Bahikhata - 8 in Hindi Biography by Subhash Neerav books and stories PDF | बहीखाता - 8

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बहीखाता - 8

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

8

कालेज की ज़िन्दगी

कालेज में लड़के-लड़कियाँ एकसाथ पढ़ते थे, आपस में खुलकर बातें भी करते थे। कुछ एक जोड़े भी बन रहे थे। वे हर समय साथ-साथ घूमते, फिल्में देखते, रेस्तरांओं में बैठते। परंतु मेरे ग्रुप की लड़कियाँ कुछ मेरे जैसी ही थीं। पिछड़ी-सी। हमारे ग्रुप की किसी भी लड़की में लड़के के साथ मित्रता बनाने की हिम्मत नहीं थी। हम लड़कों के सिर्फ़ सपने ही देखती थीं। हम किसी लड़के को दूर से देखकर ही उसके बारे में सोचने लगतीं। उसे लेकर सपने बुनती रहतीं। हम सभी एक साथ बैठकर अपने लिए लड़का पसंद कर लेतीं कि लाल पगड़ी वाला उसका। काली पगड़ी वाला इसका। इस प्रकार हम दूर से ही अपने अपने लिए पसंद किए लड़कों को निहारती रहतीं। उनके बारे में बातें करके खुश होती रहतीं। अपनी ख्वाहिशों का इज़हार करना हमारे लिए असंभव था। घर वापस लौटते समय राह में परमजीत की मौसी का घर पड़ता था। उसके दो लड़के थे। बहुत ही स्मार्ट और सुंदर। उनमें से एक मुझे बहुत पसंद था। मैं उसको दूर खड़ी होकर छिप छिपकर देखती रहती। उनके घर के सामने से गुज़रते हुए अपनी चाल धीमी कर लेती। लेकिन उसको कभी बता न सकती थी, बस गर्दन झुका लेती। उसको क्या, किसी अन्य सहेली को भी अपने दिल की बात न कह पाती। शायद यह इश्क ही था, पर यह सिर्फ़ मेरे मन के धरातल पर ही जन्मा और वहीं खत्म हो गया।

पढ़ाई के साथ साथ मैं नाटकों में भी हिस्सा लेने लगी थी। नाटकों में तो मैं स्कूल में भी भाग लेती थी। कालेज में आकर ऐसी सरगरमियाँ कुछ अधिक ही बढ़ गई थीं। नाटकों में मैं साधारणतः लड़कों वाली भूमिकाएँ किया करती। शायद मैं आम लड़कियों से अच्छी कदकाठी की थी इसलिए लड़कों के रोल के लिए चुनी जाती थी। साथ के साथ, मैं कई बार संगीत की प्रतियोगिताओं में भी भाग लेती थी। इसके साथ साथ मैंने एन.सी.सी. में भी भाग लिया। कई कई दिन के लिए दिल्ली से बाहर हमारे कैम्प लगा करते। एन.सी.सी. में होते हुए मैं कई जगहों पर घूमी। महीप सिंह हमारे एन.सी.सी. के इन्चार्ज थे। महीप सिंह उस समय भी बहुत प्रसिद्ध लेखक हुआ करते थे। उनकी कई पुस्तकें छप चुकी थीं। मुझे याद है कि एकबार उन्होंने अपनी एक कहानी ‘खिचड़ी’ भी हमें सुनाई थी। हमारे संग एक मैडम भी कैम्प में जाया करती थीं। वह भी हमारी इन्चार्ज थीं। हमें किसी तरफ जाना होता तो महीप सिंह और वह मैडम बातें करते हुए पीछे रह जाते। विद्यार्थी उनके विषय में कानाफूसी करने लगते।

पंजाबी मेरा मनभाता विषय था। हमें गोपाल सिंह दर्दी और प्रिंसीपल तेजा सिंह की आलोचना की किताबें लगी हुई थीं। मुझे आलोचना अच्छी तो लगती थी, पर इसको याद करने के लिए रट्टे लगाने पड़ते थे। रट्टे लगा लगाकर ही मैं पंजाबी में सबसे अधिक अंक ले जाया करती थी। यहाँ मैं एक ट्रिक खेल जाया करती थी। मैं फिकरों को रट्ट लेती। जिसके बारे में भी प्रश्न होता, मैं रेफ्रेंस में उसका नाम लिख देती, परंतु फिकरे वही होते। हमें आलोचना पढ़ाई तो जाती, पर आलोचना करने का ढंग कोई नहीं सिखलाता था। यह सब तो बाद में हमने यूनिवर्सिटी में जाकर सीखा। उन दिनों में परीक्षाएँ अजीब से तरीके से हुआ करती थीं। बी.ए. पार्ट-1 में चार पेपर थे। पार्ट-2 में भी चार थे, पर पार्ट-1 वाले चारों विषयों की परीक्षा एक बार फिर देनी पड़ती। अर्थात आठ पेपर देने पड़ते। ऐसे ही पार्ट-3 में हमें बारह पेपर देने पड़ते। चार पार्ट-1 के, चार पार्ट-2 के और चार पार्ट-3 के। इम्तिहान मेरा बुरा हाल कर देते। आगे चलकर एम.ए. में भी ऐसे ही हुआ था। उन दिनों में नंबर भी अधिक नहीं आया करते थे। फस्र्ट क्लास तो शायद ही किसी की आती हो। अधिक होशियार विद्यार्थियों की सेकेंड क्लास ही आया करती थी। नंबर लगाने का तरीका भी भिन्न हुआ करता था। कभी कभी नंबर देने में लिहाज भी निभाया जाता। हमारे अध्यापक ज्ञानी जोगिन्दर सिंह की भान्जी हमारे साथ ही पढ़ा करती थी। उनके नंबर मुझसे हमेशा ही अधिक आते थे। बाद में पता चला कि पेपर ज्ञानी जी ने चैक किए थे और उन्होंने अपनी भान्जी को सबसे अधिक नंबर दिए थे। परंतु जब फाइनल परीक्षा हुई तो मेरे ही नंबर अधिक थे। मेरा कभी भी कोई भी गॉड-फॉदर नहीं हुआ। यदि कुछ मिल भी रहा था तो अपनी मेहनत और योग्यता के अनुसार ही मिल रहा था।

कालेज में पढ़ते हुए मैं गुरबख्श सिंह की ‘भाभी मैना’ और सुनान सिंह ‘रास लीला’ जैसी कहानियाँ पढ़ी थीं। इन कहानियों ने साहित्य में मेरी दिलचस्पी पैदा की। गुरबख़्श सिंह के उपन्यास ‘अनब्याही माँ’ ने भी मुझे बहुत प्रभावित किया था, पर इन सबसे ऊपर मोहन सिंह की कविता ‘बसंत’ ने मुझे हमेशा के लिए कविता से जोड़ दिया था। मोहन सिंह के लिखे गीत मुझे ज़बानी याद हो गए। मैं कवि दरबार भी सुनने जाने लगी थी। उस वक्त के बहुत से लेखक हमारे इलाके के ही थे। इंदरजीत जीत जो अब वुल्वरहैंप्टन में रहते हैं, वह हमारे पहाड़गंज से ही थे। हरनाम और हरभजन सिंह करोल बाग में रहते थे जो निकट ही था। कर्ज़न रोड जहाँ बलवंत गार्गी रहता था, वह भी दूर नहीं था। हज़ारा सिंह गुरदासपुरी, बिशंभर साकी, बलवंत सिंह निरवैर, बरकत राम बरकत भी पहाड़गंज ही रहा करते थे। रेडियो वाला देविन्दर भी हमारे मुहल्ले में ही रहता था। वह अमृता प्रीतम के माध्यम से मेरा परिचित बना था। इस प्रकार, मेरे आसपास साहित्यिक वातावरण निर्मित हुआ पड़ा था।

मैंने सेकेंड डिवीजन में बी.ए. पास कर ली। दलजीत भी पास हो गई थी, पर उसके नंबर मेरे से कुछ कम थे। अब हमने आगे बी.एड करनी थी। बी.एड करके मैं किसी भी स्कूल में अध्यापिका लग सकती थी। उन दिनों में बी.एड का कालेज सिंधवा नाम के शहर में ही था जो कि पंजाब में पड़ता था। मैंने और दलजीत ने वहाँ दाखि़ले के लिए आवेदन कर दिया। नंबरों की मैरिट पर मुझे वहाँ प्रवेश मिल गया, पर दलजीत रह गई। अब मैं इतनी दूर कैसे जा सकती थी, वह भी अकेली। मैंने भी जाने का इरादा त्याग दिया। मैं सोच में पड़ गई कि अब क्या किया जाए। भापा जी ने तो मुझे पढ़ाई से रोका ही नहीं था। वह तो चाहते थे कि मैं जितना चाहूँ, पढ़ लूँ। हमारे चैगिर्द कोई भी अधिक पढ़ा लिखा नहीं था, सो मेरे भापा जी को बहुत खुशी थी कि उनकी बेटी पढ़ रही थी। वह चाहते थे कि मैं सबसे अधिक पढ़ी-लिखी लड़की बन जाऊँ।

मैं दलजीत से मिली, पर उसने आगे पढ़ने की अपेक्षा नौकरी करना बेहतर समझा। उसको शीघ्र ही अपने पिताजी की सिफारिश से किसी दफ्तर में नौकरी मिल भी गई। उसके पिता उन दिनों किसी कंपनी में ड्राफ्ट्समैन थे। इन्हीं दिनों मुझे बचपन की सहेली चूचो मिली। वह भी टाइपिंग सीखकर कहीं काम करने लग पड़ी थी। मैंने और अधिक न सोचा और कालेज में जाकर एम.ए.(पंजाबी) में दाखि़ला ले लिया। वैसे भी मेरे सबसे अधिक नंबर पंजाबी में ही आए थे और इसी कारण मेरे कुल नंबरों पर भी इसका असर पड़ा था और मुझे दाखि़ला लेने में किसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा।

(जारी…)