Kaun Dilon Ki Jaane - 26 in Hindi Moral Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | कौन दिलों की जाने! - 26

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कौन दिलों की जाने! - 26

कौन दिलों की जाने!

छब्बीस

रानी से फोन पर बातें करने के उपरान्त आलोक विचार करने लगा कि इतने वर्षों बाद रानी से मुलाकात होने पर सोचा तक नहीं था कि हमारी यह मुलाकात रानी के वैवाहिक जीवन को इस हद तक भी प्रभावित कर सकती है। वह स्वयं को इस सब के लिये दोषी अनुभव करने लगा। अपराध—बोध व ग्लानि उसके समस्त व्यक्तित्व व विचारधारा को ग्रसित करने लगे। साथ ही उसके अन्तर्मन से आवाज़ आई कि रानी के समर्पण की गहराई और गम्भीरता को देखते हुए नहीं लगता कि वह अपने बढ़े हुए कदम पीछे हटाने को तैयार होगी। क्या करे, क्या न करे, की द्वन्द्वात्मक स्थिति में उसे कोई स्पष्ट राह दिखाई नहीं दे रही थी। रानी ने उसे मोहाली आने के लिये मना क्यों किया, भी उसकी समझ में नहीं आ रहा था। सारा दिन वह इसी तरह की उधेड़बुन में उलझा रहा।

दूसरे दिन जसवन्ती के जाने के बाद उसने सोचा कि रानी से मिलना तो चाहिये ही। मिलकर ही सोच—विचार किया जा सकता है। इसी मनोरथ से फोन कर रानी को सूचित किया कि मैं आ रहा हूँ। रानी भी अवचेतनावस्था में आलोक का साथ पाने के लिये उत्कंठित थी। उसको भी एक ऐसे कंधे की जरूरत अनुभव हो रही थी, जिसका सहारा लेकर वह सुकून पा सके, निश्चिंत हो सके। इसलिये रानी ने मना नहीं किया।

रानी से मिलकर आलोक ने कल से अपने मन में चल रही विचारों की ऊहापोह उससे साँझा की। आज पहली बार रानी को आलोक के मुख पर उदासी की परत व चिंता की रेखाएँ स्पष्ट दिखाई दीं। अपनी दुश्चिंताओं की परवाह न करते हुए, जैसे माँ अपने दुःखी बच्चे को सांत्वना देने के लिये अपनी छाती से लगा लेती है, वैसे ही रानी ने आलोक को अपनी छाती से लगाकर उसके बालों में स्नेह से अँगुलियाँ फिराते हुए कहा — ‘आलोक, स्वयं को अपराध—बोध से मत घिरने दो। इसमें तुम्हारा लेशमात्र भी दोष नहीं है। जो कुछ मेरे जीवन में घट रहा हैं या भविष्य में घट सकता है, उसके लिये मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ, और इसका मुझे तनिक भी मलाल नहीं है, अफसोस नहीं है। बल्कि मैं तो प्रसन्न हूँ कि मेरे अन्तर्मन ने जो चाहा था, वह मुझे इसी जन्म में मिल गया, वरना मैं तो सोचा करती थी कि तुम्हें पाने के लिये मुझे दूसरे जन्म तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। इसलिये यदि कोई सोचता है कि मैं अपनी दोस्ती का परित्याग कर सकती हूँ तो उससे बड़ा नासमझ इस दुनिया में दूसरा ना होगा। अब तो यही तमन्ना है कि मेरी ज़िन्दगी का कोई लम्हा ना हो तेरे बिना।'

आलोक को चुप पाकर थोड़ी देर बाद कहा — ‘आलोक, आज पहली बार काफी थके—थके से लग रहे हो, मैं चाय बनाती हूँ। फिर तुम थोड़ा आराम कर लेना।'

अब तक चुप रहने के पश्चात्‌ आलोक ने कुछ इस प्रकार कहा जैसे स्वयं को सांत्वना दे रहा हो — ‘रानी, दोष तुम्हारा भी नहीं है। जो घट रहा है, वह नियति ने निर्धारित कर रखा है। जो होना है, वह होकर रहेगा। हम तो ऊपरवाले के हाथों की कठपुतलियाँ हैं, जैसे वह नचाना चाहता है, हमें नाचना पड़ता है। हमारे पास उसके विधान को मानने के सिवाय दूसरा कोई चारा नहीं है। हमें वशिश्ठ मुनिवर द्वारा भरत जी को दी गई सीख सदा स्मरण रखनी चाहियेः

सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।

हानि लाभु जीवनु मरनु अपजसु बिधि हाथ।।

रहा तुम्हारी चाहत पूरी होने का सवाल, तो इसे भी मैं ईश्वरीय कृपा ही समझता हूँ।'

रानी उठी और चाय बना लाई। चाय पीते हुए बहुत—सी बातें हुईं। चाय पीने के बाद रानी ने एक बार फिर अनुरोध किया — ‘आलोक, थोड़ा आराम कर लो।'

‘नहीं, मैं ठीक हूँ। तुम्हारे साथ बातें करना जरूरी था, इसीलिये कल तुम्हारे मना करने पर भी आज चला आया।'

‘आलोक, कल मेरे मना करने पर, हो सकता है, तुम्हें बुरा लगा हो, किन्तु मना करने के पीछे कारण यह नहीं था कि मैं मिलना नहीं चाहती थी। मेरा अन्तःकरण तो चाहता है कि हम सदा इकट्ठे रहें। कल मना तो इसलिये किया था कि वकील साहब को मिलकर आने के बाद रमेश जी अपनी मित्र—मण्डली के साथ ताश खेलने के लिये चले गये थे। चाहे वे कभी भी ताश—पार्टी से सात—आठ बजे से पहले वापस नहीं आते, लेकिन इन दिनों वे जिस मनोदशा में से गुज़र रहे हैं, मुझे डर था कि कहीं वे ताश की बाजी बीच में ही छोड़ कर घर न चले आयें।'

‘मैं सब समझता हूँ। तुम्हारे मना करने का मैंने बुरा नहीं माना, मान भी नहीं सकता। अगर हम एक—दूसरे की छोटी—छोटी बातों का बुरा मनाने लगेंगे तो जरूर हमारी चाहत में कोई कमी रह गयी होगी।'

इस तरह एक—दूसरे को तसल्ली देने के बाद जब दोनों के मन काफी हद तक शान्त हो गये तो आलोक वापस जाने के लिये उठ खड़ा हुआ।

***