Bahikhata - 20 in Hindi Biography by Subhash Neerav books and stories PDF | बहीखाता - 20

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बहीखाता - 20

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

20

सवाल

मुझे पता था कि लंदन में इस समय ठंड होगी। ठंड तो दिल्ली में भी खूब थी। मैं भारी कपड़े ले आई थी। हवाई जहाज में भी बाहरी तापमान माइनस से नीचे बता रहे थे। लेकिन जहाज के अंदर का माहौल बड़ा रौनकवाला और गरम था। वह क्रिसमस का दिन था। सभी एयर होस्टेस ने कानों में लाल और सफ़ेद रंग के सांटा के डिजाइनवाली बालियाँ पहन रखी थीं। फ्लाइट ब्रिटिश एयरवेज़ की थी इसलिए अंदर का वातावरण क्रिसमस वाला ही था। सोच रही थी, कैसा संयोग था कि चंदन साहब ने दीवाली के दिन प्रपोज़ किया था और अब गोरों की दीवाली अर्थात क्रिसमस के दिन मैं चंदन साहब के पास जा रही थी। मेरे हाथों में फूलों का गुलदस्ता था जो मुझे दिल्ली एयरपोर्ट पर गगनजोत और उसकी पत्नी जतिंदर ने दिया था। एयर होस्टेस ने मेरा वह गुलदस्ता लेकर सुरक्षित जगह पर रख दिया था। मैं घर के सपने के साथ साथ उड़ रही थी। हीथ्रो एयरपोर्ट अब मेरे लिए अधिक पराया नहीं था। एकबार पहले इन अधिकारियों के हाथों और मशीनों में से निकल चुकी थी। अटैचीकेस ट्राली पर रखकर जब बाहर की ओर चली तो चंदन साहब के बारे में सोचने लगी। वह बाहर खड़े मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। मैंने टेलीफोन पर अपने आने की सूचना दे रखी थी। अब चंदन साहब मेरे लिए वो पराये चंदन नहीं होंगे। अब उनमें मुझे सपना नहीं, साक्षात जीवनसाथी दिखाई देना था। शेष जीवन निभाने वाला जीवनसाथी। कितना कुछ मेरे मन में आ-जा रहा था। ऐसा कुछ तो उस दिन से ही आने-जाने लग पड़ा था जिस दिन मैंने उनके प्रस्ताव को मंजूर कर लिया था। मैं ट्रॉली धकेलती तेज़ तेज़ कदमों से चलने लगी। बाकी भीड़ के साथ बाहर निकली तो चंदन साहब सामने खड़े मुस्करा रहे थे। उनकी बायीं ओर उनकी बेटी अलका खड़ी थी और दायीं ओर बेटा अमनदीप। उन सबने हाथ जोड़कर मुझे नमस्ते की। अमनदीप के पास शायद कार्ड और फूलों के गुलदस्ते थे। मैंने भी अपना गुलदस्ता अमनदीप को पकड़ा दिया। परिवार से मिली, समझो - ‘विवाह हुआ मेरे बाबुल’! पुराने ज़माने की रस्म को जैसे अपडेट कर दिया गया हो। क्रिसमस का दिन था। चारों तरफ रोशनियाँ जगमग-जगमग कर रही थीं। सड़कों पर ट्रैफिक कम था। चंदन साहब बताते जा रहे थे कि आज के दिन तो लोग छुट्टी करके घर में बैठे होते हैं।

चंदन साहब का घर हेज़ में था। साउथाल से अलग टाउन। घर आए तो चंदन साहब ने मेरा अटैची एक कमरे में रखते हुए कहा कि यह है अपना बैडरूम। अभी यह वाक्य उनके मुँह से निकला ही था कि अलका ने आवाज़ लगाई, “डैड, इधर आना।” वह कुछ देर बाद वापस आए तो कहने लगे, “देविंदर, कहाँ सोना चाहोगे ? अलका की सलाह है कि हमें अभी एकसाथ नहीं सोना चाहिए।” यह वाक्य सुनते ही मैं डर गई। घर का सपना तिड़कने लगा। पहले घटित हुए दो हादसों जैसी दहशत मेरे सिर पर मंडराने लगी। मैं एकदम बोली, “चंदन साहब, मैं दिल्ली से ही यह सोचकर आई हूँ कि अपना घर बसाने जा रही हूँ, फिर यह सोच कैसी ?” चंदन साहब बोले, “ठीक है।” मैं सहज हो गई लेकिन एक डर पैदा हुआ कि पति-पत्नी की निजी ज़िन्दगी में उन्होंने अलका को क्यों शामिल किया था। खै़र! घर मैंने पहले देखा ही हुआ था। क्योंकि इंग्लैंड की अपनी पहली यात्रा के समय मैं अपने रिश्तेदारों के संग चंदन साहब से मिलने आ चुकी थी। सो, हमने एकसाथ बैठकर चाय पी। साथ ही, केक के टुकड़ों को एक-दूजे के मुँह में डालकर एक-दूजे को मुबारकबाद भी दी। कुछ देर हँसी-मजाक भी चलता रहा। चंदन साहब के कहने पर मैंने दिल्ली में फोन करके बता दिया कि मैं ठीकठाक पहुँच गई हूँ।

क्रिसमस का दिन होने के कारण लोगों के घरों में पार्टियाँ चल रही थीं। हमें भी गुरबंस गिल के घर से निमंत्रण आया हुआ था। हम पार्टी में जाने के लिए तैयार होने लगे। गुरबंस गिल कविता लिखती थी। उसकी कविता से मैं कुछ-कुछ परिचित थी। वहाँ और भी बहुत सारे लोग मिले। चंदन साहब ने सभी से मुझे अपनी ब्याहता पत्नी के तौर पर मिलवाया। चंदन साहिब का कहना था कि किसी को यह बताने की ज़रूरत नहीं कि हमारा अभी विवाह नहीं हुआ। शायद वह विवाह के बगै़र मेरे साथ रहने वाली बात से खुद को सहज महसूस नहीं करते होंगे। गुरबंस गिल के घर से हम देर रात वापस लौटे। उसका घर ऐल्ज़बरी में था। यह शहर हेज़ से चालीस-पचास मील दूर होगा। गुरबंस गिल व्यक्ति के तौर पर मुझे बहुत मिलनसार लगी। चंदन साहब के साथ उसकी अच्छी खासी दोस्ती थी। वह अलका और अमनदीप को भी बहुत प्यार करती थी। हम बाद में भी कई बार उसके घर गए।

रात में हम काफ़ी देर से घर पहुँचे। अलका और अमनदीप सो चुके थे। लेकिन हमारी पहली रात थी। हमने कई बातें कीं, अपनी अपनी ज़िन्दगी को लेकर। चंदन साहब ने अपने बचपन से लेकर वर्तमान तक की सारी कथा बयान की जिससे मेरे मन के अंदर इस शख़्स के लिए सहानुभूति और प्रेम एक साथ ही उमड़ आए। मैंने भी अपने बारे में बताया, पर बहुत संक्षिप्त रूप में और मुझे लगा, चंदन साहब की ज़िन्दगी मेरी अपेक्षा अधिक दुखों से भरी है। इस शख़्स ने इतने दुख देखे हैं तो अवश्य इसके अंदर प्यार का भंडार होगा। मैंने अपने दोनों असफल अनुभवों के बारे में बताया और पश्चाताप प्रकट किया। चंदन साहब कहने लगे, “पछतावा करने की कोई ज़रूरत नहीं है। हर इन्सान का अपना एक अतीत होता है। मेरा भी अतीत है, अलका का भी अतीत है, पर ज़िन्दगी चलती रहनी चाहिए।” और इतना कहकर उन्होंने मुझे अपनी बांहों में भर लिया। मेरे सारे फिक्र पंख लगाकर पता नहीं कहाँ उड़ गए।

अगले दिन भी छुट्टी थी। सभी मज़े से उठे। खुशी-खुशी दिन चढ़ा। सबने मिलकर नाश्ता तैयार किया। मैं बहुत खुश थी। मेरी गृहस्थी शुरू हो चुकी थी। मैंने तो घर की तमन्ना की थी, पर यहाँ तो संग में दो बच्चे भी मिल गए थे। ईश्वर मुझे और क्या दे सकता था ? परंतु इस खुशी के बीच एक बारीक-सी चुभन पैदा हो रही थी। ऐसी बू आ रही थी जैसे किसी कपड़े अथवा किसी अन्य वस्तु के जलने के बाद आया करती है। शीघ्र ही पता चल गया कि चंदन साहब और अलका बहुत ज्यादा सिगरेट पीते हैं। मुझे झटका-सा लगा। मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि वह इतना स्मोक करते होंगे। सिगरेट मेरे आसपास कोई नहीं पीता था। मेरा परिवार तो बहुत ही धार्मिक था। बचपन से ही मैं पाठ करती आई थी। मेरी पूरी शिक्षादीक्षा ही खालसा स्कूल या खालसा कालेज की थी। ये ऐसी संस्थायें थीं जहाँ से बीड़ी-सिगरेट कोसों दूर थे। बचपन में मैं बहुत धार्मिक थी। इतनी कि कालेज में पढ़ते हुए मैंने एकबार अमृत भी छक लिया था। पाँच ककार और अन्य रहितों (सिक्ख मर्यादाओं) में भी रहने लगी थी। मैंने कुछ समय तो इन मर्यादाओं को निभाया, पर ये मेरे स्वभाव को रास नहीं आई थीं और मैं इनसे मुक्त हो गई थी। सिक्खी मर्यादाओं से अवश्य मुक्त हुई थी, पर सिक्खी से नहीं। मुझे चंदन साहब का सिगरेट पीना बहुत बुरा लगा, पर क्या किया जा सकता था। अब तो वह मेरे पति थे। उनकी हर बात मुझे अच्छी लगनी चाहिए थी। मैं अपनी इतनी बड़ी खुशी में सिगरेट को बाधा नहीं बनने देना चाहती थी। सो, मैंने दिल पर पत्थर रखकर इसे मंजूर कर लिया। शीघ्र ही, चंदन साहब मेरे सामने ही सिगरेट पीने लग पड़े और मैंने आहिस्ता आहिस्ता सहज रहना सीख लिया।

छुट्टियाँ समाप्त हो गईं। अलका दक्षिण लंदन में रहती थी और अमनदीप यूनिवर्सिटी में पढ़ता था। वे दोनों वापस चले गए। चंदन साहब काम पर जाने लग पड़े और मैं घर में अकेली रहने लगी। घर का काम खत्म कर जल्दी ही खाली हो जाती। घर का काम भी कोई अधिक नहीं था। मैं कभी साउथाल बाज़ार चली जाती। चंदन साहब की लाइब्रेरी भी साउथाल में ही थी, मैं उनके पास चक्कर लगा आती। सप्ताहांत पर हम किसी न किसी मित्र से मिलने निकल जाते या कोई हमारी तरफ ही आ जाता। इंग्लैंड के लेखकों को हमारे विवाह का पता चल चुका था। मित्रों के बधाइयों के फोन आने लगे थे। इंग्लैंड के लेखकों के बारे में बात करते हुए चंदन साहब यहाँ की गुटबंदी के विषय में बताते तो मैं सोचती कि मेरा गुट तो अब चंदन साहब ही थे। जहाँ वो, वहीं मैं। सही या गलत, यह बाद की बात थी। कुछ महीने ब्याहता ज़िन्दगी के बहुत ही अच्छे बीते। चंदन साहब की हावी रहने की आदत थी जो कि मेरी नरम-सी तबीयत को फिट बैठ रही थी। अब हम आगे की योजनाएँ बनाने लगे थे।

जब मैं इंग्लैंड में आई तो मेरे पास विज़िटर वीज़ा ही था। अब मुझे स्थायी रूप से रहने के लिए वीज़ा की आवश्यकता थी, परंतु मुझे इन बातों की चिंता नहीं थी। जो करना था, चंदन साहब ने ही करना था। वैसे भी, पहली रात में ही जब हम दोनों ने अपनी अपनी ज़िन्दगी की बातें साझी की थीं तो उन्होंने कह दिया था, “राणो, अब तुझे कोई चिंता करने की ज़रूरत नहीं। बस तू दूध पीकर सो जा।” मुझे इस वाक्य ने एक अजीब-सी खुशी भी दी थी और बेफिक्री भी जबकि कई वर्षों से मैं चिंताओं भरी ज़िन्दगी ही जीती आ रही थी। लेकिन अभी हमारा विवाह भी रजिस्टर नहीं हुआ था। रजिस्टर तो एक तरफ, धार्मिक तौर पर भी विवाह नहीं किया था हम दोनों ने। चंदन ने मित्रों में यह बात फैला दी थी कि हमने विवाह करवा लिया है। इस विवाह के समाचार भी लगवा दिए थे। पंजाब का प्रसिद्ध मैगज़ीन ‘कौमी एकता’ जिसमें मेरा कॉलम लगातार चलता रहा था, उसने यह ख़बर विशेष तौर पर छापी थी।

साउथाल के बहुत सारे लेखकों को मैं पहले ही मिल चुकी थी। इनमें से जगतार ढाअ ने तो मुझे अपने घर पिछली बार खाने पर भी बुलाया था जहाँ साथी लुधियानवी, बलदेव बावा तथा कुछ अन्य लेखक मिले थे। सबसे पहले चंदन साहब मुझे अवतार जंडियालवी के घर लेकर गए। जंडियालवी की किताब आई थी, ‘मेरे परत आउण तक’(मेरे लौट आने तक)। पूरी किताब भूमि-बिछोह के दुख से भरी पड़ी थी। इस किताब की अपेक्षा मुझे जगतार ढाअ की ‘गवाचे घर दी तलाश’(खोये घर की तलाश) बेहतर लगी थी। अवतार हमसे प्रेमपूर्वक मिला, पर उसकी पत्नी सवरनजीत मुझे देखकर नाक-मुँह सिकोड़ने लगी। मुझे इस बात का पता था कि चंदन साहब अपनी पहली पत्नी सुरजीत कौर के साथ सभी दोस्तों से मिलते रहे थे, बल्कि ये सब हमउम्र ही थे और एक समय ही हिंदुस्तान से इंग्लैंड में आए थे। यही वजह थी कि इनमें परस्पर पुरानी सांझ कायम थी। ज़ाहिर था कि सुरजीत कौर के साथ भी सवरनजीत का सखीपना होगा ही। सवरनजीत चंदन साहब को मेरे सामने कहने लगी -

“चंदन, यह तूने अच्छा नहीं किया। तुझे इतनी जल्दी विवाह नहीं करवाना चाहिए था।”

मैं हैरान होकर उसकी तरफ देखती रही, पर बोली कुछ नहीं। बोल भी क्या सकती थी। फिर फैसला तो चंदन साहब का ही था। मैंने तो उनके फैसले पर फूल ही अर्पित किए थे। पर अंदर कहीं अनुभव कर रही थी कि अवतार की पत्नी शायद ठीक ही कह रही थी। अजीब-सी स्थिति पैदा हो गई थी। मैं कुछ असहज होने लगी। लगा जैसे किसी ने बन रही खीर में दही की करछुल फेर दी हो। कैसा रिश्ता बना था कि कई सवाल उभरने लगे थे। फिर अब किया भी क्या जा सकता था। बड़ी मुश्किल से 39 वर्ष की उम्र में मुझे यह खुशी नसीब हुई थी और मैं इसको इस तरह होने वाली बातों के कारण गंवाना नहीं चाहती थी।

चंदन साहब के बहुत सारे मित्र हमें खाने पर बुला रहे थे। सबसे अधिक प्यार मुझे दर्शन सिंह ज्ञानी ने दिया। एक तो वह मेरे पिता की उम्र के थे, दूसरा उनकी शख़्सियत ही बड़ी आकर्षक थी। वह सुरजीत कौर (चंदन साहब की पहली पत्नी) को भी अच्छी प्रकार जानते थे, परंतु उन्होंने उसकी एक भी बात न की। ज्ञानी जी कविता लिखते थे। स्थानीय भाईचारे के लीडर भी रहे थे। मुशायरे आदि करवाते रहते थे। किसी समय उन्होंने चंदन और सुरजीत कौर को संग लेकर साउथाल में एक ड्रामा भी खेला था - आतू दा विवाह। उनके घर में लगी महफिल में हमने एक-दूसरे को कवितायें भी सुनाईं।

हम तरसेम नीलगिरी के निमंत्रण पर उसके घर भी गए। नीलगिरी बढ़िया कहानीकार था। उसकी तीन कहानियों पर डॉ हरिभजन सिंह ने पूरी किताब लिखी थी। नीलगिरी हँसमुख-सी तबीयत का मालिक था। उसकी पत्नी भी बहुत अच्छी थी। उन्होंने हमें बहुत स्वादिष्ट भोजन करवाया। सुखद वातावरण में हमने खाना खाया। अच्छी बात यह हुई कि उनके घर में उस वक्त बलवंत गार्गी (पंजाबी का प्रसिद्ध लेखक व नाटककार) भी ठहरा हुआ था। यद्यपि उसके साथ दिल्ली में भी मुलाकातें होती रहती थीं, पर विदेशी धरती पर आकर अपने शहर के लोगों से मिलना कुछ और ही तरह का रोमांच देता है।

फिर मुझे यह भी पता चलता रहता था कि सुरजीत की सहेलियों को चंदन साहब का विवाह करवाना बिल्कुल पसंद नहीं था। कई स्त्रियाँ तो चंदन साहब को फोन करके भी यह बात सुना देतीं। इसलिए मुझे ज़रा झिझक भी रहती कि पता नहीं किस समय कोई क्या बात कह दे। हम जोगिंदर शमशेर के घर भी गए थे। उन दिनों में उसकी पत्नी बहुत बीमार थी और अस्पताल में थी। हम उससे मिलने अस्पताल चल गए। वह बहुत खुश होकर हमसे मिली और चंदन से बोली -

“चंदन, यह तो दूसरी सुरजीत ही ले आया तू। बिल्कुल ऐसी ही तो थी वो।”

इस बात ने चंदन को ढेर सारी राहत दी। जो लोग हमारे विवाह का विरोध कर रहे थे, उस विरोध का उसको मानो जवाब मिल गया हो कि सुरजीत की बहन के साथ या बहन जैसी के साथ ही तो उसने विवाह करवाया था। इस तरह हम अन्य दोस्तों के घर भी मिलने गए। चंदन साहब सबके साथ मेरा परिचय करा देना चाहते थे। कई लोग हमारे घर में भी मिलने के लिए आ जाते थे। एक दिन मुश्ताक सिंह और संतोख सिंह संतोख मिलने आ गए। मैं जानती थी कि वे दोनों ही कवि थे और दोनों ही पक्के कामरेड भी। चंदन साहब के दोस्त तो थे ही। आए तो बधाई देने थे, पर मुश्ताक की खामोश अदा ऐसी थी मानो कह रही हो कि मेरा चंदन साहब के साथ विवाह करवाना बहुत जल्दीबाजी में लिया गया निर्णय था या यह फैसला ही गलत था। बाद में, मुझे चंदन साहब से ही पता चला कि उसकी पत्नी की सड़क पर एक ट्रक से हुई टक्कर में मौके पर ही मौत हो गई थी और उसने बच्चों की खातिर विवाह न करवाने का फैसला कर लिया था। वे दोनों आए और बधाइयाँ देकर चले गए।

घर आने वालों में सबसे अधिक विचित्र वीमा वर्मा (पंजाबी कथाकार) का आना था। वीना किसी अन्य सहेली को लेकर आई थी। मैं जानती थी कि वीना कहानी लिखती है, ‘देस-परदेस’ में छपती है, और उसका नाम भी ‘देस परदेस’ के संपादक पुरेवाल के साथ जुड़ता है। चंदन साहब कहने लगे कि वह नहीं चाहते कि मैं वीना से मिलूँ। पर क्यों ? इसका उन्होंने कोई कारण नही बताया। वीना आई तो मुझे ही देखने थी। चंदन साहब ने मुझे ऊपर बैडरूम में चढ़ा दिया। वह वीना के संग नीचे बैठकर बातें करते रहे थे जो मुझे सुनाई दे रही थीं। पता नहीं कौन-सी कहानी बनाकर उन्होंने वीना को वापस लौट जाने के लिए कहा, पर वीना वर्मा बाथरूम जाने का बहाना बनाकर ऊपर चढ़ आई और मुझे देख गई।

एक शाम हम बैठे टेलीविज़न देख रहे थे। चंदन साहब ने पी रखी थी। शायद चंदन साहब ने टेलीविज़न पर से ही कोई बात उठा ली या मन में ही कुछ आया, कहने लगे -

“तुझे बैठी बिठाई को घर मिल गया !”

मेरी समझ में नहीं आया कि वह कहना क्या चाहते थे। घर तो मेरे पास दिल्ली में था। मैंने अपना फ्लैट खरीदा हुआ था, पर मैं तो उस घर को चारदीवारी ही समझती थी। घर तो यह था जहाँ हम एक रिश्ता जी रहे थे। एक अन्य सवाल मेरे माथे में आ बजा कि मुझे यह घर मुफ्त में कैसे मिला था। मैं तो अपना सबकुछ छोड़कर यहाँ आई थी। बहुत बड़ी कीमत उतार रही थी और हर हालत में बड़ी कठिनाई से बने घर को कायम रखना चाहती थी। यह बात मुझे बहुत देर बाद समझ में आई कि उनकी नज़र में घर घर न होकर जायदाद होता है।

(जारी…)