Tatiya - 3 - last part in Hindi Moral Stories by Nasira Sharma books and stories PDF | ततइया - 3 - अंतिम भाग

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ततइया - 3 - अंतिम भाग

ततइया

(3)

”नहा-धोकर भोर में ही तैयार हो जाया कर, सारा दिन लोग आते-जाते हैं, अच्छा नहीं लगता बहू !“
शन्नो उल्टे पैर कोठरी में वापस चली गई। बारिन का चेहरा पीला चड़ गया। सिल्लो ने गटागट पानी पीया फि़र बोलीµ
”चल री सहजो, तुझसे अच्छा वकील कोई नहीं हमारा---तू हराएगी उस ससुरे गिध को जो बात-बेबात बखेड़ा खड़ा कर रहा है।“
”चलती हूँ,“ भरी आवाज़ में बारिन बोली। उसके तेवर तो टूटकर गिर चुके थे। मन में प्रश्न उठ रहा था कि वह तो बूढ़ा खूसट गिध है और तू क्या है सहजो
---डायन, ततइया मंथरा या फि़र---किस मुँह से जाएगी तू किसी अबला की वकालत करने | जब अपना घर न सँभाल सकी तो अपने तरकश के तीरों से कौन-सा निशाना साधेगी |
”तू ऐसी पत्थर की मूरत क्यों बनी बैठी है | कुछ घटा है क्या | कहीं बहू
से---|“ सिल्लो कुछ टटोलती-सी बोली।
”अरे मेरे घर क्यों कुछ ऐसा-वैसा होने लगा | बस ज़रा बहू का जी उलटा- पुलटा है सो सोच रही थी कि उसे यूँ छोड़कर जाना---“
”सोचना-बिचारना क्या है | बहू के आगे बेटी बिसरा दोगी | उसका तो सब कुछ दाँव पर लगा है---बस उठ, धोती चाहे तो बदल ले।“ कहती हुई सिल्लो महाराजिन खड़ी हो गई, उसी के साथ यु)वीर की माँ भी और चलते समय उसे कहना पड़ाµ”यह पत्ते समेट लेना, मैं लौटकर आती हूँ।“

बारिन जब सिल्लो के घर के झमेले को सुलझाकर लौटी तो कुछ परेशान-सी रही है। उसे बार-बार एक ही प्रश्न उठा-पटक रहा था कि औरत की सही दुर्दशा कहाँ से शुरू होती है, कोई घटना घटने से या फि़र उस सारे कांड के निबट जाने के बाद | अर्थात् जब उसे घर निकाला मिलता है या फि़र---वह घर में रहकर प्रताड़ित बनी रहती है। खीजलाई जीव की तरह दुतकारी |
यु)वीर के पिता का जब देहांत हुआ था तो उसके बाद वही तो कमाने वाली बची थी। दोने-पत्तल ले इस हलवाई की दुकान से उस हलवाई की दुकान पर जाते हुए क्या उसे सब माँ-बहन ही समझकर ताकते थे |
”अरे यु)वीर की माँ, कहाँ हो |“ सत्तो अपनी ढोलक रखते हुए बोली।
”राम राम, सत्तो बहन, आओ बैठो।“ कहती यु)वीर की माँ सत्तो को अंदर ले गई।
”तय हुआ रहा कि दशहरे बाद करोगी पूजा-संगीत, मगर अब तो दीवाली आय रही है। का बात हुई, सब कुशल-मंगल है न |“
”बीमारी कह के थोड़ी आती है। इधर ज़रा सब का शरीर ढीला रहा, उसी में भूल गई तुम्हें न्यौता भेजना !“
”फि़र अब कब सोचे हो |“
”बताते हैं पहले कुछ जलपान तो करो।“
”बताशे वाली गली से पैदल आ रहे हैं, सोचा दम लेकर आगे बढ़ें, पैर तो समझो---बहू कहाँ है दिख नहीं रही है |“ अंदर आकर पैर फ़ैलाती सत्तो इधर-उधर देख एकाएक बोली।
”अंदर लेटी है, जी अच्छा नहीं है !“ बारिन ने प्रश्नों का सिलसिला वहीं यह कह कर समाप्त कर दिया।
सत्तो के जाने के बाद बारिन उदास हो गई। जैसे घर आई खुशी के लिए उसने किवाड़ उढ़का दिए हों। आखि़र वह यह सब क्यों कर रही है | दूसरों के लिए लड़ती है मगर अपनी---उसके अंदर न्याय का यह दोहरा मापदंड क्यों | कहीं वह अपने को सास समझ कर आँखों पर पट्टी तो नहीं बाँधे हुए है | शन्नो का दुःख उसे क्यों नहीं दिखता और उसके लिए वह व्याकुलता अपने अंदर नहीं पाती है जो गीता के लिए उभरी थी। क्या वह यह सब अपने प्रदर्शन के लिए तो नहीं करती है कि वह बड़ी न्यायवाली दयालु आत्मा है | पूरी बिरादरी की मुखिया बनने में उसको आत्मसंतुष्टि मिलती है। औरतों की वकालत करते हुए कहीं उसे अपना महत्त्व जान पड़ता है या फि़र---शन्नो को लेकर वह इतनी निष्ठुर क्यों हो गई है | कहीं उस घटना का सारा आक्रोश अनजाने में शन्नो पर ख़ाली कर अपने अपमानित-आहत मन का बदला तो नहीं चुका रही है |
सारे दिन बारिन बहकी-बहकी रही। तवे पर रोटी डालती तो उलटना भूल जाती। दूध उबलकर गिरने लगता तो उसे उतारने की सुध न रहती। बस आँखों के सामने रात की घटना डूबती-उतराती रही। राम-राम राधेश्याम का जाप करने पर भी उसकी बदहवासी में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। यु)वीर के जाने के बाद उसने संदूकची खोली फि़र बंद कर दी। छोटी कोठरी के दरवाज़े तक गई मगर उल्टे पैर वापस लौट आई। काम में दिल नहीं लग रहा था। पत्तों के गट्ठर खोले नहीं। एक बार मन किया पड़ोस में ललाइन के घर जाकर बोल-बतिया कर दिल हल्का कर ले। फि़र मन मसोस कर बैठ गई। हाथ मलते हुए मन ही मन बुदबुदाईµ
”दूसरों के लिए लड़ना कितना सरल है री सहजो, मगर जब स्वयं पर बनती है, तो सब कैसा कठिन-जटिल लगता है |“

शन्नो की भूख-प्यास तो उसी दिन से उड़ चुकी थी। सास की पटकी थाली से एक-दो कौर बड़ी मुश्किल से गले के नीचे उतारती और जो सास के पैर की आहट लगती तो वह सहमकर अपने अंदर सिकुड़ जाती। उसे न सास का बदला बर्ताव समझ में आ रहा था, न अपनी गलती। उसे तो विश्वास था कि सास उसे लिपटा कर रोएगी, प्यार करेगी, उस अभागे दानव को कोसते हुए उसकी कलाई में लेप लगाएगी, मगर---उसकी आँखों में पल-भर कौंधी खुशी बहुत जल्द व्यंग्य-बाण में परिवर्तित हो गई। अब वह क्या करे | उसका क्रोध कैसे शांत करे---घर के काम में हाथ नहीं लगाने देती, सेवा करने जाती हूँ तो पैर खींच कर दुत्कार देती है---।
रात-भर अजीब सपने आते जबकि बात सिफ़ऱ् इतनी थी कि वह शराबी कुछ दूर जाकर ठोकर लगने से गिर गया था। मस्त पहले से था। गिरा तो होश में न रहा। अपनी कलाई को सहलाती वह तेज़ी से पलटी थी तभी जवान लड़कों का एक झुंड गाली बकता, हँसी-मज़ाक करता वहीं ख़ाली दुकानों के चबूतरे पर बैठ गया था। वह किसी तरह पान के खोखे के पीछे छुप गई थी। कितनी देर तक वह साँस रोके रही थी। जब वे लड़के आगे बढ़ गए तो उसकी जान में जान आई थी। एक-दो रिक्शे सवारी बिठाए फ़र-फ़र निकल गए थे। वह उन्हें रोक नहीं पाई थी। जब उसकी शक्ति जवाब दे गई तब उसे साइकिल पर आता कोई दिखा था। वह कोई और नहीं यु)वीर था।
”बस, बस रोओ मत, डरने की क्या बात है---अब मैं आ गया हूँ।“ वह यु)वीर से लिपटकर फ़फ़क पड़ी थी। निराश यु)वीर उसे पाकर निहाल हो गया था। नाली में औंधे पड़े उस आदमी को वह पहचान गया था। सारी बातें सुन यु)वीर शन्नो को दिलासा दे साइकिल पर बिठाकर बोला थाµ
”माँ राह देख रही है। तुझे देखकर खुश हो जाएगी---अब घर चलते हैं।“ साइकिल के पैडल पर पैर घुमाता यु)वीर किसी विजयी की तरह बोला था। उसके मन में उत्साह का अथाह समंदर हिलोरें ले रहा था।
सप्ताह दबे पैर गुज़र गया। शन्नो उस काल कोठरी में सज़ा झेलती सोच रही थी कि वह मर जाती तो कितना अच्छा होता ! भूख, मतली, शरम और ऊपर से हर रात उस शराबी का सपना उसे भयभीत किए रहता था। वह हर सुबह इंतज़ार करती कि शायद माँ उसे आवाज़ देकर बुलाए और रात यु)वीर उसके पास आकर उसे इन सपनों से मुक्त कराए। मगर वे दोनों तो अपने-अपने रणक्षेत्र में थे। उन्हें क्या पता था कि किसी को उनकी कितनी सख़्त ज़रूरत थी !

सोना चुड़िहारिन के घर आज छट्टी थी। सहजो बारिन का भी न्यौता था। अकेले जाने पर सब उससे शन्नो के बारे में पूछेंगे ज़रूर वह क्या जवाब देगी | तबियत का बहाना भी कब तक चलेगा---वहाँ ले जाने भर के लिए बहू से बात शुरू करना उसे अच्छा न लगा। चेहरे पर छाया तनाव क्या छँट पाता है | उस दिन सत्तो आखि़र ताड़ ही गई थी। बारिन के कानों में सोहर गाने की आवाज़ें ढोलक की थाप के साथ जब ज़्यादा शोर मचाने लगीं तो वह बैठी न रह सकी।
‘चलो चलती हूँ, कह दूँगी घर पर मेहमान आए हैं।’
सोना चुड़िहारिन का जगरमगर घर उसे अंदर से हिला गया। खाना-पीना, गीत-बधाई, कैसा उत्सव मना रहे थे सब सजधज कर और वह भी ढोलक सँभाल कर बैठ गई थी। मोहल्ले की बात थी। तरंगों में बह गई, वहाँ जाकर भूल गई कि उसके मन में कोई कुंठा, कोई आक्रोश फ़न काढ़ कर बैठा है।

नल पर रोज़ जमघट लगता। वही भीड़-भाड़, वही चहल-पहल। यु)वीर की माँ को लगता कि एक-दो दिन बाद जैसे सब शन्नो को भूल गए, फि़र किसी ने न पूछा कि तेरी बहू मरी या जी। उसे ही कहाँ दूसरों की पड़ी होती है जो दूसरों को उसकी पड़ेगी | फि़र काहे वह धोबी की तरह एक ही बात पीटे जा रही है और भय से मरी जा रही है | उसने अपने सामने पड़े पत्तो के ढेर की तरफ़ देखा जो वृक्ष की टहनियों से अलग कर दिए थे। वह उन्हें एक आकार देती है। उन पत्तों को हवा में बेकार डोलने और कूड़ा बनने से पहले उन्हें उपयोगी बनाती है। फि़र बदलते मौसम की जगह वह सपाट चट्टान की तरह सख़्त क्यों हो गई है |
रात को सोई तो सपने में देखा उसके घर में आग लग गई है। यु)वीर शन्नो को बचाने अंदर भागा तो लौटा नहीं और वह कोठरी की आग बुझाने के लिए जो बर्तन उठाती है ख़ाली पाती है। नल की तरफ़ भागती है तो देखती है टोटी सूखी पड़ी है।
छटपटाती-सी बारिन नींद से उठ खटोले पर बैठ गई। सामने यु)वीर का लाया कैलेंडर लगा था, जिसमें कृष्ण घुटनों के बल बैठे गगरी से भर-भर मुट्ठी माखन खा रहे थे। उसने मुड़कर बाहर देखा जहाँ चबूतरे पर यु)वीर लेटा था। अंदर छोटी कोठरी में शन्नो---बीच में वह दीवार नहीं बल्कि खाई की तरह पड़ी है। सर से पैर तक विष में भरी हुई। शायद पिछले जन्म में कोई विषैली जीव होगी तभी अत्याचार का यह ढंग अपना पाई वरना राई का पहाड़ न बनाती। कमसिन बेटे को यूँ न सताती।
‘मैं और अत्याचार’ बारिन गिनगिना उठी, ”नहीं---मैं क्यों करूँगी किसी पर अत्याचार | हर पराई पीर अपनी समझी। लाली पासिन की विधवा बहू ने जब ज़हर खा लिया था, तो वही तो गवाही देने पहुँची थी, वरना पूरा घर जेल में सड़ता। आज तक अपने किए पर पछताते कि बहू पर काहे संदेह किया था। राजू घोसी की लाैंडिया को पेट रह गया था। उसी ने सुमरिन दाई से चुपचुपाते सारा काम करवाया था। उसकी डोली भी उठ गई। आज उसके पैर धो-धो सब पीते हैं कि सबकी लाज ढाकी। फि़र वह कैसे अत्याचारिन हो गई |“
उसे याद आया जब वह गर्भवती थी तो यु)वीर की दादी कैसे ऊँच-नीच समझाती थी। सूरज-ग्रहण वाले दिन उसे पालथी मार कर तब तक बैठने न दिया जब तक ग्रहण हट न गया। कैसा लाड़-दुलार करती थी ! मगर वह क्या कर रही है सिवाय उस दिन के जब पता चला था कि शन्नो के पैर भारी हैं, उसके परिवार के वृक्ष पर एक नई कोंपल का फ़ुटाव हुआ है, वह खुशी में भर लड्डू बाँट आई थी ! यही कर्तव्य बचा है एक गर्भवती के प्रति |
व्याकुल-सी बारिन उठी। संदूकची खोल पोटली निकाली और छोटी कोठरी की तरफ़ बढ़ी। उढ़का दरवाज़ा खोला और धीरे से पुकाराµ”शन्नो !“
शन्नो मलगिज़ी साड़ी में लिपटी बेसुध पड़ी सो रही थी। बारिन सिरहाने बैठ शन्नो के सिर पर हाथ फ़ेरने लगी। उसके मन में बहू के लिए अजीब ममता उमड़ आई, आँखों में गीलापन उतर आया। श्ान्नो पहले कुनमुनाई फि़र नींद में डूबी आँखें खोलीं। माँ पर नज़र पड़ते ही वह हड़बड़ाकर उठी और भयभीत-सी हो सर पर आँचल बराबर करने लगी।
”उठकर कपड़े बदल बहू---क्या हाल बना रखा है तूने !“ शन्नो ने पलकें झपकाईं। उसके होंठ काँपे फि़र स्थिर हो गए। चेहरे पर रोष उभरा, आँखों में प्रश्न, जैसे पूछना चाह रही हो कि एकाएक यह काया-पलट कैसा | उसे वैसा ही बैठा देख बारिन बहू का मन ताड़ गई। लाड़ से बोलीµ
”हठ न कर शन्नो उठ जा।“
”मुझे मर जाने दो माँ, मैं तो पापिन हूँ। जाने कैसे शन्नो के मुख से फ़ूट पड़ा।
”न---न, बहू---यूँ बोलकर मुझ पर जुल्म मत कर---पापी तो वह राक्षस था, तू पापिन क्यों होने लगी---मेरी मत मारी गई थी। तुझे मेरी उम्र लगे---“ बारिन ने बहू को छाती से लिपटाया। शन्नो सुबक पड़ी।
”बड़े क्रोध न करें तो छोटों को प्यार कैसे मिले |“ ज़ेवर की गठरी बहू को थमा माथे पर प्यार कर बारिन आँखें पोंछती बाहर निकली।
रात आधी गुज़र चुकी थी। यु)वीर रोज़ की तरह रज़ाई लपेटे चबूतरे पर लेटा था। बारिन ने उढ़का दरवाज़ा खोला, बाहर निकली और बेटे के सर पर हाथ रखा। उसे पता था यु)वीर सोया नहीं है तो भी उसका गाल थपथपाकर बोलीµ”उठ---उठ लल्ला---जा अंदर कोठरी में जाकर सो, बहू अकेली है, ऊपर से हवा में कैसी ठंड भर गई है।“
यु)वीर के जाने के बाद बारिन ने तुलसी के आले के सामने माथा नवाया और मन ही मन बोली, ‘कृपा आपकी जो मन की ततइया के डंक तोड़ने में सफ़ल भई।’

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