Nishchhal aatma ki prem-pipasa... - 30 in Hindi Fiction Stories by Anandvardhan Ojha books and stories PDF | निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 30

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 30

फिर खुलेंगे बंद द्वार, क्या लौटोगे तुम एक बार ?…

सन '७७ के दिन यूँ ही बदहवास से बीतते रहे। दस महीनों की लम्बी अवधि गुज़र गई और परा-जगत् से संपर्क की कोई सूरत नहीं निकली।
दिल्ली-प्रवास में रविवार की सुबह साहित्यिक गोष्ठियों की गुनगुनी धूप लेकर आती, जब नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन शास्त्रीजी पिताजी से मिलने मेरे घर पधारते। यह त्रिमूर्ति उसी कॉलोनी में निवास करती थी। उनकी गोष्ठियां दिल्ली के निरानंद जीवन में आनंद की एक ठंढी बयार-सी होतीं। कभी-कभी दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ प्राध्यापक भी आते और बैठकें लम्बी खिंच जाती। कविताएं होतीं, गंभीर विमर्श होते और गप्पें होतीं। नागार्जुन और त्रिलोचनजी प्रखर और मुखर वक्ता थे, शमशेरजी अल्पभाषी और अतिशय विनम्र रहते। तीनों हिंदी-साहित्य के महारथी थे, पिताजी के अनुज थे और उन सबों के मन में पिताजी के लिए बहुत सम्मान था।

उन्हीं दिनों की बात है। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक अध्यापक घर की गोष्ठी में उपस्थित हुए थे। उन्होंने बातचीत में पिताजी से कहा था कि 'उनके एक बुज़ुर्ग मित्र संकट में हैं। वह सेवा-मुक्त हैं और उनकी बेटी के विवाह में धन का संकट आ खड़ा हुआ है; क्योंकि उनकी दिवंगता पत्नी कुछ जरूरी दस्तावेज़ कहीं रख गई हैं, जो अब खोजे से नहीं मिलता।' यह विवरण सुनकर पिताजी ने अफ़सोस ज़ाहिर किया था, लेकिन उन्हें आश्चर्य भी हुआ था कि यह प्रकरण उस गोष्ठी में रखने का आखिर अभिप्राय क्या था? वह कोई धनाधीश तो थे नहीं कि उनकी किसी भी प्रकार की आर्थिक मदद कर पाते ! फिर, इसकी चर्चा भी व्यर्थ ही थी।...चार-पांच लोगों की उपस्थिति में बातचीत की दिशा अचानक बदल गई थी और प्राध्यापक महोदय उस विषय को आगे नहीं बढ़ा सके थे। उस दिन की रविवारीय गोष्ठी दिन के बारह-साढ़े बारह तक चली थी, तत्पश्चात् , परस्पर अभिवादन के आदान-प्रदान के बाद सभी आगंतुक लौट गए थे ।

ठीक दूसरे दिन, बिना किसी पूर्व-सूचना के, वही प्राध्यापक महोदय अपने उन्हीं बुज़ुर्ग मित्र के साथ पिताजी से मिलने आये। मैं दफ्तर जा चुका था। प्राध्यापक महोदय को न जाने किस सूत्र से ज्ञात हुआ था कि मैं प्लेंचेट करता हूँ। वह इसी अभिप्राय से रविवार को भी आये थे, लेकिन खुलकर कुछ कह न सके थे।
उन दिनों पिताजी 'सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू' के किसी खण्ड के हिन्दी-अनुवाद (नेहरू वाङ्गमय) में दत्तचित्त होकर लगे हुए थे। उनके लिखने-पढ़ने का समय निश्चित था। ठीक उसी वक़्त वे दोनों सज्जन आ पहुँचे। पिताजी ने अनुवाद-कार्य को रोककर उन्हें अपने पास बिठाया और धैर्यपूर्वक उनकी बातें सुनीं। प्राध्यापकजी के मित्र महोदय ने बड़े अनुनय-विनय के साथ कहा कि 'अगर आपके ज्येष्ठ पुत्र प्लेंचेट करके मेरी थोड़ी मदद कर दें, तो वे ज़रूरी दस्तावेज़ मुझे मिल जाएँ। उन दस्तावेज़ों के मिल जाने से मेरे हाथ में इतनी धन-राशि आ जायेगी कि मेरी पुत्री का विवाह निर्विघ्न सम्पन्न हो जाएगा। मैं आपके पास सहायता की याचना लेकर आया हूँ, मुझे निराश न कीजियेगा।' इतना कहते हुए उन्होंने पिताजी के पाँव पकड़ लिए।
पिताजी धर्म-संकट में पड़े। स्वभावतः वह स्पष्टवक्ता थे, उन्होंने कहा--'मैं नहीं जानता, आनंदजी आपकी क्या और कितनी सहायता कर सकेंगे। वह जब कानपुर में थे, तो वह प्लॅन्चेट वगैरह कुछ करने लगे थे। उन्होंने मुझे पत्र लिखकर बताया भी था, लेकिन मैंने ही उन्हें वर्जना दी थी। मैं नहीं जानता कि उनकी इस विधा में कितनी पकड़ अथवा गति है। पिछले दस-एक महीनों से तो वह यहीं हैं और मैंने यह सब करते हुए उन्हें कभी नहीं देखा। मुझे लगता है कि मेरी वर्जना के बाद से ही उन्होंने यह सब छोड़ दिया है। क्षमा करें, मुझे नहीं लगता कि वे आपका मनोरथ सिद्ध करने में समर्थ होंगे।'

पिताजी की बातें सुनकर बुज़ुर्गवार की तो आँखें छलक पड़ीं। उन्होंने साश्रु करबद्ध खड़े हो पुनः निवेदन किया--'मैं बहुत प्रयत्न कर हार गया हूँ, कई सिद्ध, पीर-फ़क़ीर के द्वार से खाली हाथ लौटा हूँ।' अपने अनुज मित्र की ओर हाथ का इशारा करते हुए उन्होंने अपनी बात जारी रखी--'ये मेरे हितचिंतक बंधु कानपुर के ही हैं। इन्हें कानपुर से ही आनंदजी बारे में पता चला है। कई दिनों के प्रयास के बाद आपका दिल्ली का पता इन्हें मिला। कल मुझसे चर्चा करके ये आपके पास इसी उद्देश्य से आये थे, लेकिन संकोचवश स्पष्तः कुछ कह न सके। इसीसे आज मैं स्वयं इनके साथ आया हूँ। आपकी इतनी कृपा हो जाए तो शायद मेरी समस्या का कोई समाधान हो जाए। मेरा निवेदन है कि आप एक बार आनंदजी को इस सम्पर्क के लिए प्रेरित अवश्य करें।'

पिताजी असमंजस में थे, उन्हें विश्वास ही नहीं था कि मैं इस जटिल गुत्थी को सुलझाने के योग्य भी हूँ। उन्होंने कहा--'देखिये, मैं आपकी पीड़ा और परेशानी समझता हूँ, फिर भी मुझे नहीं लगता कि इस संकट का समाधान करने की योग्यता उनके पास है। आप आग्रह करते हैं तो मैं उनसे बात ज़रूर करूँगा, आपका संकट उनके समक्ष रख दूँगा। यदि आपकी समस्या का समाधान उनके प्रयत्न से हो जाता है, तो इससे मुझे प्रसन्नता ही होगी। वैसे, परा-जगत् में इस तरह हस्तक्षेप करना मुझे प्रीतिकर नहीं लगता; फिर भी आप धैर्य रखें और अपना पता और टेलेफोन नंबर लिखकर छोड़ जाएँ। अगर वे एक प्रयत्न करना चाहेंगे तो आपसे स्वयं संपर्क कर लेंगे।'
बुज़ुर्ग सज्जन ने अपना पता-ठिकाना और फोन नंबर एक कागज़ पर लिखकर पिताजी के हवाले किया और उपकृत-भाव से विदा हुए।....

रात आठ बजे, जब मैं दफ्तर से लौटा तो पिताजी ने सारी बात मुझे बतायी और पूछा-- 'क्या तुम इतने समर्थ हो गए हो कि इस उलझन को सुलझा सकोगे ?'
मैंने झिझकते हुए कहा--'मैं दावा तो नहीं कर सकता, लेकिन एक बार कोशिश तो कर ही सकता हूँ।'
पिताजी ने एक स्लिप मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा--'तो फिर उनसे बातें कर लो। इसमें उनका पता और दूरभाष संख्या लिखी हुई है। वह सचमुच परेशानहाल हैं।'
--'कल दफ्तर से उनसे बातें अवश्य कर लूँगा मैं!' यह कहते हुए मैंने वह स्लिप ले ली और पिताजी के सामने से हट गया।...

मैं इसी बात से खुश था कि लम्बे अरसे बाद आत्माओं से सम्पर्क का एक सुयोग बन रहा था। और क्या पता, मेरी पुकार को अप्रभावी बनाते हुए चालीस दुकानवाली आत्मा सबसे पहले आ पहुँचे, मुझ पर अपनी नाराज़गी का दिल खोलकर इज़हार करने के लिए--इन्हीं ख़यालों में खोया-खोया मैं न जाने कब निद्राभिभूत हो गया।....

(क्रमशः)