दो अजनबी और वो आवाज़
भाग-2
क्यूँ, ऐसा क्यूँ लगता था तुम्हें क्यूंकि....जाने दो फिर कभी, फिर समय के साथ-साथ मेरा आकर्षण बदलने लगा और तुम जैसे समय के साथ–साथ मेरी जिंदगी से कहीं गुम होती चली गयी। अब मेरी भी ज़िंदगी लगभग बदल चुकी थी और जैसा के लड़कों के साथ अक्सर होता है। उम्र के साथ कुछ गलत आदतें साथ लग जाती है। मुझे भी उन दिनों नशे की आदत लग चुकी थी। जब भी कभी मुझे खाली समय मिलता। मैं अपने दोस्तों के साथ बैठकर दारू पी लिया करता। यह शौक इस कदर बढ़ा कि मेरी पहली नौकरी भी दारू बनाने वाली कंपनी में ही लगी। फिर दारू की बदौलत मेरे जीवन में एक हादसा और हुआ और मैं सब कुछ भूल गया। जो याद रहा वह भी सब धुंधला–धुंधला और धुआँ-धुआँ ही रहा।
अगर कुछ याद रही तो वो थी दारू और तुम्हारे हाथ का वो निशान, इतना सब हो जाने के बाद भी न जाने क्यूं मुझसे दारू का मोह नहीं छूटा।
मैं आज भी जब कभी यह सब सोचता हूँ तो किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता कि आखिर ऐसा हुआ, तो क्यूं हुआ। मैं चुप खामोशी से उसकी दास्ताँ सुन रही हूँ और मन ही मन उसे याद करने की पुरज़ोर कोशिश कर रही हूँ कि आखिर यह है कौन। जो मुझे इतना करीब से जानता है किन्तु अपना मानता नहीं। या फिर हो सकता है मानता भी हो पर कबूल नहीं करना चाहता। फिर एक बार मेरे मन में यह खयाल आता है कि हो ना हो यह जरूर उनमें से कोई है जिनका मैंने कभी दिल तोड़ा था। पक्का यह मेरा कोई आशिक ही रहा होगा। होगा कोई न कोई रोड साइड रोमियो, इसलिए तो यह मुझे याद नहीं। किन्तु इसे मैं पूरी तरह याद हूँ।
यह सब कहते हुए भी मेरे आवाज में कंपन है। मेरी आवाज सच में काँप रही है। लेकिन मैं किसी तरह अपनी सारी हिम्मत जुटते हुए उससे बात करने का भरसक प्रयास कर रही हूँ। तुम जरूर मेरे कोई चाहने वालों में से हो न ? हाँ ...! मुझे पता है तुम उनमें से ही कोई हो। तो मैं तुमसे माफी मांगती हूँ। मुझे माफ कर दो प्लीज...मुझे जाने दो...उस समय की बात कुछ और थी, पर अब समय बदल चुका है।
अब की बात कुछ ओर है। सुनो सुन रहे हो न तुम...कुछ बोलते क्यूं नहीं ? जवाब में फिर एक गुंजाए मान हंसी...हा हा हा अच्छा तो तुम मुझे अपनी उस लाल डायरी का हिस्सा समझ रह हो। पर तुम्हें ऐसा इसलिए लग रहा है क्यूंकि हम दोनों इतने ज्यादा एक जैसे हैं कि शायद मैं कभी तुम्हें एक अच्छी नज़र से देख ही नहीं पाया। इसलिए हम दोनों.....लंबा सन्नाटा एक गहरी खामोशी केवल पीछे से आती कीट पतंगों और झिगुरों की आवाज़ें। बिलकुल अंदर तक चीर देने वाली खामोशी। मुझे डर लग रहा है।
यह आभास हो रहा है कहीं कोई है जो मुझे छिप छिपकर देख रहा है। मेरे दिल की धड़कन बढ़ रही है। मैं डर से काँपते हुए ज़ोर से चिल्ला चिल्लाकर पूछ रही हूँ। अच्छी नज़रों से क्या तात्पर्य है तुम्हारा हाँ....! तुम चुप क्यूं हो गए। कुछ बोलते क्यूं नहीं। कोई जवाब नहीं आया। मैं चीखती रही पुकारती रही, पर व कुछ न बोला। मैं थक हारकर रोने लगी और रोते रोते कब एक पेड़ से लिपटकर सो गयी, मुझे पता न चला।
जब आँख खुली तो देखा बारिश का गिरना बदस्तूर जारी है। मैं उठना चाहती हूँ। लेकिन कोई है, जो मुझे उठने नहीं दे रहा है। मेरे कानों में धीरे से आवाज़ आती है, सोजा-सोजा तू बहुत थक गयी है। सोयेगी नहीं तो अंडररेस्ट हो जाएगी। लेकिन मैं सोना नहीं चाहती। मैं उस आवाज से अपने सवालों का जवाब चाहती हूँ।
हाँ हाँ...तो मैं कहाँ मना कर रहा हूँ। तुझे तेरे सारे सवालों के जवाब मिल जाएंगे। पर अभी तू आराम कर। नहीं....! यदि मैं सो गयी तो तुम फिर मुझे छोड़ कर चले जाओगे। अरे फिर वही ज़िद तुमने पहले भी एक बार ऐसी ही ज़िद करके मुझे जाने नहीं दिया था। उस दिन यदि तुमने मुझे जाने दिया होता। तो आज न तुम्हारी ऐसी हालत होती और न मेरी यह दशा होती,जो है। मैं मन ही मन उसकी बातों को सुनकर, उसकी आवाज को सुनकर, उसका चेहरा बनाने की कोशिश कर रही हूँ।
लेकिन अब तक मेरी नज़रों में उसकी कोई छवि बन नहीं पायी है। मगर जिस तरह से वो मेरी परवाह कर रहा है कोई अपना सा ही लग रहा है। परंतु वह है कौन। यह अब भी मेरे लिए एक पहेली ही बनी हुई है। अब मुझे यह समझ नहीं आ रहा है कि मैं उससे डर क्यूं रही हूँ। क्या इसलिए कि वह सिर्फ सुनाई देता है दिखायी नहीं देता। या फिर वजह कुछ और ही है।
खैर इस सब से और कुछ साबित हो न हो, किन्तु यह ज़रूर साबित होता है कि एक इंसान के लिए उसकी आँखों का क्या महत्व होता है। मैं देख सकते हुए भी देख नहीं सकती, या देख नहीं पा रही हूँ। तब मेरा यह हाल है। तो जरा सोचो उनको कैसा लगता होगा जो बेचारे सच में देख नहीं सकते। अब मेरा डर उस आवाज के प्रति धीरे धीरे कम हो रहा है। इसलिए अब मैं शांत हूँ। और उसके अतिरिक्त और भी कुछ सोच पा रही हूँ।
लेकिन यह रात खत्म क्यूं नहीं हो रही है। मैं अभी सोच ही रही हूँ कि अचानक उसने मेरे कानों के पास आकर कहा। मैं बताऊँ क्यूं, क्यूँ...मैंने फिर पूछा। वो बोला तुम जब तक अपनी सारी कहानी मुझसे सुन नहीं लेती और जब तक तुम्हें यह याद नहीं आ जाता कि मैं तुम्हारी ज़िंदगी में क्या मायने रखता हूँ। मैं सुबह होने नहीं दूंगा। हैं...? यह भी भला कोई बात हुई। सुबह का होना ना होना कोई तुम्हारे हाथ में थोड़ी न है। वह तो कुदरत का खेल है।
हाँ होगा। लेकिन अभी चल रही अपनी कहानी में तो सब मेरे ही हाथ में है। हओ पत्थर, आए बड़े नेता...अब दोस्ती हो चली थी मेरी उस साये से, शायद अब मैं सहज ही बात करने लगी थी उससे, अच्छा यदि ऐसा ही है तो सुना क्यूं नहीं देते अपनी पूरी कहानी...? क्यूं तुम्हें बहुत जल्दी है...मेरे विषय में सब जान लेने की ? हाँ....है तो ? तो यह कि यह जल्दी का काम अपने बस की बात नहीं होती। रानी सा, अपने को धीरे-धीरे आराम-आराम से चलना ही पसंद है। असली मजा तो उसी में है,
मैंने चौंककर कहा क्या मतलब है तुम्हारा...? उसने हँसते हुए उत्तर दिया इसका मतलब है अब भी जंग नहीं लगी है थारे दिमाग में, उसकी यह बात सुनकर न जाने क्यूं मेरे होंठों पर भी एक हल्की सी मुस्कान बिखर गयी। और हम दोनों के बीच की कुछ दूरी अब और कम हो गयी।
अब भी रात बहुत काली थी। लेकिन अब मुझे उस साये से डर नहीं लग रहा था। बल्कि अब मुझे उसके साथ अपनी ज़िंदगी सहज महसूस होने लगी थी। अब उसके डर के कारण जल्दी नहीं है मुझे अपनी असल ज़िंदगी में वापस लौट जाने की और ना ही अब सुबह होने की बेचैन है। किन्तु मेरा मन अब भी बेचैन है। उस पहेली को लेकर की आखिर यह कौन है। लेकिन अब, जब-जब वह आवाज खामोश हो जाती है, तो मैं फिर डर की गिरफ्त में जाने लगती हूँ। अब क्या होगा। जैसे सवाल मुझे वापस उस दम घोटूँ अंधकार की ओर खींचने लगते है। पर कहीं से कोई आवाज नहीं आती मैं ज़ोर से उसे पुकारती हूँ सुनो....तुम जो कोई भी हो प्लीज चुप न रहो कुछ न कुछ कहते रहा करो। वरना मुझे बहुत डर लगने लगता है। डर ? अरे इसमें डरने वाली क्या बात है।
हर इंसान को अकेले जीने की भी आदत होनी चाहिए। हाँ होनी चाहिए। मगर घर में अकेले रहना और इस जंगल में अकेले रहने में बहुत फर्क है। वैसे भी, मैं कभी अकेली नहीं रही हूँ। सब रह लोगी। मैंने कहा न। तुमने पहले भी यही कहा था और अब देखो कहाँ आ गए हम, कहते हुए मुझे अचानक (देजाबू) हो गया। देजाबू का अर्थ होता है किसी घटना का इस तरह याद आना मानो बिलकुल ऐसा कि ऐसा ही पहले भी घट चुका है। मेरी यह बात सुनकर जैसे उस आवाज़ में एक खनक सी आ गयी। वह बोला देखा, मैंने कहा था न धीरे-धीरे तुम्हें खुद-ब-खुद सब कुछ स्वयं ही याद आ जाएगा। आया न याद तुमको कि मैंने ऐसा कुछ कहा था तुमसे है न ? हाँ लेकिन कब, कहाँ ,कैसे....मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है। यह कहते हुए मैं अपना सर कुछ इस तरह दबाते हुए याद करने की कोशिश कर रही हूँ। मानो मेरे सर में बहुत तेज दर्द हो रहा है। कोई ना......तू चिंता ना कर। धीरे-धीरे सब याद आ जायेगा तुझे...
अच्छा चल छोड़ यह बता काफी पायेगी ? मैं घोर आश्चर्य से भर उठती हूँ। किन्तु मैं मेरी बात से आश्चर्य चकित हूँ। मैंने उसकी काफी वाली बात को सुना तक नहीं है। मैं तो यह सोचने में मग्न हूँ कि यह बात कहाँ से आयी ऐसा (देजाबू) क्यूं हुआ मुझे, मैं खुद से ही बात कर रही हूँ। जो भी हुआ, उससे एक बात तो साबित होती है कि यह मेरा हिस्सा है, फिर चाहे यह मेरे जीवन से जुड़ा हो या मेरे अतीत की स्मृतियों से, इस बात ने मुझे विचलित कर दिया। बावजूद इसके मन के किसी न किसी कोने में दिल में कहीं न कहीं इस बात की तसल्ली भी थी कि चलो मुझे उस पहली का कोई सिरा तो मिला।
उसने फिर से कहा....छोड़ न यार चल काफी पीते है। मैंने हैरानी से कहा इस घने जंगल में आधी रात को कोई काफी पीने के विषय में सोच भी कैसे सकता है। तभी वो बोला अरी तू बस यह बता कि तू पियेगी या नहीं, नहीं तो जाने दे...! हाँ यह अलहदा बात है कि मेरी अभी बहुत इच्छा हो रही है काफी पीने की, तभी अपने मन के कोतूहल के चलते मैंने यह सोचकर काफी पीने के लिए हाँ कह दिया कि शायद इसी बहाने से वो मेरे सामने आ जाये। क्यूंकि मैं तो यह भी नहीं जानती कि जो साया मेरे इतने करीब है, जो यह कहता है कि मैं तुमसे अलग थोड़ी ही हूँ। मैं तो तुम ही हूँ। वह साया वास्तविकता में अपना कोई वजूद रखता भी है या नहीं। वह कोई जीवित प्राणी है या फिर कोई मृत आत्मा जो अपनी किसी विशेष मनोकामना के पूर्ण ना होने की वजह से भटक रही है। और शायद उसे ऐसा लगता हो कि मैं ही वह उचित व्यक्ति हूँ उसके लिए जो उसे इस सांसारिक मोह से मुक्ति दिला सकूँ।
राम ही जाने क्या सच है और क्या झूठ। मैं तो बस समय के बहाव में बहती जा रही हूँ। आगे क्या होगा, क्या नहीं मैं कुछ नहीं जानती। बस बहे जा रही हूँ कि तभी अचानक मेरी तंद्रा भंग करने के उदेश्य से उसने कहा गुड्स....और न जाने कैसे, किस धुन में मैंने उससे कहा हाँ बोल ना, वह फिर हंसा मैं फिर सवालों से घिर गयी। किन्तु किसी तरह इस बार मैंने अपना ध्यान अपने सवालों पर से हटाते हुए उससे कहा। हाँ तो क्या हुआ तुम्हारी काफी का, तुम तो मुझे काफी पिलाना चाहते थे न ? हाँ तो चलो न मैंने कहाँ माना किया है। और उसी राह पर आगे बढ़ते हुए देखते ही देखते मैं अचानक अपने आपको एक साधारण सी काफी शॉप में खड़ा पाती हूँ। मैं खुद को टटोल कर देखती हूँ कि मैं कहीं कोई सपना तो नहीं देख रही हूँ। क्या मेरी धजा ऐसी है कि मैं इस काफी शॉप में बैठकर काफी पी सकूँ।
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