बहीखाता
आत्मकथा : देविन्दर कौर
अनुवाद : सुभाष नीरव
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उड़ान
मैं और हवाई जहाज एकसाथ उड़ रहे थे। जहाज अपनी स्पेश में और मैं अपनी स्पेश में। यह मेरा पहला हवाई सफ़र नहीं था, पर उड़ान पहली थी।
एक भारी सी आवाज़ कानों में बार बार गूंज रही थी, ‘मेरा घर तेरा इंतज़ार कर रहा है।’ एकबार तो मैं सोच में पड़ गई थी कि कहीं यह शब्द-छलावा तो नहीं क्योंकि घर शब्द के पीछे तो मैं बहुत समय से दौड़ी घूमती थी और यह हाथ नहीं आ रहा था। फिर सोचा कि ये ठोस मुँह में से निकले शब्द हैं, ठोस ही होंगे। घर शब्द तो मेरे लिए जादू था। घर शब्द मुझे कील लेता था। अब भी तो कीलित हुई पड़ी थी। मेरे गीत की ये पंक्तियाँ - ‘उंझ तां असी वी आपणे राह ते तुर रहे सां, क्यों वाज तेरी सुण के रुकिया सी पैर मेरा’ (यूँ तो हम भी अपनी राह पे चल रहे थे, क्यों आवाज़ तेरी सुन क रुका था पांव मेरा) भी इसी स्थिति में से निकली थीं। चंदन साहब के यह कहने पर कि मेरा घर तेरा इंतज़ार कर रहा है, मेरे लिए सारी कायनात रुक गई थी। उस वक्त तो मुझे लगता था कि इससे बड़ी घटना मेरे लिए कोई दूसरी हो ही नहीं सकती। दो चीज़ें मिल रही थीं - एक स्वर्ण चंदन और दूसरा घर। इससे बढ़कर खुशकिस्मती क्या हो सकती थी। मालूम नहीं, उस समय मेरी किस्मत के साथ कौन-कौन ईर्ष्या कर रहा होगा। स्वर्ण चंदन पंजाबी साहित्य का बहुत बड़ा नाम था। उपन्यासकार था, कहानीकार और कवि भी। आलोचना के क्षेत्र में भी उसकी धाक थी। वक्ता तो वह ऐसा था कि लोग स्थिर और एकाग्र होकर सुनते। इस स्थिति को अंग्रेजी में कहते हैं - पिन ड्रॉप साइलेंस। सारा वातावरण चुप होता और अकेली उसकी आवाज़ गूंज रही होती। डॉ. हरिभजन सिंह कहते -
“इस आदमी को ध्यान से सुनो। इसका लेक्चर तुम्हारे बहुत काम आएगा।”
और वाकई, उसका भाषण बहुत काम का होता। अध्यापकों के समझने का भी और विद्यार्थियों के सीखने का भी। द्वंदात्मक पदार्थवाद का मूल्यांकन यूँ करता कि बड़े बड़े सुनते रह जाते। प्रवासी साहित्य की ऐसी परिभाषा दी कि हर कोई वाह वाह कर उठा था। हर कोई उसकी विद्ववता का कायल था। वह हर बात तर्क के साथ करता। दिल्ली यूनिवर्सिटी के महारथी उसका पानी भरते। उसके संग दोस्ती करना चाहते। कभी-कभी उसके रूखे स्वभाव की बातें भी होतीं। आखि़र वह जीनियस था, स्वभाव दूसरों से भिन्न होना ही था। ऐसा व्यक्ति आपको मिल रहा हो और ऊपर से घर ! धन्य भाग्य ! मेरी माँ ज़रा दूसरी तरह सोचती थी। वह कहती -
“यह चंदन बहुत किस्मतवाला है जिसको मेरी बेटी जैसी लड़की मिल रही है। गऊ जैसी सीधी-सरल, सुंदर, डॉक्टर, बढ़िया नौकरी पर लगी हुई। और भला उस बंदे को क्या चाहिए !”
अब चंदन साहब के शब्दों ने ‘मेरा घर तेरा इंतज़ार कर रहा है’ एकबार फिर मेरे सपने को विस्तार दे दिया था। चंदन साहब की पेशकश पर मैंने बहुत सोचा था, पर इतना अधिक भी नहीं सोचा। लेखक के साथ विवाह का सपना साकार होने जा रहा था। पहले दो हादसों ने तो वैसे ही ज़िन्दगी तोड़कर रख दी थी। बस, साहित्य ही था जो मेरे होने की गवाही भर रहा था। परंतु यहाँ तो घर भी बनने जा रहा था और साहित्यिक वातावरण भी मिल रहा था। अंधे को क्या चाहिए था - दो आँखें। मुझे चुपड़ी हुई भी मिल रही थी और वे भी दो दो। मैंने अपना निर्णय माँ को सुनाया और मेरी माँ तथा भाभी दोनों की खामोशी ने मेरा रास्ता आसान कर दिया था और कठिन भी। आसान इसलिए कि उन्होंने मेरे फैसले की राह में कोई बाधा उत्पन्न नहीं की थी और कठिन इसलिए कि मेरे इस फैसले के भविष्य की सारी जिम्मेदारी मेरी ही होनी थी। मैंने यह सबकुछ अंदर ही अंदर मंजूर कर लिया था। फिर भी, एक डर था कि यह कोई छलावा तो नहीं क्योंकि पहले मैं ऐसे हादसों में से गुज़र चुकी थी। लेकिन यहाँ इस बात की तसल्ली प्रतीत हो रही थी कि चंदन साहब अपनी पत्नी के जीवित होने पर विवाह का प्रस्ताव नहीं रख रहे थे। इधर मैं इन सोचों को लेकर सोचती ही जा रही थी, उधर चंदन साहब थे कि कुछ अधिक ही उतावले हुए पड़े थे। मैंने चंदन साहब से कहा कि मैं गरमी की छुट्टियों अर्थात मई-जून के महीने में आ सकती हूँ। क्योंकि तब कालेज की छुट्टियाँ हुआ करती हैं, परंतु उन्होंने मुझे दस दिनों के भीतर ही स्पांसरशिप भेज दी। संयोग से वीज़ा भी मिल गया और मैंने 25 दिसंबर 1988 को फ्लाइट की टिकट बुक करवा ली।
चंदन साहब को मैं दिल्ली में सिर्फ़ एकबार मिली थी। वह भी त्रिवेणी में हुए किसी साहित्यिक समारोह में। वह एक रस्मी-सी मुलाकात थी। उनकी बातचीत का लहजा दानिशमंदों (बुद्धिजीवियों) वाला था। उसके बाद मुझे याद आया कि जब मैं लंदन गई थी, तब उनसे मिली थी। मैं ही उनसे मिलने गई थी। उनकी लाइब्रेरी में जहाँ बैठकर वह काम किया करते थे। उस समय यह बात मेरे ईश्वर के सपने में भी नहीं होगी कि एक दिन यह व्यक्ति मुझे विवाह के लिए प्रपोज करेगा। यह बात अलग है कि वह मेरी ओर उस तरह ही देख रहे थे जैसे एक पुरुष स्त्री की ओर देखा करता है।
मेरे दिल्ली में बहुत सारे मित्र थे - मोहनजीत, मनजीत, हरजिंदर कौर, हरचरन कौर, सुरिंदर कौर, शशि शर्मा, डॉ. नूर, रवेल सिंह, एस. बलवंत, डॉ. जगबीर और अन्य बहुत से मित्र। अध्यापक डॉ. हरिभजन सिंह भी थे। मैं इनके संग विचार विमर्श भी करना चाहती थी, पर सब कुछ इतनी शीघ्रता से हो जाने के कारण मैं नहीं कर सकी थी। खै़र, मैं घर के सपने के द्वार पर पैर रख रही थी। एक दिन पंजाब से आया एक लेखक मित्र मिला जो चंदन साहब का भी दोस्त था। वह उनके पास लंदन में रह कर आया था। उसे पता चला कि मैं चंदन के पास जा रही हूँ तो वह बोला -
“देविंदर, सोच ले, चंदन बहुत ही अय्यास बंदा है।”
उसके ऐसा कहने ने मुझे कुछ देर सोचने के लिए विवश अवश्य कर दिया, पर अब तो तीर कमान में से निकल चुका था।
(जारी…)