Yogini - 16 in Hindi Moral Stories by Mahesh Dewedy books and stories PDF | योगिनी - 16

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योगिनी - 16

योगिनी

16

मानिला में तीन दिन से बर्फ़ गिर रही थी- सर्वत्र रजत-श्वेत का साम्राज्य था।

अल्मोड़ा जनपद का यह ग्राम पर्यटक स्थलों के सामान्य मार्ग से अलग स्थित होने के कारण अभी भी अपना नैसर्गिक सौंदर्य बचाये हुए है। यद्यपि सड़क के किनारे बसे होने के कारण बस, बिजली, फोन, पोस्ट आफ़िस, कालेज जैसे आधुनिकता की द्योतक सुविधायें यहां आ गईं हैं और निकटस्थ पर्वत के एक शिखर पर एक सरकारी डाकबंगला भी बन गया है तथापि बाहरी लोगों का आवागमन अभी भी सीमित ही है। अतः न तो यहां की छटा ने और न यहां के लोगों ने पर्वतीय कौमार्य अभी तक पूर्णतः खोया हे। कई वर्ष पश्चात इस जाड़े में जमकर हिमपात हुआ है। पिछले पांच दिन से सूर्य के दर्शन नहीं हुए हैं और रुकरुककर आकाश से रजतकणों सी चमकीली हिम गिरने लगती है-- सड़क के दोनों ओर बर्फ़ के अम्बार लग गये हेैं, और किनारे स्थित वन की झाड़ियों की पत्तियां बर्फ़ से ढक जाने के कारण श्वेताम्बर हो गईं हैं। चीड़ और देवदार की नुकीली पत्तियां श्वेत रंग की सुई बन गई्रं हैं। हिमपात के रुकने पर बीच-बीच हो जाने वालीे बरसात एवं हाड़ में समा जाने वाली शीत के कारण लोगबाग घरांे से बाहर नहीं निकल रहे हैं। एक छोटा दरवाजा़ छोड़कर चारों ओर से बंद नीची छत वाली पर्वतीय पशुशलाओं में पालतू पशु भी दुबके हुए हैं। पक्षी घबराये से वृक्षों की पत्तियों की आड़ में अपने को छिपाने का प्रयत्न कर रहे हैं- बस बादल के गरजने पर किसी किसी पक्षी की भयातुर चीत्कार सुनाई दे जाती है।

मानिला ग्राम पहाड़ी ढलान पर बसा है और सड़क ग्राम के उूपर से जाती है। बस स्टेंड एक चोटी पर है। परंतु माँ अनिला/मल्ला/ का मंदिर उससे काफी़ उूंची निकट की दूसरी चोटी पर स्थित है। बीच में वनाच्छादित क्षेत्र होने के कारण बस स्टेंड से मंदिर दिखाई नहीं देता है।

आज दिन में बस स्टेंड पर प्रातः से केवल एक बस आई है और वह भी लगभग खाली। बस स्टेंड पर चाय की दूकान लगाये हेमंत जानता है कि आज शायद ही कोई ग्राहक आये, परंतु तीन साल की आयु से, जब वह पिता की उंगली पकड़कर चलता था, पहली बस के आने के समय से अंतिम बस के चले जाने के समय तक प्रतिदिन इस दूकान पर बैठने के कारण यह चाय की दूकान उसकी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गई है; और जब तक अंतिम बस के आने का समय निकल न जाये, तब तक दूकान को छा़ेड़कर जाना उसे एक अपराधबोध सा कराने लगता है। अब हेमंत अधेड़ हो चला है, परंतु उसके जीवन में शायद ही कोई ऐसा दिन बीता हो, जब हेमंत अपनी दूकान पर न बैठा हो- आंधी, तूफ़ान और बर्फ़बारी ने उसकी बिक्री को अवश्य प्रभावित किया है, परंतु चाय की दूकान से उसकी लगन को नहीं। ग्रीष्म के दिनों में अंतिम बस के चले जाने के पश्चात उसकी दूकान गांव के निठल्ले युवकों का अड्डा बन जाती है और चाय की चुस्की के साथ वे घर घर में होने वाली तू-तू, मैं-मैं, युवा दिलों में पलने वाले प्रेम-प्रसंगों, और गांव से लेकर देश-विदेश की राजनीति की झूठी-सच्ची कहानियां चटखारे लेकर कहते हैं। हेमंत्र ऐसे अवसरों पर उन्हें बड़े ध्यान से सुनता रहता है परंतु स्वयं चुप रहता है, और अंतरंग विषयों में अपनी गहरी दिलचस्पी को प्रकट नहीं होने देता है। इससे वह सबका विश्वासपात्र है और उसके सामने किसी की भलाई-बुराई करने मंे कोई संकोच नहीं करता है। उसके मानस में छिपा सबसे प्रिय प्रकरण है माँ-अनिला मंदिर के योगी भुवनचंद्र एवं उनकी प्रेमिका योगिनी मीता के प्रेम के अंकुरण, प्रस्फुटन, एवं प्रेम तरंगों में आने वाला उतार चढ़ाव, जिसको वह अपनी किशोरावस्था से देखता परखता रहा है। उसे इस प्रकरएा के विभिन्न आयामों का न केवल गहराई तक ज्ञान है वरन् उसकी उसमें हृदय की गहराई से अभिरुचि भी रही है। उसने उस ज्ञान को सदैव अपने हृदय के अंतस्तल में किसी कृपण द्वारा स्वर्णाभूषण को छिपाकर रखने की भांति ही छिपाकर रखा है।

उस दिन रामनगर से आने वाली आखिरी बस से मानिला बस स्टेंड पर केवल एक यात्री उतरा था- शरत, जो लखनउू का एक खोजी पत्रकार है। बर्फ़ के कारण फिसलन भरी सड़क पर बस केंचुए की तरह रेंगकर आई थी और दो घंटे लेट होकर देर शाम मानिला पहुंची थी। बस में उसके अतिरिक्त केवल तीन यात्री और थे, जिन्हें वहां नहीं उतरना था। उस समय सायंवेला की समाप्ति पर चहुंओर छा जाने वाला धुंधलका अपना साम्राज्य विस्तृत कर रहा था। हिमपात थम सा गया था- केवल एक दो रजतकण कभी कभी गिरते हुए दिखाई दे जाते थे। शरत प्रथम बार मानिला आया था और रात्रि विश्राम के विषय में अनिश्चितता के कारण उद्विग्न एवं चिंतित था। विश्व हिंदू परिषद ने भारत के प्रसिद्ध साधु-सन्यासियों पर एक शोध ग्रंथ निकालने की योजना बनाई थी। इसी सम्बंध में शरत को उत्तराखंड के प्रसिद्ध मानिला मंदिर के योगी एवं योगिनी के विषय में शोध हेतु अनुबंधित किया था। वह जब रामनगर से चला था तो वहां आकाश में यत्र तत्र रुई के पर्वताकार फोहे सम उड़ने वाले बादलों के अतिरिक्त आकाश स्वच्छ था, परंतु बस जैसे जैसेे आगे बढ़ती गई गई थी, वैसे वैसे बादल धने होते गये थे और ठंड बढ़ती गइ्र्र थी। फिर तेज़ हवाओं के साथ बारिश होने लगी थी और साढ़े चार हजा़र फ़ीट की उूंचाई आते आते हवा रुक गई थी ओर हिमकण हवा में तैरते हुए नज़र आने लगे थे। आगे बढ़ने पर हिमपात अनवरत सा हो गया था। कहीं कहीं अकस्मात हिम का तूफ़ान सा आ जाता था और ड्ाइवर बस को एक ओर खड़ी कर देता था। तूफ़ान के थमने पर वह बस को पुनः स्टार्ट करता था। शरत के लिये हिमपात में यात्रा का यह प्रथम अवसर था, अतः उसे संकट के आभास के साथ रोमांच भी हो रहा था। मानिला के सूने एवं अंधकारमय बस स्टेंड पर चाय की दूकान खोले हुए हेमंत उसे एक फ़रिश्ते के समान लगा था। हेमंत चायवाला उसे बस से उतरते देख अपनी आदत के अनुसार मुस्करा दिया था। शरत बस से उतरकर हेमंत की ओर उत्सुकता के साथ चल दिया था और उसकी उत्सुकता को देखकर हेमंत के चेहरे पर आई हुई निश्छल पहाड़ी मुस्कान और विस्तृत हो गई थी। दोनों की मुस्कराहट एक प्रकार के पारस्परिक मौन अभिवादन के समान थी। हेमंत ने शरत के बिना कुछ कहे ही स्टोव जलाना प्रारम्भ कर दिया था और उस पर उबलने के लिये पानी चढ़ा दिया था। शरत चाय की दूकान के सामने रखे एकमात्र स्टूल पर बैठ गया था। हेमंत उसके बैठने के अंदाज़ से जान गया था कि लेखक की ऐसे मौसम में यह पहली पहाड़ी यात्रा है और उसका कोई परिचित वहां पर न होने के कारण वह विश्राम स्थल के विषय में चिंताग्रस्त है। उसने सांत्वना देने के भाव से कहा,

‘‘कहोॅ से आ रहे हैं साहब? बड़े थके लग रहे हैं।’’

‘‘लखनउू से आ रहा हूं। ऐसे मौसम में यह प्रथम पहाड़ी यात्रा है।’’

तब तक चाय तैयार हो चुकी थी। हेमंत ने केतली से छन्नी में उंडे़लकर छनी हुई चाय से एक प्याला भर दिया और उसे शरत के हाथ में पकड़ा दिया। शरत उस प्याले की गर्मी से अपने हाथ सेंकने लगा। हेमंत अपने लिये भी एक प्याला चाय बनाते हुए शरत से पूछने लगा,

‘‘साहब आप का कोई जान पहिचान वाला तो यहां रहता लगता नहीे है, फिर इस मौसम में यहां क्यों आना हुआ?’’

शरत अपना अभिप्राय स्पष्ट करते हुए बताने लगा,

‘‘सुना है कि यहां कोई मानिला मंदिर है, जिसमें कोई बड़े ख्यातिप्राप्त योगी एवं योगिनी रहते हैं। उन्हीं के विषय में पूर्ण जानकारी एकत्र कर एक माह में लिपिबद्ध करके देने का कार्य मुझे विश्व हिंदू परिषद द्वारा सौंपा गया है। कार्य के मिलते ही मैं यहां चला आया हूं। मुझे नहींे पता था कि आजकल यहां मौसम इतना खराब होगा।’’

हेमंत को मीता एवं भुवनचंद्र के प्रति एक परिभाषाविहीन हार्दिक लगाव था। अतः यह सुनकर कि शरत मीता और भुवनचंद्र के विषय में लिखने आया है, हेमंत की रुचि उसमें एकदम बढ़ गई और उसे शरत के प्रति एक अपनत्व सा प्रतीत होने लगा। परंतु तभी उसे ध्यान आया कि उनके प्रेम के प्रस्फुटन एवं पल्लवन का रहस्य तो वह स्वयं ही अपने सीने में एक कृपण की भांति छिपाये हुए है और वह प्रत्यक्ष में बोला,

‘‘परंतु योगी तथा योगिनी तो अब हैं नहीं।’’

शरत ने कहा कि उनके विषय में जानकारी तो बहुतों को होगी। और फिर अपनी वर्तमान चिंता व्यक्त करते हुए पूछा,

‘‘मेरे यहां ठहरने के लिये होटल कहां है?’’

हेमंत ने निराशा का भाव प्रकट करते हुए उत्तर दिया, ‘‘यहां कोई होटल नहीं है साहब। आजकल कोई ठहरने वाला यात्री आता ही नही है। गर्मी के मौसम में यदि कोई आ जाता है, तो नीचे बनी दूकानों की उूपरी मंज़िल पर बने हुए कमरों में दूकानदार उन्हें रोक लेते हैं, परंतु जाड़े के इस बर्फी़ले मौसम में न तो दूकानें खुल रहीं हैं और न भिकियासेंड़ में रहने वाले उनके मालिक यहां आ रहे हैं। उूपर एक सरकारी डाकबंगला है परंतु उसमें पानी नहीं आता है और चैकीदार उसे बंद करके अपने बेटे के पास नीचे रामनगर चला गया है।’’

शरत के चेहरे पर उड़ती हुइ्र्र हवाइयों को देखकर हेमंत ने उसे सांत्वना देते हुए प्रस्ताव रखा, ‘‘साहब! अगर आप ठीक समझें, तो मेरे घर में दो कमरे हैं, जो सम्भवतः आप के लायक तो नहीं होंगे, परंतु मैं उनमें से एक में आप को रोक सकता हूं। आप मेरे महमान बनकर रह सकते हैं।’’

अंधे को क्या चाहिये- दो आंखें। शरत ने औपचारिक नानुकुर के उपरांत सधन्यवाद प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और हेमंत के साथ उसके घर चल दिया।

भोजन के उपरांत हेमंत शरत के कमरे में आ गया। वह जानता था कि शरत योगी एवं योगिनी के विषय में उससे अवश्य पूछेगा। और यही हुआ भी।

हेमंत को अपनी चारपाई पर बैठने को कहकर शरत बोला,

‘‘तुम तो बचपन से इसी ग्राम में रहे होगे। अतः तुम्हें तो स्वयं मानिला मंदिर के योगी एवं योगिनी के विषय में बहुत कुछ ज्ञात होगा। तुमने उनके विषय में जो भी देखा सुना हो, उसे बताओगे?।’’ यह कहते हुए शरत ने अपना लैपटौप निकाल लिया।

शरत से उसके आने का उद्देश्य जानने के बाद से ही हेमंत इस उधेड़ बुन में था कि क्या योगी एवं योगिनी की वास्तविक पहिचान एवं उनके अंतरंग तथ्य उसे शरत को बताने चाहिये या नहीं? फिर यह सोचकर कि योगी एवं योगिनी तो अब यहां हैं नहीं, ऐसे में उनके जीवन के तथ्य जगजाहिर हो जायें, तो किसी की क्या हानि होगी, बस एक प्रेम कथा ही अमर हो जायेगी, उसने शरत के समक्ष अपना हृदय खोल कर रख देने का निश्चय किया।

उसने माँ-अनिला/मल्ला/ एवं माँ-अनिला/तल्ला/ मंदिरों की प्राचीनता एवं उनके माहात्मय के विषय में बताते हुए कहा कि मानिला ग्राम का नाम माँ-अनिला देवी के नाम पर ही पड़ा है और इस स्थान को पवित्र स्थान माने जाने का सौभाग्य प्राप्त है। जब वह किशोरावस्था मंे था तब लखनउू से मीता जी मानिला ग्राम में अपनी बहिन के यहां आईं थीं, उनके जीजा यहां इंटर कालेज में अध्यापक थे। उस समय मीता जी दो बच्चों की माँ थी, परंतु अपने शारीरिक गठन एवं उन्मुक्त स्वभाव के कारण किशोरी सी लगती थीं। भुवनचंद्र से उनकी मुलाकात एक दैवी संयोग था। उन्होंने किसी से बिना कुछ पूछे ही मानिला मंदिर के लिये अकेले खतरनाक रास्ते पर चढ़ कर अपने प्राणों को गम्भीर जोखिम में डाल दिया था। मानिला के युवक भुवनचंद्र का अकस्मात उसी समय वहां पहुंचकर उन्हें बचा लेना मात्र दैवी संयोग ही कहा जा सकता है क्योंकि फिर यही दोनों में प्रेम का बीज अंकुरित करने का कारण बना था। वैसे इस प्रेमांकुरण के पीछे अकस्मात उत्पन्न परिस्थितियों के अतिरिक्त दो विशेष कारण भी थे- मीता जी के पति अनुज का सम्वेदनाविहीन, शंकालु एवं अविश्वनीय आचरण तथा भुवनचंद्र की प्रेमिका का विवाह अन्यत्र हो जाने के कारण उसका एकाकीपन।

हेमंत यह कहकर शरत के मुख की ओर ध्यान से देखने लगा। उसकी बताई कथा में शरत के मुखमंडल पर व्याप्त रुचि को देखकर हेमंत आश्वस्त हो गया कि वह एक सुपात्र को ही योगिनी की कथा बता रहा है। उसने परिस्थिति के वशीभूत होकर मीता के भुवनचंद्र से मिले बिना अचानक लखनउू वापस चले जाने, और परिणामस्वरूप भुवनचंद्र के बिना किसी को कुछ बताये मानिला ग्राम से साधुओं के साथ चले जाने के विषय मंे विस्तार से बताया। फिर उसने मानिला मंदिर के पूर्व स्वामी जी के निधन, भुवनचंद्र के दैदीप्यमान योगी वेष में मंदिर पर आगमन, ग्रामवासियों द्वारा उन्हें न पहिचानना एवं मंदिर का नया स्वामी स्थापित कर देना, मीता का योगिनी के रूप में मंदिर में आ जाना और मंदिर की बढ़ती ख्याति के विषय में बताया।

हेमंत ने रुककर शरत से पूछा, ‘‘क्या चाय और बना लाउूं?’’

शीत का प्रकोप बढ़ रहा था परंतु न तो हेमंत को और न शरत को मीता की कथा बीच में छोड़ने का मन था। अतः शरत ने चाय केे लिये मना करके आगे बताने को कहा। हेमंत ने मीता की बढ़ती ख्याति से भुवनचंद्र के हृदय में पुरुषोचित कचोट एवं इैष्र्याभाव के उदय, अमेरिकन पर्यटक माइक के मंदिर पर आगमन, मीता को अमेरिका के ‘विमेंन्स लिबरेशन मूवमेंट’ के कार्य के विषय में प्रेरित करने के विषय में बताया। फिर माइक द्वारा मीता से अपने साथ अमेरिका चलने का प्रस्ताव रखने के विषय मंे बताया, परंतु यहां हेमंत रुक गया। बात यह थी कि उसके मन में भुवन एवं मीता के प्रेम के प्रति ऐसी अटूट आस्था थी कि वह उस परिस्थिति का वर्णन करने में बड़ी कठिनाई अनुभव कर रहा था, जिसमें मीता ने माइक के साथ अमेरिका जाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। फिर अपने को संयत कर हेमंत ने मीता के माइक के साथ चले जाने एवं उसके पश्चात भुवनचंद्र किस अवसाद के सागर में डूबता, उतराता रहा, का वर्णन कियाः

‘‘योगिनी जिस दिन अेमेरिका गईं थीं, उस दिन योगी दिन भर अपने कमरे से नहीं निकले थे। सायंकाल जब मैं मंदिर पर गया था, तब तक अंधेरा हो चुका था और वहां कोई दर्शनार्थी नहीं था। मैंने योगी को नीचे एक देवदार की जड़ पर बैठै देखा था और ठिठक कर रह गया था। मैं योगी के हंसमुख खिलंदड़ी स्वभाव को तब से जानता था, जब वह योगी न होकर भुवनचंद्र थे और योगी बन जाने के पश्चात भी मैने उनके मुख पर सदैव एक स्मित-रेखा विराजमान देखी थी। यद्यपि योगी बन जाने के पश्चात वह बात बात में पूर्ववत अट्टहास तो नहीं करते थे, परंतु उनसे बात करते समय कभी कभी ऐसा आभास होने लगता था कि वह अपने अट्टहास को बरबस रोक रहे हैं। दर्शनार्थियों के समक्ष योग-ध्यान आदि पर व्याख्यान देते समय तो हंसी का विषय आ जाने पर वह यदा कदा ऐसे ठठाकर हंस पड़ते थे कि श्रोता चकित रह जाते थे। सायंकाल योगिनी के साथ वनभ्रमण के दौरान तो मैने उन्हें सदैव ऐसे खुलकर बोलते-बतियाते देखा था, जैसे प्रथम बार मीता के मानिला आने पर भुवनचंद्र और मीता साथ साथ मानिला-भ्रमण के दौरान बोलते बतियाते रहते थे। उस दिन योगी को मैने बिलख-बिलख कर रोते देखा था। उनका मुख श्रीविहीन एवं अश्रुसिक्त था और उनके मुख से असम्बद्ध वाक्य निकल रहे थे,

‘मीता, मीता.........मीता...........मुझे छोड़कर क्यों चली गई?.........मुझे मेरे किस अपराध की सज़ा दे रही हो?............जाते समय यह भी न सोचा कि भुवनचंद्र जिसने अपना सर्वस्व,............... अपनी हर सांस,............. अपना हर सुख तुम्हें मान रखा है वह कैसे जियेगा?................. अगर मुझे ऐसे ही छोड़ना था, तो मेरी ज़िंदगी में आई ही क्यों थी?...........’

योगी केा ऐसे रोते देखकर मेरी आंखो मंे आंसू बह निकले थे और मैं देर तक एक चीड़ के तने के सहारे खड़ा रह गया था। मेरा मन कर रहा था कि मैं योगी के पास जाकर उससे अपने हृदय में उठने वाली सम्वेदना प्रकट करूं, परंतु चाहते हुए भी मैं योगी को ढाढ़स बंधाने उसके निकट न जा सका था। उस अवस्था में योगी के निकट जाने का परिणाम उनके हृदय के अंतस को नग्न कर बाजा़र में खड़ा कर देने के समान होता। मैं देर तक योगी के उठने और आश्रम में वापस आने की प्रतीक्षा करता रहा था, परंतु योगी जब उठे तो मंदिर की ओर आने के बजाय नीचे बहने वाले नाले के ओर चल दिये थे। उत्सुकतावश मैं भी उनके पीछे छिपता हुआ चलने लगा था। योगी चलते चलते उस स्थान पर पहुंच गये थे, जहां नाला सीधा सात आठ गज़ नीचे बह रहा था। उस दिन पानी बहुत बरसा था और नाला उफान पर था। योगी वहां खड़े होकर पागलों की भांति मीता...मीता...मीता......पुकारने लगे थे और नाले में कूदने वाले ही थे कि मैने दौड़कर उन्हें पकड़ लिया था। अकस्मात मेरे द्वारा पीछे से पकड़े जाने पर वह हतप्रभ हो गये थे और मैं भी अप्रकतिस्थ हो गया था, परंतु सब कुछ समझ लेने पर भी वह ऐसे बोले थे जैसे मैने किसी भ्रमवश उन्हें पकड़ कर रोका हो,

‘हेमंत! तुम यहां क्या कर रहे हो?’

उन्हें छोड़ते हुए मैने कह दिया था,

‘योगी जी, मैं फ़ारिग होने इधर आया था। आप को देखकर ऐसा लगा कि आप का पैर नाले में फिसल रहा है, इसलिये पकड़ लिया था।’

हम दोनों एक दूसरे का मिथ्या समझ रहे थे अतः बात को बिना आगे बढ़ाये दोनों ही चुपचाप वापस चले आये थे।

इस घटना ने मुझे हिला कर रख दिया था और मैं जब भी फुरसत होती, योगी के पास जाकर बैठने लगा था। सायंकाल तो मैं बिना नागा मंदिर पर पहुंच जाता था और जब योगी टहलने को निकलते, तो बिना अनुमति लिये ही उनके पीछे चल पड़ता था। योगी सब समझते थे ओर बिन मांगे ही उन्होंने साथ टहलने की अनुमति दे दी थी। शनैः शनैः हम दोनों एक दूसरे के साथ के ऐसे अभ्यस्त हो गये थे कि योगी सायंकाल साथ टहलने के लिये मेरी प्रतीक्षा करने लगे थे। टहलने के दौरान योगी मेरी उपस्थिति की अनुभूति तो करते थे, परंतु बोलते बहुत कम थे और योगिनी मीता के विषय में तो कभी एक शब्द भी नहीं बोलते थे। मैं भी केवल अति आवश्यक होने पर ही कुछ बोलता था। योगिनी से सम्बंघित कोई विषय तो धोखे से भी जिह्वा पर नहीं लाता था, यद्यपि मैं भलीभांति जानता था कि शायद ही कोई ऐसा क्षण बीतता था जब योगी का मन योगिनी की स्मृति में विह्वल न रहता हो। योगिनी के अमेरिका से वापस आ जाने पर जितनी प्रसन्नता योगी को हुई थी, मुझे उससे कम नहीं हुई थी। हां, उसके बाद मेरा योगी के साथ टहलना अवश्य बंद हो गया था, परंतु जैसी कि कहावत है कि ‘चोर चोरी से चला जाय, हेरा-फेरी से नहंी जाता है’, मैने सायंकाल योगी और योगिनी को साथ साथ टहलते हुए पीछे से लुकछिपकर देखने और उनकी गुटरगूं सुनने के अपने पुराने अभ्यास को नहीं छोड़ा था।’’

इतना कहकर हेमंत अपने ख़यालों में खोया हुआ सा शरत की ओर देखने लगा था। तभी उसे लगा कि शरत की उंगलियां ठंड से कंपकंपा रही हैं और वह शरत से बिना पूछे ही चाय बनाने चला गया।

शरत ने दरवाजे़ के बाहर झांककर देखा कि वहां हवा का प्रवाह रुका होने के कारण सन्नाटा छाया हुआ था और अनवरत हिमपात हो रहा था।

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