जी-मेल एक्सप्रेस
अलका सिन्हा
1 - पर्सनल डायरी
तेज रफ्तार गाड़ी को झटके के साथ रोक दिया, बत्ती लाल हो गई थी और हरी होने में अभी चौरासी सेकंड की अवधि दिखाई जा रही थी। एक लंबी सांस भरकर बाहर को छोड़ी। गाड़ी भले ही थम गई थी मगर मन उसी रफ्तार से बीते दिनों का छोर पकड़ने दौड़ा जा रहा था, जैसे बचपन में पतंग लूटने दौड़ा करते थे, गड्ढा, खाई कुछ नहीं दिखता था, निगाहें बस पतंग पर होतीं और दौड़ते जाते। आज ठीक वैसा ही अहसास हो रहा है। ट्रैफिक, सिगनल कुछ नहीं दिख रहा, बस दौड़ता जा रहा हूं, जैसे डायरी नही, पतंग लूटकर आ रहा हूं।
…तीस साल मुझे नौकरी करते हो रहे हैं, कॉलेज छोड़े तीन साल और ... मैंने मन ही मन हिसाब लगाया, दो साल नौकरी पाने की कोशिश में भी लगे थे। यानी स्कूल छोड़े करीब पैंतीस साल।
तो क्या पैंतीस साल बाद उसके ख्याल का मेरे जहन पर दस्तक देना इस हड़बड़ी की वजह था? पुराने वक्त की पीली पड़ चुकी तस्वीरें तो दरअसल उसी दिन से हरी होने लगी थीं जब गिरीश ने फेसबुक पर पुराने साथियों को जोड़ने का सिलसिला शुरू किया था। कितने पुराने साथी, फेसबुक के जरिये दोबारा संपर्क में आ गए थे। फेसबुक का असली मजा तो हम लोगों को आ रहा था जिसने तीस-बत्तीस साल पुराने दोस्तों को आमने-सामने कर दिया था। गिरीश ने स्कूल के दिनों की एक पुरानी तस्वीर अपलोड की थी, क्लास नाइन्थ की ग्रुप फोटो, जिसमें मैंने खुद को बाद में देखा था, पहले दिखी थी वह—- लाल रिबन बांधे, ऊंची गुत बनाकर, दूसरी पंक्ति में बैठी, नूपुर... हालांकि तस्वीर में तो लाल रिबन भी काला ही दिखाई दे रहा था मगर मेरी आंखों में रिबन का लाल रंग तब भी उतना ही चटक था। महेन्दर की तस्वीर भी झट पहचान ली थी। कैसा बढ़िया गाता था वह— बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी...
महेन्दर भी भीतर-ही-भीतर नूपुर को पसंद करता था और उसने समय रहते...
पीं-पीं की आवाजों ने अचानक ही मुझपर हल्ला बोल दिया। सामने बत्ती हरी हो गई थी और मैं था कि अभी भी अपने सपनों की दुनियां में ही चहलकदमी कर रहा था। मैंने जल्दी से गाड़ी स्टार्ट की और जान बचाकर भागा। हड़बड़ी तो दिल्ली की फितरत में शुमार है। यहां के लोग देर रात तक टीवी देखेंगे, देर से सोएंगे, उठेंगे देर से, देर तक कमोड पर बैठकर अखबार पढ़ेंगे, मगर सड़क पर उतरते ही पता नहीं कैसी रेस में शामिल हो जाते हैं। मुझे बड़ी कोफ्त होती है, दिल्ली की इस हड़बड़ाहट से। मैंने गाड़ी की रफ्तार थोड़ी और घटा दी। आधा घंटा देर से भी घर पहुंचूंगा तो क्या फर्क पड़ जाएगा? वहां कौन मरीज मेरे इंतजार में बैठे हैं? मरीज तो उसके इंतजार में बैठे होंगे... डॉक्टर नूपुर दत्ता के इंतजार में।
एक लंबी सांस भरता हुआ मैं फिर पैंतीस साल पीछे लौटने लगा... पैंतीस क्यों? सैंतीस। दो साल और पहले ही तो वह साइन्स सेक्शन में चली गई थी और मैं कॉमर्स में आ गया था। आज वह क्यों मुझे इस बेतरह याद आ रही है? क्या सिर्फ इसलिए कि मैं एक अरसे बाद आज दरियागंज आया था?
नूपुर मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी पढ़ रही थी, इतनी जानकारी तो मुझे खुद उसी ने दी थी जब एक रोज इसी दरियागंज की सड़क पर मैं अपने पसंद की किताबें ढूंढ़ रहा था और वह अचानक मुझे यहीं मिल गई थी। उसने सामने की तरफ इशारा करते हुए बताया था कि वह यहीं होस्टल में रहती है और डॉक्टरी पढ़ रही है।
आज भी खूब याद है, उसने हरे रंग का सूट पहना हुआ था जिसमें कुछ सितारे जड़े थे। उस रात मैंने एक कविता लिखी थी,
हरी घास पर ओस की बूंदें,
धीरे चलना अरी जिंदगी,
ख्वाब पड़े हैं अंखियां मूंदे...
खुद पर ही हंसी आती है, कैसा बावरा था मैं। मुझे लगता है मैं आज भी वैसा ही हूं, जरा भी नहीं बदला। जिससे कोई खास बातचीत तक न हुई कभी, इतने सालों जिसके बारे में कुछ सोचा भी नहीं, आज अचानक उसे ऐसे याद कर रहा हूं जैसे मेरा बड़ा अंतरंग संबंध रहा हो उससे। खैर, जाहिर तौर पर भले ही मेरा उससे संबंध कोई आकार न ले पाया हो, मगर मन की डायरी के कई पन्ने उसके नाम समर्पित हैं। वे पन्ने जो लिखे ही नहीं कभी, इस डर से कि किसी के हाथ न लग जाए। आज किसी की डायरी के वैसे ही पन्ने मेरे हाथ लग गए हैं और मैं उन्हें पढ़ डालने को आतुर हूं।
शायद यही कारण है कि एक हड़बड़ी मुझ पर हावी होती जा रही है और मैं जल्दी से जल्दी एक ठिकाने पर जा पहुंचना चाहता हूं ताकि इतमीनान से इसे पढ़ सकूं।
कितनी अजीब बात है कि जब विनीता ने मुझे जबरदस्ती दरियागंज की तरफ धकेला था तो मुझे झल्लाहट हुई थी मगर आज दरियागंज से लौटता हुआ मैं कितना बेहतर महसूस कर रहा हूं। विनीता ने कमरे की खिड़की को बंद करवा कर उस जगह कुछ रैक्स बनवा दिए थे। मैंने यह देखा तो बहुत आहत हुआ। उस खिड़की से थोड़ा-सा जो आसमान दिखाई पड़ता था वह कितना सम्मोहित करता था मुझे, मगर मेरी पसंद की परवाह किसे थी?
“एक बार पूछ तो लिया होता।” मैं कुछ ऊंचे स्वर में बोला था। इतना उससे कहां बरदाश्त होता।
“क्यों? अपने घर में कुछ करने के लिए मुझे तुमसे राजीनामा साइन कराना होगा?” वह तुरंत ही जवाबी मुद्रा में आ गई थी।
“यहां से बाहर की दुनिया दिखती थी।” मैंने अपनी दलील रखी, मगर आज के समय में पुरुषों को कोई दलील रखने का हक कहां है? वे तो स्त्री-विरोधी, स्त्री शोषक हैं। उनसे कैसी सहानुभूति?
कभी-कभी मन होता है कि पुरुष विमर्श पर भी कुछ लिखा जाना चाहिए, उनकी चिंताएं, उनके दबाव, उनका शोषण। स्त्रियों के लिए तो न जाने कितनी सरकारी-गैरसरकारी संस्थाएं लपक कर खड़ी हो जाती हैं मगर हमारे लिए कौन खड़ा होगा? जरा ना नुकुर की नहीं कि स्त्रियां विमर्श का झंडा लेकर खड़ी हो गईं,
“पिता के घर में सुनती आई कि अपने घर में अपने मन की करना, मगर अपने घर में भी अपने मन की करने की आजादी कहां, तुम्हारी इजाजत लेनी चाहिए थी।”
विनीता की आवाज तो स्वाभाविक तौर पर ही तैश में रहती है, मैं ही खामोश हो गया। कर लो भइया अपने मन की, हमारे मन के बारे में भी कोई सोचेगा? मेरे भी घर में मां के अनुसार चीजें होती रहीं, अब तुम्हारे अनुसार होती हैं, हम कहां जाएं? हमारी पैरवी कौन करेगा?
मेरी खामोशी से वह थोड़ा पसीज गई। उसने समझाया था मुझे कि पॉश कॉलोनियों की खिड़कियां खोलने के लिए नहीं, सिर्फ परदे टांगने के लिए होती हैं, इससे कमरे का ‘लुक’ संवर जाता है। खिड़कियों से कोई ताक-झांक थोड़े ही... वह ऐसे हंस रही थी जैसे किसी बच्चे को फुसलाते हुए कोई नकली हंसी हंसता है।
मैं चुप रहा।
“अच्छा, क्या दिखता था खिड़की से?” उसने जानना चाहा, “थोड़ा आसमान, थोड़ा बादल, यही न? तो एक ऐसा ही पोस्टर ला कर खिड़की की आधी दीवार पर चिपका दो, वहां मैं कुछ नहीं रखूंगी...”
विनीता की दरियादिली के क्या कहने!
मैंने उसे समझाना चाहा कि पोस्टर प्रकृति की जगह नहीं ले सकता मगर इससे अधिक समझौता वह नहीं कर सकती थी। मैं चाहूं तो खिड़की पर बने रैकनुमा अलमारी की आधी दीवार का उपयोग अपनी तरह से कर लूं, वरना उस जगह के कई बेहतर उपयोग किए जा सकते थे।
तो आज मैं दरियागंज आया था, आसमान, फूल, तितली वाला कोई पोस्टर लेने। पोस्टर ढूंढ़ने में बहुत समय नहीं लगा। पोस्टर लेकर जब निकलने लगा तो अचानक ही पांव भीतर की पटरी की तरफ मुड़ गए जहां नई-पुरानी किताबों का ढेर सजा था। कोई परिचित-सी गंध अपनी ओर खींचने लगी और मैं किताबों की कतारों पर नजर मारने लगा। कॉलेज के जमाने में अक्सर आया करता था य़हां और ढेरों किताबें रद्दी के भाव ले जाया करता था। उन दिनों जुनून की हद तक पढ़ने का शौक हुआ करता था मुझे। इम्तहान के दिनों में भी कोई-न-कोई साहित्यिक किताब मेरी कोर्स की किताबों के बीच से झांकती रहती, जिसे पढ़ने की ललक में मैं जल्दी-से-जल्दी अपना कोर्स पूरा करता। बस, उसी हुलस के साथ मैं किताबें पलटने लगा। मगर किताबें मेरी हथेलियों से फिसलती रहीं। मैं किताबें उठा-उठाकर रखता रहा। कोई भी किताब इतने करीब नहीं मालूम पड़ी कि मैं उसे पढ़ने का धैर्य जुटा पाता। सच है, लंबे अरसे बाद ये पैर यहां थमे थे और हाथों में हरकत हुई थी मगर इस अंतराल ने किताबों और मेरे दरम्यान अजनबियत की दीवार खड़ी कर दी थी। ज्यादातर किताबें अंगरेजी के खोजी उपन्यास थे। हिंदी के उपन्यासों में भी वह बात नहीं बन पा रही थी जो ठिठककर मुझसे पहचान बना लेती। अचानक निगाहों ने किताबों की भीड़ में दबी पड़ी एक नीली डायरी को फोकस किया। मैंने लपककर उठाया, मेरा अनुमान सही निकला, यह किसी की पर्सनल डायरी थी।
पर्सनल डायरी, यानी किसी की निजी जिंदगी की झलक। मैं अपनी उत्सुकता को रोक नहीं पाया और उसके पन्ने पलटने लगा।
नीले बॉल पेन से रोमन स्क्रिप्ट में लिखे कुछ अक्षर... जैसे-जैसे मेरी निगाहें इन अक्षरों से गुजरती जा रही थीं, मेरी धड़कन बढ़ती जा रही थी। लग रहा था जैसे गुमनाम मुहब्बत की कोई कहानी, मुंह पर ओढ़नी ढके मेरे सामने खड़ी है और मेरी उंगलियां उसके चेहरे से नकाब हटाने के लिए मचल रही हैं।
भरपूर उत्साह के साथ मैंने एक और किताब की ओट में उस डायरी को भी खरीद लिया। सोचता रहा, क्या पता मेरी ही तरह किसी ने इसमें अपने जीवन के अनमोल लम्हों को अंकित किया होगा, कुछ अंतरंग बेचैनियां होंगी, अपनेपन से भरी कुछ बातें होंगी... मैं उस डायरी को पढ़ने के लिए अधीर हुआ जा रहा था और गाड़ी भगाए लिए जा रहा था।
शरमीली नायिका-सी वह डायरी मेरी सीट की बगल में खामोश पड़ी थी और मैं बार-बार उसकी ओर ऐसे देख रहा था जैसे इस बार तो उसे पहचान ही लूंगा।
मेरा दिल कह रहा था कि मैं इसे खूब अच्छी तरह जानता हूं, इसका एक-एक हर्फ मेरा पहचाना हुआ है, बल्कि मेरे ही हाथों लिखा हुआ है।
जैसे यह मेरी ही डायरी है और इसमें नूपुर को लिखे वे पैगाम हैं जो मैं उसे कभी कह नहीं पाया।
या क्या पता, यह डायरी नूपुर ने लिखी हो और इसमें मेरा भी जिक्र किया हो।
लंबे-चौड़े, सीधे-संकरे, भीड़ भरे और घुमावदार रास्ते पार करती आखिर मेरी गाड़ी अपनी हाउसिंग सोसाइटी के गेट पर खड़ी थी। गार्ड ने सैल्यूट मारकर गेट खोल दिया। सोसाइटी के भीतर प्रवेश करते हुए मैंने भीतर की उथल-पुथल को तटस्थता की सूरत में बदलने की कोशिश की और गाड़ी पार्क कर खड़ा हो गया। पोस्टर के साथ डायरी उठाने लगा तो किसी ने सचेत किया, घर ले जाकर क्या करोगे? दफ्तर में ही पढ़ना, वहां भी तो पर्याप्त एकांत होता है तुम्हारे पास। मुझे यह दलील ठीक लगी। मगर कहीं अपने ही प्रति एक संशय भी जगा, मैं क्यों कर रहा हूं ऐसा?
क्या विनीता को आपत्ति हो सकती है मेरी इस डायरी से?
हो भी सकती है, उसके बारे में कुछ भी कह पाना मुश्किल है। न मालूम कौन-सा तर्क रख दे, कह सकती है कि किसी की डायरी बेहद निजी होती है, नहीं पढ़नी चाहिए।
मगर जिसे मैं जानता ही नहीं, उसकी डायरी पढ़ ही ली तो क्या फर्क पड़ गया?
वही तो, जिसे जानते ही नहीं, उसकी डायरी पढ़ने में दिलचस्पी ही क्यों?
विनीता से शास्त्रार्थ मुश्किल हो सकता था।
मैंने डायरी गाड़ी की डैशबोर्ड की पॉकेट में घुसा दी।
(अगले अंक में जारी....)
अलका सिन्हा
***