देस बिराना
किस्त बत्तीस
तीन दिन तो हमने आपस में ढंग से बात भी नहीं की थी। सिर्फ चौंतीस दिन की सैक्सफुल और सक्सैसफुल लाइफ थी मेरी और मैं एक अनजान देश की अनजान राजधानी में पहुंचने के एक हफ्ते में ही सड़क पर आ गयी थी।
इतना कहते ही मालविका मेरे गले से लिपट कर फूट फूट कर रोने लगी है। उसका यह रोना इतना अचानक और ज़ोर का है कि मैं हक्का बक्का रह गया हूं। मुझे पहले तो समझ में ही नहीं आया कि अपनी कहानी सुनाते-सुनाते अचानक उसे क्या हो गया है। अभी तो भली चंगी अपनी दास्तान सुना रही थी।
मैं उसे अपने सीने से भींच लेता हूं और उसे चुप कराता हूं - रोओ नहीं निक्की। तुम तो इतनी बहादुर लड़की हो और अपने को इतने शानदार तरीके से संभाले हुए हो। ज़रा सोचो, तुम्हें अगर उसी दलाल के घर रहना पड़ता तो..तो तुम्हारी ज़िंदगी ने क्या रुख लिया होता ..। कई बार आदमी के लिए गलत घर में रहने से बेघर होना ही बेहतर होता है। चीयर अप मेरी बच्ची..। यह कर मैं उसका आसुंओं से तर चेहरा चुम्बनों से भर देता हूं।
वह अभी भी रोये जा रही है। मैं उसके बालों में उंगलियां फिराता हूं। गाल थपथपाता हूं।
अचानक वह अपना सिर ऊपर उठाती है और रोते-रोते पूछती है - तुम्हीं बताओ दीप, मेरी गलती क्या थी? मैं कहां गलत थी जो मुझे इतनी बड़ी सज़ा दी गयी। चौबीस-पचीस साल की उम्र में, जब मेरे हाथों की मेंहदी भी ढंग से सूखी नहीं थी, शादी के सात महीने बाद ही न मैं शादी शुदा रही न कुंवारी, न घर रहा मेरा और न परिवार। मेरी प्यारी मम्मी और देश भी मुझसे छूट गये। मुझे ही इतना खराब पति क्यों मिला कि मैं ज़िंदगी भर के लिए अकेली हो गयी..। मैं इतने बड़े जहान में बिलकुल अकेली हूं दीप.... बहुत अकेली हूं ... इतनी बड़ी दुनिया में मेरा अपना कोई भी नहीं है दीप.. ..। मैं तुम्हें बता नहीं सकती, अकेले होने का क्या मतलब होता है। वह ज़ार ज़ार रोये जा रही है।
मैं उसे चुप कराने की कोशिश करता हूं - रोओ नहीं निक्की, मैं हूं न तुम्हारे पास.. इतने पास कि तुम मेरी सांसें भी महसूस कर सकती हो। तुम तो जानती ही हो, हमारी हथेली कितनी भी बड़ी हो, देने वाला उतना ही देता है जितना उसे देना होता है। अब चाहे लंदन हो या तुम्हारा गुरदासपुर, तुम्हें इस आग से गुज़र कर कुंदन बनना ही था।
- दीप मुझे छोड़ कर तो नहीं जाओगे? वह गुनगुने उजाले में मेरी तरफ देखती है।
- नहीं जाऊंगा बस, देखो मैं भी तो तुम्हारी तरह इतना अके ला हूं। मुझे भी तो कोई चाहिये जो .. जो मेरा अकेलापन बांट सके। हम दोनों एक दूसरे का अकेलापन बांटेंगे और एक सुखी संसार बनायेंगे।
- प्रामिस?
- हां गॉड प्रामिस। मैं उसके होठों पर एक मोहर लगा कर उसकी तसल्ली कर देता हूं - अब चुप हो जाओ, देखो हम कितने घंटों से इस तरह लेटे हुए हैं। बहुत रात हो गयी है। अब सोयें क्या?
वह अचानक उठ बैठी है - क्या मतलब? कितने बजे हैं?
- अरे ये तो सुबह के साढ़े आठ बज रहे हैं। इसका मतलब हम दोनों पिछले कई घंटों से इसी तरह लेटे हुए आपके साथ आपके बचपन की गलियों में घूम रहे थे।
- ओह गौड, मैं इतनी देर तक बोलती रही और तुमने मुझे टोका भी नहीं .. आखिर उसका मूड संभला है।
- टीचर जी ने बोलने से मना जो कर रखा था।
- बातें मत बनाओ ज्यादा। कॉफी पीओगे?
- न बाबा, मुझे तो नींद आ रही है।
- मैं अपने लिये बना रही हूं। पीनी हो तो बोल देना। और वह कॉफी बनाने चली गयी है। सुरमई अंधेरे उजाले में सामने रखे शोकेस के शीशे में रसोई में से उसका अक्स दिखायी दे रहा है।
कॉफी पीते हुए पूछता हूं मालविका से - कभी दोबारा मुलाकात हुई बलविन्दर से?
- नो क्वेश्चंस प्लीज़।
- लेकिन ये अधूरी कहानी सुना कर तरसाने की क्या तुक है। बेशक कहानी का वर्तमान मेरे सामने है, और मेरे सामने खुली किताब की तरह है लेकिन बीच में जो पन्ने गायब हैं, उन पर क्या लिखा था, यह भी तो पता चले। मैं उसके नरम बाल सहलाते हुए आग्रह करता हूं ।
- मैंने कहा था ना कि अब और कोई सवाल नहीं पूछोगे।
- अच्छा एक काम करते हैं। तुम पूरी कहानी एक ही पैराग्राफ में, नट शैल में बता दो। फिर गॉड प्रॉमिस, हम ज़िंदगी भर इस बारे में बात नहीं करेंगे। अगर ये बीच की खोई हुई कड़ियां नहीं मिलेंगी तो मैं हमेशा बेचैन होता रहूंगा।
- ओ. के.। मैं सिर्फ दस वाक्यों में कहानी पूरी कर दूंगी। टोकना नहीं।
- ठीक है। बताओ।
- तो सुनो। बलविन्दर और उसके कई साथी जाली पासपोर्ट और वीज़ा ले कर यहां रह रहे थे। वे लोग पता नहीं कितने देशों की अवैध तरीके से यात्रा करने के बाद वे इंगलैंड पहुंचते थे। शादी के एक महीने तक भी वह इसी चक्कर में वह वहां रुका था कि एंजेंट की तरफ से ग्रीन सिग्नल नहीं मिल रहा था। कुछ साल पहले सबको यहां से वापिस भेज दिया गया था। उसे मेरे बारे में आखिर पता चल ही गया था। उसने दो-एक मैसेज भिजवाये, दोस्तों को भिजवाया, समझौता कर लेने के लिए, लेकिन खुद आ कर मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। जब वे लोग पकड़े गये तो उसने फिर संदेश भिजवाया था कि मैं उसे किसी तरह छ़ुड़वा लूं लेकिन मैं साफ मुकर गयी थी कि इस आदमी से मेरा कोई परिचय भी है।
शुरू शुरू में बहुत मुश्किलें सामने आयीं। रहने, खाने, इज्ज़त से जीने और अपने आपको संभाले रहने में लेकिन हिम्मत नहीं हारी। पहले तो मैं हरीश वाली जगह ही पेइंग गेस्ट बन कर रहती रही, फिर कई जगहें बदलीं। पापी पेट भरने के लिए कई उलटे सीधे काम किये। स्कूलों में पढ़ाया, दफ्तरों, फैक्टरियों, दुकानों में काम किया, बेरोजगार भी रही, भूखी भी सोयी। एक दिन अचानक एक इंडियन स्कूल में योगा टीचर की वेकेंसी निकली तो एप्लाई किया। चुन ली गयी। इस तरह योगा टीचर बनी। धीरे धीरे आत्म विश्वास बढ़ा। धीरे धीरे क्लांइट्स बढ़े तो कम्पनियों वगैरह में जा कर क्लासेस लेनी शुरू कीं। अलग से भी योगा क्लासेस चलानी शुरू कीं। घर खरीदा, हैल्थ सेंटर खोला, बड़े बड़े ग्राहक मिलने शुरू हुए तो स्कूल की नौकरी छोड़ी। कई ग्रुप मिले तो हैल्थ सेंटर में स्टाफ रखा। काम बढ़ाया। रेट्स बढ़ाये और अपने तरीके से घर बनाया, सजाया और ठाठ से रहने लगी। ज़िंदगी में कई दोस्त मिले लेकिन किसी ने भी दूर तक साथ नहीं दिया। अकेली चली थी, अकेली रहूंगी और ... अचानक उसकी आवाज़ भर्रा गयी है।
- और क्या? मैं हौले से पूछता हूं।
- इस परदेस में कभी अपने अपार्टमेंट में अकेली मर जाऊंगी और किसी को पता भी नहीं चलेगा।
- ऐसा नहीं कहते। अब मैं हूं न तुम्हारे पास।
- यह तो वक्त ही बतायेगा। कह कर मालविका ने करवट बदल ली है।
मैं समझ पा रहा हूं, अब वह बात करने के मूड में नहीं है। मैं उसके बालों में उंगलियां फिराते हुए उसे सुला देता हूं।
ज़िंदगी फिर से उसी ढर्रे पर चलने लगी है। बेशक मालविका के साथ गुज़ारे उन बेहतरीन और हसीन पलों ने मेरी वीरान ज़िंदगी को कुछ ही वक्त के लिए सही, खुशियों के सातवें आसमान पर पहुंचा दिया था, लेकिन फिर भी हम दोनों तब से नहीं मिले हैं। हम दोनों को ही पता है, वे पल दोबारा नहीं जीये जा सकते। उन मधुर पलों की याद के सहारे ही बाकी ज़िंदगी काटी जा सकती है। हमने फोन पर कई बार बात की है, लेकिन उस मुलाकात का ज़िक्र भी नहीं किया है।
सिरदर्द से लगभग मुक्ति मिल चुकी है और मैं फिर से स्टोर्स में पूरा ध्यान देने लगा हूं। मालविका ने प्रेम का जो अनूठा उपहार दिया है मुझे, उसकी स्मृति मात्र से मेरे दिन बहुत ही अच्छी तरह से गुज़र जाते है। कहीं एक जाने या रहने या उन खूबसूरत पलों को दोहराने की बात न उसने की है और न मैंने ही इसका ज़िक्र छेड़ा है।
गौरी के साथ संबंधों में जो उदासीनता एक बार आ कर पसर गयी है, उसे धो पोंछ कर बुहारना इतना आसान नहीं है। इस बात को भी अब कितना अरसा बीत चुका है जब उसके पापा ने मुझसे कहा था कि वे पैसों के बारे में गौरी को बता देंगे और मेरे साथ बेहतर तरीके से पेश आने के लिए उसे समझा भी देंगे लेकिन दोनों ही बातें नहीं हो पायी हैं। मैं अभी भी अक्सर ठन ठन गोपाल ही रहता हूं। हम दोनों ही अब बहुत कम बात करते हैं। सिर्फ काम की बातें। जब उसे ही मेरी परवाह नहीं है तो मैं ही अपना दिमाग क्यों खराब करता रहूं। सिर्फ भरपूर सैक्स की चाह ही उसे मुझसे जोड़े हुए है। मालविका ने जब से मेरी परेशानियों के कारणों के बारे में मुझे बताया है, मैंने अपने मन पर किसी भी तरह का बोझ रखना कम कर दिया है, जब चीजें मेरे बस में नहीं हैं तो मैं ही क्यों कुढ़ता रहूं। जब से संगीत और डायरी का साथ शुरू हुआ है, ये ही मेरे दोस्त बन गये हैं। मालविका के साथ गुज़ारे उस खूबसूरत दिन की यादें तो हैं ही मेरे साथ।
इस महीने मुझे यहां पांच साल पूरे हो जायेंगे। इस पूरे समय का लेखा-जोखा देखता हूं कि क्या खोया और क्या पाया। बेशक देश छूटा, बंबई की आज़ाद ज़िंदगी छूटी, प्रायवेसी छूटी, अलका और देवेद्र जी का साथ छूटा और अच्छे रुतबे वाली नौकरी छूटी, गुड्डी वाला हादसा हुआ, लेकिन बदले में बहुत कुछ देखने सीखने को मिला ही है। बेशक श्जारू शुरू के सालों में गलतफहमियों में जीता रहा, कुढ़ता रहा और अपनी सेहत खराब करता रहा। लेकिन अब सब कुछ निथर कर शांत हो गया है। मैं अब इन सारी चीजों को लेकर अपना दिमाग खराब नहीं करता।
गौरी ने अपने पापा का संदेश दिया है - आपको यहां पांच साल पूरे होने को हैं और आपकी ब्रिटिश सिटीजनशिप के लिए एप्लाई किया जाना है। किसी दिन किसी के साथ जा कर ये सारी फार्मेलिटीज पूरी कर लें।
पूछा है मैंने गोरी से - क्या क्या मांगते हैं वो, तो उसने बताया है - वो तो मुझे पता नहीं, आप कार्पोरेट ऑफिस में से किसी से पूछ लें या किसी को साथ ले जायें। शिशिर के साथ ही क्यों नहीं चले जाते। उसको तो पता ही होगा। आपका पासपोर्ट और दूसरे पेपर्स वगैरह मैं लॉकर से निकलवा रखूंगी।
और इस तरह पांच साल बाद मेरे सारे सर्टिफिकेट्स, पासपोर्ट और दूसरे कागज़ात मेरे हाथ में वापिस आये हैं। अगर ये कागज पहले ही मेरे पास ही होते तो आज मेरी ज़िंदगी कुछ और ही होती।
शिशिर ने रास्ते में पूछा है - तो जनाब, हम इस समय कहां जा रहे हैं?
- तय तो यही हुआ था कि ब्रिटिश सिटिजनशिप के लिए जो भी फार्मेलिटिज हैं, उन्हें पूरा करने के लिए आप मुझे ले कर जायेंगे।
- ये आपके हाथ में क्या है? पता नहीं शिशिर आज इस तरह से बात क्यों कर रहा है।
- मेरे सर्टिफिकेट्स और पासपोर्ट वगैरह हैं। इनकी तो जरूरत पड़ेगी ना!!
- अच्छा, एक बात बताओ, ये कागज़ात और कहां कहां काम आ सकते हैं?
- कई जगह काम आ सकते हैं। शिशिर तुम ये पहेलियां क्यों बुझा रहे हो। साफ साफ बताओ, क्या कहना चाह रहे हो।
- मैं अपने प्रिय मित्र को सिर्फ ये बताना चाह रहा हूं कि जब जा ही रहे हैं तो इमीग्रेशन ऑफिस के बजाये किसी भी ऐसी एअरलांइस के दफ्तर की तरफ जा सकते हैं जिसके हवाई जहाज आपको आपके भारत की तरफ ले जाते हों। बोलो, क्या कहते हो? सारे पेपर्स आपके हाथ में हैं ही सही।
वह अचानक गम्भीर हो गया है - देखो दीप, मैं तुम्हें पिछले पांच साल से घुटते और अपने आपको मारते देख रहा हूं। तुम उस मिट्टी के नहीं बने हो जिससे मेरे जैसे घर जवांई बने होते हैं। अपने आपको और मत मारो दीप, ये पहला और आखिरी मौका है तुम्हारे पास, वापिस लौट जाने के लिए। तुम पांच साल तक कोशिश करते रहे यहां के हिसाब से खुद को ढालने के लिए लेकिन अफसोस, न हांडा परिवार तुम्हें समझ पाया और न तुम हांडा परिवार को समझ कर अपने लिए कोई बेहतर रास्ता बना पाये। और नुकसान में तुम ही रहे। अभी तुम्हारी उम्र है। न तो कोई जिम्मेवारी है तुम्हारे पीछे और न ही तुम्हारे पास यहां साधन ही हैं उसे पूरा करने के लिए। आज पांच साल तक इतनी मेहनत करने के बाद भी तुम्हारे पास पचास पाउंड भी नहीं होंगे। सोच लो, तुम्हारे सामने पहली आज़ादी तुम्हें पुकार रही है। उसने कार रोक दी है - बोलो, कार किस तरफ मोड़ूं?
- लेकिन ये धोखा नहीं होगा? गौरी के साथ और ..
- हां बोलो, बोलो किसक साथ ..
- मेरा मतलब .. इस तरह से चोरी छुपे..
- देखो दीप, तुम्हारे साथ क्या कम धोखे हुए है जो तुम गौरी या हांडा एम्पायर के साथ धोखे की बात कर रहे हो। इन्हीं लोगों के धोखों के कारण ही तुम पिछले पांच साल से ये दोयम दर्जें की ज़िंदगी जी रहे हो। न चैन है तुम्हारी ज़िंदगी में और न कोई कहने को अपना ही है। और तुम इन्हीं झूठे लोगों को धोखा देने से डर रहे हो। जाओ, अपने घर लौट जाओ। न यह देश तुम्हारा है न घर। वहीं तुम्हारी मुक्ति है।
- तुम सही कह रहे हो शिशिर, ये पांच साल मैंने एक ऐसा घर बनाने की तलाश में गंवा दिये हैं जो मेरा था ही नहीं। मैं अब तक किसी और का घर ही संवारता रहा। वहां मेरी हैसियत क्या थी, मुझे आज तक नहीं पता, यहां से लौट जाऊं तो कम से कम मेरी आज़ादी तो वापिस मिल जायेगी। मुझे भी लग रहा है, जो कुछ करना है, अभी किया जा सकता है। सिटीजनशिप के नाटक से पहले ही मैं वापिस लौट सकता हूं। लेकिन मेरे पास तो किराये की बात दूर, एयरपोर्ट तक जाने के लिए कैब के पैसे भी नहीं होंगे।
- देखा, मैंने कहा था न कि हांडा परिवार ने तुम्हें पांच साल तक एक बंधुआ मजदूर बना कर ही तो रख छोड़ा था। किराये की चिंता मत करो। तुम हां या ना करो, बाकी मुझ पर छोड़ दो।
- नहीं शिशिर, तुमने पहले ही मेरे लिए इतना किया, तुमने गुड्डी के लिए पचास हज़ार रुपये भेजे और मुझे बताया तक नहीं, मैं ज़रा नाराज़गी से कहता हूं।
- तो तुम्हें पता चल ही गया था। अब जब गुड्डी ही नहीं रही तो उन पैसों का जिक्र मत करो। यार, अगर मैं तुम्हें इस नरक से निकाल पाया तो वही मेरा ईनाम होगा। दरअसल अगर तुमने भी मेरी तरह खाना कमाना और ऐश करना शुरू कर दिया होता तो मैं तुम्हें कभी भी यहां से इस तरह चोरी छुपे जाने के लिए न कहता। मैं भी तुम्हारी तरह इस घर का दामाद ही हूं। सारी चीजें समझता हूं। इसी घर की वज़ह से मेरा यहां का और वहां इंडिया का घर चल रहे हैं। लेकिन तुम जैसे शरीफ और बहुत इंटैलिजेंट आदमी को इस तरह घुटते हुए और नहीं देख सकता। तुम्हारे लिए चीजें यहां कभी भी नहीं बदलेंगी। और तुम दोबारा विद्रोह करोगे नहीं। मौका भी नहीं मिलेगा। तुम्हें पता है कि तुम अगर उनसे कहो कि तुम एक बार घर जाना चाहते हो तो वे तुम्हें इज़ाजत भी नहीं देंगे।
- ठीक है, मैं वापिस लौटूंगा।
- गुड, तो हम फिलहाल वापिस चलते हैं। गौरी को बता देना, डाम्यूमेंट्स सबमिट कर दिये हैं। काम हो जायेगा। इस बीच तुम एक बार फिर सोच लो, कब जाना है। मैं एक दो दिन में तुम्हारे लिए ओपन टिकट ले लूंगा। बाकी इंतज़ाम भी कर लेंगे इस बीच। लेकिन एक बात तय हो चुकी कि तुम यहां की सिटीजनशिप के लिए एप्लाई नहीं कर रहे हो। चाहो तो इस बीच अपने पुराने ऑफिस को अपने पुराने जॉब पर वापिस लौटने के बारे में पूछ सकते हो। हालांकि उम्मीद कम है लेकिन चांस लिया जा सकता है। किस पते पर वहां से जवाब मंगाना है, वो मैं बता दूंगा।
- लेकिन अगर तुम पर कोई बात आयी तो? मैंने शंका जताई है।
- वो तुम मुझ पर छोड़ दो। वह हँसा है - मैं हांडा परिवार का खाता पीता दामाद हूं, उनका चौकीदार नहीं जो यह देखता फिरे कि उनका कौन सा घर जवाईं खूंटा तुड़ा कर भाग रहा है और कौन नहीं। समझे। तुम जाओ तो सही। बाकी मुझ पर छोड़ दो।
और हम आधे रास्ते से ही लौट आये हैं।
मैं तय कर चुका हूं कि वापिस लौट ही जाऊं। बेशक खाली हाथ ही क्यों न लौटना पड़े। अब सवाल यही बचता है कि मैं मालविका से किया गया वायदा पूरा करते हुए उसे भी साथ ले कर जाऊं या अकेले भागूं? हालांकि इस बारे में हमारी दोबारा कभी बात नहीं हुई है।
संयोग ही नहीं बना।
मालविका से इस बारे में बात करने का यही मतलब होगा कि तब उसे भी ले जाना होगा। मालविका जैसी शरीफ और संघर्षों से तपी खूबसूरत और देखी-भाली लड़की पा कर मुझे ज़िंदगी में भला और किस चीज की चाह बाकी रह जायेगी। लेकिन फिर सोचता हूं, बहुत हो चुके घर बसाने के सपने। फिलहाल मुझे अपनी ज़िंदगी में कोई भी नहीं चाहिये। अकेले ही जीना है मुझे। मालविका भी नहीं। कोई भी नहीं।
मैं इन सारी मानसिक उथल पुथल में ही उलझा हुआ हूं कि मालविका का फोन आया है -
- बहुत दिनों से तुमने याद भी नहीं किया।
- ऐसी कोई बात नहीं है मालविका, बस यूं ही उलझा रहा। तुम कैसी हो? तुम्हारी आवाज़ बहुत डूबी हुई सी लग रही है। सब ठीक तो है ना..।
- लेकिन ऐसी भी क्या बेरुखी कि अपनों को ही याद न करो।
- बिलीव मी, मैं सचमुच बात करना और मिलना चाह रहा था। बोलो, कब मिलना है?
- रहने दो दीप, जो चाहते तो आ भी तो सकते थे। कम से कम मुझसे मिलने के लिए तो तुम्हें अपाइंटमेंट की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिये।
- मानता हूं मुझसे चूक हुई है। चलो, ऐसा करते हैं, कल लंच एक साथ लेते हैं।
- ठीक है, तो कल मिलते हैं। कह कर उसने फोन रख दिया है।
लेकिन इस बार मैं जिस मालविका से मिला हूं वह बिलकुल ही दूसरी मालविका है। थकी हुई, कुछ हद तक टूटी और बिखरी हुई। मैं उसे देखते ही हैरान रह गया हूं। ये क्या हाल बना लिया है मालविका ने अपना। लगता है महीनो बाद सीधे बिस्तर से ही उठ कर आ रही है। ख्दा पर गुस्सा भी आ रहा है कि इतने दिनों तक उसकी खोज खबर भी नहीं ले पाया।
- ये क्या हाल बना रखा है। तुम्हारी सूरत को क्या हो गया है? मैं घबरा कर पूछता हूं।
- मैंने उस दिन कहा था न कि किसी दिन मैं अकेली अपने अपार्टमेंट में मर जाऊंगी और किसी को खबर तक नहीं मिलेगी। वह बड़ी मुश्किल से कह पाती है।
- लेकिन तुम्हें ये हो क्या गया है? मैं उसकी बांह पकड़ते हुए कहता हूं। उसका हाथ बुरी तरह थरथरा रहा है।
- अब क्या करोगे जान कर। इतने दिनों तक मैं ही तुम्हारी राह देखती रही कि कभी तो इस अभागिन ..
- ऐसा मत कहो डीयर, मैंने उसके मुंह पर हाथ रख कर उसे रोक दिया है - तुम्हीं ने तो मुझे यहां नयी ज़िदंगी दी थी और जीवन के नये अर्थ समझाये थे। मैं भला..
- इसीलिए मौत के मुंह तक जा पहुंची इस बदनसीब को कोई पूछने तक नहीं आया। मैं ही जानती हूं कि मैंने ये बीमारी के दिन अकेले कैसे गुज़ारे हैं।
- मुझे सचमुच नहीं पता था कि तुम बीमार हो वरना..
- मैं बहुत थक गयी हूं। वह मेरी बांह पकड़ कर कहती है - मुझे कहीं ले चलो दीप। यहां सब कुछ समेट कर वापिस लौटना चाहती हूं। बाकी ज़िंदगी अपने ही देश में किसी पहाड़ पर गुजारना चाहती हूं। चलोगे?
मेरे पास हां या ना कहने की गुंजाइश नहीं है। मालविका ही तो है जिसने मुझे इतने दिनों से मजबूती से थामा हुआ है वरना मैं तो कब का टूट बिखर जाता।
मैं उसे आश्वस्त करता हूं - ज़रूर चलेंगे। कभी बैठ कर योजना बनाते हैं।
फिलहाल तो मैंने उससे थोड़ा समय मांग ही लिया है। देखूंगा, क्या किया जा सकता है। मालविका भी अगर मेरे साथ जाती है तो उसे अपना सारा ताम-झाम समेटने में समय तो लगेगा ही, उसके साथ जाने में मेरा जाना तब गुप्त भी नहीं रह पायेगा। मेरा तो जो होगा सो होगा, उसने इतने बरसों में जो इमेज बनायी है.. वो भी टूटेगी। सारी बातें सोचनी हैं। तब शिशिर को भी विश्वास में लेना पड़ेगा। उसके सामने मालविका से अपने रिश्ते को भी कुबूल करना पड़ेगा। मेरी भी बनी बनायी इमेज टूटेगी। बेशक वह इन सब कामों के लिए प्रेरित करता रहा है।
शिशिर ने पूरी गोपनीयता से योजना बनायी है। देहरादून न जाने की भी उसी ने सलाह दी है। ओपन टिकट आ गया है। पेमेंट शिशिर ने ही किया है। शिशिर ही ने मेरे लिए थोड़ी बहुत शॉपिंग की है। मैं वैसे भी गौरी के निकलने के बाद ही निकलता हूं। शाम तक उसे भी पता नहीं चलेगा। घर से खाली हाथ ही जाना है। मेरा यहां है ही क्या जो लेकर जाऊं।
मैं मालविका के बारे में आखिर तक कुछ भी तय नहीं कर पाया हूं। खराब भी लग रहा कि कम से कम मालविका को तो अंधेरे में न रखूं लेकिन फिर सोचता हूं, मालविका को साथ ले जाने का मतलब .. मेरे जाने का एक नया ही मतलब निकाला जायेगा और.. सब कुछ फिर से .. एक बार फिर.. सब कुछ..!
वापिस लौट रहा हूं। तो यह घर भी छूट गया। एक बार फिर बेघर- बार हो गया हूं।
देखें, इस बार की वापसी में मेरे हिस्से में क्या लिखा है .. .. ..।
इति