्होंने योगिनी को उनका कर्तव्य बता दिया था। यद्यपि उस समय भी योगी के अंतर्मन में एक आस छिपी हुई थी कि योगिनी उनकी सलाह के विरुद्ध जाकर लखनउू जाने से मना कर देगीं, परंतु योगिनी के लखनउू चले जाने के पश्चात उन्हें अनेक आशंकायें सताने लगीं थीं। प्रथमतः तो उन्हें संदेह था कि हो सकता है कि अनुज बीमार न हो और उसने योगिनी को बुलाने मात्र के लिये बीमारी का बहाना बनाया हो, द्वितीय यह कि पता नहीं लखनउू पहुंचने पर अनुज योगिनी के साथ कैसा व्यवहार करे और कहीं उसे शारीरिक क्षति न पहुंचा दे, तृतीय बड़ी आशंका यह थी कि अनुज योगिनी को अपने प्रेमजाल में पुनः फंसाने का प्रयत्न न करे, और चतुर्थ सबसे असहनीय आशंका यह थी कि अनुज की सेवा-सुश्रूसा करते-करते कोमलमना योगिनी के मन की सहानुभूति कहीं उसके प्रति प्रेम को पुनर्जाग्रत न कर दे- आखिरकार वह वर्षों तक उसकी पत्नी रह चुकीं थीं। जब ऐसे विचार आने प्रारम्भ हुए तो प्रारम्भ में तो योगी उन्हें खाली दिमाग़ की ख़ुराफ़ात मानकर उनसे छुटकारा पा लेते थे, परंतु जैसे जैसे दिन बीतने लगे, खा़ली दिमाग़ की यह ख़ुराफ़ात उनके मन पर हाबी होने लगी। दिन मंे तो योगी अपने को आश्रम के कार्यों मंे व्यस्त रखकर अपनी आशंकाओं को मन के अंधेरे कोने में दबाये रहते थे, परंतु रात्रि के एकाकीपन में उनकी आशंकायें उन्हें असंयत एवं अवसादग्रस्त कर देतीं थीं। इस बार योगी उसके साथ उठने-बैठने से कन्नी काटते थे, अतः वह योगी को केवल सायंकालीन वनभ्रमण के दौरान लुकछिपकर दूर से देख पाता था।’’
फिर मुख पर गर्व का भाव लाते हुए हेमंत आगे बोला
‘‘वह योगी एवं योगिनी के हावभाव को इतना समझता था कि उनके मुखमंडल पर उसकी एक दृष्टि ही उनकी मनोदशा को खुली किताब की भांति पढ़ लेने को पर्याप्त होती थी।
योगिनी के लखनउू पहुंचने के पश्चात उनका एक पत्र योगी को मिला था, जिसमें उन्होंने लखनउू सकुशल पहुंच जाने एवं अनुज के वास्तव में गम्भीर बीमार होने की बात लिखी थी। अतः स्वयं के लम्बे समय तक लखनउू में रुकने की आवश्यकता बताई थी। इससे योगी की प्रथम दो आशंकाओं का तो समाधान हो गया था, परंतु तृतीय और चतुर्थ आशंकाओं ने और अधिक बलपूर्वक उनके मन कोे जकड़ लिया था।
एक प्रातः जब साधकगण मंदिर पर पहुंचे, तो देर तक प्रतीक्षा करने पर भी योगी अपने कमरे से नहीं निकले। जानकारी हेतु कमरे में जाने पर योगी वहां नहीं मिले। ग्रामवासियों द्वारा पर्याप्त खोजबीन करने पर भी जब उनका कोई पता नहीं चला, तो उन्होंने समझ लिया कि पहले की भांति तीर्थाटन पर निकल गये होंगे। कुछ दिन उपरांत जब योगिनी लखनउू से लौटीं, तो योगी को मंदिर पर न पाकर उन्हें गम्भीर मानसिक आघात लगा और वह गुमसुम सी रहने लगीं। उनकी दशा देखकर मेरे मन को असह्य पीड़ा होती थी, परंतु मेरे द्वारा उनसे बातचीत कर उनके मन को शांत करने के सभी प्रयत्न व्यर्थ गये। एक रात्रि में चुपवाप वह भी मंदिर छोड़कर कहीं चलीं गईं। उनकी खोजबीन का प्रयत्न भी व्यर्थ गया।’’
यह कहते कहते हेमंत रुंआसा हो गया। अपने को सप्रयत्न संयत करने के उपरांत आगे बोला,
‘‘पता नहीं मीता-भुवन अब कहां और किस दशा में हैं और पता नहीं कि वे इस संसार में हैं भी या नहीं?’’
यह कहते कहते हेमंत के नेत्र पुनः अश्रुपूरित हो गये और वह अपनी हिचकियों को छिपाता हुआ शरत से बिना कुछ कहे अपने कमरे में जाकर लेट गया।
शरत भी बहुत थक चुका था और हेमंत की मनोदशा को देखकर समझ गया था कि अब उससे कुछ पूछना ठीक न होगा। अतः मुंह ढककर सो गया।
***
प्रातः होने पर हेमंत जल्दी ही जाग गया। आज भी आकाश में घटाटोप बादल छाये हुए थे और किसी भी क्षण हिमपात पुनः प्रारम्भ होने के लक्षण विद्यमान थे। हेमंत शरत को अपनी कुछ बात बताने को उतावला हो रहा था, परंतु शरत गहरी नींद में सोया हुआ था। हेमंत दैनिक कार्यों से निवृत होकर शरत के जागने की प्रतीक्षा करने लगा। फिर देर होते देख वह बगल के कमरे मंे बंद भैंस को चारा पानी देने चला गया। सर्दी और जंगली जानवरों से बचाने के लिये भैंस का कमरा पूरी तरह बंद एवं अंधकारमय था, परंतु भैंस हेमंत द्वारा दरवाजा़ खोलते ही खड़ी होकर और नथुने फुलाकर ऐसी उतावली से उसे देखने लगी जैसे कोई वियोगिनी चिरप्रतीक्षा में बैठी हो और तभी उसका प्रेमी आता दिखाई पड़ जाये। हेमंत ने उसे गर्दन और पीठ पर सहलाया और भैंस ने अपनी गर्दन हिला हिला कर उस प्यार भरे स्पर्श को स्वीकार किया। फिर हेमंत ने फ़र्श से गोबर को हटाकर बाहर गड्ढे में डाला और नांद में भूसा डालकर पानी डाला। भैंस भूसा खाने में व्यस्त हो गई और हेमंत शरत को देखने चला आया। इस बीच शरत जागकर और नित्यकर्म से निवृत होकर चाय की प्रतीक्षा कर रहा था। हेमंत शरत को देखकर मुस्कराया और शरत के बिना कुछ कहे ही बोला,
‘‘अभी चाय लाता हूं।’’
हेमंत ने जैसे ही एक गिलास चाय शरत को थमाई और दूसरे को अपने हाथ में लेकर उसकी उूष्मा्र अपनी हथेली पर लेना प्रारम्भ किया, तभी बोला,
‘‘आज रात मैं एक पल भर को भी सो न सका। एक अनोखा दिवास्वप्न देखता रहा।’’
शरत के चेहरे पर व्याप्त उत्सुकता को देखकर हेमंत को पुनः इस संतुष्टि की अनुभूति हुई कि वह एक सुपात्र को अपने इष्टद्वय की जीवनगाथा सुना रहा है, और उसने शरत की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किये बिना आगे कहना प्रारम्भ किया,
‘‘पता नहीं मैं तब कैसी तंद्रित अवस्था में था, जब मैने पाया कि मैं हिमाच्छादित सड़क को लांघता फांदता मानिला मल्ला मंदिर की ओर मंत्रमुग्ध सा बढ़ता चला जा रहा हूं। वहां पहुंचकर मैं सीधे उस देवदार के वृक्ष के निकट जाकर उसके तने के सहारे खड़ा हो गया, जिसकी आड़ से मैं प्रायः योगी और योगिनी को देखा करता था। फिर एकाग्र होकर सामने योगी और योगिनी को देखने का प्रयत्न करने लगा। पहले तो मुझे आकाश से झरते हिमकणों के अतिरिक्त कुछ दिखाई्र नहीं दिया और मैं योगी एवं योगिनी की स्मृति में व्याकुल होने लगा। मेरे नेत्रों में अश्रु भर आये और बहने को उद्यत होने लगे, कि तभी धुंधलके में मुझे पीठ पीछे से योगी दिखाई दिये और उनके बांये हाथ में अपना दाहिना हाथ डाले योगिनी दिखाई दीं। मैं उन्हें पुकारने लगा परंतु मुझे लगा कि मेरी आवाज़ नहीं निकल रही है, कि तभी योगिनी मुस्कराती हुई पीछे मुड़ीं और मेरी ओर बड़ी आत्मीयता से देखती हुई बोलीं,
‘हेमंत! इस बार तुम हमें अंतिम बार देख रहे हो। इसके पश्चात हमें देखने हेतु तुम्हें लम्बी प्रतीक्षा करनी होगी।’’
...............................