Do Ajnabi aur wo aawaz - 8 in Hindi Moral Stories by Pallavi Saxena books and stories PDF | दो अजनबी और वो आवाज़ - 8

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दो अजनबी और वो आवाज़ - 8

दो अजनबी और वो आवाज़

भाग-8

उस अंधेरे में वह अंकल जी किसी खलनायक से कम नज़र नहीं आते थे। हालांकि वह कभी किसी से कुछ नहीं कहते थे। स्वभाव के भी भले इंसान थे। लेकिन वही दूसरी ओर जब कभी अकेले रहना पड़े ,तो ऐसा भी लगता था कि चलो हम अकेले नहीं है। कोई तो है हमारे आस पास जिसे वक़्त पड़ने पर बुलाया जा सकता है। आज फिर उस लाल बिन्दु पर मेरी नज़र इस तरह से सालों बाद पड़ी थी। मैंने किसी तरह हिम्मत करके उस लाल बिन्दु के पास जाने कि कोशिश की लेकिन उस वक़्त मेरे पास पैसे तो थे नहीं, मैं सिगरेट खरीदूँगी कैसे ?

यह सवाल मेरे दिमाग में लगातार चलने लगा।

फिर न जाने कैसे मेरे कदम कार से उतरकर खुद बख़ुद उस लाल बिन्दु की ओर चल पड़े। उस वक़्त शायद मेरे अंदर की लालसा ही मेरी हिम्मत बन गयी थी। मैंने वहाँ पहुँचकर उस सिगरेट पीते हुए बंदे से कहा। भईया यह दुकान वाले भईया कहाँ हैं? उस बंदे ने मुझे एक दफा ऊपर से नीचे तक घूरकर देखा और फिर एक ज़ोर का कश लेते हुए और अपने मुंह से धूएँ के छल्ले मेरे ऊपर छोड़ते हुए बोला, यह सब समान मैं ही बेचता हूँ। मेरी ही दुकान है यह, वहाँ रखी कई सारी सिगरेटों को देखने के बाद डरते-डरते मैंने (मैन्थोल) वाली सिगरेट को चुना और कहा मुझे यह वाली दे दो। उसने पूरा का पूरा डब्बा मेरे सामने निकल कर पटक दिया। मैंने यह देखते हुए कहा नहीं...नहीं मुझे पूरा डब्बा नहीं चाहिए। मुझे केवल एक ही सिगरेट चाहिए। तो जो उसने दाम बताये, उससे सुनने के बाद मैंने खिसिया हट भरी हंसी हँसते हुए कहा। भईया वो क्या है न मेरे पास पैसे नहीं है। तो क्या आप मुझे यह फ्री में दे सकते हैं।

क्या? क्या कहा तुमने ? उसने मुझे फिर एक बार संदिग्ध नज़रों से देखा और अपने गले में पड़े हुए गमछे को दायी से बाई ओर यूं घुमाया जैसे हम मफ़लर को घुमाते हैं और बोला ओ मैडम यहाँ फोकट में कुछ नहीं मिलता। यहाँ तक के हवा-पानी भी नहीं और आपको सिगरेट फ्री में चाहिए वाह....! मैं शर्मिंदगी से मुंह छिपती हुई, उस सिगरेट को लालायित दृष्टि से देखती हुए एक बहुत ही औपचारिक मुस्कान के साथ, जब वापस कार की ओर बढ़ी, तब शायद मेरे चेहरे को पढ़कर ज़रा भारी आवाज़ में उसने मुझे रोकते हुए कहा। रुको...! इसमें से एक सिगरेट निकालो ओर ले जाओ, मैं उसकी भारी भरकम आवाज से ज़रा चौंकी। फिर जब डरते-डरते पीछे मुड़कर देखा तो वो उस सिगरेट के डब्बे की ओर बिना कुछ बोले इशारा करते हुए बोला, कि मैं उसमें से एक सिगरेट ले सकती हूँ।

मैंने भागकर जल्दी से उस डिब्बे में से एक सिगरेट निकली और उसको धन्यवाद का इशारा करती हुई, वापस अपनी कार की ओर भागी। पर कार में बैठने के बावजूद मेरे दिमाग़ में एक ही सवाल लगातार घूमता रहा है कि आखिरकार उसने मुझे फ्री में सिगरेट क्यूँ दी, क्या मैं उसकी जगह होती तो क्या मैं भी ऐसा ही करती ? क्या मैं किसी को ऐसे फ्री में एक सिगरेट दे पाती...शायद नहीं। लेकिन हो सकता है कि मैं एक लड़की हूँ। इसलिए उसने मुझे फ्री में देदी हो। मेरी जगह यदि कोई लड़का होता तो शायद उसे यह सिगरेट फ्री में कभी न मिलती। चलो अच्छा है, लड़की होने का कुछ तो फ़ायदा हुआ मुझे, ऐसा सोचकर मुझे हल्की से हंसी आ गयी।

जैसे कोई पागल अपने आप में बड़बड़ाता रहता है, ठीक उस वक़्त मैं भी ऐसा ही कर रही थी। खुद से सवाल पूछती और खुद ही उसका उत्तर देती। एकदम पागल ही हो गयी थी मैं....कि तभी उस साथ वाली आवाज ने मेरी तंद्रा तोड़ते हुए मुझसे कहा अरे ओ बावली...क्या बड़बड़ाए जा रही है अकेले-अकेले ?

मैंने कहा कुछ नहीं, मन की डकार थी, सो निकल गयी। कैसी डकार मुझे भी बता। तुम्हें क्यूँ बताऊँ, तुम तो अंतर्यामी हो न….! सभी का मन पढना जानते हो, तो खुद ही जान लो। वैसे भी, मैं हर बात तुम्हें बताना ज़रूरी नहीं समझती। इन दिनों मेरी ज़िंदगी फिल्म मिस्टर इंडिया जैसी हो गयी है। मैं उस शख़्स से सहज ही बातें करती रहती हूँ, जिसे मैं देख नहीं सकती। सिर्फ सुन सकती हूँ। उस वक़्त मैंने समय बातों में न ज़ाया करते हुए सिगरेट जलाने का सोचा और मैं गाड़ी में माचिस ढूँढने लगी। तभी मेरे मन में विचार आया काश सिगरेट के साथ-साथ उस आदमी ने मुझे एक माचिस भी देदी होती, तो कितना अच्छा होता। ऐसा सोचते हुए मैंने अपने साथ वाली आवाज से प्रश्न किया तुम्हारे इस गाड़ी में कहीं कोई माचिस वाचिस पड़ी है क्या ? जब बहुत देर तक कोई जवाब नहीं आयी, तो मेरा मन एक बार फिर आशंका से भर गया। मुझे लगा इस अंधेरी रात में मैं फिर अकेली हो गयी हूँ।

मैं एकदम चौकन्नी हो गयी और माचिस ढूँढना छोड़कर चुप-चाप एक कोने में बैठ गयी। और मैंने कार के सभी शीशे जल्दी जल्दी बंद करना शुरू कर दिये। तीन शीशे तो मैंने बंद कर दिये चौथा शीशा लगभग बंद हो ही चुका था कि उस पर दो हाथों की थाप ज़ोर ज़ोर से पड़ने लगी। मानो कोई शीशे खोलने के लिए कह रहा हो। मैं उन हाथों की थापों से डर गयी और मैंने घबराहट में भी अपनी पूरी शक्ति से वह शीशा बंद कर दिया और अपने दोनों हाथों से अपने कान बंद कर आँखें भी बंद करलीं। फिर ज़रा देर बाद वह आवाज आना बंद हो गयी। मैंने बड़ी मुश्किल से हिम्मत जुटाकर गाड़ी के शीशे में देखते हुए, यह देखने का प्रयास किया कि बाहर कोई है या नहीं, कि तभी वही हाथों की थाप दुबारा मेरी पास वाली सीट के शीशे पर पड़ने लगी।

मैं बहुत डर गयी।

मेरा गला सुख गया और मैं पसीना-पसीना हो गयी। क्यूंकि मैं केवल वह हाथ देख पा रही थी। किन्तु अंधेरा अधिक और रात की धुंध के कारण मुझे उस इंसान का चेहरा दिखायी नहीं दे रहा था, जिसके वो हाथ थे। जो मेरे कार की सीट के काँच पर थाप मार रहे थे।

अचानक उन हाथों की जगह एक चेहरा आ गया और वह कुछ बोलने लगा। किन्तु शीशा बंद होने की वजह से मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया कि उसने क्या बोला। मैं डर के मारे चीख पड़ी और पीछे हटकर मैंने वापस अपने हाथों से अपने कान और आंखें दोनों बंद कर लिए। कुछ देर बाद देखा तो वहाँ कोई नहीं था। इस बार किसी तरह मैंने अपनी सारी हिम्मत जुटा कर खिड़की का काँच ज़रा नीचे करते हुए बाहर देखने कि कोशिश की तो किसी भूत की तरह एक लड़का अचानक प्रगट होकर माचिस दिखते हुए बोला। पास वाली दुकान के भईया ने आपके लिए यह माचिस भेजी है।

मैंने डर के मारे झट से माचिस ली और खिड़की का शीशा तुरंत बंद कर दिया। उस समय मेरी हालत ऐसी थी मानो मैं जन्मों से प्यासी हूँ। मुझे उस वक़्त उस सिगरेट से ज्यादा पानी की प्यास थी। लेकिन मारे डर के, गाड़ी से उतरकर बाहर जाने की हिम्मत अब मुझ में शेष नहीं थी। फिर वही मेरे (साथ वाली आवाज) आयी अरे, अब तो पिलो यह सिगरेट, सुना है सिगरेट पीने से डर भाग जाता है। मैं उस आवाज को दुबारा अपने निकट सुनकर इस बार खुद को रोक नहीं पायी और रो दी... कहाँ चले गए थे तुम...? मुझे यूं इस सुनसान जगह पर अकेला छोड़कर। यदि जाना ही है तुमको, तो एक बार में चले क्यूँ नहीं जाते। यूं बार-बार आकर मेरी मदद करने का क्या मतलब था। या तो तुम पूरे समय मेरे साथ रहो, या फिर मुझे हमेशा के लिए छोड़कर चले जाओ।

यह अधर में लटकी ज़िंदगी मुझे जरा भी पसंद नहीं है। समझे कहते-कहते म फफक-फफकर रोना शुरू कर दिया।

उस वक़्त कहीं उसके दिल में और शायद कहीं न कहीं मेरे दिल में भी यह ख्याल आए कि मुझे उस अनदेखे इंसान से प्रेम हो चला है। इसलिए अब, जब कभी भी वह आवाज खामोश होती है तो मुझे लगता है मैं बिलकुल अकेली और असहाय सी हो गयी हूँ।

अब मेरा उस आवाज के बिना काम नहीं चलता। वो मुझे दिखायी दे या न दे, पर अब मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। किन्तु उसकी वो आवाज अब मुझे हर पल मेरे आस-पास चाहिए। यह सभी कुछ मैं रोते हुए मन ही मन सोच रही हूँ। वह फिर बोला “ए गुड़िया रानी तेरी मोटी-मोटी आँखों में यह मोटे-मोटे आँसू मुझे अच्छे नहीं लगते”। तो मैं क्या जानकर के रोती हूँ। मैंने तपाक से उत्तर दिया। मुझे भी रोना अच्छा नहीं लगता है पर ना जाने क्यूँ, तुम्हारे जाते ही मेरे साथ ऐसा कुछ भयानक घटित होता है कि मेरे लिए खुद को संभाल पाना आसान नहीं होता। वो बात बदलने के लिए फिर एक बार कहता है, चलो छोड़ो जी मिट्टी पाओ। अब यह सिगरेट पीकर देखो तो सही, कि तुम्हें कैसा लगता है।

मैंने किसी तरह काँपते हुए हाथों से सुबकते हुये सिगरेट उठाकर अपने मुंह में रखकर जलाने का प्रयास किया। किन्तु पहले कभी सिगरेट पी नहीं थी, तो मुझे कुछ आइडिया भी नहीं था कि कैसे क्या करना होता है।

सिर्फ हिन्दी फिल्मों के भरोसे, मैंने किसी तरह अपनी सिगरेट सुलगाई ओर जैसे ही एक कश खींचा, तो मेरा वहीं खाँस-खाँसकर बुरा हाल हो गया और आँखों से पानी आने लगा। मैंने बहुत ही बुरा मुंह बनाते हुए बोला कि बड़ी बकवास चीज है यह, इतनी गंदी चीज पीकर लोग इसका मजा कैसे लेते हैं। उफ़्फ़...अब मैं क्या करूँ....मैं इधर-उधर उसे फेंकने के लिए मार्ग ढूंढने लगी क्यूंकि कार का दरवाज़ा खोलकर उस जलती हुई सिगरेट को बाहर फेंक देने कि हिम्मत अब मुझ में नहीं थी। तभी (उस आवाज) ने फिर एक बार मुझे समझाया कि सुनो मुंह से धुआँ अंदर खींचो और नाक से बाहर निकाल दो, धूएँ को अंदर लेने कि जरूरत नहीं है। मैंने उसकी बात मानकर फिर एक बार ऐसा ही करने कि कोशिश की और तीन-चार बार प्रयास करने पर मुझसे वह हो गया और मैं बहुत खुश हो गयी। उस एक सिगरेट के खत्म होने तक हम कश खींचते रहे। अब जैसे सिगरेट का नशा मेरी नसों में उतरकर, मेरे खून में मिलकर बहने लगा है। मुझे हल्का हल्का सुरूर छा रहा है। मानो मैं धीरे-धीरे नींद के आगोश में जा रही हूँ। अब कोई डर नहीं है मुझ, मैं चैन की नींद सोने जा रही हूँ। सोचते-सोचते में वहीं सो जाती हूँ।

अगली सुबह जब मेरी आँख खुलती है तो मैं एक ज़ोर की अंगड़ाई के साथ अपनी आँखें खोलती हूँ। तो क्या देखती हूँ....!

कि मैं एक ऐसे घर में हूँ। जहां मैं पहले आ चुकी हूँ। मगर कब, कहाँ, कैसे, यह मुझे कुछ भी याद नहीं है। दो कमरों का यह मकान मुझे घर जैसे फीलिंग दे रहा है। पर मैं यह अच्छे से जानती हूँ कि यह मेरा घर नहीं है। फिर यह किसका घर है? और मैं यहाँ कैसे...इन सवालों में उलझी मैं अपने कमरे से निकलकर बाहर आती हूँ कि शायद कोई मिले, तो मैं उससे यह पूछ सकूँ कि मुझे यहाँ कौन लाया। मगर यह क्या...! यह घर तो एकदम खाली है। यहाँ तो कोई है ही नहीं। अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ?

मैं थोड़ा परेशान हो उठती हूँ। लेकिन दिल में इस बात कि तसल्ली है कि कम से कम घर में तो हूँ। घर पूरी तरह से व्यवस्थित है। इससे यह पता चलता है कि कोई न कोई तो यहाँ रहता है। हो सकता है वह बाहर गया हो और अभी कुछ देर में आ जाये। तब पूछ लुंगी उससे कि मैं कौन हूँ और यहाँ कैसे आयी। ऐसा सोचकर मैं किचन में जाती हूँ और एक कप चाय बनाने के विचार से चाय का समान ढूँढने लगती हूँ। जल्दी ही, मुझे सब कुछ मिल जाता है। और में चाय को पियाले में भर चाय का आनंद लेने लगती हूँ। कि दूर.....से आती हुई गरम कॉफी की महक मेरा ध्यान अपनी ओर खींचती हैं।

मैं अपना चाय का कप पास रखी मेज पर रखते हुए, उस दूर से आरही सौंधी-सौंधी कॉफी की खुशबू कि तलाश में घर की बालकनी में पहुँच जाती हूँ। तो क्या देखती हूं।

घर के ठीक सामने एक कॉफी शॉप हैं। जहां कॉफी पीने के लिए सुबह से ही बढ़े बूढ़े लोगों का जमावड़ा लगा हुआ है।

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