Preeti Sengupta ki Uttari dhruv ki yatra in Hindi Travel stories by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | प्रीति सेनगुप्ता की उत्तरी ध्रुव की यात्रा

Featured Books
Categories
Share

प्रीति सेनगुप्ता की उत्तरी ध्रुव की यात्रा

विश्व की अकेले यात्रा करने वाली तृतीय महिला यात्री प्रीति सेनगुप्ता की उत्तरी ध्रुव की यात्रा

प्रस्तुति - नीलम कुलश्रेष्ठ

[ परिचय -- न्यूयॉर्क में रहने वाली प्रीति सेनगुप्ता, भारत की प्रथम व विश्व की तृतीय महिला यात्री हैं जिन्होंने नितांत अकेले विश्व के सातों महाद्वीप की सैर की है. ये अहमदाबाद की बेटी हैं. इन्होंने अंग्रेज़ी में एम. ए. करके कॉलेज में पदाना आरंभ कर दिया था लेकिन आगे शोध के लिए वो अमेरिका गई. उन्हें वहा `होम सिकनेस `सताने लगी तो वे उससे छुटकारा पाने के लिए योरोप घूमने निकल गई. उन्हें लगा कि इस पर्यटन ने उन्हें आंतरिक रुप से समृद्ध किया है फिर तो जुनून की तरह वे पर्यटन करने लगी. इनके पिता भारत के प्रथम अकाउंटेंट थे. छ; महीने वे न्यूयॉर्क में रहकर अर्थोपर्जन करती, छ; महीने अलग अलग देश में घूमती. कुछ वर्षो बाद जब इनकी मुलाकात चंदन सेनगुप्ता से हुई तो उनहोने इन्हे इनके पर्यटन के जुनून के साथ अपनाया व कहा कि मेरा बिजनेस अच्छा चल रहा है इसलिए तुम जब चाहे पर्यटन करने जा सकती हो. उन्होंने मुझे एक मुलाकात में बताया था, "मै कोई एडवेंचर करने नही निकलती. मै महिला हू इसलिए सजग रह्ती हू कि किसी सुनसान स्थान पर ना जाउ या रात में होटल के सुनसान इलाके में ना जाउ. मेरी प्रसिद्धि के कारण कोई मिलना चाहता है तो उससे अपने कमरे में नही मिलती, लाउंज में मिलती हू. मुझे ऎसा लगता है कि देश मुझे अपनी आत्मा से पुकारते हैं, मै चल देती हू. जो लोग मेरे बारे में ग़लत सोचते हैं उन्हें बता दूँ कि मै मेल हंटिंग के लिये नही निकलती. पर्यटन मेरा जुनूँ है. "एक सुखद आश्चर्य की बात है कि बत्तीस पुस्तको की लेखिका, अनेक भाषाओं की जानकार व कवयित्री प्रीति को गुजराती साहित्य परिषद के सात पुरस्कार मिल चुके हैं. विश्व में उनके कितने सम्मान हुए है, बताना सम्भव नही है. इनकी ताजातरीन पुस्तक का नाम है "अपराजिता ".

वे सन् 1989 में नेवी के जहाज में अस्सी लोगों के साथ दक्षिणी ध्रुव की यात्रा कर चुकी थी. सन् 1992 में कोलंबस को अमेरिका धूदे पाँच सौ साल होने जा रहे थे इसलिए उन्होंने अपना उत्तरी ध्रुव अभियान उन्हें समर्पित करते हुए पूरा किया था. उत्तरी ध्रुव में इनका पोर पोर बर्फ़ में सराबोर होकर आया था. इन्होंने एक पुस्तक भी लिखी "द मैग्नेटिक नॉर्थ पोल-व्हाइट डेज, व्हाइट नाइट्स. "प्रस्तुत अभिव्यक्ति प्रीति के अस्मिता [महिला बहुभाषी साहित्यिक मंच, अहमदाबाद ] की गुजराती साहित्य परिषद में हुई गोष्ठी में दिए भाषण के आधार पर मैंने प्रस्तुत की है, मै इनकी दक्षिणी ध्रुव के विषय में लिखी गुजराती कविता को भी अनुवादित करके प्रस्तुत कर रही हू. प्रीति की उत्तरी ध्रुव की बर्फ़ में डूबी इन पंक्तियों को पद्कर आप भी बर्फीली ठंड में सराबोर हो जायेंगे ;

"बर्फ़ यहाँ भी, बर्फ़ वहाँ भी

बर्फ़ धरती भी, बर्फ़ क्षितिज भी

बर्फ़ आगे भी, बर्फ़ पीछॆ भी

बर्फ़ आकाश भी, बर्फ़ पाताल भी. "

-----नीलम कुलश्रेष्ठ ]

"कनाडा झीलों का देश है, जहाँ से हमें उत्तरी ध्रुव यानि आर्कटिक की यात्रा पर जाना था. मैं जब भी मैं जब भी किसी देश की यात्रा करके अमेरिका लौटती हूँ तो कुछ दिन बाद ऎसा लगने लगता है कि देश मुझे पुकारते हैं. इस बार मुझे उत्तरी ध्रुव पुकार रहा था जहाँ समुद्र ही समुद्र है, वहां के लगभग - ७० डिग्री ताप में जमा हुआ रहता है. कहतें हैं उछलते कूदते, धाड़ें मरते समुद्र को बांधना मुश्किल है लेकिन समुद्र खुद इतने कम ताप में ठिठुरकर, बंधकर जम जाता है., सर्द बर्फ बन जाता है.. कनाडा की सीमा से पहले का समुद्र जमा हुआ था. इसलिए वहीँ से हमें स्लेज पर यात्रा आरम्भ करनी थी. "

"मैं ये सोचकर रोमांचित हो रही थी की दक्षिणी ध्रुव की यात्रा के अनुभव का मैं बिलकुल विपरीत अनुभव करने जा रहीं हूँ. दक्षिणी ध्रुव यानि पृथ्वी के नीचे की तरफ का ज़मीन का वह हिस्सा जहाँ बर्फ ही बर्फ जमी रहती है और जो समुद्र से घिरा रहता है. ओह ! उत्तरी ध्रुव पर मुझे देखने को मिलेगा जमा हुआ समुद्र जो ज़मीन से घिरा होगा. ये सोचकर भी दिल धड़क रहा था की कहीं वापिस लौटकर अपने अनुभव भी बता पाऊँगी या नहीं. मैंने कहीं पढ़ा कि कुछ यात्रियों ने इसी उत्तरी ध्रुव की बर्फ कुछ टेंट लगाये थे वातावरण का ताप बड़ा, बर्फ पिघली. कोई आइसबर्ग कहीं बह गया, कोई कहीं. इनकी रफ़्तार इतनी धीमी थी की इनमें सोने वाले यात्रियों को पता ही नहीं चला की वे कौन से सफ़र पर निकल पड़ें थे, कुछ यात्रियों का तो पता ही नहीं चला की वे कहाँ गुम हो गए थे, कहीं मैं भी ------- नहीं -----नहीं ---मैं ज़रूर लौटूंगी हालाँकि इस रोमांचक यात्रा मैं कुछ यात्रियों की जान भी चली गई है. "

" इस यात्रा के इंतज़ाम किये थे कनाडा के एक संगठन ने जिसने मेरे साथी यात्रियों को बीस पोशाकें. क्योंकि मैं रफ़ टफ़ हूँ इसलिए मुझे बारह पोशाकें पहनाई थीं. हमारा मुंह मफ़लर की ट्यूब से ढका हुआ था. मैंने पैरों में पहने थे घोड़े के चमड़े के बड़े बूट्स हाथों में पहने थे मिटन` [ खरगोश की खाल से बने बिना उँगलियों वाले दस्ताने ] हमारा खून जमे न इसलिए हमें बार बार हाथ पैरों को झटका देना पड़ता था.

ये झटका देना कितनी बड़ी मुसीबत होगा आप समझ ही सकतें हैं क्योंकि मैं बारह पोशाकें पहने हुई थी. यदि आप मेरी वह फ़ोटो देख लें तो समझेंगे ये कोई हाथी का बच्चा है. मेरे साथ चार अलग अलग योरोपीय देश के यात्री थे. हम समुद्र पर स्लेज पर स्लीपिंग बैग पर बैठे आगे बड़ते जा रहे थे वहां के नेटिव इन्युइड हमारी स्लेज को खींच रहे थे. आपको पता है न दक्षिणी ध्रुव पर रहने वालों को एस्किमोज़ कहतें हैं. "

"अरे ---अरे --आप बिस्तर या कुर्सी पर आराम से बैठे ये लेख पड़ते हुए ये मत सोच लीजिये कि हम स्लेज पर आराम से झूला झूलते, मस्ती से चल रहे थे. उफ़ !मेरे लिए बताना कठिन है की वह कैसी कठिन यात्रा थी. बस आप ये समझ लीजिये की भारत की सड़कों के बम्पर्स पर यदि स्लेज चलाई जाये तो क्या दुर्गति होगी. जब एक ऊँची जगह पर स्लेज चढ़ रही होती तो नि;श्वास निकल जाता था, दिल धडक जाता था फिर झटके के साथ नीचे. उन झटकों से दम निकला जा रहा था. काश ! भगवान ने यहाँ एक बुलडोज़र चलवा कर इस बर्फ को समतल कर दिया होता. तो हमारा पोर पोर तो न दुखता. इन प्राकृतिक बम्परों पर ऊपर व नीचे आने के झटके तो न खाने पड़ते और वह भी कितने दिन ?---पूरे छ; दिन.

"एक अचरज भरी बात मैं आपको बताने जा रहीं हूँ, ज़रा गौर से पढ़िये. इस बीच साथ लाई बोतलों का पानी समाप्त हो चुका था मेरे साथ वाला इन्युइड पानी के लिए समुद्र की बर्फ़ खोदने लगा तो मैंने कहा कि मैं आपकी सहायता करूँ? उसने इशारे से समझाया कि मैं कैसे पहचानूंगी की मीठे पानी की बर्फ़ कौन सी है ? कौन से खारे पानी की. ? फिर उसने बड़ी दिलचस्प जानकारी दी. इतने कम तापमान पर बिचारी हवा भी सूख जाती है. उसकी नमी सिकुड़ते सिकुड़ते बर्फ़ बन जाती है. हमारे साथ आये इन्युइड साहब ने वह बर्फ साथ लाये औज़ार से पहचान कर खोदी व स्प्रिट लेम्प से गर्म करके वह पानी हमको पिलाया. अब मत पूछिए की उस पानी का स्वाद कैसा था ?बर्फ की तरह जम गए होठों से कुछ बूँद बर्फीले पानी को हलक में उतारना मतलब हलक का बर्फीला स्नान कराना. उफ़ !कैसा अनुभव था ?"

"हाँ, एक अनिवर्चनीय अहसास अवश्य था की हम सारे रिश्ते नातों से दूर, दोस्तों से दूर पृथ्वी को छोड़कर यहाँ से वहां तक फ़ैली एक धवल दुनियां में चले आयें हैं जहाँ न चिड़ियों का शोर है, ना सड़क के वाहनों की कान फोड़ती आवाज़ जहाँ तक नज़र जाती है इस सफ़ेद नीरवता में जैसे शुद्धता बसी हुई है. यही है पृथ्वी का वह छोर जहाँ छ; महीने रात व छ; महीने दिन रहता है जमे हुए समुद्र के चारों ओर का क्षितिज मौन प्रार्थना करता लग रहा था. वहां ऐसा लग रहा था की ये सारा वातावरण किसी आध्यात्मिक देवत्व में डूबा हुआ है. मैं इस बर्फ़ पर स्लेज से चलती जा रही थी. मुझे ऐसा लग रहा था की परमात्मा रचित ये श्वेत देवत्व मेरे अंतरतम को आलोक में निहलाकर, मेरी आत्मा को तृप्त कर सम्पूर्णता की शान्ति में निहला रहा था. क्या परमात्मा में आत्मा का मिलन यही था ?"

"मैं इस बात से कोसों दूर जा चकी थी की कोलंबस की यात्रा को इस वर्ष यानि सन १९९२ में पांच सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष को सेलिब्रेट करने का आर्कटिक यात्रा का मेरा जुनून बन गया था. मैं इस बात को भी भूल चुकी थी की की दक्षिणी ध्रुव की यात्रा में अर्जेन्टाइना से चलते समय शिप में तीस पुरुषों के साथ मैं अकेली महिला थी. समुद्र की लम्बी यात्रा भी बहुत कठिन होती है लेकिन मैंने फिर भी बारह कवितायेँ लिख लीं थीं. लेकिन यहाँ तो स्लेज में बैठे बैठे, बर्फ़ की चादर पर फिसलते हुए इतनी पोशाकों के बावजूद शरीर ठण्ड से अकड़ रहा था. "

"कैसा अहसास होता है उत्तरी ध्रुव पर पहुँच कर -न दिन रहता है न रात का इंतज़ार -------धवल आलोक --- धवल अन्धकार --- हम प्रथ्वी के उस हिस्से पर थे जहाँ छ; महीने दिन रहता है छ; महीने रात रहती है. गमीमत है हम दिन वाले समय में यात्रा कर रहे थे. कितना आश्चर्य था कि हम सूरज के इतने निकट थे फिर भी तपिश नहीं थी. उसकी किरणे सफ़ेद बर्फ पर परावर्तित होकर वातावरण को और श्वेत बना रहीं थीं और सूरज स्वयम यहाँ से कैसा लग रहा था?अपने ही श्वेत रंग से बौराया आसमान में हमारे सर के ऊपर गोल गोल चक्कर काटता लग रहा था. जबकि सच ये था प्रथ्वी सूरज की परिक्रमा दे रही थी. ये स्थिति कुछ ऐसी ही थी कि. आपकी ट्रेन प्लेटफोर्म पर खड़ी हो और पास से गुज़रती ट्रेन से लगता है हमारी ट्रेन चल पड़ी है. "

"मेरी ही ज़िद थी कि मैं यहाँ से सूर्यास्त देखूँगी लोगों ने समझाया कि बर्फ़ पर खड़े रहकर सूर्यास्त देखना बहुत कठिन है क्योंकि एक जगह खड़े रहने से ठण्ड के कारण खून जमने लगता है. अपनी इस जिद को पूरी करने में मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ी क्योंकि हर समय हाथ पैरों को झटक झटक कर खून जमने से रोकना पड़ा. ये झटका देना कितनी बड़ी मुसीबत होगा आप समझ ही सकतें हैं क्योंकि मैं बारह पोशाकें पहने हुई थी. अमेरिका में ये सूर्यास्त १२ बजे होता है यहाँ पर एक बजे होना था. और धीरे धीरे वह क्षण आ गया. सूरज क्षितिज की तरफ सरकने लगा, और सरका और ये क्या उसने बस क्षण भर क्षितिज का स्पर्श किया और वापिस उगने लगा यानि ऊपर उठने लगा यानि दुनियां की दूसरी तरफ सूर्योदय होने लगा.. अब आप पूछेंगे हम सोते कहाँ थे ? स्लेज पर रक्खे हमारे टेंट उठाकर इग्न्युइद बर्फ़ में लगा देते थे. उनमें हम स्लीपिंग बेग में सोते थे. वे चार यात्री दो दो कर एक टेंट में सोते थे व मैं अपने एक टेंट में उन बर्फ़ीली हवाओं में नींद तो क्या आती थी. "

"आर्कटिक पर मैं अपनी पहचान छोड़ना चाहती थी क्योंकि मैं पहली भारतीय थी जो यहाँ आया था. मैंने बर्फ़ के बने शिवलिंग पर अपने साथ लाये गणपति की स्थापना की व उन पर सूखे हुए फूलों की पत्तियां अर्पित की थीं . जो ताज़ा फूल लेकर मैं साथ चली थी, मैंने मेरे पति चंदन सेनगुप्ता ने मुझे चलते समय गुलाब के ढेरों फुल दिए थे, वे सर्दीली हवाओं में सूखेगें ही. मैं कैसी जगह आ गई थी जहाँ अपनी परछाईं भी साथ छोड़ देती है क्योंकि सूरज सर के ऊपर होता है लेकिन कदमों के निशान ज्यों के त्यों रहते हैं. यदि बर्फ थोड़ी ढीली हो तो. हाँ, हमें लौटने में सिर्फ चार दिन लगे थे. मैं यहाँ अपनी पहचान छोड़कर जाना चाहती थी क्योंकि मैं विश्व की तृतीय महिला थी जिसने विश्व के सातों महाद्वीपों की नितांत अकेले यात्रा की थी. ये अलग बात है कि मुझे गुजरात साहित्य अकादमी के सात पुरूस्कार मिल चुके हैं लेकिन आप जब मेरी यात्रा संस्मरण की पुस्तकें पढेंगे तो पता लगेगा की मैं अहमदाबाद की बेटी हूँ. मेरे पिता भारत के पहले चार्टेंद अकाउंटेंट थे. अमेरिका पढ़ने गई तो वहां `होमसिकनेस`दूर करने घूमने गई तो आजीवन पर्यटन की होकर रह गई. वह तो मेरे बंगाली पति ने मेरा हमेशा साथ दिया या कहिये उन्होंने मेरे इस जुनून के साथ मुझे स्वीकार किया. मैं अपने बारे में ये कहतीं हूँ.

"मेरी जड़ें भारतीय हैं, शाखा गुजराती व बंगाली, पत्तियां अमेरिकन हैं. जो मेरे व्यक्तित्व में फूल खिलतें हैं उनके रंगों से मेरे देखे हुए देशों व अनुभवों की सुगंध झड़ती है. लेखन मेरा कर्म हैं व पर्यटन धर्म. "

------------------

नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail—kneeli@rediffmail. com