Do Ajnabi aur wo aawaz - 13 in Hindi Moral Stories by Pallavi Saxena books and stories PDF | दो अजनबी और वो आवाज़ - 13

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दो अजनबी और वो आवाज़ - 13

दो अजनबी और वो आवाज़

भाग-13

कुछ देर बाद वहाँ बह रही हवा अपने साथ कुछ पकवानों की महक ले आयी।

पोहे जलेबी और गरमा-गरम समोसों की खुशबू ने मेरा सारा ध्यान अपनी और खींच लिया। अब मुझे जोरों की भूख लग रही थी। पास वाली दुकान पर जाकर मैंने एक प्लेट पोहे और कुछ जलेबियों के साथ एक चाय भी खरीद ली।

अभी मैं नाश्ते का लुफ़्त उठा ही रही थी कि सहसा मेरा मन किया कितनी खूबसूरत जगह है यह, काश मैं यहाँ हमेशा के लिए बस जाऊँ। तो ज़िंदगी स्वर्ग हो जाये मेरी, पर फिर अपने अतीत में गोते लगते हुए मेरे मन में यह विचार आया। ना जाने मेरी किस्मत में क्या लिखा है राम जी ने, अभी न जाने कितने और थपेड़े खाना लिखा हो मेरे नसीब में, कुछ याद हो तो मैं भावी जीवन के प्रति कोई निर्णय भी ले सकूँ। मगर मुझे कुछ पता ही नहीं है कि मुझे कहाँ रहना है, कहाँ नहीं, बस जिस ओर बहा रही है ज़िंदगी उसी ओर बहती चली जा रही हूँ मैं, यूं भी लोग कहते हैं जिस ओर पानी का बहाव हो उसी और बहना चाहिए। वरना विपरीत दिशा में हाथ पाओं मारने से डूबने का खतरा अधिक होता है।

अभी मैं यह सब सोच ही रही हूँ कि उसी आवाज़ ने आकर मुझे एक बार फिर चौंका दिया। क्या भईया...किधर....! अकेले-अकेले हम से तो किसी ने पूछा तक नहीं...हुम्म...अरे तुम नज़र आओ तो कोई पूछे भी तुम से हमेशा अचानक भूत जैसे प्रगट हो जाते हो।

हाँ हाँ हम तो हैं ही भूत पलीत...हमें क्यूँ पूछेगा कोई हमें कोई नहीं लगता हम हीं सब को लग जाते हैं। सुबह–सुबह बकवास मत करो प्लीज, देखो न कितना अच्छा मौसम है, कितना सुंदर नज़ारा है काश इसी तालाब के पास मेरा एक छोटा सा घर होता। हाँ और फिर तेरी नाक यहाँ आरही मछराँद से सड़ गयी होती। फिर तुझे कोई भी खुशबू बदबू आना ही बंद हो जाती। फिर कितना मज़ा आता है न...! उसकी यह मछली वाली बात मेरे दिमाग में एक पत्थर कि तरह लगती है और मैं फिर परेशान हो जाती हूँ। इस समंदर मछली इस सब से मेरा कोई नाता है जो मुझे याद नहीं है। मेरे दिमाग में पिछली ज़िंदगी के कुछ धुंधले से अक्स घूमने लगते है। कुछ अजीब आवाज़ों के साथ वह आवाज़ें भी मुझे साफ सुनायी नहीं दे रही है।

वो आवाज़ें कुछ ऐसी हैं जैसे टेप रिकार्ड खराब हो जाने के बाद किसी घिसी हुई सीडी या कैसिट की हो जाया करती हैं।

मैं उन घटनाओं को बहुत सोचने समझने का प्रयास करती हूँ मगर कुछ याद नहीं आता। मेरा दिमाग अब थक रहा है, मुझे चक्कर आने लगे हैं। मेरा सिर भी अब दुखने लगा है। मैं थोड़ी देर अब आराम करना चाहती हूँ।

ऐसा कहते हुए मैं वहीं नाश्ते वाली टेबल पर अपना सिर पकड़ कर बैठ जाती हूँ। दुकानदार मेरी ऐसी हालात देखकर मुझे एक (सेरेडोन) की गोली देते हुए कहता है। आप यह दवा खा लीजिये आपको आराम आ जाएगा। एक गिलास पानी के साथ में वो दवा खाकर फिर अपना सिर पकड़ कर बैठ जाती हूँ। वो (वही आवाज) मेरा ध्यान बटाने की कोशिश करता रहता है। लेकिन उस वक़्त मैं अपने आस पास पूर्ण रूप से शांति चाहती हूँ।

इसलिए मैं उससे कहती हूँ। तुम ज़रा देर चुप नहीं रह सकते क्या ? वो एकदम चुप हो जाता है एकदम शांत, अब मेरे आस पास किसी तरह का कोई शोर नहीं है। सिर्फ पानी की आवाज आरही है। मेरा सर दर्द से फटा जा रहे है। धूप तेज़ हो चली है। इसलिए अब पक्षियों की आवाज़ भी मंद पड़ गयी है। मेरे आस पास भी कोई नहीं है। जिस दुकान के बहार मैं बैठी थी वो भी अब अपने घर जा चुका है। फिर एक अंदर तक चीर देने वाली खामोशी, मेरे आस पास बिखर चुकी है। मेरी पिछली ज़िंदगी की कुछ झलकियाँ धुंधली हो होकर मेरी मस्तिष्क पर दस्तक दे रही है। लेकिन मुझे चाहकर भी कुछ साफ-साफ दिखायी नहीं दे रह है, जिससे मैं पहचान सकूँ,कि मैं कौन हूँ। या मैं कौन थी और अब क्या हूँ।

इसी दिमागी उथल–पुथल में अब शाम होने जा रही है, अचानक गाड़ियों के शोर से पूरा माहौल गूंज उठा है। सभी लोग अब अपने-अपने दफ्तरों से अपने घर को लौट रहे हैं। बच्चे स्कूल से छूट रहे हैं। चाय की टपरियों पर आहिस्ता-आहिस्ता रौनक बढ़ रही है।

पाने वाले भी, अब जय भोले का नारा लगाते हुए एक दूसरे आ अभिवादन कर रहे है। चाय के शौकीन सभी लोग चाय के बाद पाना का मज़ा लेने के लिए आतुर दिखायी देते हैं। देखने से लगता है यह कोई मुस्लिम शहर है शायद, पर अभी तो सुबहा की आरती सुनायी दी थी। नहीं नहीं हम हिंदुस्तान में हैं, यहाँ सभी लोग मिल जुलकर रहते आए हैं। इसलिए यह केवल मुस्लिम शहर हो, ऐसा नहीं हो सकता।

तभी एक मोर पंख की झाड़ू आकर मुझ पर ज़ोर से पड़ती है। और एक पीर फकीर आकर मुझ पर झाडू फूँक करने लगता है। वह क्या कह रहा है मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा शायद कोई मंत्र-तंत्र बुदबुदा रहा है।

उसने सिर पर एक हरे रंग कपड़ा बंधा हुआ है, और एक काला कुर्ता पहना हुआ है, उसके एक हाथ में जलता हुआ लोबान है और दूजे हाथ में यह मोर पंखों से बनी झाड़ू। उसके कंधे पर कपड़े की एक झोली लटक रही है। जिसमें तीन-चार अलग-अलग रंग के पैबंद लगे हुए हैं। उसने अपनी झोली से एक तावीज निकाल कर मेरे बाजू पर बांध दिया और दो भुनी हुई लौंग मुझे कुछ मंत्र मारकर खाने को दी। थोड़ी देर बाद वो मुझसे पैसे मांगने लगा कि मज़ार पर चादर चढ़ानी है, पैसे दे दो। मैं आश्चर्य चकित हो उसका मुंह ताकने लगी। मेरे मन में उस वक़्त एक ही जुमला आया “मान ना मान मैं तेरा मेहमान” कौन हो भईया...फिर यकायक मैंने उसके पीछे से उस मज़ार की ओर देखते हुए पूछा यहाँ पर ? उसने हामी में सिर हिलाते हुए कहा हाँ।

यह बहुत जाने माने बाबा कि मज़ार है। यहाँ जो मुराद मांगो वो पूरी हो जाती है। मैंने अपनी जगह से उठते हुए उस मज़ार पर जाकर माथा टेका और एक मुराद मांगी और वापस उस फकीर के पास आकर कहा, अब जब मेरी मांगी हुई मुराद पूरी हो जाएगी ना, तब मैं यहाँ चादर ज़रूर चढ़ाऊंगी। आखिर मुझे भी तो यकीन होना चाहिए न कि यहाँ हर मुराद पूरी होती है। यह बात सच है भी या नहीं...हुम्म पर तब तक के लिए थोड़ा इंतज़ार....

ऐसा कहते हुए मैं कुछ चिल्लर उससे देकर वापस उस तालाब के किनारे जा बैठती हूँ कि तभी मेरी नज़र एक बार फिर ऊपर आसमान में जाती हैं। जहां हजारों चिंमगादड़ें तालाब के ऊपर मंडरा रही है।

पर अभी दिन पूरी तरह नहीं ढला है और तालाब के आस पास भी अभी बहुत रौनक है। इसलिए इस बार मुझे डर नहीं लगा। सभी लोग अपने–अपने बच्चों को लेकर तालाब के किनारे वाले पार्क में खेलने के लिए लाये हैं। खुशनुमा माहौल है, मुझे भी हँसते खेलते बच्चों को देखना, बहुत सुकून दे रहा है। पर जाने क्यूँ आँखों में नमी है। जिसे मैं समझ नहीं पा रही हूँ, ऐसा क्यूँ हो रहा है। क्या मेरा मन, मेरा दिल, मेरी अंतरात्मा मुझसे कुछ कहना चाहती है। क्या यह सब मिलकर मुझे कुछ याद दिलाना चाहते है ? मैं अपने आप से बातें कर रही हूँ। जैसे-जैसे शाम का रंग और गाढ़ा हो चला है, पंछियों से लेकर इंसान तक, अब सभी अपने-अपने बच्चों के साथ घर को लौट रहे हैं।

पास बने होटलों में भीड़ बढ़ रही है, सब के काम का वक़्त एक बार फिर चालू हो रहा है। कितनी अच्छी है इन सब कि ज़िंदगी। कम से कम एक ढ़र्रा तो है इन सब के पास चलने के लिए और एक मेरी ज़िंदगी है, जिसमें कुछ निश्चित ही नहीं है कि अगला कदम क्या होगा। मैं एक गहरी सांस लेती हूँ, एक ठंडी आह...! भरते हुए और वापस उस तालाब के पानी को देखते हुए एक गहरी सोच में डूब जाती हूँ। मन ही मन उस आवाज को याद करती हूँ।

वो अचानक आकर कहता है, (जैसा कि उसकी आदत है) चल कहीं घूमकर आते हैं। मैंने पूछा कहाँ...? उसने कहा अरे फिर भूल गयी। तुझे तो पता है न, मुझे चाय कॉफी का कितना शौक है। चल आज तुझे एक स्पेशल चाय पिलवाता हूँ।

अच्छा ऐसी क्या खास बात है, उस चाय में अरे वो नमकीन चाय है। नमकीन....मैंने ज़रा अजीब सा मुंह बनाते हुए कहा। हाँ कैसी लगेगी...? अरे पिये बिना कैसे पता चलेगा तुझे, तू चल तो सही। एक वही चाय तो है, चाय के नाम पर, जिसे में बिंदास पी लेता हूँ। अच्छा ठीक है फिर चलो, हम वापस उसी गाड़ी में थे और जल्द ही हम उस चाय कि दुकान पर पहुँच गए वहाँ मैंने एक चाय मांगी और उसने मुझे एक कप प्लेट में चाय देदी, चाय की दुकान पर अकसर काँच के गिलास में चाय मिला करती है, यूं इस तरह बाकायदा कप प्लेट में चाय पीना मुझे थोड़ा अजीब लग रहा था। पर मैंने पी और मुझे बहुत पसंद आयी। मेरे चेहरे के भाव पढ़ते हुए वो फिर बोला देखा मैंने कहा था न, तेरी मेरी पसंद बहुत मिलती है। मुझे पता था, तुझे यह चाय ज़रूर पसंद आएगी। हाँ सो तो है वरना, मैं अमूमन इतनी चाय पीना पसंद नहीं करती। जितनी अब तक पी चुकी हूँ।

रात अब गहरा रही थी। सड़कों पर भीड़ और वाहनों की आवाजाही भी अब कम हो चली थी। धीरे-धीरे रात गहरी हो गयी और हम अब भी गाड़ी में शहर नाप रहे थे। ना जाने क्यूँ रात के अंधेरे में सुनसान सड़कों पर यूं आवाराओं कि तरह भटकना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। उस शहर की सड़कें जैसे मुझे अपनी और खींच सी रही थी। मानो मेरा कोई पुराना नाता है उस शहर से, एक अजीब सा खिंचाव, एक अजीब सा जुड़ाव महसूस कर रही थी मैं उस वक़्त, मैंने गाड़ी के शीशे खोल दिये थे शायद इसलिए क्यूंकि मैं खो जाना चाहती थी उस शहर की हवा में, ऐसा सोचते-सोचते मेरी आँख लग गयी। उस रात हम पूरी रात सड़क नापते रहे थे। करने को और था भी क्या हमारे पास, मैंने बहुत कोशिश कि थी की मैं सोऊंगी नहीं उसस रात, क्यूंकि सोने के बाद मेरा अगला सवेरा कभी उस जगह नहीं होता जहां मेरी आँख लगती है।

लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। ना चाहते हुए भी उस रात उस शहर की हवा ने मुझे वो सुकून दिया जिसकी मुझे बरसों से तलाश थी। इसी कारण मैं खुद को उस रात के आगोश में जाने से रोक ना सकी और मेरी आँख लग गयी।

और....इस बार जहां आँख खुली उसके विषय में तो मैंने कभी सपने भी नहीं सोचा था। जब आँख खुली तो एक पल के लिए मुझे लगा मैं किसी सफ़ेद चादर को ओढ़े हुए हूँ। लेकिन फिर जब पूरी तरह आँख खुली, जिसे कहते हैं एक तरह से होश आया, तो मुझे अपने आस पास दूर....दूर तक सिर्फ सफ़ेद रंग ही दिखायी दे रहा था और मैं ठंड से काँप रही थी, थरथरा रही थी वहाँ ठंड इतनी ज्यादा थी कि मेरे होंठ सूखकर पपड़ा चुके थे। मेरी त्वचा सफ़ेद पड़ गयी थी, मानो मेरे अंदर का सारा खून जम गया हो जैसे, मुझे फिर से लग रहा है कि अब मैं मरने वाली हूँ। इस बार तो मुझे कोई नहीं बचा सकता।

हमेशा कि तरह इस बार भी मुझे याद नहीं है कि इससे पहले मैं कहाँ थी, क्या कर रही थी। यूं भी जिन हालातों में, मैं थी उस वक़्त मुझे गर्मी कि तलाश थी इसके अलावा मैं और कुछ नहीं सोच पा रही थी। लेकिन दूर...दूर तक देखने के बाद भी मुझे कोई परिंदा तक दिखायी न दिया इंसान का दिखायी देना तो बहुत दूर कि बात है। बर्फ की इतनी मोटी चादर, मैंने आज से पहले कभी नहीं देखी थी। चलने में पैर बर्फ में अंदर तक धस रहे है। ठीक से चल पाना मुश्किल हो रहा है। ऊपर से बर्फ शरीर को गला रही है। मन कर रहा है काश कहीं से शरीर को अंदर से गरम करने वाली कोई चीज़ पीने को मिल जाये, फिर चाहे वो चाय हो, सूप हो, या फिर दारू अभी मौत से बचने का जो भी उपाय मिले, मैं वो हर उपाय करने को राज़ी हूँ। लेकिन मेरे ऐसे नसीब कहाँ....मैं मन ही मन इन चीजों कि तस्वीरें बना-बनाकर अपने आप को जिंदा रखने कि पुरज़ोर कोशिश कर रही हूँ।

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