Bahikhata - 7 in Hindi Biography by Subhash Neerav books and stories PDF | बहीखाता - 7

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बहीखाता - 7

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

7

सपना

भाबो अर्थात मामी हर समय मेरे अंग-संग ही रहती थी। कभी वह मुझसे पूछती कि मैं क्या बनना चाहती हूँ तो मैं कह देती कि मुझे तो स्कूल टीचर बनना है। स्कूल की अध्यापिकायें मुझे अच्छी भी बहुत लगती थीं। भाबो मेरे सपने को पंख लगाते हुए कहती, “गुड्डो ! जब तू नौकरी करेगी तो मैं तेरे साथ रहा करूँगी। तू काम पर जाया करना, मैं तेरा घर संभाल लिया करूँगी। तेरा खाना बनाऊँगी, तेरे कपड़े धो दिया करूँगी।“ मुझे भाबो की ये बातें बहुत अच्छी लगतीं। मैं भी बड़़ी उमंग में उसकी बातें सुनती रहती और टीचर बनने के और ज्यादा सपने बुनने लगती। लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंजूर था। अचानक एक दिन भाबो को खांसी आई तो उसकी थूक में लहू निकला। जांच करने के बाद पता चला कि उसको टीबी हो गई थी। उन दिनों टीबी आम हो जाया करती और यह बीमारी थी भी जानलेवा। इस बीमारी वाला कोई विरला ही बचता होगा। भाबो को टीबी के खास अस्पताल में भेज दिया गया जहाँ वह तीन-चार महीने रहकर मर गई। उसकी मौत मुझे बहुत अधिक उदास कर गई। ऐसा लगा, वह मेरे सपनों को पंख लगाकर स्वयं सुदूर किसी दूसरी दुनिया में उड़ान भर गई थी। मैं ही क्या, पूरा परिवार ही उदास था। भाबो हमारे घर का ही तो एक सदस्य थी। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो हमारा परिवार अधूरा हो गया हो। लगभग आधे सदस्य घर में से खारिज हो चुके थे। वक्त बड़ा बलवान होता है। हम भाबो की मौत के दुख में से धीरे धीरे निकलने लगे। मेरी माँ के घर के कितने ही काम खत्म हो गए और वह अब हमारे करीब आने लगी थी।

मैं ग्यारहवीं कक्षा में ही थी कि मेरी बड़ी बहन सिंदर को शादी का रिश्ता आ गया। मेरी बहन बहुत ही सुशील और शर्मीली थी। ड्राइंग में बहुत होशियर। मुझे याद है, एक बार जब वह मैट्रिक कर रही थी, किसी प्रोग्राम पर उसे दो चुटिया करके जाना था। उस समय वह कैसे सिर लपेटकर गई थी और घर आते ही भापा जी के आने से पहले ही उसने दोनों चुटियाँ खोलकर एक चोटी बना ली थी। ड्राइंग और सिलाई कढ़ाई में इतनी निपुण थी कि एकबार उसने हमदर्द वालों की एक प्रतियोगिता में भाग लिया था जिसमें सिंकारा बोतल पर पेस्ट किए हुए डिज़ाइन को हू-ब-हू कढ़ाई करके दिखाना था। उस प्रतियोगिता में वह अव्वल आई थी। उसने स्वयं वह डिज़ाइन ड्रा किया था और डिज़ाइन के अंदर के रंगों को धागों से हू-ब-हू काढ़ा था।

ख़ैर, लड़का करनाल से था। उस समय वह मिलेटरी में था, पर विवाह के कुछ समय बाद नौकरी छोड़कर स्कूल में स्पोर्ट्स टीचर नियुक्त हो गया था। बहन के विवाह का मुझे सबसे अधिक चाव था। इसकी एक और वजह भी थी। अब तक बहन घर की चैधाराइन बनी घूमती थी। मुझे उससे ईष्र्या-सी भी होती थी। मैं जब कभी उससे किसी बात पर रूठती, कहती, “शुक्र मनाऊँगी जब तू ससुराल जाएगी और घर की मालकिन मैं बनूँगी।“ मुझे लगता था, उसके चले जाने के बाद यह चैधराहट मुझे मिल जाएगी। उसके ससुराल चली जाने पर घर में सबसे बड़ी मैं होती। बहन के विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। कपड़े खरीदे जा रहे थे। गहने बनवाये जा रहे थे। बहन का दहेज तैयार किया जाने लगा। घर में विवाह वाला वातावरण मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। यह सब देखकर मैं भी विवाह का सपना देखने लगती। इन्हीं दिनों भापा जी ने बहन के लिए रोमर की घड़ी खरीदनी थी। मुझे याद है, वह चांदनी चैक गए थे घड़ी लेने। मैं भी उनके साथ थी। मैंने भी अपनी बांह भापा जी के सामने कर दी। ज़िद की कि मुझे भी यही घड़ी चाहिए। भापा जी का विवाह में बहुत खर्चा हो रहा था। उन्होंने इस बात की परवाह किए बग़ैर मुझे भी घड़ी ले दी। भापा जी मेरी कही किसी बात को टालते नहीं थे। बहन का विवाह हुआ। घर में सब तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ थीं। बहन अपनी ससुराल चली गई। उसके चले जाने से घर में एक शून्य-सा पैदा हो गया। माँ भी उसको याद करके रोती रहती, पर वह खुश थी कि बेटी अपने घर चली गई। उस समय बहन तेइस साल की थी और इस उम्र को विवाह के लिए लेट माना जाता था। बहन ससुराल से वापस आई तो वह बहुत बदल चुकी थी। उसके पहने हुए सुंदर वस्त्र मुझे बहुत अच्छे लगते। वह अपनी ससुराल वालों की बहुत अच्छी अच्छी बातें सुनाती। यदि कभी रहने के लिए आती, तो जल्द ही जीजा जी भी उसको लेने के लिए आ जाते। वह भी अपने पति के साथ चल पड़ती। मेरे मन में भी विवाह का सपना उड़ाने भरने लगता।

ग्यारहवीं कक्षा मैंने अच्छे नंबरों से पास कर ली थी। अब सोच रही थी कि आगे क्या करना है। हमारे घर में तो कोई अधिक पढ़ा लिखा नहीं था जो मुझे गाइड कर सकता। मैं अपनी सहेलियों से या इधर-उधर से ही जानकारी ले रही थी। मैं कालेज में पहुँचकर भी पंजाबी विषय ही रखना चाहती थी। पंजाबी पढ़ने के लिए पूरी दिल्ली में उस समय अधिक कालेज नहीं थे। हमारे नज़दीक देव नगर में खालसा कालेज था। मैंने वहीं दाखि़ला लेने का निर्णय कर लिया। मेरे साथ ही हमारी गली की दो अन्य लड़कियाँ भी थीं। दलजीत और परमजीत। दो और आस-पड़ोस में से मिल गईं। एक प्रकार से कालेज में हमारा अपना ही ग्रुप बन गया। हमें एकसाथ जाना सरल लगता। कालेज में मैंने अंग्रेजी, इकनोमिक्स और हिस्ट्री विषय रखे और इनके साथ पंजाबी तो रखनी ही थी। स्कूल में भी ये विषय पढ़े हुए थे इसलिए आसान ही लगते थे। स्कूल में मैंने हिंदी भी पढ़ी थी, पर वह छोड़ दी। दिल्ली की पढ़ाई की एक समस्या यह थी कि पढ़ाई का माध्यम हिंदी होता था या अंग्रेजी। मैंने हिंदी माध्यम से सभी विषय पढ़ने का फैसला कर लिया। मैं क्या, अधिकांश लड़कियाँ हिंदी मीडियम ही ले रही थीं। अंग्रेजी मीडियम तो कोई कोई विद्यार्थी ही लेता जो किसी कान्वेंट स्कूल में से पढ़कर आया होता। हम तो साधारण स्कूलों की ही छात्राएँ रही थीं। सो, कालेज में हमारी पढ़ाई प्रारंभ हो गई। कक्षायें लगने लगीं।

कालेज में बहुत सारे अध्यापक थे। इनमें से एक भिन्न शख़्सियत वाले प्रोफेसर थे - स्वर्ण सिंह। वही स्वर्ण सिंह जिन्होंने बाद में खेलों के विषय में लिखकर खूब नाम कमाया। उन्होंने कुछ समय हमारे कालेज में पढ़ाया था। वह हमारी क्लास लेते, बहुत ही प्यार से पढ़ाते। मैं तो खोई खोई-सी उनकी तरफ देखती ही रहती। वह बहुत ही स्मार्ट और खूबसूरत थे। कुछ अन्य अध्यापक भी थे जैसे कि ज्ञानी जोगिन्दर सिंह, हरबिंदर सिंह, सुरिंदरजीत कौर। मुझे इनमें से स्वर्ण सिंह ही अच्छे लगते। इस कालेज की विशेष बात यह थी कि यहाँ को-एजूकेशन थी। जिस स्कूल में मैं पढ़ी थी, वह प्राइमरी को छोड़कर मिडल और हाॅयर सेकेंडरी में सिर्फ़ लड़कियों का ही स्कूल था। को-एजूकेशन होने के कारण कई बातों का अधिक ध्यान रखना पड़ता। हर समय चैतन्य-सा रहना पड़ता।

एक दिन मैं अपनी सहेलियों के साथ दुकान पर गई। उन्हें ब्रॉ खरीदनी थी। मैं यह तो जानती थी कि ब्राॅ क्या होती है, पर इसको पहना जाना ज़रूरी था, इस बारे में मुझे कुछ नहीं पता था। मैंने अभी तक पहनी भी नहीं थी। मैंने क्या, ब्रॉ तो मेरी माँ ने भी कभी नहीं पहनी होगी। न ही माँ ने मुझे इसके बारे में कुछ बताया था। माँ ने इसके बारे में क्या बताना था, माँ ने तो मुझे मासिक धर्म के विषय में भी कोई जानकारी नहीं दी थी। यही कारण था कि मुझे बहुत सारी मानसिक परेशानियों में से गुज़रना पड़ा था। मुझे लगता है कि मेरी माँ ही नहीं, उस समय सारी माँएँ ही ऐसी थीं। दिल्ली में रहकर भी किसी पिछड़े हुए गांव जैसी। मुझे पता चला कि ब्रॉ तो हर लड़की पहनती है। मैं तो शमीज़ से ही काम चलाये जा रही थी। मेरी सहेली बता रही थी कि ब्रॉ जहाँ लड़कियों को सहज होने में मदद करती थी, वहीं उनकी खूबसूरती को भी बढ़ाती थी। मेरी उस सहेली ने दूसरी सहेलियों को भी बता दिया। वे सभी मिलकर मेरा मजाक उड़ाने लगीं। मुझे एकबार फिर अजीब-सा महसूस होने लगा। मैंने जल्दी ही ब्रॉ खरीदकर पहननी शुरू कर दी। बहुत दिन तक तो मैं उसको माँ से छिपा छिपाकर रखती रही। उसके सामने भी चुन्नी या शॉल ओढ़े रखती। एक दिन धोनी पड़ी तो माँ की नज़र पड़ गई। मुझे लगता था कि कोई बखेड़ा ही न खड़ा कर ले, पर माँ चुप रही। उसने इस बारे में कोई भी टिप्पणी नहीं की।

मैं आहिस्ता-आहिस्ता कालेज के जीवन में रमने लगी। लड़कों की क्लास में भी सहज होकर बैठने लगी थी। लड़कियों के छोटे छोटे हँसी-मजाक में भी हिस्सा लेने लगी थी। पढ़ने में तो मैं ठीक थी ही। कालेज में आकर भी मेरा सपना स्कूल की अध्यापिका बनने का ही रहा। कभी भी मेरे मन में कालेज की लेक्चरर बनने का ख़याल नहीं आया था।

(जारी…)