Do Ajnabi aur wo aawaz - 15 - last part in Hindi Moral Stories by Pallavi Saxena books and stories PDF | दो अजनबी और वो आवाज़ - 15 - अंतिम भाग

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दो अजनबी और वो आवाज़ - 15 - अंतिम भाग

दो अजनबी और वो आवाज़

भाग-15

तुम्हें ऐसा इसलिए लग रहा है कि तुम्हें कुछ याद नहीं है। लेकिन अब मैं तुम्हें कैसे याद दिलाऊँ की हम कौन है

हम “दो अजनबी” नहीं है प्रिय...हम तो दो जिस्म एक जान है। इसलिए में एक आवाज़ हूँ...और तुम मेरा शरीर हो...इससे अधिक अब मैं और क्या कहूँ...कहते हुए वह आवाज़ मुझसे दूर होती हुई कहीं गुम हो गयी। उस जाती हुई आवाज ने मेरे दिमाग में एक हलचल सी पैदा कर दी। मेरी सारी अब तक की ज़िंदगी का जैसे कोई फ्लैश बॅक सा चला दिया। एक-एक कर के मेरी नज़रों के सामने वो पूरे मंज़र चलने लगे हैं....जो अब तक मैंने जिये। जिनमें कभी खुशी तो कभी ग़म थे। घूमते घूमते मेरी ज़िंदगी फिर उसी मोड पर आ खड़ी हुई जहां से मैंने चलना चालू किया था। अब मुझे सब कुछ याद आ चुका है, वो फोन कॉल और मेरा जल्द बाज़ी में घर से निकलना और रास्ते में ही कहीं खो जाना। लेकिन अब मैं एक इमारत के सामने खड़ी हूँ। जहां अंदर जाने पर मुझे एक कमरे की ओर ले जाया जाता है। जहां मैंने देखा लोहे की सलाखों के पीछे हल्की सी आती हुई रोशनी की तरफ वो मुंह किए हुए बैठा है। रोशनी बिलकुल ऐसी आरही है जैसे जरा सी झिरी में से आया करती है और वह कुछ बुदबुदा रहा है। जिसे मैं ठीक से सुन नहीं पा रही हूँ।

पर मेरी आँखों में आँसू हैं, एक असहनीय पीड़ा से गुज़र रही हूँ मैं इस वक़्त, मेरे रोने की आवाज से वह मेरी ओर पलटता है और भागकर आते हुए कहता है। कहाँ चली गयी थी तुम मुझे छोड़कर, तुम्हें पता है, यह लोग बहुत गंदे है।

यह मेरी कोई बात नहीं सुनते। तुम से मिलने भी नहीं देते। मुझे यहाँ से ले चलो प्लीज....नहीं तो यह लोग मुझे मार डालेंगे। पता है...जब तुम नहीं होती हो ना, तब यह लोग मुझसे ज़बरदस्ती वो काम करवाते हैं, जो...जो मैं करना नहीं चाहता और जब मैं माना करता हूँ न, कहते-कहते वो भी किसी छोटे मासूम बच्चे की तरह रोये जा रहा है। तो यह सब लोग मिलकर मुझे मारते हैं और यदि मैं फिर भी नहीं सुनता न...न....वो लगातार सुबक रहा है। तो फिर यह लोग मुझे करंट लगाते है... मुझे बहुत तकलीफ होती है, बहुत दर्द होता है। इस बार वो फफक फफक कर रो रहा है।

मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मेरे अंदर कुछ टूट रहा है। उसके आँसू मेरी दिल में शूल बनकर चुभ रहे हैं। वो भी रो रहा है....और मैं भी रो रही हूँ....मेरी आँखों में उसका दर्द उतर आया है। मेरी आँखों में आँसू तो है, मगर एक लावे की तरह जो उस वक़्त उन सभी लोगों को जला डालना चाहते हैं, जिन्होंने मिलकर उसका यह हाल कर दिया था।

वो मेरे दोनों हाथ पकड़ कर रो रहा है। जैसे वो कोई कैदी हो। उसके आँसुओं में उसका दर्द भी है और उन लोगों के प्रति डर भी, कि कहीं वह लोग फिर से उसे मुझसे दूर ना कर दें। एक असहनीय पीड़ा, जैसे एक आत्मा की चित्कार, दया की भीख, और ढेर सा प्यार, दुबारा छोड़कर ना जाने की गुहार, डर, लाचारी सभी कुछ था उस रोज़ उन आँखों में, सिवाय उस हंसी के जो अब तक मैं सुनती आरही थी।

उसकी आँखों के नम निवेदनों ने मुझको काट के रख दिया था उस रोज़, ग्लानि और क्षोभ से भर उठी थी मैं, कि मैं उसे यूं अकेला छोड़कर गयी ही क्यूँ….बहुत बड़ी भूल हो गयी मुझसे जो एक मासूम को इन दरिंदों के हवाले कर दिया था मैंने, मैंने अपने दोनों हाथों में उसका चेहरा लिया और उसे आश्वासन देते हुए कहा। हाँ...मैं हूँ न....अब मैं आ गयी हूँ। अब तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। मैं ना, सब की खबर लुंग गी। सबकी पिटाई लगाऊँगी। हाँ...और न करंट भी लगाना सब को...सुबकते हुए उसने बोला। सब बहुत गंदे हैं यहाँ पर, मैंने कहा था इन लोगों से तुम आओगी न तो सब की खबर लोगी। हाँ... मैं हूँ यहीं। तुम ज़रा भी चिंता मत करो। मेरे रहते यह लोग तुम्हें हाथ भी नहीं लगा सकते। हम दोनों की आँखों से आंसुओं की गंगा बह रही हैं....!

मैंने आँखों से इशारा करवाते हुए उन से उसके कमरे का दरवाज़ा खोलने के लिए कहा। वो आए और उन्होंने दरवाजा खोल दिया। मैंने कमरे में प्रवेश किया, तो उसने कस के मुझे अपनी बाँहों में जकड़ लिया कि गलती से भी कहीं, मैं दुबारा उसे वहाँ छोड़कर न चली जाऊँ...। वो अब भी सकपकाया हुआ सा है, डरा-डरा सा,...मैंने उसे बहुत ही प्यार से समझते हुए वहाँ पड़ी एक मेज़ पर बिठाया। उसे अपने हाथों से खाना खिलाया।

उसके आँसू पौंछकर, उसे चुप कराया। उसे समझाया कि मैं आज उसे अपने साथ घर ले जाऊँगी। उसे अब डरने की कोई जरूरत नहीं है। फिर उससे कहा अच्छा चलो अब तुम तैयार हो जाओ अब हम अपने घर जाएंगे।

यह सुनकर उसका चेहरा मारे खुशी के फूल सा खिल गया। उसकी भोली मुस्कान देखकर मेरे होंठों पर भी हल्की सी मुस्कान आ गयी।

मैंने बाहर आकर सभी को डांटते हुए गुस्से से झलाते हुए कहा। यह क्या किया आप लोगों ने उसके साथ। मैंने यहाँ उसे इलाज के लिए छोड़ा था। उसे प्रताड़ित करने के लिए नहीं...माना के उसका दिमागी संतुलन ठीक नहीं है। पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि वह पागल है। आप लोगों ने तो उसे एक पागल के जैसा ट्रीट किया। क्यूँ....? इस सब में शायद मेरी ही गलती है मुझे उसे यहाँ इस पागल खाने में लाना ही नहीं चाहिए था।

कैसे पत्थर दिल लोग हो, आप लोग। आप में से किसी को भी उस पर दया नहीं आयी। यदि वो आप लोगों से नहीं संभल रहा था तो मुझे फोन कर देते। मैं आकर उसे ले जाती। मगर आप लोगों ने तो उसका इलाज करने के बजाए उसे और बीमार बना दिया।

तो उन में से एक बोला, नहीं संभल रहा था तभी तो आपको फोन कर के बुलाया न मैडम, तो यही फोन आप लोग मुझे पहले भी कर सकते थे न... ? मैं छोड़ूँगी नहीं आप लोगों को, मैं केस करूंगी आप सभी पर कि यहाँ मरीजों को ठीक नहीं किया जाता बल्कि उन्हें प्रताड़ना देकर जानबूझकर कर पागल बनाया जाता है।

मैंने उस रोज़ ऐसा इसलिए कहा क्यूंकि उस रोज़ में कहीं और नहीं बल्कि एक पागल खाने में ही खड़ी थी। उन सभी लोगों को इतना कुछ सुनाने से पहले ही मैं पुलिस को फोन कर चुकी थी। थोड़ी ही देर में पुलिस वहाँ आ पहुंची और मैं उसे अपने साथ लेकर अपने घर कि ओर रवाना हो गयी.....पुलिस उन्हें पकड़ कर अपने साथ ले गयी। हम दोनों घर लौट आए। आज वह बहुत खुश था। मैंने घर लाकर उसे नहाने को कहा, फिर उसकी हजामत बनवायी, उसे आम इंसानों की तरह साफ सुथरा बनाया।

वरना इससे पहले उसकी जो हालत थी, उसे देखकर तो ऐसा लगा था, मानो उसने बरसों से नहीं नहाया, बढ़ी हुई बेतरतीब दाढ़ी और बाल, आँखों के नीचे गहरे काले घेरे, मैले कुचले कपड़े जैसे वो कोई मरीज नहीं, बल्कि रहा चलता कोई भिखारी हो।

उसकी ऐसी हालत पर मुझे दया भी आरही थी और अपने आप पर गुस्सा भी आ रहा था। क्यूंकि उसकी ऐसी हालत की जिम्मेदार मैं ही थी। मैंने उसे नेहला धुलाकर एक सभ्य इंसान बनाकर उसे खिलाया पिलाया, उसे उसकी दवा दी...और सुला दिया। आज वो चैन की नींद सो रहा है। मैं उसका चेहरा देख रही हूँ। सोते में भी उसकी चेहरे पर भाव बदल रहे हैं, वो नींद में भी डर से काँप रहा है। सोते-सोते ही उसने मेरा हाथ कसके पकड़ लिया है।

उसके मन में अब भी वही डर है, कि कहीं मैं उसे छोड़कर चली ना जाऊँ....कहने को हम “दो अजनबी” है जो मिले थे कभी कहीं...पर धीरे-धीरे हमारे बीच का रिश्ता कुछ कुछ वैसा ही हो गया था जैसे बिन फेरे हम तेरे....यह वो इंसान था, जिसने ज़िंदगी के हर मोड़ पर मेरा साथ दिया। हमारे बीच सिर्फ एक प्रकार का ही रिश्ता कभी नहीं रहा। बल्कि कई रिश्ते मुझे एक ही इंसान में मिले और शायद उसे भी, इसलिए वह मेरे दिल के करीब हो गया। हम दोनों एक दूजे के लिए सभी कुछ थे। जब जैसी जरूरत हो, हम एक दूजे के लिए वही बन जाया करते थे। शायद इसलिए हमें कभी किसी और रिश्ते कि जरूरत ही महसूस नहीं हुई। हम दोनों कहीं न कहीं एक दूजे के लिए सम्पूर्ण थे।

वो मेरी दुनिया थी और मैं उसकी....फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि उसका मानसिक संतुलन धीरे-धीरे बिगड़ने लगा। मैंने उसे मनोचिकित्सक को भी दिखाया, पर कुछ खास फायदा न हुआ और आज उसकी यह हालत है।

मैं आज भी उसे याद हूँ। लेकिन कई बार वो मुझे भी भूल जाता है। मुझसे प्रश्न करता ही तुम कौन हो...? मैं कौन हूँ ? कभी कभी खाना भी फेंक देता है, तो कभी छोटे बच्चों की तरह डर के मारे मुझसे लिपट जाता है। जब किसी कि नहीं सुनता तब केवल मेरी सुनता है।

आज एक मैं ही हूँ, जो उसे संभाल सकती हूँ। उसका इलाज आज भी चल रहा है। जब कभी उसके मानस पटल पर मेरी कोई याद उभर आती है तो वो किसी छोटे से बच्चे की तरह खुश हो कर मेरा दामन पकड़ लेता है, और मेरा चेहरा अपने हाथों में लेकर जाने क्या सोचने लगता है। फिर जब कभी कोई बुरी स्मृति उभर आती है, तो मुझसे अधिक नफरत शायद वो और किसी से नहीं करता। लेकिन कोई भी याद उसके दिमाग में ठहरती नहीं “पल में तोला पल में माशा” जैसी है, उसकी हालत। मैं उसे पुराने अच्छे दिनों की याद दिलाती रहती हूँ। हमारे एलबम में उसकी पुरानी तस्वीर दिखती हूँ। वो हँसता है….मैं रोती हूँ....बस अब उसे ठीक करना ही मेरी ज़िंदगी का मकसद है। ताकि उसके ठीक होने पर, मैं उससे अपने किए की माफी मांग सकूँ। तब तक उसकी दी हुई हर पीड़ा को सहते हुए उसकी सेवा करना ही शायद मेरा प्रायश्चित होगा.…

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