सत्या 28
देश में उन दिनों बेटों की चाहत में बेटियों की भ्रुण-हत्या का दौर था. सविता ने भी कहा था कि उसे बेटा ही चाहिए. उसका कहना था कि एक सुखी परिवार के लिए बेटियाँ ही नहीं क़ाबिल बेटों की भी ज़रूरत है. वह अपने बेटे को एक अच्छा इन्सान बनाना चाहती थी, ताकि वह अपने परिवार और समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी ठीक ढंग से निभा सके. वरना बस्ती में तो ज़्यादातर महिलाएँ ही घर संभाल रही थीं.
इसके लिए उसने सत्या से आशिर्वाद भी लिया था. सत्या ने आशिर्वाद तो दिया, पर उसके अंदर का दर्द भी छलक पड़ा था. हँसते हुए वह बोला था, “लड़के को क़ाबिल बनान इतना आसान भी नहीं है सविता. सावधान रहना, कहीं हाथ से निकल न जाए.”
भाग्य से उसे बेटा ही हुआ.
शाम ढलने को थी. सविता अपने मुन्ने को गोद में लिए घर से बाहर निकली. मीरा अपने घर की गेट पर खड़ी थी. सविता को देखकर वह मुस्कुराई. सविता ने कहा, “आज इनका ऑफ है. जुबिली पार्क जा रहे हैं. बाहर से खाकर लौटेंगे.... आंटी को बाई-बाई बोलो बेटा, बाई-बाई.”
शंकर ने स्कूटर निकाली और उसे स्टार्ट करने लगा. तभी सत्या अपने स्कूटर पर वहाँ पहुँचा. मीरा बच्चे को हाथ हिलाकर बाई-बाई कर रही थी. सत्या ने पूछ लिया, “घूमने जा रहे हो शंकर भाई?”
शंकर, “आप भी चलिए ना सत्या बाबू.”
सविता ने झट से कहा, “हाँ-हाँ, चलो न मीरा. तुम तो कहीं निकलती ही नहीं. जल्दी से तैयार हो जाओ और बच्चों को भी तैयार कर लो. हम इंतज़ार करते हैं.”
सत्या ने आशा भरी नज़रों से मीरा की ओर देखा. मीरा ने इन्कार में सिर हिला दिया, “नहीं-नहीं, आप लोग जाईये. बच्चों को पढ़ना है. एक्ज़ाम सर पर है.”
सत्या ने मायूसी भरी मुस्कान के साथ सविता और शंकर को देखा. सविता बच्चे को लेकर स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ गई. शंकर स्कूटर आगे बढ़ा ले गया. सत्या के मुँह से निकला, “शंकर कितना बदल गया है न?”
मीरा ने जवाब दिया, “सविता बता रही थी कि शंकर सविता पर किए गए जुल्म के अपराध-बोध के कारण बुरी तरह आहत है और अपनी पत्नी पर अपना प्यार लुटाकर
वह अपने ही दुख से उबरने की कोशिश कर रहा है.”
सत्या काफी देर ख़ामोश रहा. फिर बोला, “आप अपने अपराध-बोध से उबरने की कोशिश क्यों नहीं करतीं? ....... आपका मन नहीं करता है कि कभी बच्चों के साथ पार्क घूम आएँ, सिनेमा देखें, पिकनिक पर जाएँ या घर में ही कोई जश्न का बहाना निकालें?”
“नहीं,” मीरा ने सपाट स्वर में कहा और घर के अंदर चली गई.
लेकिन सत्या की ज़िंदगी में केवल मायूसी ही नहीं थी. मीरा का पढ़ने के प्रति लगाव और खुशी का स्कूल का रिज़ल्ट उसे हमेशा नए उत्साह से भर देता था. खुशी ने इधर दसवीं की परीक्षा के लिए रात-दिन एक कर रखा था, तो मीरा भी ग्रैजुएशन की अपनी परीक्षा की तैयारी में जुटी हुई थी. घर में टी. वी. चलाने की मनाही थी. रोहन अपने दोस्तों के साथ ज़्यादा समय लगा रहता था. कुल मिलाकर घर में शांति बनी रहती थी.
और फिर दसवीं के रिज़ल्ट का दिन भी आ गया. पता नहीं कैसे मीडिया को सबसे पहले ख़बर लग गई और पत्रकारों और फोटोग्राफरों का एक बड़ा दल मॉडर्न बस्ती का पता पूछता हुआ आ गया.
कई पत्रकारों और फोटोग्राफरों ने खुशी और मीरा को घेर लिया. बस्ती के लोगों की भीड़ के साथ सत्या पीछे खड़ा था. चेहरे पर मुस्कान थी. फोटोग्राफर तड़ातड़ फोटो खींच रहे थे. एक पत्रकार ने माईक आगे करके मीरा से पूछा, “आपकी बेटी ने पूरे जिले में टॉप किया है, आपको कैसा लग रहा है?”
मीरा फूली नहीं समा रही थी, “बहुत अच्छा लग रहा है. हम बहुत खुश हैं.”
मुखिया से भी नहीं रहा गया. वह आगे आकर बोला, “हम इस बस्ती का मुखिया हैं. हमको बहुत फखर है कि हमारी बस्ती की एक बेटी जिला में टॉप की है और एक बेटा शहर के सभी स्कूलों में टॉप किया है..... बिसाल बेटा इधर तो आओ.”
विशाल अपनी माँ और पिता के साथ आकर खुशी की बगल में खड़ा हो गया. फिर से फोटो खींचे गए.
दूसरे पत्रकार ने पूछा, “इस बस्ती से इस साल कितने बच्चे दसवीं की परीक्षा में बैठे थे?”
मुखिया ने जवाब दिया, “टोटल सात बच्चे और सातों फर्स्ट डिबीजन में पास हुए हैं.”
फोटोग्राफर ने आवाज़ लगाई, “सातों बच्चे यहाँ आकर खड़े हो जाएँ. सबके फोटो लेने हैं.... हाँ-हाँ चलो, इधर लाईन से खड़े हो जाओ.”
फोटो खींचने का दौर शुरू हो गया. पहले ग्रुप में. फिर अपने माँ-बाप के साथ. बच्चे को अपने हाथ से मिठाई खिलाती हुई माँ की फोटो. फोटो खींचने के बाद फिर से सवाल-जवाब शुरू हुआ.
पहले पत्रकार ने पूछा, “हाँ तो खुशी जी, आप अपनी सफलता का श्रेय किसको देती हैं?”
“माँ और चाचा को.... चाचा-चाचा सामने आईये ना.... वो हैं मेरे सत्या चाचा.”
सत्या ने लोगों के पीछे छुपने की कोशिश की. लेकिन लोगों ने उसे ढकेलकर सामने कर दिया. उसे देखते ही पत्रकारों ने उसे पहचान लिया. पहला पत्रकार बोला, “अरे पाल साहब, आप यहाँ रहते हैं? ये आपकी भतीजी है?”
फोटोग्राफर ने फिर से कैमरा संभाला, “आईये सर, पास में खड़े हो जाईये. एक फोटो ले लें..... हाँ अब ठीक है.”
दूसरा पत्रकार पूछने लगा, “खुशी जी, अब दसवीं के बाद आगे क्या करना है? डॉक्टर बनना है या इंजीनियर?”
खुशी, “बनना तो चाहती हूँ इंजीनियर. लेकिन माँ पढ़ा नहीं पाएँगी.”
सत्या ने बीच में टोका, “कैसी बातें कर रही हो? ये जो पढ़ना चाहेगी पढ़ेगी. आप लोगों को एक और ख़बर देता हूँ. खुशी की माँ मीरा देवी भी इसी साल ग्रैजुएशन की परीक्षा लिख रही हैं.”
सुनकर पहला पत्रकार खुश होकर बोला, “मां-बेटी दोनों पढ़ाई कर रही हैं? यह तो बड़ी ख़बर है. इस बस्ती से आज तक हमलोग अनजान कैसे थे?.... अरे मुखिया जी, जरा सामने आईये... ये क्या जादू कर दिया है आपने इस बस्ती में?”
मुखिया के चेहरे की मुस्कुराहट और भी चौड़ी हो गई, “हम हमेसा सबको पढ़ने के लिए बोलते रहते हैं. आपको जानकर आश्चर्ज होगा कि इस बस्ती में कोई दारू को हाथ भी नहीं लगाता है. लेकिन बच्चों को पढ़ाने का सारा काम हमारे सत्या बाबू किए हैं. जबसे हमारा बस्ती में आए हैं सिक्षा का अलख जगा दिए हैं.”
पहले पत्रकार के मुँह से निकला, “यहाँ तो बहुत न्यूज़ मटीरियल है. आप सभी लोगों
से एक-एक करके बात करनी होगी... आईये सत्या बाबू आपसे शुरूआत करते हैं.”
रतन सेठ की दुकान पर लोगों की भीड़ लगी थी. रतन सेठ अख़बार खोलकर पढ़ रहा था, “मॉडर्न बस्ती में मिले गुदड़ी के लाल..... खुशी कुमारी जिला की टॉपर... विशाल शहर का टॉपर....एस. डी. ओ. कार्यालय में काम करने वाले एक समाज सेवी सत्यजीत पाल ने बस्ती का नक्शा बदल दिया.....,” पढ़ते-पढ़ते रुककर रतन सेठ ने कहा, “ये बात तो बारा आना सच है. जबसे सत्या बीबू आए हैं, बस्ती का भाग्य जाग गया है.”
उस दिन बस्ती में जिसके हाथ में देखो अख़बार था. बच्चों के साथ-साथ कुछ
बस्तीवालों के चेहरे भी पीछे से झाँकते हुए दिख रहे थे. इन अख़बारों को वे सहेज कर बरसों अपने पास रखने वाले थे.
बस्ती में ऐसा जश्न का माहौल कभी देखा नहीं गया था. मिठाईयाँ बँट रही थीं. लोग ढोलक की थाप पर छोटे-छोटे झुँडों में नाच-गा रहे थे. एक दूसरे को गले लगकर मिल रहे थे. बधाईयाँ दे रहे थे. यहाँ तक कि दूसरे मोहल्लों और बस्तीयों से भी लोग जश्न में शामिल होने आ पहुँचे थे.
सत्या इस समय अपने ऑफिस में था. साहब के बुलाने पर वह उनके कक्ष में गया. पिछले कई वर्षों में पाँच साहब आए और गए. अभी छठवें साहब अख़बार खोले बैठे थे. सत्या को देखते ही बोले, “आपको बधाई हो पाल जी. बहुत आच्छा काम कर रहे हैं. इसकी प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?”
सत्या ने सकुचाते हुए कहा, “मैंने ज़्यादा कुछ नहीं किया सर. बस थोड़ा सा गाईड कर दिया.”
“आपकी नम्रता से मैं प्रभावित हुआ..... आपको यहाँ काम करते हुए कितने साल हुए?”
“जी दस साल होने को आए.”
“हूँउउउ.... मैं देखता हूँ आपके प्रोमोशन के लिए मैं क्या कर सकता हूँ.”
“जी, धन्यवाद सर.”
“वैसे आपके बच्चे पढ़ाई में कैसा कर रहे हैं? किस क्लास में पढ़ते हैं?”
सत्या बोलने में हकला गया, “जी...जी जी, अभी मैंने शादी नहीं की.”
आश्चर्य से साहब ने पूछा, “क्या, अभी तक शादी नहीं की? कितनी उम्र हो गई है आपकी?”
“जी हमारी कम्यूनिटी में देर से शादी का प्रचलन है.”
आईने के सामने खड़ा सत्या चमकती आँखों से कागज़ के उस टुकड़े को देख रहा था जिसको पीछले सात वर्षों में उसने कई बार चिपकाया और कई बार हटाया था. हाथ बढ़ाकर इस बार उसने उसे इस तरह निकाला जैसे आख़िरी बार निकाल रहा हो. फिर आईने में अपने आप से वह बातें करने लगा, “अब तो हमसे नाराज़ नहीं हो न गोपी बाबू. हमसे जो हो पा रहा है, कर रहे हैं. रोहन भी ज़रूर अच्छा करेगा, तुम देखना.”