उसका ख़याल दिल से कभी जाता न था…
बात बहुत पुरानी है--१९३४ की। पितामह (साहित्याचार्य पं. चंद्रशेखर शास्त्री) द्वारा अनूदित 'महाभारत' के प्रचार-प्रसार के लिए पिताजी भागलपुर गए हुए थे। वहाँ के किसी गेस्ट हाउस में किराए के एक कमरे में दुतल्ले पर ठहरे थे। अचानक और अकारण पितामह ने तार भेजकर पिताजी को तत्काल घर (इलाहाबाद) लौट आने का आदेश दिया। जिस दिन पिताजी को वह तार मिला, उसी रात की गाड़ी से पिताजी ने इलाहाबाद के लिए प्रस्थान किया और दूसरे दिन इलाहाबाद पहुंचे। स्टेशन से बाहर निकलते हुए उन्होंने एक अख़बार खरीद लिया और इक्के में बैठकर दारागंज के लिए चल पड़े। शहर में थोड़ी हलचल देख उन्हें चिंता हुई। इक्का चला तो अखबार के सिरनामे (Heading) पर उन्होंने दृष्टि डाली और चौंक पड़े। प्रथम पृष्ठ तो क्या, पूरा अखबार ही बिहार में भूकम्प की भयप्रद खबरों से रँगा पड़ा था। इन्हीं खबरों में भगलपुर की भी बुरी दशा की खबरें थीं, जो इस प्राकृतिक आपदा से बहुत अधिक क्षतिग्रस्त हुआ था और अनेक लोग हताहत हुए थे। पितामह के एक तार से पिताजी तो घर लौट आये थे, उनकी प्राण-रक्षा हुई थी, लेकिन भागलपुर में बहुत-से लोग इस आपदा के शिकार भी हुए थे।
मैंने जब कानपुर छोड़ा, उसके एक पखवारे बाद ही स्वदेशी के मिल ऑफिस में संकट गहराया था। धरना, प्रदर्शन, तालाबंदी और फिर हिंसक झड़पें शुरू हुई थीं। मज़दूरों ने पूरी मिल को अंदर से सीलबंद कर उस पर आधिपत्य जमा लिया था। मिल के कार्यालयों की तमाम इकाइयों के कार्यकर्ताओं ने अपनी-अपनी प्राण-रक्षा के लिए उसके द्वार बंद कर लिए थे और वे सभी उसी में स्वयं नज़रबंद हो गए थे। यह बबाल दस-बारह दिनों तक चला था। हमारे मुख्य लेखाधिकारी श्रीशर्मा और उत्पादन-प्रबंधक श्रीआयंगर (संभवतः उनका नाम ठीक-ठीक स्मरण कर पा रहा हूँ) उग्र हड़तालियों के हत्थे चढ़ गए थे, जिनकी एक-दो दिन बाद ही मिल-परिसर में हत्या कर दी गई थी। इनके अलावा कई अधिकारी भी मार डाले गये थे।
मेरे मित्र शाही और ईश्वर भी अन्य सहकर्मियों के साथ लेख-विभाग में भूखे-प्यासे कीलबद्ध रहे थे और सड़क की तरफ से पुलिस द्वारा लगाई गई रस्सियों से पकौड़े, ब्रेड, बिस्कुट, पानी की बोतलों की आपूर्ति के सहारे संकट के दिन बिताते रहे थे। दस दिन बाद पुलिस के एक बड़े अभियान से इस संकट से उन्हें मुक्ति मिली थी। पुलिस को अश्रु-गैस की बौछार करनी पड़ी थी और कई राउंड गोलियाँ भी चलानी पड़ी थीं। इतनी बड़ी कार्रवाई के बाद सभी लोगों को मुक्त करवाया जा सका था। यह संकटकाल देखने-झेलने के लिए मैं वहाँ नहीं था, लेकिन नज़रबंदी से मुक्ति के बाद शाही ने उसका जो विवरण मुझे लिख भेजा था, वह रोंगटे खड़े करनेवाला था।
उपर्युक्त इन दोनों घटनाओं में मैं विचित्र साम्य देखता हूँ। दोनों में पिता और परमपिता की अहैतुकी कृपा का वरद हस्त था। मेरी बड़ी चाची (कृष्णाचन्द्र ओझाजी की धर्मपत्नी) प्रायः कहा करती थीं कि 'तुम्हारे बाबा और पिताजी जो कह देते थे, जो चाह लेते थे, जो भविष्यवाणियाँ कर देते थे, वही सच हो जाता था। वे कलेजे और मन के बहुत साफ़ लोग थे।' आज भी मेरे लिए यह समझ पाना सचमुच कठिन है कि पूज्य पितामह ने पिताजी का और पिताजी ने मेरा आसन्न संकट से उद्धार कैसे किया था। वे कौन-से प्रेरक तत्व थे जिन्होंने पितामह को तार भेजने को विवश किया था अथवा पिताजी को मेरे स्थानांतरण के लिए प्रयास करने को उद्यत किया था।.…
बहरहाल, दिल्ली पहुंचकर सातवें दिन मैंने कार्य-भार स्वीकार कर लिया था। मुझे देखते ही पिताजी की पहली प्रतिक्रिया थी कि मैं बहुत दुर्बल दीख रहा हूँ। मैंने उन्हें यह कहकर आश्वस्त किया कि 'कानपुर की दौड़-भाग और यात्रा की थकान की वजह से आपको ऐसा प्रतीत हो रहा है, लेकिन ऐसा है नहीं। मैं स्वस्थ-प्रसन्न हूँ।' प्लेंचेट बोर्ड की बंधी-बंधाई पोटली को पिताजी की नज़रों से बचाकर मैंने अपने कमरे में पहुंचाया था और कमरे में ही छत से लगी सामान रखने की दुछत्ती में छिपा दिया था। पिताजी की उपस्थिति में परा-जगत से संपर्क साधने की कोई संभावना ही नहीं थी। मैंने मान लिया था कि अब इन प्रयोगों पर पूर्णविराम लग चुका है। पिताजी की छाया में और दिल्ली की भागमभाग की ज़िन्दगी में इसके लिए अवकाश भी कहाँ था! और, वह भी पिताजी के ठीक बगल के कमरे में...?
अब जीवन दिल्ली की तेज़ रफ़्तार से कदम मिलाने को बाध्य था। पिताजी नियमित जीवन के अभ्यासी थे और अपने दोनों पुत्रों से यही अपेक्षा रखते था। मेरे अनुज यशोवर्धन तो बाल्य-काल से ही माता-पिता के अनुगत पुत्र थे, मैं ही विप्लवी, अघोरी, अवज्ञाकारी था और मुझे ही प्रायः उनका कोपभाजन बनना पड़ जाता था।
लेकिन दिल्ली सुबह से देर शाम/रात तक की दौड़ की मांग करती थी। रोज़ वही बसों की धक्का-मुक्की, समय से दफ्तर पहुँचाने की ज़द्दोज़हद, दिन-भर के अत्यंत उबाऊ कार्यालयीय नीरस धंधे बहुत थकाऊ और एकरस थे। दिल्ली कभी मुझे रास नहीं आई। वह मुझे कष्ट-नगरी-सी लगती रही हरदम। पूरा दिन बिताकर जब घर लौट आता, फिर कुछ और करने का मन न होता।
दुछत्ती में बंधी-रखी पोटली यथावत् पड़ी रही। उसकी गाँठें खोलने की बड़ी इच्छा होती, लेकिन इसकी कोई सुविधा वहाँ नहीं थी। पिछले दो वर्षों तक मैं जिस राग से बँधा रहा, उसका आकर्षण कम नहीं हुआ था। कई बार तो परा-संपर्क की ऐसी प्रबल इच्छा होती कि मन में आता कि उठूँ और बोर्ड बिछाकर बैठ जाऊँ, बुलाऊँ उसे, जिसके लिए मेरे मन में एक अपराध-बोध समाया हुआ था और जो रह-रह कर मुझे उद्विग्न कर देता था। लेकिन ऐसा हो न पाता था।....
१९७७ की बाढ़ में टैगोर पार्क, मॉडल टाउन के घरों में छाती तक पानी भर आया था। उन्हीं दिनों कानपुर से शाही भाई मेरे पास आये हुए थे। सुबह-सबेरे चार बजे बाढ़ का पानी सर्प-सा बंद दरवाज़ों में प्रविष्ट हुआ और देखते-देखते जल-स्तर बढ़ने लगा। हमें आनन-फानन में घर का सारा सामान खाट-खटोलों, ऊँची पट्टियों पर बोझ देना पड़ा। दिल्ली की गृहस्थी में पिताजी ने बहुत कुछ जोड़ा नहीं था। सोने की कॉट और बिस्तरों के अतिरिक्त रसोईघर के बर्तन थे और ढेर सारी किताबें थीं, बाबूजी के कागज़-पत्र थे, फाइलें थीं। बाबूजी को बस उन्हीं की, बच्चों की और अपने पान-तम्बाकू की चिंता थी। मेरी छोटी बहन महिमा, जो मानसिक रूप से अविकसित, सत्रह वर्षीया अबोध बालिका थी, वह पिताजी की सबसे ऊँची चौकी पर जा बैठी थी और पानी में पैर रखने से भी घबरा रही थी। तत्काल निर्णय लेना ज़रूरी था।
सबसे पहले मैंने और शाही ने पिताजी को अनुज के साथ बड़ी बहन के घर करोलबाग़ भेजा। फिर सारे घर में बिखरा सामान मैं शाही को जल्दी-जल्दी पकड़ाता गया और वह कमरे की दुछत्ती में उन्हें डालते गये, जहाँ मेरी प्लेंचेट बोर्ड की गठरी रखी थी। महिमा को प्रथम तल तक ले जानेवाली ऊँची सीढ़ी पर मैंने बिठा दिया था; क्योंकि पानी ईंट-दर-ईंट बढ़ता जा रहा था। दुछत्ती में सामान जमाते हुए अचानक शाही की नज़र उस पोटली पर पड़ी, जो उन्हीं की धोती में बंधी थी। उसे देखते ही उन्होंने पहचान लिया और हठात् उनकी गूँजती हुई आवाज़ दुछत्ती से बहार आई--'अरे, तेरी चालीस दुकानवाली यहीं बँधी पड़ी है अब तक ?'