आघात
डॉ. कविता त्यागी
9
अगस्त का महीना था । उमस अपने चरम पर थी । शाम के तीन बजे थे । प्रेरणा अपने घर के मुख्य द्वार से सटे हुए अतिथि कक्ष में बैठी हुई स्कूल से मिले हुए गृहकार्य में तन्मय थी, तभी उसका ध्यान दरवाजे की ओर गया, जहाँ पर डाकिया अपनी साइकिल की घंटी बजाते हुए ऊँची आवाज में पुकार रहा था - ‘‘कौशिक जी ! कौशिक जी !’’
कौशिक जी उमस के कारण उत्पन्न चिपचिपाहट से मुक्ति पाने के लिए ठंडे-ठंडे पानी से स्नान का आनन्द उठा रहे थे, इसलिए बाथरूम से ही ऊँचे स्वर में आज्ञा दी -
‘‘प्रेरणा ! बिटिया, जरा डाकिया काका से चिट्ठी ले लेना !’’
‘‘नहीं कौशिक, जी ! बैरंग है, आपको ही आना पड़ेगा !’’ डाकिया ने निर्देशात्मक लहजे में कहा । कौशिक जी ने पुनः बाथरूम से ही प्रतीक्षा करने के लिए कहने की मुद्रा में कहा -
‘‘ठीक है भाई, आता हूँ, जरा नहाने लगा था !’’
कौशिक जी का उत्तर सुनकर डाकिया अपनी साइकिल खड़ी करके अन्दर अतिथि-कक्ष में आकर बैठ गया । डाकिया की आवाज सुनकर रमा भी मुख्य द्वार से सटे उस अतिथि-कक्ष में आ गयी, जहाँ पर डाकिया बैठा था । रमा ने कमरे में आकर प्रेरणा को वहाँ से उठकर घर में भीतर जाने का संकेत किया । माँ का संकेत पाकर प्रेरणा उठकर घर के भीतर चली गयी, परन्तु उसके मस्तिष्क में बैरंग शब्द फँसा हुआ था -
‘‘आखिर क्या है यह बैरंग ? पत्र तो नहीं हो सकता ! यदि पत्र होता, तो डाकिया काका मेरे हाथ में देकर चले जाते ! जब पिताजी ने कहा था कि बिटिया डाकिया काका से चिट्ठी ले लेना, तब डाकिया ने बताया था कि बैंरग है ! दो दिन पहले की ही तो बात है, जब डाकिया काका ने पिताजी से पूछा तक नहीं था, और मुझे घर के बाहर खड़ी पाकर चिट्ठी मुझे देकर चले गये थे । निश्चय ही बैंरग कुछ और चीज है !’’
प्रेरणा का मनःमस्तिष्क अभी बैरंग शब्द के साथ कसरत कर रहा था, तभी माँ के शब्द उसके कानों में पड़े -
‘‘मैंने आपको पहले भी कहा था कि जो बैरंग आया करे, उसे वापिस लौटा दिया करो ! अरे, एक बार नहीं, दो बार नहीं, हमेशा बैरंग ही भेजते हैं !’’
‘‘भाभी जी, कौशिक जी ने कहा है कि कोई भी चिट्ठी वापिस न भेजूँ, भले ही वह बैरंग हो ! यदि कौशिक जी कहेंगे, तो मैं आगे से अवश्य वापिस भेज दूंगा !’’
डाकिया अपनी बात कह ही रहा था, तभी कमरे में कौशिक जी आ पहुँचे । उन्होंने अपनी जेब से कुछ पैसे निकालकर डाकिया को दिये और उनके हाथ से एक कागज लेकर उस पर हस्ताक्षर करके, दूसरा कागज, जो पत्र के आकार में मुड़ा हुआ था, ले लिया । इस समय रमा क्रोध से भरी हुई कौशिक जी को तथा डाकिया को घूरती रही । डाकिया की दृष्टि रमा की ओर गयी, तो वह सहमकर खड़ा हो गया और एक क्षण रुकने के पश्चात् गर्दन झुकाकर बाहर की ओर चल दिया ।
प्रेरणा को अपने प्रश्न का आधा उत्तर मिल चुका था । वह जान चुकी थी कि ‘बैरंग’ एक चिट्ठी ही होती है । परन्तु उस चिट्ठी विशेष की क्या विशेषता है, यह जानना शेष था । चूँकि प्रेरणा अपनी धुन की पक्की थी, इसलिए अब उसकी लगन ‘बैरंग’ की विशेषता जानने की ओर लग चुकी थी । पर कैसे...?
डाकिया के जाते ही रमा ने अपना सारा क्रोध अपने पति चमन कौशिक पर निकालने की प्रक्रिया आरम्भ कर दी -
‘‘तुम्हें क्या लगता है कि तुम्हारी शराफत से वे लोग ठीक रास्ते पर आ जायेंगे । ऐसे लोग शराफत से नहीं माना करते ! भलमनसाहत को मूर्खता समझते हैं ऐसे लोग ! ऐसे लोगों के साथ सख्ती से निपटा जाता है, नरमी से नहीं ! जहर, जहर को मारता है और लोहा, लोहे को काटता है । पर तुम्हारे तो अपने ही नियम-सिद्धान्त हैं ! अपने आगे किसी की सुनते हो क्या तुम !’’
कौशिक जी अपराधी की भाँति सिर झुकाकर चुप बैठे थे । ऐसा लगता था कि उन्होंने अपनी पत्नी की कोई बात सुनी ही नहीं थी । वे शान्त, गम्भीर मुद्रा में अपने ही विचारों में डूबे बैठे रहे । कौशिक जी की चुप्पी ने रमा के क्रोध की आग में घी का काम किया । रमा ने पुनः कहा -
‘‘क्या जरूरत थी इस बैरंग चिटठी को लेने की ? पर क्यों न लेते, अपनी भलाई का परचम जो लहराना था तुम्हें ! भला बनने की होड़ में अपनी बेटी की भी चिन्ता नहीं है !’’ रमा अपने आप ही बड़बड़ाती रही ।
कौशिक जी अब तक चुपचाप बैठे सुन रहे थे । वे कुछ बोलकर पत्नी का क्रोध और नहीं बढ़ाना चाहते थे, किन्तु बेटी की चिन्ता न करने का आरोप उन्हें सहन नहीं हुआ । उस आरोप पर सफाई देना आवश्यक समझकर वे अपना पक्ष प्रबल करते हुए बोले -
‘‘रमा, लोहा ही लोहे को काटता है, यह मैं भली-भाँति जानता हूँ ! तुम यह मत भूलो कि चाकू सदैव ही खरबूजे को काटता है, खरबूजा चाकू को कभी नहीं काट सकता, चाहे खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर ! तुम्हें याद भी है कि हमारी बेटी ब्याही है उस घर में ! और आज भी हमारी बेटी हमसे दूर तथा उनके पास उनके घर में है । ऐसी छोटी-छोटी बातों को सहन करना हमारी विवशता भी है और बडप्पन भी ! तिल को ताड़ बनाना हमारी बेटी के हित में नहीं होगा, यह बात तुम क्यों नहीं समझ पाती हो ? हम इस पत्र को प्राप्त न करते, तो इससे क्या लाभ था ? बोलो !’’
कौशिक जी की विनम्रतापूर्वक बातों से रमा का क्रोध कुछ शान्त होने लगा था । वह समझने लगी थी कि उसके पति ने एक पिता होने के नाते जो किया, ठीक किया है । ऐसा करना ही उनकी बेटी पूजा के हित में था । अब रमा अपने व्यवहार पर तथा अपने शब्दों पर स्वयं ग्लानि का अनुभव कर रही थी । कौशिक जी को अपनी पत्नी की इस दशा का आभास हो रहा था, अतः प्रेमपूर्वक बोले-
‘‘मैं जानता हूँ, तुम पूजा की माँ हो ! इसलिए मैं समझ सकता हूँ, अपनी बेटी के साथ कठोर व्यवहार करने वालों के लिए तुम्हारे हृदय में क्षमा का कोई स्थान नहीं है ! परन्तु, मुझ पर विश्वास रखो ! मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगा, जिससे हमारी बेटी का अहित हो !’’
प्रेरणा उसी समय अपनी माँ रमा के समीप आकर खड़ी हो गयी थी, जब वे उसके पिता के साथ बातें कर रही थी । उसे वहाँ खड़ा देखकर अचानक रमा और कौशिक जी असहज हो गये । उन्हें पता ही न चला था, प्रेरणा ने कब कमरे में प्रवेश किया और उनकी बातें सुनने लगी । माता-पिता को असहज देखकर प्रेरणा को अनुभव हुआ कि वह स्वयं भी असहज हो रही है । उसने माता-पिता की जो बातें सुनी थी, उनका पूरा-पूरा अर्थ न समझते हुए भी उसने अनुभव किया कि वे जिस विषय पर, जिस ढंग से बातें कर रहे थे, उससे वहाँ का वातावरण बोझिल हो गया है । उसी समय स्थिति का संज्ञान लेते हुए रमा ने प्रेरणा की ओर शान्त भाव से देखा और घर के भीतर जाने का संकेत किया । प्रेरणा उस संकेत से समझ चुकी थी कि उसके माता-पिता किसी गम्भीर विषय पर चर्चा करना चाहते हैं । अतः माँ के संकेत का अनुपालन करने के लिए प्रेरणा घर के भीतर की ओर मुड़ गयी । लेकिन, वहाँ से जाते हुए भी उसके कान माँ-पिताजी की ओर लगे हुए थे और कदम अत्यन्त धीमी गति से उठ रहे थे । कुछ ही कदम चलकर वह ठिठक कर रुक गयी, जब उसने सुना - ‘‘अब मुँह लटकाए हुए कब तक बैठे रहोगे ! खोलकर तो देखो कि इसमें लिखा क्या है ?’’
इसके पश्चात् प्रेरणा के पिताजी ने उस पत्र को खोला और उसकी माँ को पढ़कर सुनाने लगे । प्रेरणा अपनी माँ की आज्ञा का उल्लंघन करके वहाँ खड़ी होकर पत्र नहीं सुनना चाहती थी । अतः वह अपने कमरे में आयी और अपनी पुस्तक पढ़ने के लिए बैठ गयी । प्रेरणा के हाथों में पुस्तक थी, किन्तु उसका मन उससे कोसों दूर था । उसका चित्त उस पत्र के अन्दर की बात जानने के लिए आतुर था और आँखें एकटक उस कमरे की ओर देख रही थीं, जिसमें उसके माँ-पिताजी बैठे थे । लगभग पन्द्रह मिनट पश्चात् कौशिक जी कमरे से बाहर निकले और उसी समय किसी से कुछ भी बोले बिना घर से बाहर चले गये । उनकी मुखमुद्रा को देखकर प्रेरणा ने अनुमान लगा लिया था कि निश्चित ही किसी गम्भीर विषय को लेकर पिताजी तनावग्रस्त हैं । परन्तु न तो वह उनकी समस्या का समाधन कर सकती थी और न ही उनका तनाव कम कर सकती थी । इसलिए आगे बढ़कर वह न तो पिता के तनाव का कारण ही पूछ सकी और न ही उन्हें सान्त्वना दे सकी । अपनी लघुता का अनुभव करके बेचारी संवेदनशील प्रेरणा अपना मन मसोस कर बैठ गयी । अब उसका चित्त पुस्तक से बिल्कुल हट गया था, इसलिए उसने पुस्तक उठाकर एक ओर रख दी और सहमे हुए कदमों से उस कमरे की ओर चल दी जहाँ पर उसकी माँ रमा बैठी थी ।
कमरे में आकर प्रेरणा ने देखा, माँ यश भैया के साथ बातें कर रही थी । उन्हें देखकर प्रेरणा को अनुभव हुआ कि माँ पत्र में लिखी हुई बातों को सुनकर अत्यधिक चिन्तित हैं । उनके पास बैठने का प्रेरणा को साहस नहीं हुआ । किन्तु, उसने उसी कमरे में किसी कार्य में व्यस्त होते हुए अपने कान उनकी ओर लगा लिये । तब बहुत परिश्रम से उसके कानों में कुछ ही शब्द पड़े । माँ कह रही थी -
‘‘बेरोजगारी और महँगाई इतनी बढ़ रही है कि बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी युवक सड़कों पर जूते-चप्पल चटकाते हुए सारी उम्र बिता देते हैं ; अपना और अपने परिवार का पेट भरने लायक भी नहीं कमा पाते हैं ! मैं आपकी बेटी के लिए इतना कर रहा हूँ और... !’’ इतना कहते-कहते रमा की रुलाई फूट पड़ी और आगे की बात कहने की सुध-बुध न रही ।
कमरे में आकर अपनी माँ की तनावग्रस्त और चिन्ताग्रस्त दशा को देखकर प्रेरणा अपनी बैरंग शब्द की फाँस को भूल चुकी थी । अब वह उस बात के लिए जिज्ञासु हो चुकी थी, जिससे घर का वातावरण और उसके माता-पिता का मनोमस्तिष्क बोझिल हो रहा था । अब तक की जितनी बातें उसके चित्त ने ग्रहण की थी ; जितना उसके मस्तिष्क को बोध हुआ था, उससे प्रेरणा ने यह निष्कर्ष तो निकाल लिया था कि तनाव का विषय उसकी पूजा दीदी से सम्बन्धित है और वह पत्र उसके रणवीर जीजा जी का है । परन्तु, पूरा मामला अभी भी उसकी समझ से बाहर था ।
अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए प्रेरणा ने कई बार माँ और पिताजी से पूजा दीदी के विषय में बात आरम्भ करके भूमिका तैयार की थी । अपने प्रयास में उसे इतनी सफलता भी मिली थी कि वह अपने लक्ष्य के अत्यन्त निकट पहुँच चुकी थी । परन्तु, लक्ष्य के इतने निकट पहुँचकर भी वह वापिस लौट गयी । उसके मन में यह भय व्याप्त था कि जिन बातोें से माँ और पिताजी उसे दूर रखने का प्रयास करते हैं, उन तक पहुँचने का उसका प्रयास माँ-पिताजी के तनाव को और अधिक न बढ़ा दे ।
अपने लक्ष्य के निकट पहुँचकर वापिस लौटना प्रेरणा के लिए प्रसन्नतादायक नहीं, अतिकष्टकारक था । उसके लिए ही क्यों । प्रत्येक प्राणी को जब अपनी अभीप्सित वस्तु का त्याग करना पड़ता है, तब उसे कष्ट ही होता है । जिस प्रकार धूल-भरी आंधी चलने के बाद वातावरण तभी शान्त और सुखद हो सकता है, जबकि हल्की-हल्की बूंदों की फुहारें उमस और वातावरण में मिश्रित धूल का दमन कर दें । इस प्रकार प्रेरणा के अन्तःकरण में भी पूर्णतः शान्ति होना और सन्तुष्टि आना तभी सम्भव था, जबकि उसे उसके प्रश्नों का उत्तर मिल जाता ; उसकी जिज्ञासा तृप्त हो जाती । परन्तु उसकी जिज्ञासा शान्त न होने पर भी उसका चित्त कुछ उसी प्रकार शान्त था, जैसे धूल भरी-आंधी रुक जाने के बाद वातावरण कुछ शान्त-सा हो जाता है। उसने भी अपने प्रश्नों के उत्तर जानने के प्रयास को अब विराम दे दिया था ।
लगभग एक सप्ताह तक प्रेरणा का चित्त शान्त-अशान्त, स्थिर-अस्थिर के बीच की दशा में भटकता रहा । इस अन्तराल में उसने पढ़ना-खेलना बन्द कर दिया और वह अपना अधिकतर समय माँ के साथ घर के काम में हाथ बँटाने या पिताजी के साथ बैठकर बातें करनें में व्यतीत करने लगी थी । प्रायः जब वह माँ के साथ रहती थी, तब उसे काम में हाथ बँटाते हुए देखकर माँ का चेहरा खिल उठता था। वे प्रसन्न होकर कह उठती -
‘‘कितना मन लगाकर काम करती है पिन्नु ! घर के सभी कामों में हमारी बिटिया अभी से कुशल हो जाएगी, तो ससुराल में राज करेगी !’’ परन्तु प्रेरणा की माँ को उसके मन की व्याकुलता का किंचितमात्र भी आभास नहीं था, जबकि उसके पिताजी को उसकी अन्तःव्यथा का आभास हो रहा था । जब वे उसको घर के किसी काम में माँ का हाथ बँटाते हुए देखते थे, तब वे तुरन्त कह उठते थे -
‘‘प्रेरणा ! आजकल तुम्हें क्या हो गया है ? मैं जब भी घर आता हूँ, तुम्हें अपनी माँ के साथ काम में व्यस्त पाता हूँ ! आज से पहले तो हमारे बार-बार कहने के बाद भी तुम्हारा चित् घर के कार्यों में नहीं लग पाता था!’’
प्रेरणा चाहते हुए भी अपने मन की बात अपने पिता से नहीं कह पाती थी । वह बस अपने उत्तर में इतना ही कह पाती थी -
‘‘कुछ नहीं ! वो... माँ अकेली घर के कार्यों में दिन-भर लगी रहती हैं, इसलिए...!
कौशिक जी एक अर्थपूर्ण दृष्टि से बेटी की ओर कुछ क्षणों तक निर्निमेष देखते हुए- ‘‘हूँ ऊँ ऊँ... !’’ कहते हुए अपने कार्य में व्यस्त हो जाते थे ।
एक दिन कौशिक जी ने देखा कि प्रेरणा अकेली, उदास बैठी हुई है । बेटी की उदासी और चुप्पी से वे बेचैन हो उठे । वातावरण को अपनी इच्छानुकूल खुशनुमा बनाने के लिए उन्होंने बेटी के पास बैठते हुए हँसकर कहा -
‘‘पिन्नू, आजकल तुमने गुडिया खेलना बिल्कुल ही बन्द कर दिया है ?’’...तुम्हारी गुड़िया भी कहीं दिखाई नहीं पडती है ?...ओ हाँ... याद आया, शायद तुमने भी अपनी गुड़िया का विवाह सम्पन्न कराके उसको ससुराल भेज दिया है, जैसे हमारी पूजा गुड़िया अपनी ससुराल चली गयी है । क्यों ? हम ठीक कह रहे हैं न ?’’
कौशिक जी द्वारा कहे गये इस एक वाक्य ने जाने-अनजाने ही प्रेरणा के मर्म का स्पर्श कर उसे उद्वेलित कर दिया था । आज एक बार फिर उसके मन में आया कि अन्तर्मन में दफन सब प्रश्नों को पिता के समक्ष खोलकर रख दे और उनका उत्तर पाने के लिए आग्रह करे। इसी के साथ विरोधी-भाव ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया कि पिताजी हर समय अनगिनत समस्याओं से घिरे रहते है ; गृहस्वामी होने के कारण उनके कन्धें पर घर-भर की जिम्मदारियों का भार है, इसलिए अपनी छोटी-छोटी बातों से उन्हें परेशान करना उचित नहीं है ।
यद्यपि उसके मन में उठने वाले विरोध-भाव ने कुछ क्षण के लिए उसे उसके प्रबल भावों की अभिव्यक्ति से विचलित कर दिया था, तथापि उस समय उसने अनुभव किया कि उसके पिता आज तनावग्रस्त नहीं हैं, इसलिए आज पूजा दीदी के विषय में अपने अन्तः में दबायी गयी सारी बातें करके अपने चित्त को तृप्त किया जा सकता है ।
डॉ. कविता त्यागी
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