बहीखाता
आत्मकथा : देविन्दर कौर
अनुवाद : सुभाष नीरव
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रिश्ता
ज़िन्दगी के कई वर्ष गुज़र गए, घर का सपना अभी सपना ही था जिसको हक़ीकत की ज़मीन अभी नसीब नहीं हुई थी। इसका अर्थ यह नहीं कि मैंने इसके बारे में सोचा नहीं था। सोचा भी था और उस अहसास के मंदिर की घंटियाँ मेरे कानों में भी बजी थीं। उस खूबसूरत अहसास की महक को मैंने भी अपने आसपास देखा था। एक महक-सी मेरे चारों तरफ के वातावरण में भी बिखरी थी। मैं भी हवा में उड़ी थी। मैंने भी काँच की चूड़ियों की खनक सुनी थी। मुझे भी लगने लग पड़ा था कि मेरा राजकुमार मुझे घोड़े पर चढ़कर लेने आ गया है और अभी मैं उछलकर उसके संग जा बैठूँगी। मेरे सपनों ने भी ऊँची उड़ानें भरी थीं। कोई था जो मुझे भी परफेक्ट मैन लगा था। किसी के साथ मैंने भी ज़िन्दगी के बहुत सारे सपने बुन लिए थे। कुछ खास मित्रों से भी उत्साहित होकर कहने लग पड़ी थी कि यही है वह आदमी जिसके लिए मैं बनी हूँ और जो मेरे लिए बना है। कुछ मित्रों ने भी हामी भर दी थी। कुछ मुझे आगाह भी कर रह थे, पर कुछ हर तरह की मदद भी करने लग पड़ थे। मेरा वह अस्थायी सा राजकुमार था - तेजबीर कसेल। तेजबीर कसेल उस वक्त बड़े लेखक किरपाल सिंह कसेल का बेटा था। तेजबीर स्वयं भी लेखक था और लेखक के साथ अपनी ज़िन्दगी बिताना मेरी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सपना था। इसकी खातिर मैंने बैंक में काम करते लड़कों की तरफ से आते रिश्ते ठुकरा दिए थे।
तेजबीर हमारी यूनिवर्सिटी में प्रायः आ जाया करता था। नूर साहब के डिपार्टमेंट का हैड बनने पर उनके साथ जुड़े लोगों की यूनिवर्सिटी में आमद होने लगी थी। वह हमारे रिसर्च फ्लोर पर भी जाता। वह अन्य लोगों की भाँति मेरे डेस्क पर भी आकर मेरे साथ बैठकर कई कई घंटे बातें करता। पता ही नही लगा कि कब मैं उसको चाहने लग पड़ी थी। उसने भी खामोश सहमति दे दी थी। कुछ मित्रों को पता था कि हमारे मध्य कुछ चल रहा है। नूर साहब मुझे अक्सर कहते कि कहीं ऐसा न हो कि मैं उसके साथ संरचनावाद ही डिस्कस करती रहूँ, मुझे बात आगे भी बढ़ानी चाहिए। हम दोनों साथ साथ घूमते। रेस्टोरेंटों में जाते, फिल्में देखते। उन दिनों दिल्ली में फिल्म फेस्टिवल प्रायः चला करते थे। मैं टिकटें लेकर रखती। तेजबीर आता और हम कई कई दिन तक फिल्में देखते रहते, उन पर विचार करते। कभी-कभी हमारे साथ उसका मित्र गुरिंदर रंधावा भी होता। मैंने अंदर ही अंदर निर्णय कर लिया कि यदि विवाह करवाऊँगी तो तेजबीर के साथ ही करवाऊँगी। उसका हैमिंग्वे के साथ मिलता जुलता चेहरा मेरी सोचों का अहम हिस्सा बना हुआ था। यह चेहरा मेरे साथ ही रहने लग पड़ा था। मेरे ख़यालों से यह चेहरा कभी दूर न होता। मैंने घर में भी इस बारे में अधिक बात नहीं की थी, परंतु मेरी भाभी जसविंदर को कहीं से भनक पड़ गई थी। उसने तेजबीर के बारे में पूछताछ करनी प्रारंभ कर दी कि वह कैसा बंदा था। मुझे मालूम हुआ तो मैं जसविंदर के साथ नाराज़ भी हई क्योंकि मैं तो अपने ही मन में फैसला कर चुकी थी। नूर साहब और अन्य मित्र भी कह रहे थे कि तेजबीर मेरे लिए बहुत ही उपयुक्त साथी रहेगा। मेरी ओर से तो ‘हाँ’ थी ही, तेजबीर की तरफ से भी ‘हाँ’ ही लग रही थी। एक दिन मैंने उससे इस बारे में सीधा ही सवाल कर लिया। उसने एकदम हाँ तो नहीं की, पर नकारा भी नहीं। बल्कि पहले से अधिक प्रेम से पेश आने लगा। इतना भर मुझे लगने लग पड़ा था कि उसके स्वभाव में फैसला न कर सकने की समस्या थी। इसलिए मैं उस पर किसी प्रकार का दबाव भी नहीं डालना चाहती थी। कई बार वह इस रिश्ते को अगले पड़ाव पर ले जाने के लिए उतावला होने लग पड़ता, पर मेरा फैसला था कि यह सब कुछ विवाह के बाद।
एक दिन मनजीत इंदरा (पंजाबी की कवयित्री) दिल्ली आई और मेरे घर में मेरे साथ दो दिन रही। हम दोनों ने बहुत सारी बातें कीं। मैंने तेजबीर के साथ अपनी दोस्ती की सारी कहानी उसे सुना दी। मनजीत इंदरा चली गई। कुछ दिनों के बाद ख़बर आई कि तेजबीर का मनजीत इंदरा के साथ विवाह हो गया है। मुझे पता ही नहीं था कि उसका मनजीत इंदरा के साथ सामानान्तर इश्क चल रहा था। मनजीत ही कोई भनक दे जाती। यदि मुझे पता होता तो मैं एकदम एकतरफ हो जाती, पर इस अचानक मिली ख़बर ने मुझे तोड़कर रख दिया। मैं तो बहुत ऊँचा उड़ने लगी थी। क्या मालूम था कि इतनी ऊँची जगह से इस तरह गिरना पड़ेगा कि मेरे सपनों की धज्जियाँ ही उड़ जाएँगी। मुझे लगा जैसे मेरी दुनिया ही खत्म हो गई हो। मेरा घर का सपना ही मेरा मुँह चिढ़ाने लगा। कई दिन तक मैं घर से ही न निकल सकी। मेरी स्थिति ऐसी हो गई कि कहीं भी दिल नहीं लगता था। अपनी नाकामी के दर्द को मैं अंदर ही अंदर पीती जा रही थी। यह मेरी ज़िन्दगी के अहम रिश्ते में से मिली हार थी जिसको सहन करना मेरे लिए असहय हो रहा था।
कुछ समय बाद, शायद विवाह से एक महीने बाद एक दिन अचानक तेजबीर मेरे कालेज में आ गया। उसको सामने खड़ा पाकर मैं अवाक् रह गई। यह सपना था या हक़ीकत, विश्वास नहीं हो रहा था। उसका चेहरा मेरे सामने था और कह रहा था कि हम अपने रिश्ते को लेकर दुबारा सोच सकते हैं। उसका कहना था, “मुझे अहसास हो गया है कि मैंने गलत विवाह कर लिया है।” हम चाणक्यपुरी के एक कॉफी होम में बैठे थे और मैं तेजबीर की बातें सुन रही थी। उसको इतना बोलना कैसे आ गया था। वह पहले क्यों खामोश रहा था। अंदर ही अंदर बहुत कुछ सोचती हुई मैंने उसको स्पष्ट मना कर दिया। विवाह के लिए यद्यपि मैं उसको मना नहीं सकी थी, पर अब मना करने का हक़ तो रखती थी। बातें करता हुआ वह सारी बातों की जिम्मेदारी मनजीत इंदरा पर डाले जा रहा था। लेकिन मुझे उसकी किसी भी बात पर यकीन नहीं आ रहा था। मैंने उसको चले जाने को कहा। उसके चले जाने के बाद मैं और अधिक बेचैन हो गई। उसको इन्कार करके भी मैं खुश नहीं थी। मन के किसी कोने में मैं अभी भी उसको चाह रही थी। उस वक्त मुझे मनजीत इंदरा का भी ख़याल आ रहा था जिसके साथ उसने विवाह करवाया था। समय बीतता गया। कहते हैं, समय सबसे बड़ा मरहम होता है। ऐसा ही कुछ मेरे साथ हो रहा था। समय के साथ मेरे ज़ख़्म भरने लगे। अब अगर किसी कार्यक्रम में मैं तेजबीर को दूर से भी देखती तो एक अजनबी की तरह देखती। कभी कभी वह कुछ कहने की कोशिश कर रहा प्रतीत होता, पर अब मैं कुछ भी सुनना नहीं चाहती थी। मेरी ज़िन्दगी अपनी राह चल पड़ी थी। मनजीत इंदरा के साथ उसके संबंधों को लेकर कई किस्म की अफवाहें सुनने को मिलतीं, पर मेरे पास इनके लिए वक्त नहीं था। अब मेरे पास अन्य बहुत सारे मसले थे निपटने के लिए और बहुत कुछ साहित्यिक था करने के लिए। साहित्य ही मेरा जीवन साथी था। मुझे डॉक्टर हरिभजन सिंह की दी हुई वह दुआ याद आई कि लड़कियों को कभी कविता न लिखनी पड़े। लेकिन वह दुआ भी मेरा मुँह चिढ़ा रही थी क्योंकि मैं कविता लिखने की राह ही पड़ गई थी। मैं नहीं दरअसल कविता स्वयं ही मेरे पास चलकर आई थी और मैंने उसको गले लगा लिया था।
(जारी…)