Yogini - 15 in Hindi Moral Stories by Mahesh Dewedy books and stories PDF | योगिनी - 15

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योगिनी - 15

योगिनी

15

काठगोदाम रेलवे स्टेशन पर पहुंचकर मीता ने बाथरूम में जाकर अपना योगिनी का चोला उतार दिया और साड़ी पहिन ली। काठगोदाम एक्सप्रेस समय से चल दी। शीतकाल होने के कारण बर्थ खाली मिल गई और मीता कम्बल ओढ़कर लेट गई। मीता को अनुज के साथ बिताये प्रारम्भिक दिनों के दृश्य एक एक कर ऐसे याद आने लगे, जैसे सिनेमा के पर्दे पर चित्र उभर कर आयें और मिटते जायें। कुछ दृश्य क्षण दो क्षण में विलीन हो जाते, तो कुछ देर तक रुके रहते। मानव स्वभावानुसार वे दृश्य देर तक उभरे रहते, जो मीता के मन में काॅटा बनकर चुभ गये थे- और ऐसे दृश्यों की कमी नहीं थी। उन्हें यादकर मीता सोचने लगती कि क्या उसे सचमुच अनुज के पास जाना चाहिये। उसे कभी कभी लगता कि अब भी वापस लौट जाना ही बुद्धिमानी होगी, परंतु फिर भी पता नहीं किस मानवीय विवशता के वशीभूत हो वह वापस न लौट सकी और दूसरी प्रातः उसने अपने को चारबाग स्टेशन पर टे्न से उतरते हुए पाया। स्टेशन पर यात्रियों की भीड़ थी। बाहर प्रातःकाल का कोहरा छाया हुआ था और खूब ठंडक थी। मीता ने एक आटो किराये पर ले लिया। उसने रास्ते में देखा कि सड़क पर कारों की चिल्ल-पों पूर्व से कई गुना अधिक बढ़ गई थी और कई पुरानी बिल्डिगें तोड़कर नये बहुमंज़िले भवन खड़े कर दिये गये थे और उसके मुहल्ले में भी नये नये भवन बन जाने के कारण उसका भी कायाकल्प हो गया प्रतीत होता था।

मीता अपने मुहल्ले में जान-पहिचान के लोगों के सामने पड़ने से घबरा रही थी और उसे यह देखकर तसल्ली हुई कि जाड़े की प्रातः होने के कारण उसके मुहल्ले की गलियां खाली थीं। किसी का सामना हुए बगैर ही वह अपने घर के दरवाजे़ पर पहुंच गई। फिर उसने अपने को घर के दरवाज़े पर खड़े होकर काल-बेल दबाने का साहस बटोरते हुए पाया।

बेल दबाने पर देर तक दरवाजा़ नहीं खुला। फिर अंदर से किसी के हल्के पांव से निकट आने का आभास हुआ और धीरे-धीरे दरवाज़ा खुल गया। कृशकाय अनुज एक हाथ में छड़ी का सहारा लिये हुए मीता के सामने खड़ा था। उसकी दशा देखकर मीता को इतना विश्वास हो गया कि अनुज के पत्र में लिखी बीमारी की बातें सच थीं- वे मीता को बुलाने का बहाना मात्र नहीं थीं। मीता उसे देखकर मुस्करा न सकी- उसकी दशा के कारण तथा उससे मनोमालिन्य के कारण; अनुज भी उसे देखकर आश्चर्यचकित तो हुआ परंतु प्रेमपूर्ण मिलन का नाटक न कर सका। वह मीता को अंदर आने का रास्ता देने के लिये एक ओर हो गया और मीता अपनी अटैची लेकर भीतर आ गई और उसे पारो वाले कमरे में रख दिया। मीता ने तिरछी निगाहों से देखा कि अनुज घिसटकर चलते हुए पलंग पर बैठ गया था। मीता बिना कुछ बोले बाथरूम में चली गई और बाहर निकलने के बाद किचन में जाकर चाय बनाकर ले आई। वह साथ में बिस्कुट भी रख लाई थी। उसे यह सोचकर आश्चर्य हो रहा था कि वह अनुज की चाय के साथ बिस्कुट खाने की आदत को न तो भूली थी और न उसकी अवहेलना कर सकी थी। उसने एक कप में चाय बनाकर अनुज को दी एवं एक कप में बनाकर एक कुर्सी पर बैठकर स्वयं पीने लगी।

दोनों में कोई कुछ भी बोल नहीं रहा था जैसे उनके बोलने से कोई अनघट घटना घटित हो जाने की आशंका हो। दो व्यक्तियों के बीच के सम्बंधों की सीमा स्थापित करने के लिये कभी कभी कुछ क्षण ही पर्याप्त होते हैं और कभी कभी जीवनपर्यंत साथ रहने पर भी हम अपने सम्बंधों को परिभाषित करने में असमर्थ रहते हैं। आज चाय पीने के दौरान साथ साथ बिताये वे कतिपय क्षण मीता और अनुज के बीच के नवीन सम्बंधों को परिभाषित कर रहे थे। उन क्षणों का वह मौन दोनों के मघ्य का एक स्थायी मौन बन गया। आगे भी मीता ने मौन रहकर घर की सफाई की, अनुज के स्नान के लिये पानी गर्म कर बाथरूम में रखा, भोजन बनाया और अनुज के लिये मेज़ पर लगा दिया। अनुज के द्वारा साथ साथ भोजन करने के लिये कहने पर उसने यह कहकर टाल दिया,

‘अभी भूख नहीं है, बाद में खा लूंगी।’

इस पर अनुज भी कुछ और नहीं कह सका। और फिर यही मीता और अनुज के बीच की दिनचर्या बन गई। मीता अनुज की दवाइयों, खाने पीने एवं उन सभी आवश्यकताओं का ध्यान रखती जो विकलांगता के कारण वह पूरी नहीं कर सकता था परंतु दोनों के बीच केवल उतने शब्द बोले जाते जितने के बिना उन आवश्यकताओं की पूर्ति असम्भव होती। मीता ने अपने को एक रोबाट सम बना लिया था। अनुज के मन में यदि पूर्व इतिहास के विषय में बात करने की इच्छा उठती भी, तो उसके मन में ही दब कर रह जाती। रात्रि में मीता पारो वाले कमरे में चली जाती और दरवाजा़ बंद कर सो जाती। उन एकांत के क्षणों में उसे योगी की याद कसकर आती और वह उसके विषय में चिंतित भी हो जाती। वह जानती थी कि उसके यहां आने हेतु यद्यपि योगी ने ही उससे कहा था, तथापि उसके चले आने से योगी का मन अशांत एवं शंकाग्रस्त अवश्य होगा। कभी कभी उसके मन मंे आता कि वह सब कुछ यथावत छोड़कर योगी के पास चली जाये, परंतु अनुज की असहायावस्था उसे रोक लेती।

मीता ने मुहल्ले के किसी व्यक्ति से मिलने का प्रयत्न नहीं किया, वरन् उनसे अकस्मात मिलन से बचने का प्रत्येक प्रयत्न करती रही। वह सौदा खरीदने भी देर रात्रि में निकलती और न पहिचानने वाले दूकानदार के यहां ही जाती। मुहल्ले में अनुज की ख्याति पहले ही किसी से सामाजिक सम्बंध न रखने वाले की थी और उसके अमेरिका प्रवास के दौरान के किस्सों ने तो उसे मेलजोल हेतु और भी अवांछनीय बना दिया था। अतः मीता के एकांत बनाये रखने के प्रयत्न में कोई विशेष बाधा नहीं पड़ी। एक दिन अकस्मात पंडित जी से मुलाकात हो जाने पर उसने मौनव्रत में होने का बहाना किया, और फिर धर्मभीरु पंडित जी ने भी उसका मौन तोड़ने का प्रयत्न नहीं किया।

समय से दवाई, स्वास्थ्यप्रद भोजन, एवं मीता की सुश्रूषा ने अनुज के स्वास्थ्य पर शीघ्र ही बड़ा अनुकूल प्रभाव डाला और न केवल उसका रक्तचाप नियंत्रित हो गया, वरन् उसके दाहिने अंगों में भी रक्त संचार बढ़ गया। मीता प्रतिदिन उसके दाहिने अंगों के हेतु समुचित आसन भी कराती थी। ज्यों ज्यों उसके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा था, त्यों त्यों वह मीता की अधिक निकटता प्राप्त करने का भाव परिलक्षित करने लगा। मीता उसके इस परिवर्तन पर कोई प्रतिक्रिया प्रदर्शित नहीं करती थी। यद्यपि अनुज के द्वारा उसके प्रति किये गये व्यवहार की चोट वह भूली नहीं थी, तथापि इतने दिन अनुज की सहायता करते करते उस चोट की पीड़ा अवश्य समाप्तप्राय हो गई थी। अनुज के आग्रह करने पर अब वह यदा कदा उसके साथ बैठकर चाय पी लेती थी और उसकी बातों का हां हूं में जवाब भी दे देती थी। इस बदली परिस्थिति के कारण मीता को दिन में अपना जितना अधिक समय अनुज की निकटता में बिताना पड़ता, रात्रि में वह उतनी ही आकुल हो जाती थी। उसे योगी से दूरी उतनी ही अधिक खलती और उसके पास वापस जाने की चाह मन मंे उतनी अधिक तीक्ष्णता से उठती। एक रात्रि उसने निश्चय किया कि अगले रविवार वापस चले जाने को अनुज से कह देगी, परंतु दूसरे दिन यह सोचकर नहीं कहा कि अभी तो छः दिन शेष हैं, अभी से कहने से अनुज कोई व्यवधान न खड़ा कर दे। वह दिन वसंत ऋतु का बड़ा सुहावना दिन था। उस दिन अनुज कुछ अधिक ही वाचाल हो रहा था और मीता को बरबस उसके साथ बात करनी पड़ रही थी। इस अधिक निकटता की स्थिति से बचने के लिये रात्रि होते ही मीता ने जल्दी से रात्रिभोज लगा दिया और अनुज के साथ स्वयं भी खाने बैठ गई। खाने के बाद अनुज कुछ देर तक टहलता रहा और फिर अपने पलंग पर आकर लेट गया। इस बीच मीता ने दूध गरम किया और एक गिलास में लाकर अनुज को थमा दिया। मीता चैके में जाकर बर्तन साफ़ करने लगी और फिर अनुज का खाली गिलास लेने आई। वह जैसे ही पलंग के बगल में स्टूल पर रखे हुए गिलास को उठाने झुकी, अनुज ने मज़बूती से उसकी कलाई पकड़ ली और धृष्टतापूर्वक बोला,

‘अब और कब तक नखड़े करेगी?’

मीता इस अप्रत्याशित हमले के लिये तैयार नहीं थी, अतः अनुज के हाथ के झटकेे से वह पलंग पर उसके उूपर गिर गई। अनुज के द्वारा इस प्रकार खींच लिये जाने से उसे जितना धक्का लगा, उससे कहीं अधिक उसके मन को अनुज के द्वारा बोले गये शब्दों से चोट लगी। उसे अनुज के साथ विवाह के बाद के वे क्षण याद आ गये, जब उसने अपने को अनुज के अनेक ग्लानिजनक वचनों का शिकार पाया था और किसी प्रकार के समझाने बुझाने पर भांति भांति के मार्मिक व्यंग्यवाणों एवं धमकियों को सुना था। उन दिनों उसके अनछुए कोमल मन पर जो घाव बन गये थे, वे सब क्षणमात्र में उसकी स्मृति में कौंध गये। इससे उसमें अपने को छुड़ाने की नवीन उूर्जा का आविर्भाव हुआ और उसने पहले अनुज का दांया हाथ बलपूर्वक हटाया और फिर झटके से सीधी खड़ी हो गई। उसका चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था और वह बिना कुछ बोले अपने कमरे में जाकर अपना सामान अटैची में बटोरने लगी।

अटैची हाथ में लेकर वह तेज़ी से घर से निकल आई और रेलवे स्टेशन पर जाकर काठगोदाम की दिशा में जाने वाली पहली गाड़ी का टिकट कटा लिया। दूसरे दिन बस के मानिला पहुंचते पहुंचते सूर्य अस्त हो चुका था और आकाश में ढलते सूर्य की लालिमा पसर चुकी थी। बस-स्टेशन पर निर्जनता छा रही थी।

बस मीता को उतार कर आगे बढ़ गई।

पर्वतों की जादुई नीरवता मीता की नस नस में समा रही थी। ऐसी नीरवता महसूम किये हुए उसे कई माह बीत चुके थे। उसके अंग अंग में रोमांच हो रहा था। योगी के समक्ष अकस्मात प्रकट होकर उसे आश्चर्यचकित कर देने की बालसुलभ चंचलता उसके मन में समा रही थी और उसके पग तेज़ी से मंदिर की दिशा में बढ़ने लगे।

हेमंत चायवाले ने अपनी दूकान से मीता को तेज़ी से मानिला मंदिर की ओर बढ़ते हुए देख लिया था और उसका मन प्रसन्न्ता से फूला नहीं समा रहा था। वह अनायास गुनगुनाने लगा,

‘ज्यूं जहाज़ को पंछी पुनि पुनि जहाज़ पै आवै।’

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