Aaghaat - 10 in Hindi Women Focused by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | आघात - 10

Featured Books
Categories
Share

आघात - 10

आघात

डॉ. कविता त्यागी

10

कौशिक जी ने अपनी बेटी के मानसिक द्वन्द्व की स्थिति को तुरन्त भाँप लिया । उन्होंने मुस्कराते हुए कहा -

‘‘कुछ कहना चाहती हो, तो कहती क्यों नहीं हो ?’’

‘‘पिताजी, आपको कहीं जाना तो नही है ?... मतलब, जल्दी तो नहीं

जाना है ?’’

‘‘नही, अभी हम कहीं नहीं जा रहे हैं ! आज हम तुम्हारे साथ बातें करेंगे ! और तब तक करेंगे, जब तक तुम चाहोगी ।’’

‘‘सच!’’

‘‘बिल्कुल सच!’’

‘‘अर्थात, आप आज कहीं बाहर नहीं जाएँगे, सारा दिन घर पर ही रहेंगे?’’

‘‘हाँ ! बिल्कुल सही समझा है तुमने ! आज हम सारा दिन घर पर रहकर अपनी गुड़िया से बातें करेंगे !’’

पिताजी का उत्तर सुनकर प्रेरणा आश्वस्त हो गयी कि आज वह अपने सभी प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करके, अपनी सभी जिज्ञासाओं को शान्त कर सकती है । कौशिक जी उसके पिता मात्र न थे । वे उसके घनिष्ट मित्रा भी थे, मार्गदर्शक भी थे और जब वह विद्यालय से मिला हुआ गृहकार्य पूर्ण करने के लिए बैठती थी, तब वे उसके अध्यापक भी बन जाते थे । अपने पिता को इतनी भूमिकाओं में एक साथ पाकर उसकी यह आदत बन चुकी थी कि एक-एक पल की अपनी प्रत्येक बात ; प्रत्येक छोटी-से छोटी घटना, यथा - विद्यालय में आज अमुक छात्रा अपना गृह-कार्य करके नहीं लायी थी, इसलिए अध्यापक ने उसको डाँटा, अमुक छात्रा की आज पिटाई हुई, अमुक छात्रा कभी गृहकार्य पूर्ण करके नहीं लाती है, क्योंकि उसके माता-पिता साक्षर नहीं है, अथवा उसके माता-पिता उसको बिल्कुल भी समय नहीं देते हैं, आज घर में कौन-कौन आया, माँ ने क्या कहा, भैया ने क्या कहा आदि के विषय में जब तक एक-आध घंटा अपने पिताजी के पास बैठकर खुलकर अपनी अभिव्यक्ति नहीं कर लेती थी, तब तक उसका चित्त शान्त नहीं होता था ; उसके मन पर एक भार-सा बना रहता था । पिता उसकी प्रत्येक बात को ध्यान से सुनते ही नहीं थे, बल्कि प्रत्येक बात पर अपनी प्रतिक्रिया देकर उसको सन्तुष्ट भी करते थे ।

उस दिन अपने पिता को तनावमुक्त अनुभव करके उनके साथ बातें करने का अवसर पाकर प्रेरणा ने निःसंकोच अपनी भावाभिव्यक्ति आरम्भ की -

‘‘पिताजी, आप पूजा दीदी को बुला लीजिए न ! हमें उनकी बहुत याद आती है ! इसलिए हमारा पढ़ने में भी मन नहीं लगता है !’’

‘‘बिटिया, याद तो हमें भी बहुत आती है पूजा की ! परन्तु विवाह के बाद हर लड़की का ससुराल के प्रति कुछ दायित्व होता है और उसेका निर्वाह करने में उसको अपने माता-पिता, भाई-बहन के सहयोग की भी आवश्यकता होती है, इसलिए हमें लगता है कि उसको डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए !’’

‘‘हम दीदी को डिस्टर्ब करने के लिए कब कह रहे हैं ?’’ प्रेरणा ने रूठने का अभिनय करते हुए कहा ।

‘‘जब हम बार-बार पूजा को यहाँ बुलायेंगे, तब वह डिस्टर्ब नहीं होगी, तो और क्या होगा ?... जैसे तुम्हें पूजा की याद आती है, मुझे भी आती है ! तुम्हारी माँ को भी आती है ! ठीक ऐसे ही पूजा को भी हम सबकी याद अवश्य ही आती होगी ! अब यदि उसको हम जल्दी-जल्दी यहाँ बुलायेंगे तो उसका ससुराल में मन नहीं लग पायेगा । ऐसी स्थिति में वह ससुराल के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह कैसे कर पायेगी?’’

‘‘जल्दी-जल्दी कहाँ बुला रहे है आप ? अब तो पूजा दीदी को यहाँ से गये हुए कई महीने हो चुके है । विवाह के बाद से दीदी केवल दो बार ही तो आयी हैं, वह भी केवल कुछ घंटों के लिए ! जब तक दीदी यहाँ रहती है, तब तक हम उनके साथ आने वाले अतिथियों की स्वागत-सेवा के कार्यों में हाथ बँटाते रहते हैं ! उसके बाद दीदी चली जाती हैं ! आपने अभी कहा है कि दीदी को भी हमारी याद आती होगी, तो उन्हें कुछ दिन हमारे साथ रहने के लिए बुला लीजिए ! उसके बाद फिर ससुराल भेज देना !’’

प्रेरणा ने कुछ उलाहने भरे प्रार्थनापूर्ण लहजे में कहा, तो कौशिक जी भाव-विभोर हो गये । उन्हें स्वयं को भी अपनी बेटी पूजा की याद सताने लगी । उस समय वे अपनी बेटी पूजा से मिलने के लिए स्वयं भी आतुर हो उठे थे । अपनी भावनाओं को छिपाते हुए वे बोले -

‘‘ठीक है ! हम आज ही रणवीर को पत्र लिखेंगे कि प्रेरणा को अपनी दीदी की बहुत याद आ रही है, इसलिए पूजा को शीघ्रातिशीघ्र यहाँ ले आयें ।’’

‘‘आपका पत्र पढ़कर जीजा जी दीदी को ले आयेंगे ?’’

‘‘अवश्य लाएँगे !’’

‘‘आप अभी इसी समय पत्र लिख दीजिए जीजा जी के लिए ?’’

‘‘ठीक है ! हम अभी लिखते हैं और लिखते ही पोस्ट कर देंगे !... पत्र पाकर पढ़ते ही तुम्हारे जीजा जी और दीदी तुमसे मिलने के लिए चले आयेंगे, हमें पूर्ण विश्वास है !’’

अपने पिता से बातें करके प्रेरणा में नयी आशा का संचार हो गया था । उसका चित्त कुछ शान्त हो गया था, इसलिए उसने पढ़ना आरम्भ कर दिया था । परन्तु अब उसका चित्त अपनी पाठ्य-वस्तु पर कम और अपनी पूजा दीदी की स्मृतियों पर अपेक्षाकृत अधिक केन्द्रित रहता था । पुस्तक हाथ में लेकर भी उसकी दृष्टि और ध्यान दरवाजे की ओर लगे रहते थे । प्रत्येक क्षण वह पूजा को लेकर कुछ-न-कुछ सोचती रहती थी -

‘‘दीदी आयेंगी तो वह हमारे पास कितने दिन रहेंगी ? आने के बाद शीघ्र ही ससुराल तो नहीं चली जायेंगी ? उन्हें अभी भी हमसे उतना ही प्यार होगा या नहीं ? कहीं सचमुच ऐसा तो नहीं है, जैसा पड़ोसिन आंटी कह रही थी कि ससुराल में जाकर पूजा तो सबको भूल ही गयी है, इसीलिए मिलने के लिए भी नहीं आयी ! इसी प्रकार के प्रश्न दिन-भर उसके मन-मस्तिष्क में हलचल मचाये रहते थे ।

लगभग एक सप्ताह पश्चात् प्रेरणा की प्रतीक्षा समाप्त हुई । उस दिन प्रातः आठ बजे दरवाजे की घंटी बजी । प्रेरणा दरवाजा खोलने के लिए गयी, तो दरवाजा खोलते ही प्रसन्नता से उछल पड़ी । उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था । वह बार-बार पूजा को बाँहों में भरकर तथा उसको देखकर विश्वास करने का प्रयास कर रही थी कि वह जो कुछ देख रही है, यथार्थ है ? उसे कुछ भ्रम तो नहीं हुआ है ? प्रेरणा की इस दशा को देखकर पूजा भी प्रसन्नता से रोमांचित हो रही थी । उसने प्रेरणा के माथे पर चुम्बन लेते हुए कहा -

‘‘पिन्नू, तुझे मेरी याद आती थी ? मैं भी तुम सबको बहुत याद करती थी ! एक क्षण के लिए भी मैं तुमकों नहीं भूल पाती थी !’’

‘‘सच दीदी ! आप भी मुझे उतना ही याद करती थी, जितना मैं करती

थी ? पड़ोसिन आंटी कह रही थी कि तुम हमें भूल गयी हो, इसीलिए घर वापिस नहीं आयी हो ! सब लडकियाँ ससुराल में जाकर माता-पिता, भाई-बहन सबको भूल जाती हैं ? आप सब कुछ सच-सच बताओ, दीदी ।’’

‘‘नहीं पिन्नू, ससुराल में जाकर तो सबकी और भी अधिक याद आती है । अपनों के प्यार का तो अहसास ही वहाँ जाकर होता है, जहाँ पर अपने नहीं होते हैं । चलो, बातें बाद में करेंगे । अब पहले नाश्ता करेंगे ।’’

दरवाजा खोलकर प्रेरणा शीघ्र ही वापिस नहीं लौटी तो माँ ने पूछा -

‘‘पिन्नू कौन है ? बेटी, तू दरवाजे पर खड़ी होकर किससे बातें करने लगी है ?’’

प्रेरणा ने माँ की बात का कोई उत्तर नहीं दिया । कुछेक क्षण में वे दोनों बहनें माँ के समक्ष आकर खड़ी हो गयी । माँ भी पूजा को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी । सुबह-सुबह अचानक बेटी को देखकर माँ का मन आशंकित हो उठा -

‘‘अचानक... ? बिना किसी सूचना के... ?... तुम्हारे साथ कौन आया है ? अकेली आयी हो ?’’

रमा के इतने अधिक प्रश्नों का एक साथ उत्तर देना तो दूर, पूजा के लिए उन्हें समझना भी कठिन हो रहा था । अतः प्रेरणा ने माँ को चुप करते हुए कहा -

‘‘माँ, आप एक-एक करके प्रश्न पूछेंगी, तभी तो दीदी कुछ बता पायेंगी ! खैर, मैं आपके प्रश्नों का उत्तर देती हूँ ! आप चिन्ता मत कीजिए ! दीदी अकेली नहीं आयी हैं, जीजाजी उन्हें लेकर आये हैं । अब प्रश्न है सूचना दिये बिना आने का, तो क्या दीदी को अपने घर अब सूचना देकर आना पड़ेगा ? दीदी यहाँ बिना सूचना दिये नहीं आ सकती क्या ?... पर आपकी तसल्ली के लिए मैं बता दूँ, दीदी को लाने के लिए पिताजी ने एक सप्ताह पहले जीजाजी को पत्र लिखा था ! वरना, दीदी तो शायद आज भी नहीं आती ! क्यों दीदी ?’’

प्रेरणा से यह जानकर कि उसके पिता ने रणवुर को पत्र लिखा था और उसी पत्र को पाकर रणवीर उनकी बेटी को उसके मायके में मिलाने के लिए लेकर आया है, माँ की चिन्ता समाप्त हो गयी । उन्हें इस बात की तसल्ली भी हो गयी कि दामाद उनकी बेटी का तथा बेटी के घरवालों का ध्यान-मान रखता है । प्रसन्नता की मुद्रा में माँ प्रेरणा को डाँटते हुए बोली -

‘‘अरे, पिन्नू ! अब खड़ी-खड़ी बातें ही करती रहोगी ! मेहमान को पानी-वानी पिला दे और अपने पिताजी को सूचना भिजवा दे कि तेरे जीजाजी और दीदी आये हैं !... जरा यश को भी आवाज लगा दे, किसी काम से वह पड़ोस वाले बंटी के घर गया है !... मेहमान अकेला बैठा है, उसे अच्छा नहीं लग रहा होगा ! क्या सोचेगा हमारे बारे में, घर में कोई स्वागत करने वाला भी नहीं है ! ससुर भी और साला भी, सब घर से बाहर हैं ! कोई भी दरवाजे पर नहीं मिला !’’ माँ अपने होठों ही होठों में बड़बड़ाती रही, जैसेकि घर में यश और कौशिक जी के न मिलने पर बेटी की ससुराल वालों का बहुत बड़ा अपमान हो गया है, जिससे बेटी के मान-सम्मान को भी अपनी ससुराल में ठेस लगेगी ।

माँ का निर्देश पाकर प्रेरणा पानी लेकर उस कमरे की ओर चली गयी, जिसमें रणवीर बैठा था । पानी पिलाने के बाद वह घर से बाहर की ओर चली गयी, ताकि यश भैया को बुला सके और कौशिक जी को पूजा और रणवीर के आने की सूचना पहुँचा सके ।

कुछ समय पश्चात् जब बाहर से लौटकर प्रेरणा घर के भीतर आयी, तब वहाँ का दृश्य देखकर उसके मन को अप्रत्याशित आघात लगा । उसने देखा, माँ नाश्ता बनाने की तैयारी कर रही हैं और पूजा दीदी उनके पास बैठी हुई कुछ कहते-बताते हुए अत्यन्त दयनीय अवस्था में रो रही हैं । रोते-रोेते पूजा की हिचकियाँ बंध गयी और कुछ क्षणों के लिए उसकी आवाज अवरुद्ध हो गयी । अपनी रुलाई को रोकने में कई बार उसको खाँसी भी आयी । कुछ क्षण रुककर उसने अपनी बात पुनः आरम्भ की और पुनः पहले की अपेक्षा और अधिक रोने लगी । तब माँ ने उसके चेहरे को अपने हाथों में लेकर उसे चुप कराने का प्रयास किया। अपने इस प्रयास में माँ की आँखों से भी आँसुओं की धारा बह निकली । माँ ने अपनी अश्रुपूर्ण आँखों को पोंछते हुए कहा -

‘‘अब बस कर, पूजा ! विधता के लिखे को इंसान नहीं मिटा सकते ! तेरे पिताजी ने तुझे ऐसे-ऐसे लाड़ लड़ाये कि देखने वाले आश्चर्य करते थे ! कभी बेटे-बेटी में भेद नहीं किया । बेटी को सदा बेटों से अधिक प्यार किया । तेरे विवाह में भी सामर्थ्य से अधिक धन खर्च किया, ताकि बेटी को उसके योग्य घर-वर मिल सके ! परन्तु, बिटिया, जब तेरा भाग्य ही साथ नहीं दे रहा है, तो कोई क्या कर सकता है ! आँसू बहाने से भाग्य तो नहीं बदला जा सकता !’’

माँ बार-बार पूजा को इसी प्रकार की बातें कहकर समझाती रही, किन्तु पूजा पर उन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था । वह रोती रही और माँ को अपनी बातें बताती रही । उसकी रुलाई पर तब विराम लगा, जब उन दोनों की दृष्टि प्रेरणा पर पड़ी । पूजा ने तत्काल अपने आँसू पोंछकर कृत्रिम मुस्कराहट से प्रेरणा का स्वागत किया और बोली -

‘‘पिन्नू, आ गयी तू ! अपने जीजा जी से बात नहीं की तूने ? जब तक पिताजी और यश भैया नहीं आते, तब तक तू उनसे बातें कर ले बहन ! अकेले बैठे रहेंगे, तो उन्हें अच्छा नहीं लगेगा !’’

प्रेरणा समझ चुकी थी कि पूजा उसको वहाँ से अलग भेजना चाहती है, ताकि वह उनकी बातें न सुन सके । अतः उसने रणवीर से बातें करना ही उचित समझा । वह कमरे में पहुँचकर रणवीर के साथ क्या बातें करे ? इस विषय में सोच ही रही थी कि तभी वहाँ पर यश आ गया और उसने प्रेरणा को घर के भीतर जाने का संकेत किया । भीतर आकर प्रेरणा ने सूचना दी कि यश भैया आ गये हैं और वे जीजाजी के पास बैठे है । अब पूजा के पास ऐसा कोई बहाना नहीं था, जिससे वह प्रेरणा को अपने पास न बैठने दे । प्रेरणा भी पूजा के साथ बैठकर माँ के काम में हाथ बँटाने लगी । प्रेरणा के वहाँ बैठने के पश्चात पूजा ने रोना बन्द कर दिया और बात करना भी । प्रेरणा ने साहस जुटाकर पूजा से पूछा -

‘‘दीदी ! आप क्यों रो रही थी ? मुझे कुछ भी नहीं बता सकतीं आप ? आप तो कह रही थी, आप मुझे बहुत प्यार करती हो ! फिर मुझसे अपनी बातें छिपाती क्यों हो ?’’

‘‘हाँ ! मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ और तुमसे कुछ छिपाती नहीं हूँ ! लेकिन, पिन्नू, कुछ बातें ऐसी होती है, जिन्हें जानने का प्रयास करना तेरे लिए उचित नहीं है ! तू अभी बहुत छोटी है ! तू अभी अपना सारा ध्यान पढ़ाई में लगा, इधर-उधर की बातों में नहीं ! समझी तू ! चल, जल्दी-जल्दी हाथ चला ! नाश्ते को देर हो रही है !’’

प्रेरणा को पूजा की बात सुनकर अपने छोटे होने पर क्रोध आने

लगा । वह अपने मन ही मन बुदबुदाने लगी -

‘‘कोई मुझे कुछ नहीं बताता है ! सब लोग मुझसे सारी बात छिपाते हैं ! मैंने अभी देखा था, पूजा दीदी कितना रो रही थी ! और अब वह मुझसे कह रही हैं, वह बिल्कुल ठीक हैं ! मुझे सिखाते है कि झूठ नहीं बोलना चाहिए ! खुद सब झूठ बोलते हैं !’’

अपने विचारों में तन्मय प्रेरणा के हाथ नाश्ता बनाने में माँ की सहायता करते रहे । नाश्ते के कुछ समय पश्चात् भोजन का उपक्रम होना था, इसलिए प्रेरणा माँ के साथ काम में हाथ बँटाती रही । इस अन्तराल में पूजा को माँ के साथ बातें करने का अवकाश नहीं मिल सका ।

भोजन करने के उपरान्त रणवीर उसी कमरे में सो गया । पूजा माँ के साथ बातें करती रहीं। प्रेरणा सभी बातों को ध्यानपूर्वक सुन रही थी । परन्तु उसको एक भी बात ऐसी नहीं सूझी, जिससे वह अनुमान लगा सके कि आखिर पूजा दीदी क्यों रो रही थी ? उस अन्तराल में पूजा ने माँ के साथ जितनी भी बातें की थीं, वे सभी बातें ऐसे सामान्य ढंग से कही गयी थीं, जिनसे यही आभास होता था कि पूजा दीदी अपनी ससुराल में सुखी हैं और उनकी ससुराल में सभी लोग उन्हें प्यार करते हैं ; उनका ध्यान रखते हैं! लेकिन प्रेरणा का अन्तर्मन इन बातों को सत्य स्वीकार नहीं कर पा रहा था ।

डॉ. कविता त्यागी

tyagi.kavita1972@gmail.com