क्या ख़ता थी मेरी, मैं कैसी ख़ता कर गया,
वो मेरा ही पता था, मुझे लापता कर गया !दूसरे दिन सुबह मैं देर से जागा। अमूमन सुबह की चाय मैं ही बनाता था और 'बेड टी' लेते हुए शाही हर सुबह उसकी पहली चुस्की के साथ एक ही वाक्य बोलते थे--'ओह, आँख खुली... । ' लेकिन उस दिन शाही ने आठ बजे, सुबह की चाय बनायी और मुझे जगाने की कोशिश की। मैंने करवट बदलकर उनसे कहा--यहाँ रखो न कप, उठता हूँ भाई !' शाही कप रखकर स्नान-ध्यान करने में लग गए और मैं सोता रहा। सुबह ९ बजे नींद खुली, तो मैं घबराकर उठा। ९.३० पर ऑफिस पहुँचना था। सिरहाने रखे कप की चाय शीतल पेय हो चुकी थी। मैं शीघ्रता से खुद को तैयार करने में जुटा। पिछली रात की बात मैंने न शाही को बतायी और न ऑफिस पहुंचकर ईश्वर को। मैं आत्मा के आदेश का पूरी तरह पालन करना चाहता था।
लंच के घण्टे भर पहले ही मैं अपनी सीट से उठा और सहायक लेखाधिकारी से अनुमति लेकर पोस्ट ऑफिस चला गया। स्वदेशी के मिल ऑफिस के नीचे ही डाकघर था। एक पोस्ट कार्ड खरीदकर मैंने लिखना शुरू किया। आदतन, कार्ड के शीर्ष पर मैंने अपना नाम-पता लिखा--'लेखा-विभाग, स्वदेशी कॉटन मिल्स, जूही, कानपुर। यह लिखकर मैंने उसके नीचे तिथि दाल दी। मैंने 'महोदय' से पत्र की शुरूआत की और आत्मा का दिया सन्देश संक्षेप में लिख दिया और अंत में अपना हस्ताक्षर कर, आत्मा के बताये पते पर पोस्ट कर दिया। लौटकर आया तो शाही ने इशारे में पूछा--'कहाँ से?' उनके पास पहुंचकर मैंने कहा--'बाबूजी को लिखा पत्र डालने गया था।' शाही ने मेरी बात सुन ली, लेकिन मैंने देखा, उनके चेहरे पर अविश्वास की छाया थी।
पत्र भेजकर मैं दायित्व-मुक्त हो गया था। मैंने सोचा था, अगर वह कोई चंचल, शोख़ या दुष्टात्मा होगी और महज़ मुझे परेशान करने के इरादे से गलत सूचना और पता-ठिकाना लिखवा गई होगी तो मेरा पत्र निरुद्देश्य भटककर किसी कूड़ेदान में जा पड़ेगा। और यदि आत्मा का कथन शब्दशः सत्य हुआ तो उसके घरवाले यथोचित कार्रवाई करेंगे ही। अपने इस चिंतन के बाद मैं उस ओर से निश्चिन्त हो गया था। चार-पांच दिन बीत भी गए थे।
लगता है, संभवतः सातवें दिन दस-साढ़े दस बजे के आसपास मैं दफ्तर में बैठा काम कर रहा था, तभी 'इस्टैब्लिशमेंट डिपार्टमेंट' से फ़ोन आया। मुख्य लेखाधिकारी और सहायक लेखाधिकारी की दो बड़ी-बड़ी मेज़ों के सामने ही २५-३० लोगों का स्टाफ़ विशाल हॉल में बैठता था, जिसमें हम सभी थे। मुख्य लेखाधिकारी श्रीशर्मा ने फ़ोन उठाया, बात की और फिर मेरा नाम लेकर कहा--'मिस्टर ओझा, कोई आपसे मिलने आये हैं। नीचे स्वागत-कक्ष में जाइए।' मैं बेधड़क आधार-तल पर स्वागत-कक्ष में जा पहुँचा। वहाँ तीन अपरिचित लोगों को मैंने बैठा देखा। मैंने जैसे ही कक्ष में प्रवेश किया, वे तीनों एकसाथ उठ खड़े हुए, लपककर मेरे पास आये। उनमें दो युवक थे और एक बुजुर्ग। मैं सम्भ्रम में पड़ा था और अभी सोच ही रहा था कि कौन हैं ये लोग, तभी बुज़ुर्ग सज्जन बिलकुल मेरे समीप आये और उन्होंने पूछा--'आप ही ओझाजी हैं न?'
मेरी स्वीकारोक्ति सुनते ही अपनी ऊपरी जेब से उन्होंने एक पोस्टकार्ड निकालकर मुझे दिखाते हुए पूछा--'यह पत्र आपने ही लिखा है?'
उनके हाथो में अपना ही लिखा पत्र देखकर सारा मामला मेरी समझ में आ गया। इधर मैंने हामी भरी और उधर बुज़ुर्ग व्यक्ति की आँखों से गंगा-यमुना की धारा बह चली। दोनों युवकों की आँखें भी सजल हो आई थीं। मैंने उन्हें शांत करने के लिए सांत्वना के दो शब्द कहने की कोशिश की, लेकिन उनकी विह्वलता चरम पर थी। उन्होंने अपनी काँपती उँगलियों से एक चित्र निकाला और मुझे दिखाते हुए बोले--'यही मेरी बिटिया है, जिससे आपने बात की है और मैं ही उसका बदनसीब बाप हूँ और ये दोनों उसके भाई हैं।' अब उनकी आँखों से अश्रुपात के साथ-साथ मुखर विलाप का स्वर भी निकलने लगा था।
स्थिति की गंभीरता को समझते हुए मैंने विनम्रतापूर्वक और पूरी सहृदयता से निवेदन किया--'आप मेरे साथ आयें, यहां ये बातें नहीं हो सकेंगी, आप मेरी बात समझें। यह मिल का अतिथि-कक्ष है, यहाँ लोग-बाग़ आते ही रहते हैं। यहाँ यह चर्चा उचित नहीं है।'
और, उनके किसी उत्तर या प्रतिवाद की प्रतीक्षा न करके मैं चल पड़ा। वे तीनों मेरे साथ-साथ अतिथि कक्ष से बाहर आये, लेकिन एक रोते हुए बुज़ुर्ग और दो सजल नेत्र युवाओं को मेरे साथ निकलते देख इस्टैब्लिशमेंट के अधिकारी दत्ताजी लपककर आये और मुझे राह में रोककर पूछने लगे--'क्या बात है, क्या हुआ?' मैं 'कुछ नहीं' कहता हुआ आगे बढ़ गया। मिल ऑफिस के मुख्यद्वार के बाहर जाकर मैं रुका। उन बुज़ुर्ग ने पुनः चित्र दिखाकर मुझसे कहा--'अभी कुछ दिन पहले ही तो इसके क्रिया-कर्म से निबटकर लौटा हूँ और अब आपका यह पत्र मुझे मारे डाल रहा है। एक बार, बस एक बार आप मेरी उससे बात करवा दें। यह आप ही कर सकते हैं। मैं जीवन-भर आपका ऋण मानूँगा।' वे भावावेश में बहुत कुछ कहना चाह रहे थे, किन्तु उनका गला भर आता था और कंठ अवरुद्ध हो जाता था।
मैं लगातार उन्हें संयत और शांत करने का प्रयत्न कर रहा था। उन्हें समझा रहा था कि 'यहां सड़क पर तो वह सबकुछ नहीं हो सकता न, आप धीरज रखें। मैं यथा-सुविधा शीघ्र ही आपकी बात भी करवा दूंगा, लेकिन यह दफ्तर का समय है। आप ऑफिस की छुट्टी के बाद मुझसे यहीं मिलें। मुझसे जो भी संभव होगा, मैं अवश्य आपके लिए करूँगा।'
लेकिन थोड़ी-सी देर में ही, इतनी हलचल और रुदन को देख, वहाँ तो मजमा लग गया था। मिल के बहुत-से वर्कर एकत्रित हो गए थे और मैं बेचैन होने लगा था। मुझे दफ्तर में लौटने में विलम्ब हुआ देख पूछते-ढूँढ़ते अचानक शाही भी वहाँ आ पहुंचे। वह दोनों युवाओं को एक किनारे ले जाकर समझाने-बुझाने लगे। हम दोनों के अनेक प्रयत्नों के बाद यह वादा लेकर कि शाम की छुट्टी के वक़्त वे यहीं मुझसे फिर मिलेंगे, वे तीनों पिता-पुत्र लौट गए। भीड़ छँट गई और हम दोनों दफ्तर की भीड़ में शामिल हो गए।
मिल के गेट पर हुए इस वाक़ये को लेकर लेखा विभाग में भी खुसुर-फुसुर हो रही थी और शाही आग्नेय नेत्रों से मुझे बीच-बीच में घूर रहे थे। लंच के समय मैंने सारा वृत्तांत विस्तार से शाही और ईश्वर को सुनाया और उनकी फटकार सुनता रहा। दोनों कह रहे थे कि 'पोस्टकार्ड पर तुम्हें अपना पता नहीं लिखना चाहिए था। तुम्हारे हिंदी के हस्ताक्षर से तुम्हारे नाम को निकाल लेना तो परिचितों के लिए भी कठिन है, लिहाज़ा पत्र पर जो दस्तखत तुमने किया था, वही काफी था। शुक्र है, तुमने स्वदेशी कॉलोनी का पता उन्हें नहीं दिया, अन्यथा वे वहाँ भी पहुँच जाते।' अंततः सुनिश्चित हुआ कि शाम की छुट्टी के थोड़ा पहले ही मैं और शाही दफ्तर छोड़ देंगे।
ऐसी खबरें किसी माध्यम की मोहताज़ नहीं होतीं, उन्हें हवा ले जाती है--दूर-दूर तक। एक मुँह बोलता है, कई कान सुनते हैं और हवाएँ ले उड़ती हैं खबरें। यथानिश्चय हमने दफ्तर की छुट्टी के ४०-४५ मिनट पहले ही पलायन किया। जब अपनी कॉलोनी के कमरे पर पहुँचे तो हमने देखा, हवाएँ कक्ष के दोनों दरवाज़ों पर सफ़ेद खड़िये से हमारा नामपट्ट चिपका गई थीं वहाँ--"बाबा भूतनाथ का कमरा!"
(क्रमशः)