Desh Virana - 30 in Hindi Motivational Stories by Suraj Prakash books and stories PDF | देस बिराना - 30

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देस बिराना - 30

देस बिराना

किस्त तीस

हॉस्टल में हमारा यह तीसरा दिन था। आखिरी दिन। बड़ी मुश्किल से हमें एक और दिन की मोहलत मिल पायी थी। इतना ज़रूर हो गया था कि अगर हम चाहते तो आगे की तारीखों की एडवांस बुकिंग करवा सकते थे लेकिन अभी एक बार तो हॉस्टल खाली करना ही था। हमारा पहला दिन तो बलविन्दर को खोजने और उसे खोने में ही चला गया था। वहां से वापिस आने के बाद मैं कमरे से निकली ही नहीं थी। हरीश बेचारा खाने के लिए कई बार पूछने आया था। उसके बहुत जिद करने पर मैंने सिर्फ सूप ही लिया था। अगले दिन वह अपने ऑफिस चला गया था लेकिन दिन में तीन-चार बार वह फोन करके मेरे बारे में पूछता रहा था। मुझे उस पर तरस भी आ रहा था कि बेचारा कहां तो बलविन्दर के भरोसे यहां आ रहा था और कहां मैं ही उसके गले पड़ गयी थी। जिस दिन हमें हॉस्टल खाली करना था, उसी शाम को वापिस आने पर उसने दो तीन अच्छी खबरें सुनायी थीं। उसके लिए ग्रीनफोर्ड इलाके में एक गुजराती परिवार के साथ पेइंग गेस्ट के रूप में रहने का इंतज़ाम हो गया था। लेकिन उसने एक झूठ बोल कर मेरा काम भी बना दिया था। उसने वहां बताया था कि उसकी बड़ी बहन भी एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में उसके साथ आयी हुई है पद्रह बीस दिन के लिए। फिलहाल उसी घर में उसके लिए भी एक अलग कमरे का इंतज़ाम करना पड़ेगा ताकि वह अपना प्रोजेक्ट बिना किसी तकलीफ़ के पूरा कर सके। बीच-बीच में उसे काम के सिलसिले में बाहर भी जाना पड़ सकता है। हरीश की अक्लमंदी से ये इंतजाम हो गये थे और हमें अगले दिन ही वहां शिफ्ट कर जाना था।

मैं दोहरी दुविधा में फंस गयी थी। एक तरफ हरीश पर ढेर सारा प्यार आ रहा था जो मेरी इतनी मदद कर रहा था और दूसरी तरफ बलविन्दर पर बुरी तरह गुस्सा भी आ रहा था कि देखो, हमें यहां आये तीसरा दिन है और अब तक जनाब का पता ही नहीं है।

दो तीन दिन के इस आत्म मंथन के बीच मैं भी तय कर चुकी थी कि मैं अब यहां से वापिस नहीं जाऊंगी। बलविन्दर या नो बलविन्दर, अब यही मेरा कार्य क्षेत्र रहेगा। तय कर लिया था कि काम करने के बारे में यहां के कानूनों के बारे में पता करूंगी और सारे काम कानून के हिसाब से ही करूंगी।

अब संयोग से हरीश ने रहने का इंतजाम कर ही दिया था। अभी तो मेरे पास इतने पैसे थे कि ठीक-ठाक तरीके से रहते हुए बिना काम किये भी दो तीन महीने आराम से काटे जा सकते थे।

हम अभी रिसेप्शन पर हिसाब कर ही रहे थे, तभी वह आया था। बुरी हालत थी उसकी। बिखरे हुए बाल। बढ़ी हुई दाढ़ी और मैले कपड़े। जैसे कई दिनों से नहाया ही न हो। मैं उसे सात आठ महीने बाद देख रही थी। अपने पति को, बलविन्दर को। वह मेरी तरफ खाली खाली निगाहों से देख रहा था।

उसने मेरी तरफ देखा, हरीश की तरफ देखा और हमारे सामान की तरफ देखा जैसे तय कर रहा हो, इनमें से कौन-कौन से बैग मेरे हो सकते हैं। फिर उसने बिना कुछ पूछे ही दो बैग उठाये और हौले से मुझसे कहा - चलो।

मैं हैरान - ये कैसा आदमी है, जिसमें शर्म हया नाम की कोई चीज ही नहीं है। जिस हालत में मुझसे सात महीने बाद मिल रहा है, चार दिन से मैं लंदन में पड़ी हुई हूं, मेरी खबर तक लेने नहीं आया और अब सामान उठाये आदेश दे रहा है - चलो। कैसे व्यवहार कर रहा है। हरीश भी उसका व्यवहार देख कर हैरान था। हरीश की हैरानी का कारण यह भी था कि बलविन्दर के दोनों हाथों में उसी के बैग थे। बलविन्दर पूरी निश्चिंतता से बैग उठाये बाहर की तरफ चला जा रहा था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहूं और कैसे कहूं कि हे मेरे पति महाशय, क्या यही तरीका है एक सभ्य देश के सभ्य नागरिक का आपके देश में पहली बार पधारी पत्नी का स्वागत करने का।

मुझे गुस्सा भी बहुत आ रहा था और रुलाई भी फूटने को थी - क्या मैं इसी शख्स का इतने महीनों से गुरदासपुर में इंतज़ार कर रही थी कि मेरा पिया मुझे लेने आयेगा और मैं उसके साथ लंदन जाऊंगी।

बलविन्दर ने जब देखा कि मैं उसके पीछे नहीं आ रही हूं बल्कि वहीं खड़ी उसका तमाशा देख रही हूं तो दोनों बैग वहीं पर रखे, वापिस पलटा और मेरे एकदम पास आ कर बोला - घर चलो, वहीं आराम से सारी बातें करेंगे। और वह मेरे जवाब का इंतज़ार किये बिना फिर बैगों की तरफ चल दिया। मैं दुविधा में थी, खुश होऊं कि मेरा पति मुझे लेने आ गया है या रोऊं कि जिस हाल में आया है, न आया होता तो अच्छा होता। उधर हरीश हैरान परेशान मेरे इशारे का इंतज़ार कर रहा था।

मैंने यही बेहतर समझा कि आगे पीछे एक बार तो बलविन्दर के साथ जाना ही पड़ेगा। उसका पक्ष भी सुने बिना मुक्ति नहीं होगी तो इसे क्यों लटकाया जाये। जो कुछ होना है आज निपट ही जाये। उसके साथ बाकी जीवन गुज़ारना है तो आज ही से क्यों नहीं और अगर नहीं गुज़ारना है तो उसका भी फैसला आज ही हो जाये।

मैंने हरीश से फुसफुसा कर कहा - सुनो हरीश

- जी दीदी

- आज तो मुझे इनके साथ जाने ही दो। जो भी फ़ैसला होगा मैं तुम्हें फोन पर बता दूंगी। अलबत्ता पेइंग गेस्ट वाली मेरी बुकिंग कैंसिल मत करवाना।

- ठीक है दीदी, मैं आपके फोन का इंतज़ार करूंगा। बेस्ट ऑफ लक, दीदी।

हम दोनों आगे बढ़े थे। हमें आते देख बलविन्दर की आंखों में किसी भी तरह की चमक नहीं आयी थी। उसने फिर से बैग उठा लिये थे। मुझे हंसी भी आ रही थी - देखो इस शख्स को, चौथे दिन मेरी खबर लेने आया है। न हैलो न और कोई बात, बस बैग उठा कर खड़ा हो गया है।

मैंने हरीश का झूठा परिचय कराया था - ये हरीश है। मेरी बुआ का लड़का। हमारी शादी के वक्त बंबई में था। यहां नौकरी के लिए आया है।

बलविन्दर ने एक शब्द बोले बिना अपना हाथ आगे बढ़ा दिया था।

हरीश ने तब अपने बैग बलविन्दर के हाथ से लिये थे और अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ा दिया था - चलता हूं दीदी। अपनी खबर देना। ओके जीजाजी, कहते हुए वह तेज़ी से बाहर निकल गया था।

मिनी कैब में बैठा बलविन्दर लगातार बाहर की तरफ देखता रहा था। पूरे रास्ते न तो उसने मेरी तरफ देखा था और न ही उसने एक शब्द ही कहा था। मैं उम्मीद कर रही थी और कुछ भी नहीं तो कम से कम मेरा हाथ ही दबा कर अपने आप को मुझसे जोड़ लेता। मैं तब भी उसके सारे सच-झूठ मान लेती। पता नहीं क्या हो गया है इसे। इतने अजनबियों की तरह व्यवहार कर रहा है।

मिनी कैब विलेसडन ग्रीन जैसी ही किसी गंदी बस्ती में पहुंच गयी थी। वह ड्राइवर को गलियों में दायें बायें मुड़ने के लिए बता रहा था।

आखिर हम आ पहुंचे थे।

क्या कहती इसे - मेरा घर.. ..मेरी ससुराल .. ..या एक और पड़ाव....।. बलविन्दर ने दरवाजा खोला था। सामान अंदर रखा था। मैं उम्मीद कर रही थी अब तो वह आगे बढ़ कर मुझे अपने गले से लगा ही लेगा और मुझ पर चुंबनों की बौछार कर देगा। मेरे सारे शरीर को चूमते-चूमते खड़े-खड़े ही मेरे कपड़े उतारते हुए मुझे सोफे या पलंग की तरफ ले जायेगा और उसके बाद.. मैं यही उम्मीद कर सकती थी.. चाह सकती थी और इस तरह के व्यवहार के लिए तैयार भी थी। आख़िर हम नव विवाहित पति पत्नी थे और पूरे सात महीने बाद मिल रहे थे, लेकिन उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया था और रसोई में चाय बनाने चला गया था।

मैंने देखा था, यह घर भी उन लड़कों वाले उस घर की तरह ही था लेकिन उसकी तुलना में साफ-सुथरा था और सामान भी बेहतर और ज्यादा था। मैं सोच ही रही थी कि अगर यह घर बलविन्दर का है तो उसने उस गंदे से घर का पता क्यों दिया था। लेकिन दो मिनट में ही मेरी शंका का समाधान हो गया था। यह घर भी बलविन्दर का नहीं था। जरूर उसके किसी दोस्त का रहा होगा और इसका इंतज़ाम करने में ही बलविन्दर को दो तीन दिन लग गये होंगे। जब मैं बाथरूम में गयी तो बाथरूम ने पूरी पोल खोल दी थी। वहां एक नाइट गाउन टंगा हुआ था। बलविन्दर नाइट गाउन नहीं पहनता, यह बात उसने मुझे हनीमून के वक्त ही बता दी थी। वह रात को सोते समय किसी भी मौसम में बनियान और पैंट पहन कर ही सोता था। बाथरूम में ही रखे शैम्पू और दूसरे परफयूम उसकी चुगली खा रहे थे। ये दोनों चीजें ही बलविन्दर इस्तेमाल नहीं करता था।

कमरे में लौट कर मैंने ग़ौर से देखा था, वहां भी कई चीजें ऐसी थीं जो बलविन्दर की नहीं हो सकती थीं। किताबों के रैक में मैंने जो पहली किताब निकाल कर देखी उस पर किसी राजेन्दर सोनी का नाम लिखा हुआ था। दूसरी और तीसरी किताबें भी राजेन्दर सोनी की ही थीं।

बलविन्दर अभी भी रसोई में ही था। वहां से डिब्बे खोलने बंद करने की आवाजें आ रही थीं। मुझे इतने तनावपूर्ण माहौल में भी हँसी आ गयी। जरूर चाय पत्ती चीनी ढूंढ रहा होगा।

आखिर वह चाय बनाने में सफल हो गया था। लेकिन शायद खाने के लिए कुछ नहीं खोज पाया होगा। वह अब मेरे सामने बैठा था। मैं इंतज़ार कर रही थी कि वह कुछ बोले तो बात बने। लेकिन वह मुझसे लगातार नज़रें चुरा रहा था।

बात मैंने ही शुरू की थी - ये क्या हाल बना रखा है। तुम तो अपने बारे में ज़रा-सी भी लापरवाही पसंद नहीं करते थे।

- क्या बताऊं, कितने महीने हो गये, इन मुसीबतों की वजह से मारा-मारा फिर रहा हूं। अपने बारे में सोचने की भी फुर्सत नहीं मिल रही है। तुम.. तुम.. अचानक .. इस तरह से .. बिना बताये..।

- तुम्हें अपनी परेशानियों से फुर्सत मिले तो दुनिया की कुछ खबर भी मिले .. मैंने तुम्हें दो तार डाले, दो खत डाले। वहां हम हीथ्रो पर एक घंटा तुम्हारा इंतज़ार करते रहे। एनाउंसमेंट भी करवाया और तुम्हें खोजने वहां तुम्हारे उस पते पर भी गये। और तुम हो कि आज चौथे दिन मिलने आ रहे हो। इस पर भी तुमने एक बार भी नहीं पूछा... कैसी हो.. मेरी तकलीफ़ का ज़रा भी ख्याल नहीं था तुम्हें।

- सच में मैं मुसीबत में हूं। मेरा विश्वास तो करो मालविका, मैं बता नहीं सकता, मुझे आज ही पता चला कि ....

- झूठ तो तुम बोलो मत.. तुम हमेशा से मुझसे झूठ बोलते रहे हो। एक के बाद दूसरा झूठ।

- मेरा यकीन करो, डीयर, मुझे सचमुच आज ही पता चला।

- सच बताओ तुम्हारा असली परिचय क्या है, और तुम्हारा घर कहां है। कोई घर है भी या नहीं,.. मुझे गुस्सा आ गया था।

इतनी देर में वह पहली बार हँसा था - तुम तो स्कॉटलैंड यार्ड की तरह ज़िरह करने लगी।

- तो तुम्हीं बता दो सच क्या है।

- सच वही है जो तुम जानती हो।

- तो जो कुछ तुम्हारे उन लफंगे दोस्तों ने बताया, वो किसका सच है।

- तुम भी उन शराबियों की बातों में आ गयीं। क्या है कि उन लोगों का खुद का कोई काम धंधा है नहीं, न कुछ करने की नीयत ही है। बस जो भी उनकी मदद न करे उसके बारे में उलटी सीधी उड़ा देते हैं। अब पता नहीं मेरे बारे में उन्होंने तुम्हारे क्या कान भरे हैं।

- तो ये वैल्डर बिल्ली कौन है।

- बिल्ली ... अच्छा वो ...था एक। अब वापिस इंडिया चला गया है। लेकिन तुम उसके बारे में कैसे जानती हो।

- मुझे बताया गया है तुम्हीं बिल्ली वैल्डर हो।

- बकवास है।

- ये घर किसका है?

- क्यों .. अब घर को क्या हो गया...मेरा ही है। मैं तुम्हें किसी और के घर क्यों लाने लगा।

- तो बाथरूम में टंगा वो नाइट गाउन, शैम्पू, परफयूम्स और ये किताबें.. .. कौन है ये राजेन्दर सोनी?

हकलाने लगा बलविन्दर - वो क्या है कि जब से बिजिनेस के चक्करों में फंसा हूं, काम एकदम बंद पड़ा है। कई बार खाने तक के पैसे नहीं होते थे मेरे पास, इसीलिए एक पेइंग गेस्ट रख लिया था।

- बलविन्दर, तुम एक के बाद एक झूठ बोले जा रहे हो। क्यों नहीं एक ही बार सारे झूठों से परदा हटा कर मुक्त हो जाते।

- यकीन करो डियर मेरा, मैं सच कर रहा हूं।

- तकलीफ तो यही है कि तुम मुझसे कभी सच बोले ही नहीं। यहीं तुम्हारे इस घर में आ कर मुझे पता चल रहा है कि मकान मालिक के कपड़े तो अटैची में रहते हैं और पेइंग गेस्ट के कपड़े अलमारियों में रखे जाते हैं। मकान मालिक रसोई में चाय और चीनी के डिब्बे ढूंढने में दस मिनट लगा देता है और अपने ही घर में मेहमानों की तरह जूते पहने बैठा रहता है।

- तुम्हें लिखा तो था मैंने कि कब से अंडरग्राउंड चल रहा हूं। कभी कहीं सोता हूं तो कभी कहीं।

- मैं तुम्हारी सारी बातों पर यकीन कर लूंगी। मुझे अपने शो रूम के पेपर्स दिखा दो।

- वो तो शायद विजय के यहां रखे हैं। वह फिर से हकला गया था।

- लेकिन शो रूम की चाबी तो तुम्हारे पास होगी।

- नहीं, वो वकील के पास है।

- तुम्हारे पास अपने शोरूम का पता तो होगा। मुझे गुस्सा आ गया था - कम से कम टैक्सी में बैठे बैठे दूर से तो दिखा सकते हो। मैं उसी में तसल्ली कर लूंगी।

- दिखा दूंगा,. तुम इतने महीने बाद मिली हो। इन बातों में समय बरबाद कर रही हो। मेरा यकीन करो। मैं तुम्हें सारी बातों का यकीन करा दूंगा। अब यही तुम्हारा घर है और तुम्हें ही संभालना है। यह कहते हुए वह उठा था और इतनी देर में पहली बार मेरे पास आ कर बैठा था। उस समय मैं उस शख्स से प्यार करने और उसे खुद को प्यार करने देने की बिलकुल मनस्थिति में नहीं थी। यहां तक कि उसका मुझे छूना भी नागवार गुज़र रहा था। मैंने उसका बढ़ता हुआ हाथ झटक दिया था और एक आसान सा झूठ बोल दिया था - अभी मैं इस हालत में नहीं हूं। मेरे पीरियड्स चल रहे हैं।

वह चौंक कर एकदम पीछे हट गया था और फिर अपनी जगह जा कर बैठ गया था। उसे इतना भी नहीं सूझा था कि पीरियड्स में सैक्स की ही तो मनाई होती है, अरसे बाद मिली बीवी का हाथ थामने, उसे अपने सीने से लगाने और चूमने से कुछ नहीं होता। मैंने भी तय कर लिया था, जब तक वह अपनी असली पहचान नहीं बता देता, मैं उसे अपने पास भी नहीं फटकने दूंगी। बेशक उस वक्त मैं सैक्स के लिए बुरी तरह तड़प रही थी और मन ही मन चाह रही थी कि वह मुझसे जबरदस्ती भी करे तो मैं मना नहीं करूंगी। लेकिन वह तो हाथ खींच कर एकदम पीछे ही हट गया था।

***