Kaash hote baarah bachche in Hindi Comedy stories by Krishna manu books and stories PDF | काश होते बारह बच्चे

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काश होते बारह बच्चे



जिस गति से आबादी बढ़ रही है, खेती योग्य जमीन सिमटती जा रही है, मशीनी युग में जब सारा काम ऑटोमेटिक होगा। आदमी की जगह रोबोट ले लेगा। मैन पावर की जरूरत नहीं रहेगी तब निश्चित जानिए देश में रोजगार के अवसर कम होंगे। अनाज सहित अन्य जिन्सो की आपूर्ति कम और डिमांड ज्यादा होगी तो फिर वितरण के लिए राशनिंग की व्यवस्था होगी। चीजों पर कंट्रोल होगा तब क्या होगा?

यह चिंता सताये जा रही है हमरे शौकीलाल जी को। नतीजा भविष्य की चिंता ने शौकीलाल जी मेें एक नये शौक का बीजारोपण कर चुका है।

इस बार शौकीलाल जी के शौक( शौक नहीं जरूरत कहिए जनाब) से अवगत होते ही आप चौंक उठेंगे। आप का चेहरा क्रोधातिरेक से विकृत हो उठेगा। आप यदि कमजोर हैं तो बिल्ली की तरह खम्भा नोचते रह जाएंगे। बहुत हुआ तो दो चार गालियां देकर चुप बैठ जाएंगे। और यदि पहलवान टाइप हुए तो आप की बांहें फड़क उठेंगी। आप शौकीलाल जी को धोबियापाट देने के लिए बेताब हो उठेंगे। परिवार नियोजन वाले तो ईंट पत्थर लेकर शौकीलाल जी पर चढ़ दौड़ेगे।

ऐसा सोना भी चाहिए। ऐसे नाजुक वक्त में जब आबादी का ज्वार-भाटा पूरी दुनिया को उदरस्थ करना चाहता है, हर सुविचार, सद्बुद्धि सम्पन्न इंसान का पसला फर्ज बनता है कि वह ऐसे विचार ,लेख, नारे का डटकर विरोध करे जो परिवार नियोजन के विरुद्ध हो।

लेकिन बेचारे शौकीलाल जी ने किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो ऐसा शौक या कामना नहीं अपनाया बल्कि इसकी बहुत जरूरत महसूस हुई उनको। सीधे सादे इन्सान शौकीलाल जी कोई विपक्षी नेता तो थे नहीं जो मौके बेमौके सरकार की नीतियों की चादर में छेद ढूँढते फिरते। राजनीति से उनके खानदान का रिश्ता कभी दूर दूर तक नहीं रहा। फिर आप हैरान होंगे कि शौकीलाल जी जैसा सुलझे इन्सान पर आखिर बारह बच्चे का बाप बनने का शौक(सनक) कैसे सवार हो गया?
आज के युग में ऐसा बेतुका शौक!

आइए, शौकीलाल जी की आपबीती सुनाकर आप की हैरानी दूर कर दूँ। बेचारे शौकीलाल जी पर संताप का जैसा पहाड़ टूटा है । उन्हें जिन विकट परिस्थितियों से दो चार होना पड़ा है , भगवान न करे कभी आप को होना पड़े।

उस दिन सोमवार था। फरवरी महीने की पांचवी तारीख। शौकीलाल जी थके हारे ड्यूटी खत्म होने पर घर आए। दरवाजे पर उनकी श्री मती जी प्रतीक्षा करती मिलीं। उनके चेहरे से परेशानी झलक रही थी। यह देखकर शौकीलाल जी शंका ग्रस्त हो गए। यहां आप जान लें कि उनकी आधुनिक पत्नी उन पत्नियों मेें से नहीं जो पति के इंतजार में पलक- पावड़े बिछाये रहती हैं। शौकीलाल जी की पत्नी तो उल्टा प्रतीक्षा करवाने, नाक रगड़वाने, तलवे चटवाने में गौरव समझती है। फिर आज इतनी अधीरता क्यों? कारण जानने के लिए शौकीलाल जी कुछ पूछते कि श्री मती जी टेप की तरह बजना शुरु कर दिया- ' कहां देर लगा दी इतनी? कब से मैं तुम्हारी राह देख रही हूं?'

-' क्या हुआ, बड़ी घबड़ाई सी दिख रही हो? सब कुशल तो है?' सब्जी का झोला पत्नी की ओर बढ़ाते हुए शौकीलाल जी ने कहा।

-' कुशल क्या खाक है। घर में कुछ है भी। तुम तो बस हजार रूपल्ली हाथ पर धर देते हो। घर कैसे चलाती हूं, यह मैं ही जानती हूं।'

-' हां सो तो है लेकिन......।'
-' लेकिन वेकिन छोड़ो। एक तो देर से आए हो , ऊपर से बातों में समय बर्बाद कर रहे हो। अब बिना देर किए राशन की दुकान दौड़ पड़ो।

पत्नी का आदेश सुनकर शौकीलाल जी सन्न रह गए। वे बीवी का मुंह ताकने लगे। भीतर भीतर कुछ कहने का साहस जुटाते रहे। लेकिन उन्हें कुछ बोलने का अवसर दिए बिना राशन कार्ड और डब्बा थैला थमाती हुई श्री मती जी बोलीं- ' मेरा मुँह क्या ताक रहे हो। जाओ जल्दी करो। वर्ना राशन दुकान बंद हो जाएगी '

आठ घंटेकी कड़ी मेहनत के बाद वैसे भी शरीर थक कर चूर हो जाता है। फिर कोयला के खदान में काम। भगवान बचाये ऐसी नौकरी से। ऊपर वाले से मौत मांग लीजिए पर खदान में काम मत कीजिए।

खदान के भीतर काम कर रहे
व्यक्ति से पूछिए कि ड्यूटी से आने के बाद उसकी हालत कैसी होती है। आदमी भूत सा दिखता है। अपादमस्तक कोयले की धूल पसीना और कीचड़ से पुता होता है।

यहां इतना जान लीजिए आजकल शौकीलाल जी खदान के अंदर काम करवाने वाले ठेकेदार के अधीन काम कर रहे हैं। रोटी के लिए यह सब करना ही पड़ता है।

शौकीलाल जी उस वक्त कोलडस्ड, तेल ग्रीज पसीना कीचड़ से बुरी तरह पुते हुए थे। जरा सोचिए, ऐसी स्थिति में कोई कैसे राशन दुकान जा सकता है? उस समय दुश्मन भी होता तो उनकी स्थिति देखकर पिघल जाता लेकिन उनकी श्री मती को क्या कहा जाए। शायद उनका अवतरण ही शौकीलाल जी की छाती पर मुंग दलने के लिए हुआ है।

- ' सुनो जी, क्या सोचने लगे? मैं कह रही हूँ न जाओ जल्दी। वर्मा जी कब का सारा सामान ले आए। शर्मा जी भी अब वापस आते होंगे। साहु जी भी गए हैं। आज आखिरी दिन है। कल न चीनी मिलेगी, न किरासन तेल। समझे? बजाते रहना झुनझुना।'

श्री मती जी के स्वर में बला की कठोरता थी। वे बुरी तरह खीझ गई थीं। शौकीलाल जी ने ठंडी सांस ली और थके कदमों से वापस हो लिए। बेचारे करते भी क्या? हर समझदार पति ऐसे अवसरों पर ऐसा ही करता है।

शौकीलाल जी के आवास से दस कदम की दूरी पर प्रसाद जी रहते हैं। संकट की इस घड़ी में प्रसाद जी से सहायता मिलने की उम्मीद थी। इसीलिए शौकीलाल जी प्रसाद जी के घर गए। वे बरामदे मेें बैठे दिख गए।

प्रसाद जी परियोजना कार्यालय में तृतीय श्रेणी के लिपिक हैं। उनका कुनबा काफी लम्बा सै और आय सीमित। ऊपरी स्रोत तो बिल्कुल ड्राई है। बस तनख्वाह की गिनी गिनाई रकम से परिवार की डबल डेकर गाड़ी चलती है। इसलिए हमेशा तंगी रहती है। शौकीलाल जी वक्त बेवक्त प्रसाद जी की जरूरतें पूरी करते रहते हैं। यही कारण है कि उनके बीच संबंध मधुर बना रहता है।

हां, एक बात पर उनमें कभी कभार बहस छिड़ जाया करती है । प्रसाद जी औलाद वृद्धि को ईश्वर का वरदान मानते थे और शौकीलाल जी अभिशाप। शौकीलाल जी के लाख समझाने के बावजूद प्रसाद जी साल दर साल वंशवृद्धि में जुटे रहे। परिणाम सामने है- प्रसाद जी का घर खेल का मैदान बन चुका है। बच्चों की क्रिकेट टीम तैयार हो चुकी है । मियां बीवी उनके आगे पीछे अम्पायर बने भागते फिरते हैं।

शौकीलाल जी जिस समय प्रसाद जी के घर पहुँचे, वे अपने चिर परिचित परिधान अर्थात फटी हुई बनियान और मैली चीकट लुंगी धारण करके कोई पुरानी सी पत्रिका के पन्ने पलट रहे थे।

शौकीलाल जी को देखते ही बोले-' आइए शौकीलाल जी, पधारिए। काम से छुटकर सीधे यहीं आ रहे हैं क्या? घर नहीं गए। ठेकेदार खूब ओवर टाइम दे रहा है आप को। कर लो कमाई भैया। भर लो झोली। अपनी तो साली किस्मत ही खोटी है। दफ्तर में पड़ा पड़ा सड़ रहा हूं।'

शौकीलाल जी जानते थे, इस तरह नाक बजाने की उनकी पुरानी आदत है। इसलिए वे बीच मेें बोल पड़े-' नहीं प्रसाद भाई ऐसी बात नहीं। मैं अपने क्वार्टर से ही आ रहा हूं।'

-' वाह फिर ऐसी भी क्या जल्दी थी? फ्रेश व्रेश हो लेते तब आते।'
-' अरे क्या कहूं प्रसाद जी? जैसे ही काम से वापस आया श्री मती हाथ धोकर पीछे पड़ गईं। डब्बा, थैला थमा कर उल्टे पांव लौटा दिया। शायद राशन दुकान आज तक ही खुली रहेगी। कल से स्टाक निल का बोर्ड लटक जाएगा।'
-' यह बात तो सही है।' प्रसाद जी बोले।

-' कहां है आप का डब्बू? कहीं दिख नहीं रहा।' शौकीलाल जी इधर उधर देखते हुए बोले-' सोचता हूँ उसे लाइन में थोड़ी देर खड़ा कर मैं थोड़ा फ्रेश हो लूं। देखिए न, कैसी हालत है मेरी? ऐसी हालत में मैं बाजार कैसे जा सकता हूं?'

शौकीलाल जी का मंतव्य जानकर प्रसाद जी पहले सकपकाये, फिर बोले-' डब्बू? वह तो राशन दुकान ही गया है। चीनी वाली लाइन में सुबह से खड़ा है।'

शौकीलाल जी फिर भी निराश नहीं हुए। बोले-' डब्बू नहीें है तो क्या हुआ? झब्बू, लब्बू, रिन्टु, मिन्टु, पिन्टु कोई तो होगा?'

प्रसाद जी के सूखे होठों पर मुस्कान की रेखा खिंच आई। शौकीलाल जी की परेशानी देख उन्हें परम शांति मिल रही थी। आंखों में व्यंग्य का भाव समेटे उन्होंने कहा-' झब्बू, लब्बू, रिन्टु, पिन्टु कोई नहीं है। झब्बू किरासन तेल के लाइन में, रिन्टु गेहूँ की लाइन में, पिन्टु चावल की लाइन में और मिन्टु ........।'

इससे आगे सुनने का धैर्य शौकीलाल जी मेें नहीं था। बीच में ही उन्होंने रोक दिया-' खैर लड़के नहीं, बेबी तो घर पर होगी। उसे ही बुला दीजिए।'

-' कौन कमला, विमला? वे दोनों भी नहीं हैं। भाइयों का खाना लेकर राशन दुकान गई हैं। अभी तक वापस आईं नहीं।' प्रसाद जी आराम से लेटते हुए बोले। उनके चेहरे पर सुख की ऐसी लहर शौकीलाल जी ने पहले कभी नहीं देखी थी। वे अंदर ही अंदर जल उठे। प्रसाद जी आज शौकीलाल जी को सबसे सुखी इन्सान दिख रहे थे। यही ओ नाजुक घड़ी थी जब शौकीलाल जी के दिल से आवाज आई-' काश, मेरे भी बारह बच्चे होते।'

आशा का आखिरी बुलबुला को बिलाते देख शौकीलाल जी खीझ उठे। प्रसाद जी के घर से निराश होकर लौटते वक्त शौकीलाल जी को ऐसा महसूस हुआ मानो प्रसाद जी की आंखें उनकी पीठ पर धंस गई हों और वे व्यंग्य कर रहे हों-' देखा बर्खुर्दार, बड़ी शेखी बघारते थे। देख लो अधिक बच्चा पैदा करने का मजा। मैं आराम से बैठा खाट तोड़ रहा हूं और तुम.......।

सड़क पर आकर शौकीलाल जी देर तक भटकते रहे। उन्हें खुद पर गुस्सा आ रहा था। जी कर रहा था- बाल नोच डालें, कपड़े फाड़ डालें। हाथ के डिब्बे, थैले को फेंक कर कहीं भाग जाएं।

उस दिन तो जैसे तैसे राशन का प्रबंध हो गया। लेकिन तब से लेकर आजतक चीनी तेल के चक्कर में क्या क्या सितम नहीं झेला शौकीलालवजी ने। क्या क्या नहीं सहा। उनकी जिंदगी राशन की लाइन में खड़े होने में कट रही है। जीवन का स्वर्णकाल राशन जुगाड़ काल में तब्दील हो गया है ।

लाख चौकस चौबंद रहने के बावजूद उन्हें कभी चीनी नहीं मिलती तो कभी किरासन तेल। कभी गेहूँ नहीं ले पाते तो कभी चावल से हाथ धो बैठते। उधर प्रसाद जी बच्चों को राशन की लाइन में झोंक कर खुद टूटी खाट पर चैन की झपकी लेते रहते।

प्रसाद जी का सुख चैन देख शौकीलाल जी आह भरते रहते। ऊपर वाले से हाथ जोड़कर बिनती करते रहते - ' हे ईश्वर, मुझे बारह बच्चे का पिता बना दे। बारह मुन्ने से भर दे आंचल मेरी बीवी के।'

शौकीलाल जी की यह अप्रिय कामना सालो साल उनके होठों के डिब्बे में बंद रही। किसी के सामने प्रकट करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। सुनकर लोग क्या कहेंगे? क्या सोचेंगे? श्री मती को पता चलता तो धाराप्रवाह खरी खोटी का रामायरण पाठ शुरू कर देती ।

एक दिन जब उन्होंने अखबार में पढ़ा कि देश के अधिकांश मंत्रियों, सांसदों को कई-कई मुन्नो के पिता होने का गौरव प्राप्त है । कई तो आठ नौ के आंकड़े कब के पार चुके हैं। तब उनमें साहस का संचार हुआ और उनकी बारह बच्चों की कामना शौक में बदल गई।

अब तो अपने इस शौक के बारे मेें लोगों को सरेआम बताते हैं। बारह बच्चों के शौक ने शौकीलाल जी को सुर्खियों में ला दिया है। वे पत्रकारों के घेरे में आ चुके हैं। उनके तीखे सवालों के बाणों से घायल हुए बिना वे अपना तर्क रखते हैं-' बारह संतान की चाह न राजनैतिक अपराध है न सामाजिक। आखिर लोकतंत्र में हमारा हक भी है। जब हमारे नेता मंत्री दूर की सोच सकते हैं तो हम क्यों नहीं सोच सकते? हम क्यों नहीं भविष्य में आने वाले खतरे के सामना करने की तैयारी शुरू कर सकते?'

-' मैं देख रहा हूँ, आमलोगों की भृकुटी अबतक तनी हुई है। आप सबों की वफादार सोच मुझे, मेरी चाहत, मेरे शौक को धिक्कार रही है। आप चाहे मुझे जीभर कर धिक्कार लें लेकिन मेरी एक बात गांठ बांध लें। आज नहीं तो कल आप भी बारह बच्चों की कामना करने लगेंगे। क्योंकि वह दिन दूर नहीं जब महंगाई, अनाजों की कमी, रोजगार आदि की किल्लत की अदरखी पंजे आप के ईर्द-गिर्द फैल जाएंगे। आप लाख कोशिश करें लेकिन पंजों के गिरफ्त से बच नहीं पाएँगे।

बाजार से सारे जरूरी सामान गदहे के सिंघ बन जाएंगे। रह जाएगी केवल कंट्रोल की दुकानें जहां होंगी लम्बी कतारें। तब आप के सारे आदर्श दम तोड़ देंगे।

आप खुद को असहाय और अकेला पाएंगे। आप को कभी चीनी मिलेगी तो गेहूँ नहीं। किरासन तेल मिलेगा तो चावल नहीं। वक्त है, चेत जाइए। प्रकृति का दोहन बंद कीजिए। खेतिहर जमीन से किसानो को बेदखल मत कीजिए। गांवों की तरफ देखिए जहां से आप के लिए रोटी का जुगाड़ होता है। वर्ना ये बड़े बड़े मॉल, कारखाने एक दिन आप को उदरस्थ कर लेंगे।
मैंने यों ही बारह बच्चे की कामना नहीं की है।'

सारे पत्रकार सिर झुकाए चले जा रहे थे।⛤

✍कृष्ण मनु
9939315925