Do Ajnabi aur wo aawaz - 12 in Hindi Moral Stories by Pallavi Saxena books and stories PDF | दो अजनबी और वो आवाज़ - 12

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दो अजनबी और वो आवाज़ - 12

दो अजनबी और वो आवाज़

भाग-12

इस सब से तो अच्छा है, मैं चाहे इस बच्चे के साथ जीऊँ या अकेले, पर शादी कर के बंधनों में बंधने और किसी के एहसानों तले दबने से अच्छा है। मैं स्वच्छंद ही रहूँ।

मैंने मन ही मन यह निश्चय किया कि मैं शादी नहीं करूंगी। जो भी होगा आगे देखा जाएगा। अभी फिलहाल मुझे आज में जीना है। ऐसा सोचते हुए मैंने वापस अपने काम में ध्यान लगाना शुरू किया। एक दिन में मछली की टोकरी लिए दर दर भटक रही हूँ और शायद मेरी ऐसी हालात देखकर लोग मछली ले भी रहे है। बहुत अधिक कमजोरी और थकान लगने कि वजह से मैंने समंदर किनारे बैठकर ही कुछ देर आराम करने का सोचा और एक बोरी लेकर वही पास में लगे एक पेड़ से टिककर मैंने बोरी पर मछलियाँ फैला दीं। ताकि यदि कोई आए तो अपनी पसंद अनुसार अपनी मछली चुनकर खरीद ले जाये और मैं अपने आँचल से अपने पसीने को पौंछती हुई सुस्ताने लगी। कुछ ही पलों बाद मेरे पेट में ज़ोर का दर्द उठा। इतनी ज़ोर का कि मैं सह ना सकी और चिल्लाने लगी आस–पास कि सभी मछवारिने मेरी पीड़ा देखकर वहाँ जमा हो गयी।

एक दायी माँ अभी मेरी नवज़ देख ही रही थी कि मेरे निकट समंदर के पानी में लाल रंग देख वो सारी कहानी समझ गयी और उन्होंने मुझे गले से लगा लिया। मैं वो लाल पानी देख तड़प उठी और ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए उनसे गले लगकर कहती रही दायी माँ....! मेरा बच्चा....मेरा बच्चा मेरी तड़प और चित्कार को देखकर, वहाँ मौजूद सभी औरतों की आँखों में आँसू उभर आए थे। एक वही तो उम्मीद थी मेरे जीवन की, एक वही तो आस थी मेरे जीने की जिसके भरोसे मैंने अपनी सारी ज़िंदगी गुज़ार देने का फैसला लिया था।

यह ज़िंदगी मुझे फिर उसी मोड पर ले आयी जहां से मैंने यह सफर शुरू किया था। रो रोकर मेरा बुरा हाल था। सभी मुझे सांत्वना रहे थे। पर मैं कुछ सोचने समझने की हालत में नहीं थी। इसी तरह रोते रोते...कमजोरी और सदमे के कारण मैं वही बेहोश हो गयी।

अगली बार जब मुझे होश आया तो मैंने खुद को एक शहर के पुराने खंडहर में पड़ा पाया। यह शायद शहर का वो हिस्सा था, जो कभी इंसानों की बस्ती से आबाद रहा होगा। यहाँ पड़े अवशेष जैसे वहाँ बना हुआ चूल्हा और कुछ टूटे फूटे बर्तन, जो कि टूटे होते हुए भी जैसे अपने बीते हुए अतीत की गवाही दे रहे हैं कि यह जगह भी कभी हँसती खेलती ज़िंदगियों का हिस्सा रही होगी।

लेकिन अब यह जगह पूरी तरह खंडहर के सिवा और कुछ नहीं है। बाहर की आती जाती इक्का दुक्का गाड़ियों की ज़रा-ज़रा सी रोशनी से मैं यह सब देख पा रही हूँ। आस-पास की सभी दिवारे ढ़ह गयी है, कुछ टूट गयी है। जैसे अकसर हम पुराने किलों में देखते है, बिलकुल वैसे ही। उस जगह को देखकर ऐसा लग रहा है मानो कोई बड़ा भूचाल या किसी बड़ी तबाही के कारण इस जगह की यह हालत हुयी होगी। कहने को यह केवल एक छोटा सा हिस्सा है उस शहर का, जहां मैं हूँ। पर मैं कहाँ हूँ मुझे खुद पता नहीं है।

खैर मगर अब यहाँ कोई आता-जाता नहीं है। सभी डरते हैं यहाँ आने से, इसलिए पास से गुजरती कोई गाड़ी भी एक पल के लिए यहाँ रुकना नहीं चाहती। जैसे हर शहर में कोई न कोई भूतिया जगह या फिर भूत बंगला हुआ करता है। ठीक वैसा ही इस जगह के बारे में प्रचलित है। आस-पास कि कई दीवारों पर कोयले के टुकड़ों से भूत चूड़ेल की आकृति बनी हुई है। कहीं कहीं लिखा है यह अभिशप्त जगह है, भाग जाओ यहाँ से, नहीं तो अपनी जान से हाथ धो बैठोगे। कहीं लाल रंग के हाथे लगे हैं, तो कहीं दारू की बोतलें पड़ी है। ज़र्दे के पैकेट भी पड़े है। पास ही कई कुत्ते मिलकर रो रहे है। बदशगुनी और मनहूसियत का पूरा माहौल है। यह सब देख-देखकर मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धडक रहा है।

मैं उजाले कि तलाश में हूँ। पर बाहर अभी आसमान को देखकर ऐसा लगता नहीं कि सुबह जल्द ही होगी। मैं वहाँ से भाग जाना चाहती हूँ। उस जगह से दूर हो जाना चाहती हूँ। ऐसा सोचकर जब आती जाती इक्का दुक्का गाड़ियों से लिफ्ट मांगने के लिए मैं सड़क के किनारे खड़ी होकर हाथ दिखाती हूँ, तो मुझे देखकर भी वहाँ, कोई गाड़ी नहीं रुकती। फिर दूर से आती हुई एक खुली जीप जिसमें बहुत से लोग सवार है, शायद कोई मुस्लिम परिवार लगता है कि जीप की तेज़ रोशनी से मेरी आंखें चौंधिया जाती है। जब वो जीप मेरे पास से निकलती है तो उनमें से एक औरत अपना बुरका उठाकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाती हुई यह कहती है भाग जा.....भाग जा यहाँ से नहीं तो वो पिशाच तुझे भी मार डालेगा। और वो जीप, मेरे बहुत करीब से बहुत तेज़ रफ्तार में निकल जाती है।

उस रफ्तार के कारण मैं उस औरत का चेहरा पूरी तरह से देख नहीं पायी थी। लेकिन जितना भी दिखा था वह भी कम डरावना नहीं था।

भूत पिशाच में मैं यकीन नहीं रखती। इसलिए मुझे उस वक़्त ज़रा भी डर नहीं लगा। लेकिन कुछ अनहोनी की आशंका से में भर उठी थी। तभी थोड़ी दूर पर लगे एक लैम्प पोस्ट के नीचे मुझे कोई खड़ा हुआ दिखायी दिया। लैम्प पोस्ट बहुत पुराना था और उसमें लगे बल्ब की ज़िंदगी भी अब पूरी हो चुकी थी। इसलिए वह किसी आखिरी सांस लेते हुये दिये की भांति जल बुझ रहा है। ठीक वैसे ही जैसे बुझने से पहले कोई दिया फड़फड़ाता है, वह बल्ब भी बंद चालू हो रहा है। मैं उस इंसान के नजदीक जाकर उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहती हूँ। ज़रा सुनिए, तो मुझे एक पल के लिए ऐसा लगता है, जैसे मैंने किसी बर्फ की सिल्ली पर हाथ रख दिया।

मैं एकदम से, अपना हाथ उस पर से हटा लेती हूँ। वह पलट कर कहता है जी बोलिए, मैं डर जाती हूँ। उसी वक़्त वो बल्ब बुझ जाता है और मैं उस इंसान का चेहरा देख नहीं पाती।

किन्तु कद काठी से अच्छा खासा लंबा चौड़ा व्यक्ति लग रहा है। जिसे देखकर मेरे मन में एक पल के लिए यह विचार आता है कि इस इंसान के साथ मैं सुरक्षित हूँ। मैं उससे बात करने कि बहुत कोशिश करती हूँ। लेकिन वह कोई जवाब नहीं देता। हम दोनों चुप-चाप साथ चलते-चलते एक तालाब के किनारे आ पहुँचते हैं। वह वहाँ आकर कहता है, अब आप यहाँ सुरक्षित हैं। मैं अभी जगह को देख ही रही होती हूँ कि मुझे वो तालाब किसी सागर सा प्रतीत होता है और मैं उसकी खूबसूरती में खो जाती हूँ। पास में बनी एक मज़ार पर कुछ जल रही मोमबत्तियों को देख मैं वहाँ पहुँच जाती हूँ। इस आस में कि शायद मुझे वहाँ कोई इंसान मिले तो मैं पूछूं कि मैं कहाँ हूँ।

लेकिन मुझे वहाँ भी कोई नहीं मिलता। वहाँ सिर्फ एक मज़ार है, जिस पर हरे रंग की एक चादर चढ़ी हुई है और ऊपर से गुलाबों से सजी है। पास ही खुशबूदार अगरबत्तियाँ और लोबान कि महक से सारा माहौल महक रहा है। वहाँ जल रही मोमबत्तियों से उस मज़ार की खूबसूरती और भी निखर के बाहर आरही है।

मैं वहाँ बैठना चाहती हूँ। लेकिन मुझे किसी भी तरह का धुआं सूट नहीं होता। इसलिए मैं तालाब की ओर जाने वाली कुछ सीढ़ियों पर बैठ जाती हूँ और उस शख़्स को ढूंढ ने लगती हूँ जिसने मुझे वहाँ लाकर छोड़ा था। पर न जाने वो कहाँ गायब हो गया। बहुत ढूँढने पर भी वो मुझे कहीं दिखायी नहीं दिया। मैं सोच में पड़ जाती हूँ वो कौन था ? तभी तालाब के पास लगी एक राजा की मूर्ति उस रात के अंधेरे में किसी प्रहरी कि तरह दिख रही थी कि जैसे आपकी सुरक्षा के लिए स्वयं वहाँ का राजा उपस्थित है। अब आप को किसी से डरने कि कोई जरूरत नहीं।

जिन जिन लोगों के शहर में तालाब हैं और वहाँ किसी राजा की कोई मूर्ति लगी है वह अपने आप को इस वाक्य ये से बहुत अच्छी तरह जोड़कर यह सारा मंज़र महसूस कर सकते हैं।

खैर तभी मेरी नज़र तालाब के बीचों बीच बने एक छोटे से टापू पर पड़ती है। वहाँ भी कई मोमबत्तियाँ या शायद हो सकता है दिये हों, जल रहे हैं। मैं सोच में पड़ जाती हूँ इतनी रात गए तालाब के बीचों बीच ऐसा क्या हो सकता है। जहां इतने सारे दिये एक साथ जल रहे हैं। परंतु रात अधिक होने के कारण इतना गहरा अंधेरा हो चुका है कि सिवाय मोमबत्ती या दिये जो भी था कि रोशनी के अतिरिक्त मुझे और कुछ ठीक से दिखाई नहीं दिया उस वक़्त, कि तभी मेरे पास से एक चमगादड़ शोर मचाती हुई निकल गयी। जिसने मेरी जान निकालने में कोई कसर ना छोड़ी थी।

मेरा दिल, किसी धोंकनी की भांति धडक रहा है कि फिर एक कार की आवाज़ और तेज़ रोशनी से मेरी नज़र वहाँ बाजू में लगे पेड़ पर पड़ती हैं। जिसमें न जाने कितनी चिंमगादड़ें उलटी लटक रही है। ऐसा भयावह दृश्य मैंने आज से पहले अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं देखा था।

मैं वहाँ से उठकर भाग खड़ी होती हूँ। लेकिन उस गाड़ी की तेज़ रोशनी और अचानक लगे ब्रेक की आवाज़ से वह सारी के सारी चिंमगादड़ें उड़कर दूसरी और चली जाती है। और उनका एक साथ शोर मचाते हुए उड़ना देखकर, मेरे प्राण लगभग निकल ही गए होते हैं। अभी मैं खुद को पूरी तरह संभाल भी नहीं पायी कि बाजू से एक काली बिल्ली म्याऊँ कहती हुई भाग खड़ी हुई। शायद मेरे डर से वो भी डर गयी थी। मुझे तो वैसे भी बचपन से ना जाने क्यूँ बिल्ली से डर लगता आया है। इस बार तो लगभग मेरी चीख निकल ही गयी थी कि फिर वही हंसी हा हा हा क्या ‘निशु’ तुझे बिल्ली से डर लगता है यार….उसकी हंसी जैसे रुक ही नहीं रही थी।

मैंने चिड़कर कहा हाँ लगता है तो, इस दुनिया में ऐसा कोई नहीं है जिसे किसी न किसी चीज से डर ना लगता हो और तुम यहाँ क्या कर रहे हो। मैंने तो तुम्हें नहीं बुलाया, न याद किया।

हाँ लेकिन यह मेरी मन पसंद जगह है प्रिय, मैं अकसर यहाँ भटकता रहता हूँ। क्यूँ तुम कोई भूत हो क्या जो यहाँ भटकते रहते हो। ऐसा ही समझ लो....अब वो ज़रा गंभीर हो चला था। पर बात को बदलते हुए उसने कहा...तुझे पता है अब यहाँ पहले जैसी वो बात नहीं रही। जैसी शांति जैसा सुकून मुझे पसंद है, अब यहाँ वैसा कुछ नहीं रहा। यहाँ के लोगों ने इस जगह को भी इतना (मटीरियलिस्टिक) बना दिया है कि यहाँ कि सारी शांति और सुकून भंग हो गया। अच्छा...लगता है तुम इस जगह से बहुत अच्छी तरह वाकिफ़ हो।

हाँ कह सकती हो...!

मैं इस शहर के चप्पे-चप्पे से वाकिफ़ हूँ। अच्छा तो यह बताओ वो तालाब के बीचों बीच क्या है जहां इतने सारे दिये जलते हुए दिखायी दे रहे हैं। दिये नहीं है वो, मोमबत्तियाँ है और वहाँ एक मज़ार है। मज़ार तालाब के बीचों बीच क्यूँ...? मुझे क्या पता क्यूँ ? बस है। क्या हम वहाँ जा सकते हैं? मैंने फिर एक सवाल किया। हाँ क्यूँ नहीं जा सकते, ज़रूर जा सकते हैं। कौन रोकेगा हमें...पर...पर क्या हुआ। मैं तेरे साथ नाओ में नहीं बैठ सकता। क्यूँ ? बाबा...तुझे तो तैरना आता है मैं डूब गया तो मुझे तो तैरना भी नहीं आता। ओ हैलो ...मैं भी न सिर्फ स्विमिंग पूल वाली ही तैराक हूँ। किसी तालाब में तैरना मुझे भी नहीं आता। हाँ तो फिर भूल जाओ...अरे....ऐसे कैसे भूल जाओ।

न बाबा....सुबह देखेंगे अभी कुछ नहीं।

मैंने फिर आसमान कि ओर देखा अब लग रहा है कि कुछ ही देर में सुबह होने ही वाली है। यूं ही बतियाते कब सुबहा हो गयी। हमें पता ही नहीं चला। सुबहा-सुबहा तालाब के किनारे का वो मनमोहक नज़ारा और पक्षियों कि चहचहाहट जैसे सब एक साथ मेरा मन मोह रहे थे कि तभी पास वाली मस्जिद की अजान और दूसरी और मंदिर में हो रही आरती ने, जैसे मेरे अंदर एक नयी ऊर्जा का संचार कर दिया। मैंने तालाब के किनारे जाकर मुंह धोया और वहीं खड़े-खड़े तालाब के ऊपर से बहती हुई ठंडी ठंडी हवा का आनंद लेने लगी।

***