नारी हूँ...
जरा ठहरो तो अपनी जथा कहूँ
नारी हु.....
सुन सकते हो तो, थोड़ी सी अपनी व्यथा कहूँ
बात कुछ नयी नहीं है, चीरकाल पुरानी है
बांध के रखा ह्रदय में पीड़ा वो तुझे सुनानी है
चीर काल हो, या वेद मॉल,
हर बार हा तुमने भेद किया
कहीं वेद ना पढ़ ले
माला ना जप ले,
कहीं ये जाके मंदिर न धर ले
अनगिनत धर्म कार्य से दूर किया
कह कर की, नारी रूप क्यों अवतार हुए
अपार ज्ञान क्षमता धर कर
लोगो के तानो से दो चार हुए
गार्गी, हो या अपाला
पहले कितनी कुदृष्टि तुम्हारी थी झेली
हर संघर्शो से लड़ कर के तब विदुषी थी बोली
युग बदले, इतिहास हुआ
पर नारी का तो ह्रास हुआ
त्रेता युग में
जब सीता माँ पर ऊँगली उठ्लयी
क्या तुमको तनिक मात्र भी शर्म नहीं आयी
भेजा अकेली गर्भवती नारी को वन
हे धर्म आसन्न पर बैठे जन
तनिक भी विचलित नहीं हुआ तेरा मन
चलो श्री रामचंद्र तो राज आसन पर बैठे थे
खुद की भावनावो से उपर
हे जन वो तुमको रखते थे
एक मौका भी नहीं छोड़ा तुमने अपने पछताने का
एक अपराधी से पापी कहलाने का
वापस आने पर भी थी ऊँगली उठलायी
हाय तुम्हारी ऊँगली क्यों न धरा पर गिर आए
किन्तु तुम घोर अपराधी पापी के लिए
माता ने क्षमा याचना मांगी थी
तुम अपनी बतलावो उसको क्यों मार कर रहते थे
जिसको मानवता कहते है
युग नया आया द्वापर, में भी बात नयी नहीं पाई
नाम जरा सा बदला था, इतिहार गयीं थी दोहराई
द्रोपती ने तो केवल अर्जुन का था वरण किया
तुमने उसको क्यों प्रसाद की तरह बाटं दिया
फिर जो सभा में चीर हरण की हाहाकार हुए
केवल हरण नहीं हुआ द्रोपती की साड़ी
पंडो की थी नंगी हार हुए,
दोष लगाते हो क्यों दुर्योधन पर
केवल दोसी नहीं था दुर्योधन
पांड्वो से भी था अपराध हुए
भार्या थी वो
घर में रखा श्रृंगार नहीं
जो लगा दिया जुए की दांव पर
तब टुटा अभिमान नहीं
किंचिंत मात्र अंतर नहीं दिखा
घर में सोभति नारी
उनके लिए मात्र कीमती सामान हुए
अपमान नही हुआ था केवल द्रोपती का
थी पूरी नारी जाती पर अपराध हुए
पांडो जो अपनी भूरी भूरी गाथा गाते नहीं थकते
उनके इस कृति से
यह घटना उनपर दाग हुए
कलयुग जबसे आया है
घर घर पर रावन, दुर्योधन का साया है
तुक्ष पड़े है दुर्योधन
रावण भी इनसे शर्माते
ये युवा नारी को क्या
कलि सी बच्ची तक को खा जाते
दहेज़ प्रथा के खातिर कितनी नारी, जानकी राख हुई
एक आज हुआ एक ,कल की ही बात हुए
यहाँ निर्भया और प्रियंका जैसे ना जाने कितने बेजार हुए
मासूम जोया सी ना जाने कितने बर्बाद हुए
जब घर से निकलो तो
माँ के माथे पर चिंता जैसे वरदान हुए
घडकन बढ़ जाती है जो
जरा सा आने में साम हुयी
साठ मिनट में सौ बार घडियो से अलार्म हुए
खुद को समेटती लपेटती फिरती है ये
घबराहट से चेहरे पर अंगार हुए
क्या है ये मानव की ही दुनिया
है तो फिर क्यों भय वाली आवाम हुए
अभी चलती हु
सुनाने को बहोत कुछ बाकि है
पर घर के माँ चौखट पर खड़ी
माँ मेरी तक राह रही होगी
बतालाउंगी और भी किस्से को
जो फिर अपनी मुलाकाल हुए......
©Trisha R S.... ✍️