दो अजनबी और वो आवाज़
भाग-4
गाड़ी का वाइपर ज़ोर-ज़ोर से अपने आप चल रहा है। बाहर बारिश अपने चरम पर बरस रही है। चुभने वाली खामोशी से डरकर मैं पसीना पसीना हो रही हूँ। आस-पास भी कुछ दिखायी नहीं दे रहा है। गाड़ी भी लॉक है। मुझे ऐसा लग रहा है, मानो मुझे कोई अगवा करके अपने साथ लेजा रहा है। तभी तो उसने मुझे गाड़ी में कैद कर दिया है। न कोई आवाज है, न किसी तरह का कोई शोर है। सिर्फ गाड़ी के वाइपर के चलने की आवाज आरोही है।
जैसे रात के सन्नाटे में घड़ी की टिक-टिक सुनाई देती है, ठीक वैसे ही यहाँ गाड़ी के वाइपर की आवाज आरोही है। मेरा दम घुट रहा है। गाड़ी के शीशे भी खराब है कि अचानक गाड़ी का (ए.सी) अपने आप चालू हो जाता है। क्या करने चली थी दिखायी नहीं देता बहार कितनी ज़ोर का तूफान आया हुआ है। ऊपर से हम जंगल में खड़े है और एक तुम हो कि तुम्हें गाड़ी के काँच खोलने की पड़ी थी। कितनी बार तुझे समझाया है हमेशा अपनी आंखें और कान दोनों खुले रखाकर। पर तू है कि समझती ही नहीं, मुझे ही सब ध्यान रखना पड़ता है। जब तक तू मेरे साथ है, तू मेरी ज़िम्मेदारी है। वो मेरी कुछ सुनने को तैयार ही नहीं है। बहुत घना अंधेरा है बिजली कड़कने की आवाज के साथ जो रोशनी होती है। बस उसी रोशनी का सहारा है। उस क्षणिक रोशनी में आवाज़ कहाँ से आयी मैं यह समझ पाऊँ, उससे पहले ही मैंने अपने आपको वापस उसी झील नुमा पानी के पास लगे पत्थर पर बैठा पाया कि मैं क्या देखती हूँ झील के उस पार दूर कहीं मुझे कुछ धुआँ धुआँ सा नजर आ रहा है। रात काफी गहरी है, डर भी लग रहा है। लेकिन उस धूएँ को देख ऐसा लगा, चलो कोई तो है मेरे आस-पास है। अकेली नहीं हूँ मैं, उन दिनों मेरी हालत कुछ ऐसी है कि मैं आम जन जीवन देखने को तरस चुकी हूँ।
कभी लगता था कि इस सुनसान बियाबान जंगल में मैं अकेली हूँ, एकदम अकेली। तो दूजे ही पल उस आवाज़ का ख्याल आते ही लगता था कि मेरे जीने के लिए उसका साथ ही काफी है। मगर सच तो यह है कि मैं खुद ही नहीं समझ पा रही हूँ कि मुझे आखिर चाहिए क्या? धीरे-धीरे वह धुआँ बढ़ रहा है। गहरी काली रात भी उस धूएँ से धुंधला रही है। आहिस्ता-आहिस्ता जैसे कोई धीरे-धीरे सिगरेट के कश खींच रहा हो अपने अंदर जैसे भोले के भक्त जय भोले कहते कहते गुम हो रहे हो अपनी ही एक अलग दुनिया में, जो जन्म और मरण से बहुत ऊपर होती है।
जहां सब मस्त मलंग हो, लाल आंखें लिए अपनी ही धुन में धुनी रमाये घूमते रहते है। एक नशा सा घुल रहा है माहौल में, मुझे भी ऐसा लग चला है कि मैं नशे में हूँ। के फिर एक बार वही आवाज आयी, निशा याद है क्या तुझे, पानी चढ़ा था तुझे एक रात, मैं इस बार चौंकी नहीं क्यूंकि शायद मैं नशे में हूँ। मैंने कहा चुप खामोश ए आवाज अब मैं कहूँगी और तुम सुनोगे लंबी खामोशी दूर-दूर तक कोई आवाज नहीं, चारों तरफ बस धुआँ ही धुआँ मानो जंगल में आग लग गयी हो जैसे। हाँ याद है मुझे वो तुम ही थे न जो एक कमरे से दूसरे कमरे में छोड़ने गए थे मुझे, तुम्हारा वो सांड बनना याद है तुम्हें, तुम ही ने परिचय कराया था मेरा इस धूएँ से क्या तुमने यह गंध जानी पहचानी सी नहीं लगती।
खैर छोड़ो उस दिन एक अलग ही नशा था माहौल में, जैसा मुझे अभी हो रहा है आहिस्ता आहिस्ता....मैंने जरा किसी शराबी की भांति लड़खड़ाते हुए कहा, तुम्हें कुछ नहीं हो रहा?? मुझे तो ऐसा लग रहा है जैसे यह धुआँ मेरी साँसों के सहारे मेरी नस नस में उतरकर मेरे खून में घुलकर मुझसे कुछ कह रहा है। तुम जानते हो मैं तुम से इतनी बातें क्यूँ करती हूँ? हुम्म बोलो ? मैं नशे में झूमती हुयी उससे पूछ रही हूँ, बोलो ना, बोलते क्यूँ नहीं। चुप क्यूँ हो? अरे तुमने ही तो अभी कहा था कि तुम बोलोगी और मुझे सुनना पड़ेगा, तो इसलिए मैं चुप था।
अच्छा....जैसे बड़े आज्ञाकारी हो तुम। हाँ तो हूँ ही, बता कब बात नहीं मानी मैंने तेरी हाँ, एक तू ही तो है मनमानी करने वाली और पता नहीं क्यूँ मैं तेरी सारी बातें मान भी लेता हूँ। नहीं नहीं ...तुझसे जो पूछा है वो बता और कुछ नहीं जानना समझना मुझे अभी इस वक़्त क्यूँ तुझ से हजार बातें करने का जी करता है मेरा, स्त्री विमर्श की बातें हो या दोस्ती यारी की तेरे साथ ऐसा लगता है जैसे बचपना लौट आया हो मेरा, कौन हो तुम पता नहीं। पर जो भी हो भावनाओं को समझ लेते हो। या फिर शायद सुन लेते हो सामने वाले की, कि हर कोई तुम से मिलकर अपना दुख बाँट लेना चाहता है।
फिर चाहे वह तुम्हारी माँ हो, बहन हो, या फिर वो जिसका ज़िक्र आते ही तुम्हारे हिसाब से मेरा मुंह सूझ जाता है और याद आ जाता है मुझे करवा चौथ का वो दिन...खैर अभी जाने दो अभी तो मैं खो जाना चाहती हूँ इस धूएँ में, उड़ जाना चाहती हूँ इस धरती से ऊपर, बहुत....ऊपर इतनी ऊपर की वहाँ पहुँचकर मुझे सिर्फ बादल दिखायी दें। उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।
क्या तुम्हें लग रहा है कि मैं नशे में हूँ। हाँ...बोलो मुझे मेरी ही हंसी की आवाज़ उस वक़्त कुछ यूं लग रही है मानो एक अरसे बाद हंसी हूँ मैं, क्यूंकि तुम मेरे साथ हों और हंसी मज़ाक न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता। नशे से याद आया निशा ना जाने लोग अपनी बच्ची का नाम निशा क्यूँ रखते है। लेकिन चलो कोई बात नहीं, आज मैं भी तुम्हें एक नाम देती हूँ। नशा और एक गहरी नींद सा अंधेरा और जैसे सब खत्म...
मौत के बाद की खामोशी सा....नींद खुलती है तो लगता है नशा उतर गया। मेरा सर भी कुछ भारी सा महसूस हो रहा है। लेकिन यह क्या रात तो अभी भी जस के तस ही है। वही जंगल, वही धुआँ, वही पानी वही पत्तों की सरसराहट पेड़ों पर से बारिश की बूंदों का टपकना टप...टप बारिश अब बंद हो चुकी है।
अब अगर कुछ साथ है, तो वह है जंगल की भिन्न भिन्न आवाजें। मैं सोच रही हूँ क्या हुआ था इससे पहले ? मैं कहाँ हूँ...मेरे ही कदमों ही आहट मुझे डरा रही है कि जैसे मेरे आस-पास कोई है जो मेरा पीछा कर रहा है।
मैं धीरे से कदम बढ़ती हूँ। कोई मेरे पीछे से बहुत तेज़ भागता हुआ निकल जाता है। सारे पेड़ों का एक साथ हवा से इस तरह हिलना मानो वह तेज़ चल रही हवा से जूझते हुए अपने अस्तित्व को बचाने का प्रयास कर रहे हों जैसे, पेड़ो का इस तरह से हिलना मुझे अंदर तक हिला गया। डर से मेरा गला सुख गया। भय से थर-थर काँपती मैं चाँद की रोशनी में उस साये को देखने की अभी कोशिश ही कर रही होती हूँ, तो क्या देखती हूँ पेड़ों पर बंदर उछल रहे हैं। रोशनी बस उतनी ही है जितनी पेड़ों से छनकर धरती पर आरोही है। मुझे ठीक से कुछ दिखायी नहीं दे रहा है। लेकिन अपने ही दिल की धड़कन मुझे साफ सुनाई दे रही है। काली अंधेरी रात में उन बंदरों की चमकती आँखें और चमकीले दाँत मेरी क्या किसी की भी जान निकाल लेने के लिए काफी है। मैं उस भयावह दृश्य से भाग जाना चाहती हूँ। लेकिन कैसे इस जंगल का कोई ओर छोर भी तो नहीं है।
ऐसे में, उस जंगल से भाग जाने की कोई कोशिश भी करें तो कैसे, भूल भुलईयाँ से हो गयी है जिंदगी कि फिर एक बार पीछे से किसी की साँसों की आवाज आयी। यूं लगा जैसे ठीक मेरे कानों के पास कोई साँप है उसकी फुफकार की यह आवाज उस चुभते सन्नाटे में, मुझ जैसे पहले से डरे हुए व्यक्ति को और अधिक डरा देने वाली थी। बहुत चाहकर भी मैं पीछे मुड़कर न देख सकी और आगे बढ़ गयी। फिर उस आवाज ने मुझे पुकारा। अरे तू डर मत मैं हूँ न, मैं कितना भी नशे में क्यूं न रहूँ मगर मैं कभी रास्ता नहीं भूलता। तू चल मेरे साथ वहाँ से भाग जाने का विचार तो पहले ही मेरे मन में चल रहा था। उस पर उसका यह प्रस्ताव चल मेरे साथ, को मैं उस रोज़ ठुकरा न सकी। उस आवाज के पीछे चलते हुए कब हम वापस उसी गाड़ी में आ बैठे मुझे पाता ही नहीं चला।
सामने (वन वे) जैसा रास्ता है। बारिश बा दस्तूर जारी है, दोनों तरफ से सड़क खुदी पड़ी है। आती जाती गाड़ियों की तेज़ रोशनी मेरे आँखों में खंजर की भांति चुभ रही है। जिसे मैं अपने हाथों से अपनी आँखों को छिपाते हुए बचा रही हूँ। चाहकर भी मैं अपनी आँखें खोल नहीं पा रही हूँ। गाड़ी बहुत तेज़ रफ्तार में भाग रही है। वह आवाज नशे के लहजे में मुझसे कह रही है, सामने देख सामने से आती हुई गाड़ी को भी संभालते हुए देखना, मैं बीच में से कैसे अपनी गाड़ी निकलता हूँ। मैंने चोंध्यायी हुई आँखों से ही उससे पूछा, वो सब तो ठीक है, पर क्या तुम मुझे यह बता सकते हो कि हम जा कहाँ रहे है। और क्यूं जा रहे हैं ? यदि तुम नशे में हो तो हम ड्राइव ही क्यूं कर रहे हैं ? तुम पागल तो नहीं हो गए हो कहीं। जो आवाज अब तक मेरे साथ सोहाद्र पूर्ण थी वही आवाज अचानक गुस्से में बदल जाती है।
हाँ...हाँ पागल हूँ मैं, सायकोपैथ, रखना है रिश्ता मेरे साथ तो रखो। नहीं तो चले जाओ। नहीं चाहिए मुझे किसी का साथ, अकेला भी जी सकता हूँ मैं, कोई किसी का नहीं जहान में यही साला सच है। समय आने पर कोई साथ नहीं देता। तुम सब से अच्छी तो यह दारू ही है मेरे लिए, और गालियों की बौछार लिए जैसे टूट पड़ा था वो मुझ पे और मैं पत्थर की बुत बनी सब सुन रही हूँ। मेरे चेहरे पर कोई हाव भाव ही नहीं रहे हैं। मैं बस स्तब्ध हूँ कि अभी-अभी कुछ देर पहले मेरे साथ सहानुभूति रखने वाली वो आवाज अचानक मेरे प्रति इतनी कठोर कैसे हो गयी।
अभी सब चल ही रहा है कि तेज भागती गाड़ी के नीचे एक गति अवरोधक पर गाड़ी ज़ोर से उछलती है और तेज़ गति होने के कारण सामने से आती मोटर बाइक की रोशनी से चकाचौंध होकर ब्रेक लगता है और फिर एक बार सब गुम हो जाता है। कब, कौन, कहाँ, कैसे, क्या हुआ किस के साथ किसी को कुछ याद नहीं है।
ऐसा लगा जैसे बहुत तेज़ रोशनी के बाद घना काला अंधेरा। जैसे अचानक आया अंधापन किसी को कुछ समझ नहीं आया कि हुआ क्या...ऐसा सा लगा जैसे एक लंबी सी बेहोशी के बाद जब होश आया तो कानों के पास आकर किसी ने धीरे से कहा “I am sorry” तुझे तो पता है जब मैं नशे में होता हूँ, तो मुझे कुछ याद नहीं रहता। मैं किस से क्या बोल रहा हूँ। यहाँ तक की मुझे यह भी याद नहीं रहता कि गयी रात मैंने खाना खाया भी था या नहीं। अगली सुबह खुद अपने हाथ सूंघ सूंघकर पता करने की कोशिश किया करता था मैं कि मैंने रात को खाना खाया भी था या नहीं और ऐसी हालत में जब भी कोई मुझसे बहस करता है, तो मेरा भेजा भंट हो जाता है।
कई बार तो मारा पीटी तक की नौबत आ जाती है। फिर सामने वाला कौन है, स्त्री है या पुरुष है, मुझे कुछ दिखाई नहीं देता। इसलिए मैं कभी, किसी के साथ, नशा करना पसंद नहीं करता था।
अकेले पीना और अकेले ही जीना पसंद था मुझे, कहते कहते जैसे किसी अतीत में चली गयी वो आवाज और वो बोला क्यूँ आयीं तुम मेरी ज़िंदगी में निशा वो किसी याद में डूबा हुआ सा बोल रहा है। दिल की गहराइयों से किसी को याद कर रहा हो जैसे और मुझे ऐसा लग रहा है कि होश में आने के बाद भी, मेरी आँखों के सामने का अंधेरा अब भी खत्म नहीं हुआ है।
***