आघात
डॉ. कविता त्यागी
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पिता के शब्दों का अवलम्ब ग्रहण करके पूजा कुछ प्रकृतिस्थ हो गयी और ससुराल जाने के लिए तैयार होने लगी । यह जानते हुए भी कि उनकी बेटी ससुराल में कष्टप्रद जीवन जी रही है, माता अपनी बेटी को ससुराल में भेजने के लिए विवश थी । माँ की आँखो से आँसू बहने अभी भी बन्द नहीं हुए थे । ऐसा लग रहा था मानो एक माँ अपने हृदय की पीड़ा को आसुँओं के बहाने बाहर निकालने को प्रयास कर रही थी । उस पीड़ा को, जिसको वह शब्दों में व्यक्त करने की क्षमता नहीं रखती थी । एक पिता के रूप में कौशिक जी की दशा तो और भी दयनीय थी । माँ के समान वे अपनी पीड़ा को न तो आँसुओं में निकाल सकते थे और न ही किसी के समक्ष वे अपनी पीड़ा को व्यक्त ही कर सकते थे । उनका पुरुष होना एक ओर उन्हें कष्ट सहन करने की शक्ति प्रदान कर रहा था, तो दूसरी ओर पिता होने के नाते वे अपनी पीड़ा को छिपाने के लिए - किसी के समक्ष प्रकट न कर पाने के लिए विवश थे, क्योंकि यदि कौशिक जी ही अपनी पीड़ा को व्यक्त करके अपनी दीनावस्था का प्रदर्शन करने लगते, तो पूजा को और उसकी माँ को अपनी पीड़ा को सहन करने की शक्ति कहाँ से मिलती ?
थोड़ी देर बाद पूजा को विदा किया जाने लगा । विदाई के समय माँ की आँखो से आँसू बह रहे थे । वे रोते हुए उन अनेक रूढ़िवादी बातों की शिक्षा देकर, जिनका इस युग में कोई मानवोचित अर्थ नहीं रह गया है, अनजाने में ही पूजा को दुर्बल बना रही थीं । वे पूजा को समझाते हुए कह रही थीं -
‘‘बेटी, स्त्री का जन्म ही इसलिए होता है कि वह जीवन-भर सबकुछ सहन करती रहे ! उसके भाग्य में ही पुरुषों के करणीय-अकरणीय को सहन करना लिखा होता है । तुझे भी ससुराल में रहकर सब-कुछ सहन करना है ! वही अब तेरा घर है !... बिटिया, जिसका स्त्री का अपने पति के साथ मतभेद हो जाता है, इस समाज में उस स्त्री को कोई भी मान-सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है ! इसलिए जब तक तेरे शरीर में प्राण रहेंगे, तब तक तुझे उसी घर में रहकर दोनों परिवारों का और स्वयं अपना मान-सम्मान बनाये रखना है ! अपने इस दायित्व को कभी मत भूलना !’’
इसके विपरीत पूजा के पिता अपने स्नेह एवं आशीर्वाद से पूजा का इस प्रकार मनोबल बढ़ा रहे थे कि कष्ट सहने की प्रेरणा में भी उसको एक सार्थक लक्ष्य का और स्त्रीत्व की महती भूमिका का आभास हो रहा था । माँ और पिताजी के लगभग समान शब्दों से निकलने वाली असमान किरणों से पूजा एक प्रकार से अनिश्चय के हिंडोले में झूलने लगी थी । माँ की ओर देखने पर वह स्वयं को अबला और प्रताड़णा से त्रस्त विवश स्त्री के रूप में अनुभव करने लगती थी, जबकि पिता की ओर देखने पर उनकी दृष्टि का अबलम्ब पूजा को एक स्वाभिमानी, शक्तिसम्पन्ना और संघर्ष करके विजयश्री का वरण करने वाली एक अपूर्व, अद्वितीय आभायुक्त स्त्री बना देता था ।
अपने माता-पिता की आज्ञाओं-शिक्षाओं और सुझावों को ग्रहण करके उनकी पारस्परिक तुलना और विश्लेषण करते हुए पूजा अपने मायके से विदा हो गयी । उसकी विदाई के पश्चात् प्रेरणा की स्मृति-पटिट्का पर एक-एक करके वे सब घटनाएँ चित्रित होने लगी, जिन्होंने उसके मन-मस्तिष्क पर अपनी गहरी छाप बनायी थी ।
प्रेरणा सोचने लगी -
‘‘कितना परिवर्तन आ गया है, तब और अब में ! तब पूजा दीदी जीजा जी से, अपने ससुराल के सभी सदस्यों से तथा वहाँ की परिस्थितियों से पूर्णतः सन्तुष्ट थी और प्रसन्न भी थी । तब दीदी को न किसी से कोई शिकायत थी और न कोई कष्ट था । अभी उनके विवाह को कुछ ही महीने हुए हैं, फिर भी कितना परिवर्तन आ गया है उनके जीवन में ! परिवर्तन ! वह भी नकारात्मक दिशा में !.. दीदी के अनुभवहीन कंधों पर दो परिवारों के मान-सम्मान और उनके परस्पर सम्बन्धों को मधुर बनाये रखने का दायित्व-भार आ पड़ा है, जो एक गुरु-भार है । यह भार उन्हें सामाजिक-मर्यादा में रहकर वहन करना होगा ! परन्तु, इस सबमें दीदी कहाँ है ? उनका अपना जीवन और जीवन का रस कहाँ है ? किसी को परवाह नहीं है कि दीदी का अपना भी कोई जीवन है ! जीवन जीने का उनका अपना एक दृष्टिकोण और अपनी कुछ आकांक्षाएँ हैं ! जिस प्रकार परिवार वाले उनसे अपेक्षाएँ रखते है, वे भी उसी प्रकार परिवारवालों से कुछ अपेक्षाएँ रख सकती हैं, यह बात इनमें से किसी के भी मन-मस्तिष्क में क्यों नहीं आती है ?... क्या यह केवल इसलिए है कि दीदी लड़की है ?... विवाह से पहले पूजा दीदी सदैव प्रसन्न रहती थीं ! तब उनके जीवन में उत्साह था, उमंग थी, किन्तु आज ?... कुछ ही महीनों में उनके जीवन में पीड़ा का तथा अनचाहे बोझ का सम्राज्य स्थापित हो गया है !’’
पूजा की विदाई के पश्चात् न केवल प्रेरणा बल्कि परिवार के सभी सदस्य व्यथित थे और चिन्तित थे । अन्तर केवल इतना था कि प्रेरणा ने अपनी संवेदनशीलता के कारण तथा स्वयं के प्रति पूजा के स्नेह-भाव के कारण उसके साथ एक विशेष लगाव रखने के बावजूद अपनी व्यथा को कभी किसी के समक्ष प्रकट नहीं किया था, केवल उसकी अनुभूति की थी ।
पूजा की विदाई के पश्चात माँ की व्यथा इतनी अधिक बढ़ गयी कि उन्हें रणवीर के साथ ससुराल में अपनी बेटी की कुशल-क्षेम पर शंका होने लगी । वे उठते-बैठते, खाते-सोते पूजा की चिन्ता कर-करके रोने लगी और दिन-भर प्रत्येक क्षण उसकी मंगलकामना करती रहती । उनकी भूख-प्यास और नींद भी जैसे पूजा के साथ ही विदा हो गयी थी । कभी-कभी तो वे स्वयं पर से नियन्त्रण खोकर बेटी के दुर्भाग्य को कोसती हुई कौशिकजी पर बरस पड़ती थी कि यदि उन्होंने बेटी का विवाह करने से पहले ही रणवीर और उसके परिवार के बारे में अच्छी प्रकार जाँच-पड़ताल कर ली होती, तो आज उनकी बेटी की यह दुर्दशा नहीं होती । पत्नी की दशा को देखकर कौशिक जी भी अधिक व्यथित हो उठते थे । अपनी बेटी की ससुराल में उसके सुख-सम्मान को लेकर वे हर समय विचार-मंथन में लीन रहते थे, किन्तु कोई यथोचित मार्ग उन्हें नहीं सूझता था । सभी प्रकार से विचार-मंथन करने के बाद अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि महीने में कम-से-कम दो बार पूजा की ससुराल जाकर उसकी कुशल-क्षेम लाएँगे !
प्रथम माह में दो-तीन बार पूजा का भाई यश उसकी कुशल-क्षेम लेने के लिए गया, दूसरे महीने उसने वहाँ जाने से स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया -
‘‘कुछ भी हो जाए, मैं पूजा की कुशल-क्षेम जानने के लिए उसकी ससुराल नहीं जाऊँगा ! प्लीज ! माँ-पिताजी, आप मुझे वहाँ जाने के लिए विवश न करें !’’
यश ने बताया कि पूजा की ससुराल में सभी उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते हैं । अपने भाई के प्रति ससुराल वालों की उपेक्षा के पश्चात् पूजा का इतना साहस नहीं होता है कि वह पाँच मिनट बैठकर अपने भाई के साथ बातें कर सके ! या एक कप चाय भी पिला सके ।... उन सबसे आँखे चुराकर वह कुछ क्षणों के लिए भाई के पास मात्र इतना कहने के लिए आती है कि मायके से उसकी कुशल-क्षेम जानने के लिए कोई न आया करे, क्योंकि उसको तब अधिक कष्ट होता है, जब उसकी ससुराल में उसके मायके वालों का अपमान होता है ।
माता-पिता द्वारा बहुत-बहुत समझाने पर भी यश अपनी बहन पूजा की ससुराल जाने के लिए तैयार नहीं हुआ । उसको पूजा की सुरक्षा-असुरक्षा का वास्ता भी दिया गया, किन्तु वह टस-से-मस नहीं हुआ । यश के इस अडिग व्यवहार से परास्त होकर अन्त में कौशिक जी ने पूजा की कुशल-क्षेम का पता लाने का भार स्वयं अपने ऊपर ले लिया । यद्यपि वे पूजा की ससुराल जाना नहीं चाहते थे, क्योंकि किसी घटना-स्थिति को देखने और सुनने में पर्याप्त फर्क होता है, तथापि अब उनके समक्ष यह चुनौती खड़ी हो गयी थी कि वे बेटी की यथार्थ स्थिति को अपनी आँखों से देखें । इस स्थिति की कल्पना करके कौशिक जी का आत्मविश्वास डगमगाने लगा, कि वे बेटी की दयनीय दशा देखकर आवेश के वशीभूत प्रतिक्रियास्वरूप कोई ऐसा निर्णय न ले डालें जो उनकी बेटी के दीर्घगामी हितों के लिए घातक बन जाए ! उन्हें यह भी अनुभव हो रहा था कि अपने पिता की उपेक्षा का उनकी बेटी पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा ! वह टूट जाएगी ! जिस शक्ति-सामर्थ्य से परिस्थितियों के साथ अब संघर्ष कर रही है, शायद फिर न कर पाए और कोई आत्मघाती कदम उठा ले ।
कई दिनों तक कौशिक जी इसी ऊहापोह में फँसे रहे कि पूजा की ससुराल जाएँ या न जाएँ ? इसके अतिरिक्त उन्हें कोई विकल्प भी नहीं सूझ रहा था कि वे स्वयं बेटी की ससुराल जाकर अपनी बेटी की कुशल-क्षेम लाएँ और बेटी का मनोबल बढ़ाएँ ! अन्त में उन्होंने अपने अन्तर्द्वन्द्व पर विजय पायी और पूजा की ससुराल स्वयं जाने का निर्णय ले लिया । इस निर्णय के साथ ही उन्होंने विषम से विषम परिस्थिति में भी अपना आत्मनियन्त्रण बनाये रखने का संकल्प भी किया ।
यद्यपि कौशिक जी पर्याप्त वाक् संयमी थे, तथापि घर में कोई भी सदस्य उनके बेटी की ससुराल जाने के निर्णय से प्रसन्न नहीं था । किसी भी सदस्य ने उनके इस निर्णय का समर्थन नहीं किया । रमा का तर्क था कि बेटी की ससुराल ही उसका अपना घर होता है । अच्छा या बुरा, जैसा उसके भाग्य में विधता ने लिखा था, वैसा घर-वर उसको मिला है ! अब उसको उसी घर में उन लोगों के साथ रहने की आदत डालनी होगी ; हँसकर या रोकर ! ससुराल में लड़ना या कष्ट सहन करना विवाहित लड़की के लिए मायके के प्यार-दुलार से अधिक अच्छा होता है । यदि वहाँ पर कौशिक जी का अपमान हुआ या उनके साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार हुआ, तो उस स्थिति में उनके समक्ष केवल दो ही विकल्प होंगे - उनकी अनुचित बातों को सहन करना अथवा उन्हीं की भाषा में उन्हें उत्तर देना । ये दोनों विकल्प पूजा के हित में नहीं होंगे ! पहले विकल्प में उनकी बेटी तथा स्वयं कौशिक जी के स्वाभिमान और आत्मविश्वास को चोट पहुँचेगी ! इसका परिणाम यह होगा कि पूजा जीवन-भर के लिए अपना मनोबल खो देगी ! कभी भी उनकी प्रताड़नाओं के समक्ष सिर नहीं उठा पायेगी !
दूसरा विकल्प अपेक्षाकृत अधिक गम्भीर समस्या उत्पन्न कर सकता है । बेटी की ससुराल वालों को उनकी भाषा में समझाने पर दोनों पक्षों के सम्बन्धें में अत्यधिक कटुता आ जायेगी और बेटी एक व्यर्थ के धर्म-संकट में फँसकर रह जाएगी ! ऐसी दशा में पूजा के समक्ष उसके ससुराल वाले दोनों पक्षों - पितृपक्ष और पति पक्ष में से किसी एक का चुनाव करने का प्रस्ताव रखेंगे ! ससुराल वालों का ऐसा प्रस्ताव किसी भी लड़की के लिए सर्वाधिक दारुण कष्टकारक होता है ।... पूजा को तो और भी अधिक कष्ट भोगना पड़ेगा, क्योंकि यदि वह पितृ-पक्ष से सम्बन्ध तोड़कर ससुराल पक्ष को चुनती है, तो वे लोग शोषण और प्रताड़नाओं से उसके जीवन को नर्क बना देंगें ।...यदि वह पितृ-पक्ष से सम्बन्ध् जोड़कर रहेगी, तो ससुराल वाले उसको अपने साथ रखना स्वीकार नहीं करेंगें । उस स्थिति में भी उसका जीवन सहज नहीं रह पायेगा !
पूजा के भाई यश का तर्क ऐसा ही था, जैसा किशोरावस्था में हो सकता है और प्रायः होता है । उसका कहना था कि पूजा की ससुराल जाकर अपमान और उपेक्षा के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा । इसलिए पहले तो उन्हें समझाने के लिए दल-बल के साथ जाना चाहिए । यदि तब भी उन्हें समझ में नहीं आता है कि दूसरे की बेटी के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए ? तब पूजा को सुरक्षित घर वापस लाकर उसका तलाक करा दिया जाये और तत्पश्चात् योग्य वर-घर देखकर उसका पुनर्विवाह करा दिया जाये !
पत्नी तथा बेटे के तर्क से कौशिक जी सहमत नहीं थे । वे अपने निश्चय पर दृढ़ थे । घर के सभी लोगों के विरोध् के बावजूद कौशिक जी ने अपने निर्णय में कोई परिवर्तन नहीं किया । उन्होंने अपने कार्यों से कुछ समय बचाया और एक दिन पूजा से मिलने के लिए उसकी ससुराल पहुँच गये । वहाँ पर पूजा के अतिरिक्त सभी का उनके प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार रहा । परिवार में तनावपूर्ण स्थिति न बनें, पूजा इस बात से बचती थी, इसलिए वह भी पिता के पास बैठने में, उनसे बातें करने में संकोच करती रही । परन्तु जब कौशिक जी ने उसकी सास की उपस्थिति में ही पूजा को अपने पास बुलाया और बैठने के लिए कहा, तब वह उनके पास बैठकर उत्सुकतापूर्ण बातें करने लगी । यद्यपि अपने पिता के समक्ष पूजा ने अपनी ससुराल वालों के विषय में कोई शिकायत नहीं की थी, न ही कोई ऐसी बात कही थी, जिससे उसकी ससुराल के किसी सदस्य की नकारात्मक छवि बनें, तथापि उसकी सास इस बात से क्रोधित हो गयी कि उनकी अनुमति के बिना उसने अपने पिता के पास बैठकर उनसे बातें करने की धृष्टता क्यों की ? अपनी अप्रसन्नता तथा क्रोध को उन्होंने कौशिक जी के समक्ष ही पूजा को दो-चार कटु बातें कहकर - जिसमें परोक्ष रूप से कौशिक जी पर भी व्यंग्यबाण छोडे गये थे, व्यक्त कर दिया था ।
रणवीर के विषय में कौशिक जी को पूजा से ज्ञात हुआ था कि वह उनके वहाँ पहुँचने के कुछ मिनट पहले तक घर पर ही था । घर से बाहर जाने का कोई कारण बताकर नहीं निकला था, इसलिए ऐसी आशा की जा रही थी कि वह शीघ्र ही वापिस लौट आयेगा । परन्तु कौशिक जी जितने समय तक वहाँ पर रहे, रणवीर उनके आस-पास भी नहीं आया । ऐसा लगने लगा था कि रणवीर अपने ससुर से मिलना ही नहीं चाहता था, इसलिए उनसे आँखे चुरा रहा था । यथासम्भव प्रतीक्षा करने के बाद भी कौशिक जी अपने दामाद से नहीं मिल पाये, और अपने घर वापिस लौट आये ।
वहाँ से लौटते समय कौशिक को कुछ सन्तुष्टि हुई थी और कुछ असन्तुष्टि । सन्तुष्टि इस बात की थी कि आज उन्होंने अपनी बेटी में अपूर्व परिपक्वता का अनुभव किया था, जो अपनी परिस्थितियों से संघर्ष करके अपने भाग्य की रेखाओं को बदलने में प्रयासरत थी । उन्हें आशा थी कि आत्मविश्वास से परिपूर्ण उनकी बेटी को अपने इस प्रयास में अवश्य ही सपफलता मिल जायेगी । उन्हें इस बात का भी सन्तोष था कि वहाँ पर केवल रणवीर की माता ने परोक्ष रूप से उन्हें कुछ कटु बातें अवश्य कह दी थीं, उनके अतिरिक्त अन्य किसी ने अपमान नहीं किया और कौशिक जी विग्रहकारक परिस्थिति का शिकार होने से बच गये थे । फिर भी, कौशिक जी को अपनी बेटी की वर्तमान स्थिति को देखकर अत्यन्त कष्ट हुआ था, जिसे वे बार-बार चाहते हुए भी भुला नहीं पा रहे थे ।
डॉ. कविता त्यागी
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