Rai Sahab ki chouthi beti - 10 in Hindi Moral Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | राय साहब की चौथी बेटी - 10

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राय साहब की चौथी बेटी - 10

राय साहब की चौथी बेटी

प्रबोध कुमार गोविल

10

अम्मा को ताश खेलने का खूब शौक़ था। अपनी पुराने दिनों की सहेलियों के संग कभी- कभी, और परिवार के लोगों के संग चाहे जब अम्मा ताश मंडली की बैठकों में खूब जमती थीं।

इस बीच एक सोने पर सुहागा और हुआ। अम्मा की सबसे छोटी बहन, जो अम्मा की देवरानी भी होती थीं, अब राजस्थान में ही रहने चली आईं।

सबसे छोटी बहन के पति यहां बिजली महकमे में इंजीनियर हो गए थे।

अब तो हर तीज- त्यौहार की छुट्टियों में कुछ दिन को, और बच्चों की गर्मियों की छुट्टियां होने पर लंबी लंबी अवधि के लिए, इस छोटी बहन का परिवार यहां चला आता, और फ़िर खूब मज़े की छनती।

ये रिश्ता ऐसा था कि अम्मा और उनकी छोटी बहन देवरानी- जेठानी बन कर लड़- झगड़ भी लेतीं और बहनापे के चलते सुलह सपाटा भी फ़ौरन कर लेती थीं।

किसी छोटी सी बात पर उलझ कर तेज़ होती जाती दोनों की आवाज़ गूंजने लगती, अम्मा कहती थीं- तुझे ऐसी ही मनमानी करनी है तो मत आया कर यहां... मेरा नाम बदल देना जो फ़िर याद करूं तुझे। जवाब में गुस्से से भरी छोटी बहन कहती- "बीवी, मुझसे तुम्हें ऐसी ही परेशानी है तो साफ़ कह दो, मैं कल ही चली जाऊंगी, और फ़िर कभी पलट के आई तो देखना, तुम मुझ मरी का ही मुंह देखोगी।"

अगले ही दिन फिर बाज़ार में दोनों एक साथ साड़ियों की दुकान पर दो घंटे बिताने के बाद किसी ठेले पर गोलगप्पे खाती देखी जाती थीं।

तब दिन रात दोनों परिवारों के बीच खूब ताश मंडली जमती।

अम्मा के चार बेटे और छोटी के तीन बेटे, भाई कम और दोस्त ज़्यादा थे आपस में। लिहाज़ा ये सब भाई दोनों बहनों के ताश अभियान में उनके पार्टनर भी बनते और फ़िर एक से बढ़ कर एक मुकाबले जमते।

वकील साहब के छोटे भाई, बच्चों के ये चाचा भी ऊंचे दर्जे के खिलाड़ी थे।

इनके संग कोई ताश खेलने वाला हो तो ये दफ़्तर में अर्जी भिजवा दें कि घर पर अत्यावश्यक कार्य होने के कारण आज ऑफिस आने में असमर्थ हैं।

इन सबसे छोटी बहन की दो आदतें खास थीं। एक तो ये बहुत मजाकिया स्वभाव की थीं, तो खेल- खेल में चाहे जिसकी खिल्ली उड़ा देना इनके बाएं हाथ का खेल था।

और दूसरे, इन्हें अपनी बड़ी बहन यानी अम्मा को हराने में बड़ा आनंद आता था। इन्हें चाहे खेल में कितनी ही चीटिंग या हेराफेरी करनी पड़े पर ये अम्मा को हराने का कोई मौका नहीं छोड़ती थीं। ये और अम्मा हमेशा अलग- अलग टीमों में रहती थीं और एक दूसरी से जम कर लोहा लेती थीं।

अम्मा की बहू इस दौरान सबके चाय पानी में लगी रहती थी। खेल ज़्यादातर छुट्टी के दिन होता तो बहू की भी छुट्टी होती थी।

इस समय वह सब भूल जाती थी कि उसका अपने ऑफिस में रुतबा क्या है। वो तो एक घरेलू और सीधी सादी बहू की भांति अपने ससुराल के लोगों की इस हंसी ख़ुशी में शामिल रहती।

उसकी रसोई से चाय, शर्बत, लस्सी के साथ कभी हलवा, कभी पकौड़े, कभी दही बड़े...एक के बाद एक व्यंजन निकल कर आते रहते।

उसकी ये आंतरिक खुशी और भी बढ़ जाती जब छुट्टी लेकर कभी कभी अम्मा का वो तीसरा बेटा भी घर आया रहता, जिसके साथ फेरे लेकर अम्मा की बहू अम्मा के इर्द - गिर्द खर्च हो रही थी।

कभी- कभी जब खेलने वाले कम होते तो अम्मा की बहू भी अम्मा की पार्टनर बना कर बैठा ली जाती।

और मज़े की बात ये कि यहां भी वो अपनी चाची- सास को धड़ाधड़ हरा कर अम्मा को खुश करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ती थी। आख़िर हमेशा अपने स्कूल कॉलेज में टॉप करके अफ़सर बनी बहू थी, ताश का खेल ही क्यों न हो, जीतना तो उसकी फितरत में ही था। उसका दिमाग़ कम्यूटर की तरह चलता।

अपनी बहू की मदद से अपनी छोटी बहन को हरा पाने का आनंद लेती अम्मा थोड़ी देर के लिए ये भूल जाती थीं कि उनकी पार्टनर बनी बैठी ये लड़की वही है जिसने अम्मा के बेटे से लव मैरिज करके अम्मा की आकांक्षाओं पर तुषारापात किया था और इस सदमे से अम्मा का सुहाग...!

अम्मा जीतते ही फ़िर से थोड़ी देर के लिए राय साहब की चौथी बेटी बन जाती थीं।

अम्मा ने अपनी छोटी बहन की बिटिया को पढ़ने के लिए अपने पास ही रख लिया था, और उसका प्रवेश एक स्कूल में करवा दिया था। इस तरह सबका आना -जाना, मिलना-जुलना और भी बढ़ गया था। यद्यपि इस बड़े शहर की दूरियां सबको सहजता से मिलने नहीं देती थीं पर ये तसल्ली ज़रूर रहती थी कि ज़रूरत पड़ने पर यहां घर -परिवार के लोग हैं।

और संयोग ऐसा हुआ कि कुछ समय बाद अम्मा के देवर, वकील साहब के छोटे भाई का तबादला भी यहीं, इसी शहर में हो गया।

अम्मा जिस विद्यालय में नौकरी करने के लिए आई थीं, वो ख़ास तौर पर लड़कियों को पढ़ाने के लिए ही खोला गया था, इसका असर ये हुआ कि कुछ समय बाद अम्मा ने अपनी बड़ी बेटी की सुपुत्री को भी पढ़ने के लिए अपने पास ही बुला लिया था।

कुछ कुछ समय के लिए परिवार की बहुत सी लड़कियां अम्मा के पास ही रह कर पढ़ कर गई थीं।

अम्मा ने अपने जेठ, सेठजी की बेटी को भी कुछ वर्ष अपने पास रखा। मझले देवर की बिटिया भी आई, पर उसका इस सादगी भरे नीरस वातावरण में मन नहीं लगा और वो जल्दी ही वापस चली गई।

अम्मा के भाई की बेटी ने तो अपनी सारी पढ़ाई अम्मा के पास रह कर ही पूरी की थी।

बड़े देवर की लड़की भी वहां आई लेकिन उसने अम्मा के पास घर में रह कर उन पर और बोझ न डालने की गरज़ से वहां के एक हॉस्टल में प्रवेश लिया।

इस तरह अम्मा ने पूरे परिवार को अपने से जोड़ कर रखा।

लेकिन इसका एक दूसरा पहलू ये भी था कि यहां लड़कों की पढ़ाई की माकूल व्यवस्था नहीं होने के कारण अम्मा के अपने सभी बेटे पढ़ने के लिए बाहर दूर- दूर गए थे।

इन सब बीते दिनों की मीठी खट्टी- यादें अब अम्मा के जेहन की लाइब्रेरी में दर्ज़ थीं और अम्मा की लंबी अकेली दोपहरी में उनका सहारा थीं।

ऐसी ही एक दोपहर में अम्मा अकेली बैठी हुई थीं। टीवी खोलने पर भी ऊब दूर नहीं हुई।

अम्मा ने अपनी अलमारी में से एक फोटो एलबम निकाल लिया। कुछ देर उसे देखती रहीं। न जाने क्या सोच कर उन्होंने एलबम से सभी फोटो बाहर निकाल लिए और बिस्तर पर उनका एक छोटा सा ढेर सा लगा लिया।

फ़िर अम्मा एक एक फोटो को हाथ में उठा कर ध्यान से देखने लगीं।

ये फोटो ? अम्मा देखती ही रह गईं।

अम्मा के नौकरी के दिनों में उन्हें कई बार दूसरे स्कूल- कॉलेज में प्रेक्टिकल परीक्षाएं लेने भी जाना पड़ता था। एक बार ऐसा संयोग हुआ कि जहां अम्मा गईं, वहां परीक्षा के दो दिन इस तरह रखे गए थे कि एक दिन शनिवार था, और दूसरे दिन सोमवार।

बीच में रविवार का दिन छुट्टी थी। अम्मा को वहां स्कूल के गेस्ट हाउस में ठहराया गया था।

अब छुट्टी के दिन अकेली अम्मा वहां क्या करतीं? लिहाज़ा स्कूल प्रशासन ने अम्मा को शहर की सैर करवाने के लिए एक अध्यापिका की ड्यूटी लगा दी। वो टीचर तैयार होकर सुबह- सुबह आ गईं और नाश्ते के बाद स्कूल की गाड़ी से अम्मा को घुमाने के लिए ले गईं।

लो, अभी वो दोनों एक सुन्दर सी लेक के किनारे पहुंची ही थीं कि अम्मा का दिन बन गया।

वहां पहुंचते ही पता चला कि फ़िल्म "गाइड" की शूटिंग चल रही है। लोग झील के किनारे इकट्ठे होकर तन्मयता से खड़े शूटिंग देख रहे हैं।

गाड़ी के ड्राइवर ने तपाक से उतर कर "हटो हटो" की हांक लगा कर भीड़ के बीच से रास्ता बना दिया और अम्मा उसके पीछे पीछे दूसरी अध्यापिका के संग चलती हुई सीढ़ियां उतर कर बिल्कुल झील के पानी के किनारे पहुंच गईं।

अब चार हाथ के फासले पर बैठा देवानंद और कुछ दूर तैरती नाव में बैठी वहीदा रहमान!

चारों तरफ कैमरे, और दिन के उजाले में भी वहीदा के चेहरे पर फेंकने के लिए तेज़ लाइटें।

वाह मजा आ गया।

जिन बच्चियों की कल परीक्षा होनी थी वो तो अपने - अपने घर में बंद बैठी किताबों और कापियों से उलझी हुई होंगी, पर परीक्षा लेने वाली अम्मा एकटक देख रही थीं उस मंजर को, जिसके एक मुहाने पर हर दिल अजीज देवानंद और दूसरी तरफ पानी की लहरों पर चौदहवीं का चांद वहीदा रहमान!

बरसों पुरानी तस्वीर में अम्मा अपने साथ गई अध्यापिका के संग चुपचाप खड़ी थीं।

वो मोबाइल कैमरों का युग होता तो अम्मा शूटिंग के दृश्य भी कैद करके ला पातीं। ये तस्वीर तो स्कूल के बाबू ने स्कूल के अहाते में, स्कूल के कैमरे से खींची थी।

जिसमें खड़ी अम्मा को अब खुद अम्मा के सिवा और कोई दूसरा तो पहचान भी नहीं सकता था, अम्मा के पोते पोतियों की बात तो छोड़ो, अम्मा के बेटे बेटियां भी शायद नहीं!

अम्मा ने तस्वीर वापस एलबम में लगा दी।

धीरे- धीरे सभी तस्वीरों को अम्मा ने फिर जस का तस सजा दिया! और जल्दी से उन्हें फ़िर से अलमारी में रख दिया।

अम्मा एक एक एलबम के सहारे पूरा एक एक दिन काट सकती थीं, पर नहीं! अब नहीं! अम्मा को सहसा कांटा सा चुभ गया।

भला बिस्तर पर आराम से बैठे- बैठे कमरे के भीतर कांटा कैसे चुभ जाएगा।

कांटा किसी झाड़ी- पौधे से नहीं, यादों से ही चुभ गया!

हुआ ये था कि अम्मा को इस मंद समीर की भीनी भीनी याद के साथ ही ये भी याद आ गया कि इसी परीक्षा के बाद ट्रेन से वापस लौटते समय अम्मा के साथ एक हादसा भी हो गया था।

अम्मा का पैर ट्रेन से उतरते समय न जाने कैसे फुट बोर्ड पर कुछ तिरछा पड़ा और अम्मा का संतुलन डगमगा गया।

रेलिंग को पकड़ कर अम्मा किसी तरह गिरने से तो बच गईं पर उनके पैर में फ्रैक्चर हो गया। पूरे डेढ़ महीने पैर पर प्लास्टर चढ़ा रहा अम्मा के!

नहीं,नहीं, ऐसी तीखी यादों के सहारे अम्मा ज़्यादा देर बैठी नहीं रह सकती थीं।

वो फ़ौरन उठ कर रसोई में चली आईं और थोड़ी ही देर में रसोई घी की ख़ुशबू से महक उठी। दरअसल अम्मा का पोता स्कूल से वापस आने वाला था, जो कई दिनों से अम्मा से हलवा बनाने की फरमाइश कर रहा था।

शाम को अम्मा की एक पुरानी सहेली अम्मा से मिलने आई। ये सहेली भी अब खासी बुज़ुर्ग हो चली थी और बाल - बच्चों से निवृत्त हो जाने के बाद अब इनके पास कोई काम नहीं था।

इन सहेली के पति भी अब सेवानिवृत्त थे लेकिन अपने पूर्व संपर्कों के चलते उनके पास मेले - जलसों के आमंत्रण आते रहते थे और वो भी उनमें दर्शक की हैसियत से ही ज़ोर- शोर से शिरक़त करने में अपने को खपाए रहते थे।

इस तरह एक तो संझा- दोपहरी काटने का सतूना भी बैठ जाता था दूसरे अपनी पत्नी पर यदा- कदा अब भी ये रौब गाफिल करने में कामयाब हो जाते थे कि "जाना है, जल्दी नाश्ता - खाना दे दो या आज धोबी के धुले हुए कपड़े निकालना।

वरना तो अब बेकार- बेज़ार थे, चड्डी- बनियान में भी मजे की कट सकती थी।

इसी मोहल्ले में ही रहने वाली इन सहेली को भी कभी- कभी हुड़क सी उठती थी कि बहुत दिन हो गए, चलो बाजार हो आएं।

अपने पति के संग बाज़ार जाने में तो कोई आनंद नहीं था, क्योंकि इससे तो दोनों की ही पोल खुल जाती थी कि कोई काम तो है नहीं, पेंशन जो मिली है सो उसे ठिकाने लगाने की गरज से जाना है।

पर अम्मा के पास आकर वो इस सुर में बोलतीं- अरे, बड़े काम इकट्ठे हो गए हैं, कई दिन से बाज़ार जा पाने की फुरसत ही नहीं मिली, अब आप भी चलें तो हो आएं?

अम्मा को भी खासा तजुर्बा था कि उनके इकट्ठे हुए काम कैसे- कैसे होंगे? किसी चप्पल में कील ठुकवाना, तो किसी बैग की ज़िप बदलवाना, किसी चाकू पर धार चढ़वाना, तो किसी पुराने पर्दे को रंगवाना। और फिर " अबव आॅल" की तर्ज़ पर पानी में मिर्च - मसाला तेज़ करवा कर कहीं गोलगप्पे खा आना!

अम्मा को तो बाज़ार का कोई काम होता नहीं था, जो मुंह से निकले वो बहू अपने ऑफिस से लौटती हुई कर - ले ही आती थी।

लेकिन अब सहेली के कहने पर भी बाज़ार न जाने का मतलब था ये ऐलान करना, कि हम तो अब बूढ़े हो गए, कहीं आने- जाने की हिम्मत नहीं रही।

सो इसके लिए अम्मा कतई तैयार नहीं थीं।

लिहाज़ा अगले दिन दोनों सहेलियों का कार्यक्रम बन गया।

छुट्टी थी, इसलिए बहू और बच्चे भी आज घर में थे।

आख़िर बहुओं की भी तो क़िस्मत होती ही है, एक- आध दिन सास के दायरे- चौबारे से परे रहने की।

दोपहर तो ख़ैर दोनों सहेलियों की शहर के बाज़ार में जैसी गुज़री वैसी गुजरी ही, पर सबसे मज़ेदार बात ये हुई कि तीसरे पहर दोनों सहेलियां अलग- अलग ऑटो रिक्शा से घर आईं।

पूरे मोहल्ले- पड़ोस में बात फ़ैल गई।

कोई कहता - बीच बाज़ार झगड़ पड़ी होंगी दोनों।

तो कोई अनुमान लगाता कि भीड़- भाड़ में भूल गई होंगी कि किसके साथ आईं।

पर हुआ दरअसल ये, कि वो सहेली अम्मा को सड़क के किनारे खड़ी छोड़ कर एक पतली गली में ये कह कर घुस गईं कि यहां एक बहुत बढ़िया रंगरेज है, दस मिनट में रंगाई कर के कपड़ा दे देता है, आप रुको यहीं, मैं आई।

अम्मा ने आधा घंटा तो एक दुकान के बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठ कर उनका इंतजार किया, फ़िर ऊब कर घर चली आईं।

तो ऐसी मित्र और ऐसी मित्रता भी थी अम्मा के खाते में!

***