इस दश्त में एक शहर था
अमिताभ मिश्र
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तिक्कू चाचा लेटे हुए अपने ब्याह को देख रहे थे। तभी उन्हें जोर की पेशाब लगी, अपनी समझ में वे उठे अपने शरीर को उठाया और बाथरूम तक पहुंचे और कर दी पेशाब। पर वे वास्तव में कहीं नहीं गए या जा पाए दरअसल उनके दिमाग और शरीर का तालमेल नहीं रह गया था और उन्होंने यह सब मान लिया था नतीजतन उन्होंने पूरा बिस्तर गीला कर दिया था और इसी के साथ वे ब्याह से बाहर आ गए थे और हमेशा की तरह चिलला उठे थे
”लप्पू ओ लप्पू ये बिस्तर क्या कालिका प्रसाद साफ करेंगे।“ कालिकाप्रसाद यानि तिक्कू के बाप। लप्पू यानि तिक्कू का बेटा। जिसे उन्होंने होशोहवास में आठ साल का देखा है आज वो बीस साल का हो रहा था पर तिक्कू की दुनिया वहीं अटक गई थी जहां लप्पू आठ साल का था और मिंटी दस साल की और इसके अलावा चिंकी गुजर ही चुकी थी। अब इस बात को पन्द्रह साल हो चुके हैं। वे लप्पू को नहीं पहचान पाते हैं और मिंटी को न पाकर परेशान हो जाते हैं दरअसल उसकी तो शादी हो चुकी है।
पर अब वे और पीछे जाते हैं जब इस शहर का यह इलाका उनकी सल्तनत था। जब जिसे चाहा पीट दिया। सामने की खोलियों वालों से अपना सारा काम करवा लिया। मौज मस्ती और क्या। उन्हें याद आए गज्जू भैया के साले की । एक शादी में वे आए थे और बड़ी सी चोटी रखे थे। मूलतः तो वे उत्तरप्रदेश के बांदा जिले के सराय गांव के थे पर नौकरी के सिलसिले में ग्वालियर बस गए थे। उन्होंने इन्दौर वालों की और खास तौर पर पीलियाखाल वालों की ख्याति सुन रखी थी कि वे सब नंबरी हैं और किसी को भी ठिकाने लगााना उनके लिए बांए हाथ का खेल था पर वे भी ग्वालियर के थे। उन्होंने अपनी चोटी संभाली हुई थी और उसी दौरान किसी ने छेड़ा ”मामा तुम्हाई चोटी कौनौ काट लैहे।“
मामा आ गए लपेटे में। उन्होंने चोटी को हाथ में लेकर रस्सी की तरह उमेठते हुए कहा ”कऊनो हमरी चोटी काटे तो जाने।“ ऐसा वे कई बार करते रहे। अंततः तिक्कू से न रहा गया। इस बार ज्यूं ही मामा ने अपनी चोटी तानी और कहा कि ”कऊनो हमरी चोटी काटे तो जाने “ वैसे ही तिक्कू ने कैंची से चोटी कच्च से काट डाली। काटे तो जाने के साथ ही चोटी उनके हाथ में उन्हीं की चोटी उनकी आंखों के सामने थी। बैठे बैठे तिक्कू मुस्कुरा दिये। उनकी यादों का सिलसिला चलता रहा वे सिर्फ यादों में ही बसर कर रहे थे। बीच बीच में ज्योत्स्ना उन्हें कभी खाना दे देती कभी लप्पू उनकी दाढ़ी बना देता और पन्द्रह बीस दिनों में नहला देता। उन्हें कुछ समझ नहीं आता। । वे एक कद्दावर किसम के इंसान रहे। जैसा चाहा वैसा किया। जैसी तबियत हुई वैसा जिया। किसी भी चीज से कोई परहेज नहीं किया न खाने में न पीने में न रहन सहन में न रिश्ते बनाने में। वे उस समय डाॅक्टर बने थे जिस समय में काफी इज्जत थी बावजूद सारे धंधे के। यह शहर उतना व्यापारी नहीं था या बाजारू नहीं थ कि आज की तरह हर घर बाजार में तबदील हो जाए और हर कुछ बिकाऊ हो चीजों से लेकर आदमी तक। गुण धर्म ईमान भी। अब तो यह शहर एक अजीब सी दौड़ में शामिल है व्यापार व्यवसाय में, अपराध में, भ्रष्टाचार में, लूटपाट में। ये समय हर तरफ तोड़ फोड़ का है हालांकि उस दौर में भी तिक्कू समय से काफी आगे चल रहे थे। वे निश्चिंत हरफनमौला किसम के व्यक्ति थे। पढ़ाई लिखाई में ठीक ठाक दिमाग बहुत तेज था। ग्यारहवीं और इंटर बेरोकटोक किया पर मेडीकल कालेज में अटक गए। पांच साल का कोर्स चौदह साल में किया या अंततः करवाया गया। उनके साथ के जो पढ़े या उनसे भी जूनियर जिनकी उन्होंने रैगिंग ली थी वे उनके प्रोफेसर थे पढ़ाते थे। कालेज उन्हें रास आ गया था। सफेद कोट पहने गले में स्टेथो लगाए उन्होंने सालों गुजार दिए उनका बस चलता तो सारी जिन्दगी वे यूं ही गुजार सकते थे पर ये हुआ नहीं आखिर कब तक पढ़ाते कालेज वाले उन्होंने उन्हें पास करके निकाल ही दिया वे चौदह बरस रेकार्ड बना कर ही एम बी बी एस डाॅक्टर बने इस दौरान कितनी लड़कियों से उनके प्रेमप्रसंग चले होंगे ये याद नहीं। अब तो वे सब कन्याएं विवाह कर अपने अपने घरों की लक्ष्मियां बनीं हुई हैं।
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