Do Ajnabi aur wo aawaz - 14 in Hindi Moral Stories by Pallavi Saxena books and stories PDF | दो अजनबी और वो आवाज़ - 14

Featured Books
Categories
Share

दो अजनबी और वो आवाज़ - 14

दो अजनबी और वो आवाज़

भाग-14

न जाने कहाँ से किसी हवा के झोंके कि तरह रजिस्थान की वो ठंडी रात मेरे दिमाग को छूकर निकल जाती है और मेरे मन में यह विचार आता है कि वहाँ तो ठंड से बचने के लिए अलाव का सहारा मिल गया था। मगर यहाँ तो पेड़ों पर भी बर्फ विराज मान है। ऐसे में लकड़ी तो मिलने से रही। ऊपर से मेरे पास कोई गरम कपड़ा भी नहीं है। आज तो लगता है, यह मेरी ज़िंदगी का आखिर दिन ही है। अब कुछ नहीं हो सकता। फिर भी अभी मैंने पूरी तरह हिम्मत नहीं हारी है। तभी मेरी नज़र बाजू में पड़ी एक पेड़ की टहनी पर पड़ती है। मैं तुरंत उसे उठा कर देखती हूँ कि वो मजबूत है या नहीं।

मुआयना करने पर पता चलता है, मेरा सहारा बन सके इतनी तो मजबूत है ही। मैं तुरंत उसके सब पत्ते निकालकर उसे लाठी की तरह इस्तेमाल करना शुरू करती हूँ ताकि मुझे बर्फ में चलने में थोड़ी सुविधा हो।

बहुत दूर तक चलने और खोजने के बाद भी मुझे कोई इंसान दिखायी नहीं देता। कुछ दूर चलने के बाद मुझे उस बर्फ की चादर पर कुछ लाल रंग के निशान दिखायी देते हैं। जिन्हें देखकर मुझे पहले तो अजीब लगता है फिर अचानक मेरे दिमाग की बत्ती जलती है और मैं उन निशानों को पास जाकर देखती हूँ तो मुझे पता चलता है कि वह लाल निशान खून के हैं, आगे नज़र दौड़ाने पर मुझे वो निशान काफी दूर तक दिखायी देते हैं। ऐसा लगता है किसी ज़ख्मी इंसान या पशु को घसीट कर कहीं ले जाया गया है।

पहले मेरा मन किया कि मैं वहाँ तक पहुँच कर खुद अपनी आँखों से सच जानूँ, फिर ही किसी निर्णय तक पहुंचूँ। शायद कोई मेरी तरह किसी मुसीबत में हो, किसी को मेरी जरूरत हो, या फिर शायद मैं किसी के काम आ सकूँ।

लेकिन दूजे ही पल, मुझे एक बालों वाली पूंछ नुमा कोई चीज़ नज़र आती है और एक अजीब सी गुर्राने की हल्की सी आवाज़, मेरा दिमाग ठनका और तुरंत मेरे दिमाग में भेड़िये की शल्क उभर आयी। इससे पहले की मैं संभलूँ या कुछ और सोच सकूँ उस भेड़िये ने मुझे देख लिया। और वो धीरे-धीरे मेरी ओर बढ़ने लगा। मैं एकदम खामोश होकर उसकी आँखों में आँखें डालकर उसे घूरे रही थी....वो मुझे घूरे जा रहा था।

इतने में पता नहीं कैसे, बाकी भेड़ियों को भी मेरे वहाँ होने की खबर हो गयी। उस एक भेड़िये के पीछे चार और भेड़िये आ खड़े हुए। सभी की आँखों से नफरत और मुंह से लार टपक रही है। घुर्राते हुए आहिस्ता-आहिस्ता वह पांचों मेरी और बढ़ रहे हैं।

अभी तक मैंने कोई हरकत नहीं की है शायद इसलिए उन्होंने अब तक मुझ पर हमला नहीं किया है। पर वो आगे बढ़ रहे हैं.....मैं पीछे हट रही हूँ।

मन हो रहा है मेरा, कि मैं वहाँ से भाग जाऊँ। लेकिन बर्फ में चलना मुश्किल है, भागूंगी कैसे जैसे सवाल मुझे रोके हुए हैं। रह रहकर मन में एक ही ख्याल बार-बार आ रहा है कि आज का दिन मेरी ज़िंदगी का आखिरी दिन ही है। आज मुझे कोई नहीं बचा सकता। भेड़ियों की आँखों से मुझे मार के खाने का लालच टपकता हुआ साफ दिखायी दे रहा है। पीछे हटते हुए मैं कब एक बर्फ की पहाड़ी पर आ गयी मुझे पता ही नहीं चला। भेड़ियों की चाल में अब तेज़ी आरही है, मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धडक रहा है। अपनी मौत को अपनी आँखों के सामने देखकर कुछ देर के लिए मैं ठंड को भूल गयी हूँ।

अचानक मेरा पैर उस बर्फ की पहाड़ी से फिसलता है और मैं किसी फिसल पट्टी की तरह फिसलती हुई नीचे चलती चली जा रही हूँ। मेरे पीछे अब उन भेड़ियों ने दौड़ना शुरू कर दिया है। अब में ठंड से नहीं, डर से काँप रही हूँ। अपनी इस फिसलन के सफर में मैंने कई जगह खून के निशान और माँस के टुकड़े भी देखे, जिन्हें देखकर मुझे उलटी भी आरही है। लेकिन फिसलन इतनी ज्यादा है कि मेरा रुक पाना नामुमकिन है। भेड़िये लगातार मुझे फॉलो कर रहे है कि फिसलते-फिसलते मैं एक सूखे हुए पेड़ की जड़ अर्थात तने से आकर टकराती हूँ। मेरे हाथ मैं बहुत ज़ोर की चोट लगती है। मुझे लग रहा है मेरा हाथ टूट गया है, फिर भी भेड़ियों को अपनी ओर आता देख मैं उस पेड़ के तने में छिपने की कोशिश करती हूँ। पर भेड़िये मुझे देख ही लेते हैं। उस पेड़ का वो तना, अंदर से काफी गहरा है। काफी बड़ा और घना रहा होगा वो पेड़ शायद काइयों साल पुराना तभी तो उसका तना इतना बड़ा और गहरा है कि उसमें एक व्यक्ति अंदर घुसकर छिप सकता है।

खैर उसमें घुसने के बाद, अब मुझे लग रहा है मानो मैं किसी गुफा में हूँ। भेड़िये उस तने में घुसने की पुरजोर कोशिश में हैं। मैं डर के मारे चीख रही हूँ, चिल्ला रही हूँ। पास में पड़ी उसी पेड़ की डंडियों से उन भेड़ियों को भगाने की नाकाम कोशिश कर रही हूँ। पर वह नहीं मान रहे। वह सभी मुझे मारने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। अब मैं चारों ओर से उन भेड़ियों से घिर चुकी हूँ। लेकिन अब भी उस तने के अंदर हूँ शायद इसलिए अब तक ज़िंदा हूँ। अपनी मौत से लड़ते-लड़ते अब मुझे थकान हो चली है, मेरे हाथ पैर, मेरा शरीर अब जवाब देने लगा है।

बाहर भेड़िये भी शायद हार मान चुके हैं। बहुत खामोशी है बहार....किसी भी तरह की कोई आवाज नहीं....लगता है भेड़िये हारकर जा चुके हैं। फिर खयाल आता है भेड़िये की जात कभी भी धोखा दे सकती हैं। बाहर कदम रखना खतरे से खाली नहीं होगा। ऐसा सोचते हुए मैंने थोड़ी देर बिना कोई आवाज़ किए शांति बनाए रखना ही उचित समझा। फिर करीब एक दो घंटे बाद मैंने सूरज की रोशनी को देखते हुए मन ही मन यह सोचा कि यदि बाहर मैदान साफ हो, तो जितनी जल्दी हो सके मुझे यहाँ से निकल जाना चाहिए। वरना आज तो अपनी जिंदगी का अंतिम दिन है ही। मैंने बहुत ही धीरे से बहार कदम रखा...और यहाँ वहाँ देखा बाहर कोई नहीं था।

मैंने चैन की सांस ली ही थी अभी...पर मेरा दिल मारे डर के अब भी धडक रहा था। आस पास आमने सामने तो अब तक मुझे कोई नज़र ना आया था। पर जैसे ही मेरी दृष्टि उस पेड़ के तने के ऊपरी भाग पर पड़ी....तो क्या देखती हूँ कि एक भेड़िया मेरी रहा तक रहा था।

उसकी और मेरी नज़ारे मिलते ही, इस बार उसने मुझ पर धावा बोल दिया। मैंने जैसे ही अपने आप को बचाने के लिए अपने हाथ अपने मुंह पर किए अचानक मेरी आँखों के सामने अंधेरा छा गया.....दिखायी मुझे कुछ नहीं दे रहा है, लेकिन ऐसा लग रहा है कि भेड़ियों से कोई लड़ रहा है। कुछ देर बाद फिर लंबी....शांति...मुझे कुछ समझ नहीं आया कि क्या हुआ। जब मेरी आंखों से वो अंधेरा छटा मैंने खुद को एक लकड़ी से बने घर के अंदर पाया।

जहां चिमनी में आग जल रही थी। मुझे गरम कंबल से लपेट दिया गया था। कमरे में ओर कोई दिखायी नहीं दिया। मेरे हाथ में लगी चोट में अब बहुत ज़ोर का दर्द उठा था। मैं अभी अपने ज़ख्म देख ही रही थी कि कमरे का दरवाजा खुला और एक महिला ने कमरे में प्रवेश किया मुझे बदलने के लिए कुछ सादा कपड़ों के साथ-साथ मोटे गरम कपड़े भी दिये। मगर कुछ बोली नहीं चुप-चाप वहाँ से चली गयी। मैंने किसी तरह अपने दर्द पर काबू करते हुए कपड़े बदल लिए और एक कंबल को लेकर आग के पास जाकर अपने हाथ सेंकने लगी।

इतने में फिर एक बार दरवाजा खुला और फिर उसी महिला ने आकर मुझे गरमा-गरम हल्दी वाला दुग्ध दिया। मेरी चोट पर मरहम लगाया और मेरे टूटे हुए हाथ को देखते हुए मेरे गले में एक दुपट्टा इस तरह बंधा जैसे प्लास्टर बंधे हाथ को गले में लटकाते है और मेरा हाथ भी वैसा ही बांधते हुए बोली कौन हो तुम...कहाँ से आयी हो ? लगता है तुम्हारे हाथ में बहुत गहरी चोट लगी है। अभी फिलहाल किसी तरह रात निकल लो, सुबह शहर जाकर डॉक्टर को दिखा लाएंगे। कुछ खाओगी? मैंने दूध पीते-पीते हाँ में सर हिलाया। तो उसने मुझसे पूछा मांस खाती हो। मांस सुनकर मुझे थोड़ा अजीब लगा और बर्फ में मिले मांस के टुकड़ों कि तस्वीर मेरे ज़ेहन में उतर आयी, मैं प्रश्नवाचक मुद्रा में उस औरत का चेहरा देखने लगी। तब उसने मेरे चेहरे के भाव पढ़ते हुए मुझे कहा...मांस मतलब मटन गोष्त।

तब जाकर मैंने हाँ कहा और उसने मुझे चावल और गोश्त से बना एक तरह का पुलाव खिलाया जिसे खाकर मेरे बदन में गर्मी का एहसास हुआ और फिर उसने मुझे एक सिगड़ी लाकर दी जिसमें जलते हुए कोयले भरे थे और कहा इसे अपनी रज़ाई के अंदर रख लो तुम्हें ठंड नहीं लगेगी। रात आराम से कट जाएगी।

बदन भी गरम रहेगा तुम्हारा, मैंने उसकी बात मानकर वैसा ही किया। इससे पहले कि मैं उससे कुछ पूछूं वह मुझे सोने के लिए कहकर कमरे का दरवाजा बंद करती हुई बाहर चली गयी। यूं तो अब तक उसने अच्छा ही व्यवहार किया था मेरे साथ, लेकिन फिर भी ना जाने क्यूँ मुझे वो महिला ज़रा संदिग्ध सी महसूस हो रही थी। उसी के विषय में मैं अभी सोच ही रही थी कि (उस आवाज) ने मेरे बहुत करीब आकर कहा अरे वाह...आज तो पार्टी हो गयी तेरी...! मैं एकदम से चौक गयी। मानो मेरी कोई चोरी पकड़ी गयी हो जैसे, मैंने कहा यहाँ मेरी जान पर बन आयी थी और तुम्हें पार्टी की पड़ी है, वो तो शुक्र है खुदा का, जो आज मेरी जान बच गयी। वरना आज तो मुझे खाकर भेड़ियों की पार्टी हो जानी थी ब्यगोड....!

वाह.....! वो अजीब ढंग से बोला जान बचाई तेरी उस औरत ने और तूने सारा श्रेय दे दिया अपने उस खुदा को...वाह....!

हाँ वैसे बात तो तुम्हारी सही है। लेकिन तुम्हें उससे क्या...? तुमने तो छोड़ ही दिया था मुझे मरने के लिए। न जाने कहा गायब हो जाते हो एकदम से, अब मुझे तुम पर और तुम्हारी बातों पर ज़रा भी भरोसा नहीं है और में मारे ठंड के अपनी रज़ाई ज़रा और ऊपर कर लेती हूँ। वो फिर मेरे संग मसखरी करते हुए कहता है। ओह बड़ी ठंड लग रही है तुम्हें, कहो तो मैं कुछ मदद कर दूँ तुम्हारी....कैसी मदद...? मैं कुछ समझी नहीं...अरे जाओ....छोड़ो तुम्हारे दिमाग में जंग नहीं लगी है, यह मैं अच्छे से जनता हूँ।

तो मेरे सामने तुम यह नाटक करो तो मत। कैसा नाटक....मैं कोई नाटक वाटक नहीं कर रही हूँ। तुम क्या कह रहे हो मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। जो कहना है साफ-साफ कहो न अच्छा...! हाँ तो, तो फिर आ जाऊँ मैं तुम्हारी रजाई में अंदर और कर दूँ तुम्हारा बिस्तर गरम...मैं झाला उठी, क्या बकवास कर रहे हो...शर्म नहीं आती तुम्हें ऐसी बेकार की बातें करते हुए। तुमने मुझे समझ क्या रखा है। बताया तो था तुमको (वो आवाज) मेरे करीब आरही थी। मैं तुम से प्यार करता हूँ....एक पागल प्रेमी वाला प्यार, एक सच्ची मूहौब्बत, अब वो आवाज मेरे और करीब आ चूकी थी।

भले ही मैं (एक आवाज़ हूँ) तो क्या हुआ। मेरे भी कुछ अरमान है। मैं तुम्हें अपनी बाँहों में भरना चाहता हूँ। तुम्हारे बालों में अपनी उँगलियाँ को फेरना चाहता हूँ। तुम्हारे इन गुलाब की पंखुड़ी जैसे नरम रस भरे होंठों के रस को पीना चाहता हूँ। तुम्हारे जिस्म को अपनी बाँहों में भरकर में उसकी खुशबू में डूब जाना चाहता हूँ। और अगर गंदी भाषा में कहूँ, तो मैं तुम्हारे साथ हम बिस्तर होना चाहता हूँ....यह सुनते ही जैसे मेरे तन बदन में आग लग जाती है और मैं किसी ज्वालामुखी की तरह फट पड़ती हूँ। आखिर आ गये ना तुम भी अपनी औकात पर, आखिर तुम भी हो तो एक मर्द ही ना। तुम्हें भी सिर्फ मेरा जिस्म चाहिए। मेरी रूह से तुम्हें कुछ लेना देना नहीं है ना...! तुम भी आखिर एक ‘स्त्री देह’ के भूखे निकले। मैंने तुम्हें क्या समझा था और तुम क्या निकले।

मेरे पुराने ज़ख़्मों की पीड़ा जाग गयी थी मेरे अंदर, मेरा वो दर्द जो मैंने झेला है पर जुबानी याद नहीं है मुझे, मेरा दर्द, मेरी तकलीफ, अब मेरी आँखों से आँसू बनकर किसी फटे हुए ज्वालामुखी के लावे की तरह बह रहे हैं...कि तभी उसने मुझसे कहा नहीं ऐसा नहीं है। मैं और तुम एक दूजे से इतना प्यार करते हैं कि तुम मेरी रूह में बस्ती हो और मैं तुम्हारी रूह में, तुम मेरी मौहोब्ब्त पर यह घिनौना इल्ज़ाम लगाकर मेरे प्यार को यूं इस तरह बदनाम नहीं कर सकती।

***