Rai Sahab ki chouthi beti - 9 in Hindi Moral Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | राय साहब की चौथी बेटी - 9

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राय साहब की चौथी बेटी - 9

राय साहब की चौथी बेटी

प्रबोध कुमार गोविल

9

कहते हैं कि इंसान जब तक दुनिया में रहता है तब तक वो अपने चेतन जगत में दो जहां बुनता रहता है। एक जहां उसे उसके हाथ की लकीरें दिलवाती हैं और दूसरा उसके जिस्म का पसीना!

अम्मा कभी- कभी अकेली बैठी हुई सोचती थीं कि उन्हें "घर" तो हमेशा परोसी हुई थाली की तरह मिले, किन्तु "मकान" को हमेशा उन्होंने अपने हाथ से संवारा।

अम्मा शिक्षिका रही थीं। लंबे समय तक उन्होंने लड़कियों को गृह विज्ञान पढ़ाया था।

अम्मा लड़कियों से कहती थीं कि ये तुम्हारे हाथ में नहीं है कि तुम्हारा घर कहां हो, क्योंकि ये वहां होगा जहां तुम्हारे पिता होंगे, ये वहां होगा जहां तुम्हारे पति होंगे, ये वहां होगा जहां तुम्हारे बच्चे होंगे। लेकिन तुम्हारे ये दो हाथ बेकार बैठने के लिए नहीं हैं, तुम्हारी ज़िम्मेदारी ये है कि तुम्हारा घर जहां भी हो, उसे उसमें रहने वालों के लिए एक आरामदायक मकान के रूप में बदल देने का काम तुम्हारा है।

फ़िर अम्मा उन्हें सिखाती थीं कि मकान की साज सज्जा कैसी हो, उसमें भोजन कैसे और कैसा बने, उसका रंग रोगन कैसा हो, उसके आसपास पेड़ पौधे हरियाली कैसे पनपें, उसमें धूप, हवा, पानी की आमदरफ्त कैसी हो।

यही कारण था कि पचहत्तर साल की उम्र हो जाने पर भी अम्मा घर के एक कौने में राम कृष्ण शंकर विष्णु गणेश हनुमान दुर्गा लक्ष्मी पार्वती की तस्वीरें सजा कर उनके सामने मनकों की माला के सहारे समय काटने में मन नहीं लगा पाती थीं।

तीज -त्यौहार पर अम्मा पूजा - पाठ पूरे विधि - विधान से करतीं और इतना ही नहीं, बल्कि कई बार इस अवसर पर गाई जाने वाली आरती और अन्य भजनों को गाने के बाद अम्मा बच्चों के साथ कभी -कभी ये चर्चा भी करती हुई देखी जाती थीं कि इसमें लिखी किस बात का क्या अर्थ है।

जब कभी बच्चों के स्कूल कॉलेज की छुट्टी होती और अम्मा भी अपनी दिनचर्या के हिसाब से फुरसत में होती थीं तो अम्मा बच्चों को बहुत पुरानी पुरानी अपने बचपन और गुज़रे ज़माने की बातें सुनाया करती थीं।

बाद में जब बच्चे यही बातें अपने मम्मी - पापा को बताते तो वे भी हैरान होकर दंग रह जाते कि ये सब तो हमें भी नहीं मालूम है। बच्चे अपनी इस उपलब्धि पर गर्व से भर जाते कि उन्हें अपने पूर्वजों की बातें अपने माता -पिता से भी ज़्यादा मालूम हैं।

एक ऐसी ही लंबी दोपहर को जब अम्मा घर में अकेली लेटी हुई आराम कर रही थीं, डाकिया डाक लाया।

तीन - चार चिट्ठियों में सबसे पहली ही चिट्ठी अम्मा के नाम थी और उसकी लिखावट देखते ही अम्मा का चेहरा खिल उठा।

चिट्ठी अम्मा की सबसे बड़ी बहन के घर से आई थी और उसमें और सब समाचारों के साथ खास खबर ये थी कि अम्मा की बहन की सबसे बड़ी पुत्री अपने बेटे का विवाह कर रही थी, और उसने सूचना दी थी कि अम्मा शादी में शरीक होने का पूरा प्रयास करें। ये भी लिखा था कि शादी का कार्ड सही समय पर भेजा जाएगा।

चिट्ठी पढ़कर अम्मा की आंखों से सामने से जैसे एक पूरा युग ही गुज़र गया।

अम्मा को अपनी सबसे बड़ी बहन के परिवार की एक - एक बात याद आने लगी।

ये बहन अब जीवित नहीं थीं। किन्तु उनके पति अवश्य अभी जीवित थे और उनकी आयु लगभग सतासी वर्ष थी।

उन्हें रिटायर हुए भी लंबा अर्सा हो गया था।

उनके बच्चे सभी अपनी - अपनी नौकरी के स्थान पर थे, और वे अकेले ही अपनी विशाल कोठी में रहते थे। जिसका एक काफ़ी बड़ा भाग उन्होंने किराए से उठा दिया था।

उनके दो बेटे विदेश में थे, जिनका आना अब कई साल में एक बार होता था।

उनकी चार बेटियां थीं जो अच्छे घरों में ब्याही गई थीं। छोटी तीन ने तो पढ़ाई भी अच्छी की, और दो ने नौकरियां भी कीं।

लेकिन इस सारी बात को मथने में जो लब्बो लुआब निकलता था वो ये, कि अम्मा के ये जीजाजी सुखी नहीं थे।

अब इनका दुःख क्या था, ये भी जान लिया जाए।

इन्हें न रोटी की फ़िक्र थी, न कपड़े की किल्लत और न मकान की ही जिल्लत।

सब था, भरपूर था, ज़रूरत से ज़्यादा था।

बस तकलीफ़ थी तो ये कि सत्तासी साल की उम्र में अकेले थे। अपने घर में कई किरायेदारों को रख लेने के बाद भी एक बड़ा हिस्सा उनके अपने अधिकार में था।

रखते समय सोचा था कि किरायेदार ही सही, घर में दो चार डोलते बुत रहेंगे तो घर आबाद रहेगा। और कभी बीमारी तकलीफ़ में कम से कम तात्कालिक सहारा देने वाले तो रहेंगे।

लेकिन ये लोग ऐसे नहीं निकले। ये तो धीरे- धीरे मकान को घेर लेने वाले लालची लोग निकले, और अब इनसे मकान ख़ाली कराने के लिए विदेश से कुछ दिन के लिए आए उनके बेटे ने मुकदमा भी डलवा दिया।

मुक़दमे के बाद उनका ये हाल हो गया कि घर में खाने- नाश्ते में जो कुछ बने उसमें से वे कुत्ते को भले ही कुछ डाल दें, बूढ़े मकान मालिक के लिए एक दाना न था। ख़ैर, मालिक को इसकी दरकार भी नहीं थी।

उधर कचहरी में तो सारा मामला बेटे के ससुराल वाले देख रहे थे, पर घर में उन्हें देखने वाला कोई न था। यदि कोई सेवक, कर्मचारी वे रखते भी तो किरायेदार डरा- धमका कर उसे भगा देते थे।

अम्मा ने ये सब पढ़ लिया। ये सब जान लिया। इससे वो तनिक भी विचलित नहीं हुईं।

अम्मा का मानना था कि ये सब तो आजकल घर- घर में हो रहा है।

कुछ लोग मेहनत और ईमान का खाना चाहते हैं और कुछ लोग बेईमानी और नकारेपन का। इसका इलाज तो किसी के पास नहीं है। इसके लिए तो राम को रावण से और श्याम को कंस से लड़ते रहना पड़ेगा।

लेकिन अम्मा को जिस बात ने विचलित किया वो बात कुछ और थी। जिसका ज़िक्र आने वाले पत्र में भी था।

वो बात ये थी कि सत्तासी साल के पिता को बीच- बीच में छुट्टी लेकर संभालने आती इस बड़ी बिटिया को खुद उसी के विदेश में बैठे छोटे भाई ने बातों - बातों में ये कह दिया था कि उसकी नजर पिताजी के स्वास्थ्य पर नहीं, बल्कि पिताजी के मकान पर है, इसलिए वो बार - बार वहां जाती है।

हद हो गई!

वो बेटा ये तो कह नहीं सका कि मैं विदेश में रहने के कारण जल्दी- जल्दी अा नहीं पाता इसलिए पिताजी को तुम आकर संभाल लिया करो, उल्टे उसने ये कह दिया कि तुम तो मकान के लालच में वहां पहुंचती हो।

शायद पाश्चात्य देशों की भौतिकता वादी सोच उस पर हावी होकर उसे किसी क्षण कमज़ोर कर गई होगी, और उसने हज़ारों मील दूर बैठी बहन के कानों में अपना ये विचार पिघले सीसे की मानिंद उंडेल दिया होगा, पर अम्मा को ये पढ़ कर बेचैनी ज़रूर हुई।

लेकिन अम्मा का जिगर भी अब एक ऐसा तट था जिस पर कसैले- खारे पानी की असंख्य लहरें आ - आकर टकरा चुकी थीं।

सूरज उतर रहा था, धूप ढल रही थी, अम्मा उठ कर रसोई में आ गईं।

थोड़ी देर में वहां से आलू के पापड़ भूने जाने की महक आने लगी।

कुछ देर बाद अम्मा की बहू अपने दफ़्तर से लौट कर आई तो घर की चहल- पहल में दोपहर की सारी कड़वाहट थोड़ी देर के लिए बिसरा दी अम्मा ने।

बहू ने गाड़ी से उतर कर अम्मा की दवा और फलों का पैकेट ख़ुद अपने हाथ से ले जाकर अम्मा को दिया,और फिर चाय बनाने के लिए रसोई में चली गई।

गाड़ी के ड्राइवर ने बहू का ऑफिस बैग और लैपटॉप उतार कर घर के भीतर रखा और फिर वो चला गया।

इधर - उधर खेलते बच्चे भी मम्मी के ऑफिस से लौट आने की गंध पाकर घर के भीतर चले आए।

अम्मा की ड्यूटी जैसे खत्म हुई। उन्होंने चाय का प्याला हाथ में आते ही टीवी का रिमोट उठा लिया और घर की ओर से पीठ फेर ली।

अब घर बहू का हो गया। अम्मा मेहमान हो गईं।

बहू अपनी तमाम व्यस्तता के बीच भी अम्मा के लिए जो कुछ करती थी, वो अम्मा को कैसा लगता था, ये अम्मा खुद भी नहीं जानती थीं।

सच में, उन्हें तो ऐसा लगता था कि जैसे किसी ने पहले तो चौबारे की तुलसी उखाड़ फेंकी हो, और फिर बाद में उसे फ़िर से मिट्टी में दबा कर तन मन धन से खाद पानी देकर उसे सींच रहा हो।

ऐसे कहीं बिरवे फ़िर से पनपते हैं... शाख से टूट के गुंचे भी कहीं खिलते हैं?

अम्मा के गए दिन तो अब बहू लौटा कर ला नहीं सकती थी।

बहू का इस घर में आना हुआ और अम्मा की दुनिया उजड़ी। ये भला कैसे भूल सकती थीं अम्मा? हालांकि ये बात कई साल पुरानी हो चुकी थी जब अम्मा के इस बेटे के प्रेम विवाह के बाद अम्मा का सुहाग उजड़ा था, पर अम्मा को सालों से क्या लेना... कष्ट जब तक दिमाग़ को मथेगा, दुत्कारा ही जाएगा!

अब ये तो बहू की ज़िम्मेदारी ठहरी, अम्मा के मानस को सहलाए, अम्मा की ज़िन्दगी को दुलराए, और ये अम्मा का विशेषाधिकार ठहरा कि वो उसे मन से माफ़ करें या न करें।

फ़िर बेटे की पोस्टिंग तो हज़ारों किलोमीटर दूर थी, बहू यहां दो बच्चों के साथ अकेली। कितना भी बड़ा ओहदा हो, घर दफ़्तर और बच्चों को एक साथ संभालने के लिए उसे घर पर अम्मा तो चाहिए ही। बच्चे छोटे ठहरे।

सेवक, सहायक, काम वाली बाई, ये सब कितने भी सही, उनके आने- जाने और काम करके जाने के दौरान घर पर अम्मा को होना तो ज़रूरी ही ठहरा।

तो इस तरह नियति ने ये व्यवस्था दी थी कि सास और बहू के बीच यदि कोई खुन्नस, परायापन हो तो दोनों चौबीस घंटे साथ -साथ रह कर निपटें।

बेटा इसमें क्या करे? वो तो मां का भी प्यारा,बहू का भी चहेता।

अम्मा दिन भर की हारी- थकी बहू को जब रात के खाने में खुद अम्मा के लिए गर्म फुलके बनाते देखती थीं तो आत्मीयता से पसीज जातीं । फिर थोड़े मुलायम स्वर में कहतीं, तू रहने दे, बाई बना कर तो गई है, वही खा लूंगी।

बहू मन ही मन कुछ मुस्कुराती हुई अम्मा की पसंद का अचार निकाल कर उनकी थाली में रखती और खाना खाकर अम्मा कहतीं - तू खाना खाले पहले, फ़िर आज ज़रा मेरे सिर में थोड़ा तेल लगाना, बड़ी खुश्की सी हो रही है।

घर की दीवारों को लगता, जैसे सब ठीक हो गया है। बच्चे भी अम्मा के पास आकर उनसे कहानी सुनने की ज़िद करते और धीरे- धीरे गहराती रात मुस्कुराने लगती।

लेकिन अगली सुबह जब बहू के ऑफिस की गाड़ी उसे लेने आती, उस के विभाग का पियोन उसका बैग और लैपटॉप उठा कर गाड़ी में रखता, और घर से निकलती बहू को रास्ते के सब आने- जाने वाले सलाम करके "गुड मॉर्निंग मैम, सलाम साब, नमस्ते आंटी" कहते तो अम्मा के मानस में जैसे फ़िर कोई गुस्से, उपेक्षा या बेरुखी का मंतर फ़िर जाता।

उन्हें यकायक याद आ जाता कि ये तो वही औरत है जो अम्मा के बेटे से प्रेम करके इस घर में चली अाई, और आज बेटा तो परदेस में पड़ा है और इसका यहां राजपाट चल रहा है।

यक- ब- यक उन्हें ये भी याद आ जाता कि वर्षों पहले इसके घर में आते ही वकील साहब ने दुनिया छोड़ दी थी और अम्मा को अपनी ज़िंदगी की कश्ती खेने के लिए अकेला छोड़ दिया था।

फिर बहू की गाड़ी जाते ही अम्मा धड़ाक से घर का दरवाज़ा बंद करके अपने बिस्तर के समीप आती थीं और टीवी का रिमोट उठा लेती थीं।

अम्मा को कुछ देर का अकेलापन खलता, लेकिन तभी बच्चों को देख कर उन्हें ये अहसास भी हो जाता कि यही औरत तो उनके पोते -पोती की मां भी है। वो फिर कुछ गम खा जाती थीं और खाना बनाने वाली बाई से कहती थीं- आज बहू सुबह नाश्ता नहीं कर गई है, उसके लिए खाना जल्दी बना देना, शायद जल्दी अा जाए।

बच्चे भी स्कूल चले जाते और अम्मा की सोच का रजतपट फ़िर से गुज़रे ज़माने की कोई आपबीती अम्मा को दिखाने के लिए झिलमिलाने लगता।

दोपहर को बच्चे जब खेलने चले जाते, अपने स्कूल का होमवर्क करते या सो जाते, तो अम्मा फ़िर अकेली हो जाती थीं।

आज न जाने क्या बात थी, अम्मा को अपनी दूसरी बड़ी बहन भुवनेश्वरी बहुत याद आ रही थीं।

हां, याद आया, अम्मा ने आज खाना खाने के बाद अपनी अलमारी से अपनी एक छोटी पुरानी डायरी निकाल कर पलट ली थी।

और तभी अम्मा को पता चला कि आज भुवनेश्वरी बीवी की सबसे बड़ी बिटिया का जन्मदिन है।

शायद इसीलिए आज अम्मा की याद में उनका परिवार रह रह कर झलक रहा था।

इन बहन के साथ भी तो कुछ कम बुरा नहीं हुआ। एक एक करके तीन बेटियां हुईं और फिर छोटी सी उम्र में, छोटी सी बीमारी के बाद, अपने परिवार को छोटी सी मोहलत देकर ये जीजाजी चल बसे थे।

तीसरी तो तब बहुत ही छोटी थी। ये भी नहीं जानती थी कि किसी लड़की के लिए बचपन में ही उसके पिता का दुनिया छोड़ कर चला जाना क्या होता है!

और दुनिया का ये कुटिल सत्य तो बड़े- बड़े बुजुर्ग भी आसानी से कहां जान पाते हैं कि दुनिया में अपने बेसहारा परिवार की नैया को हिचकोले खाते हुए छोड़ जाना क्या होता है।

बीवी ने बच्चियों को पालने के लिए तन- मन- धन से कमर कसी, और जीवन संघर्ष में जुट गईं। पहले अपनी पढ़ाई पूरी की, और फ़िर एक दिन एक महिला कॉलेज की प्रिंसिपल के ओहदे तक पहुंच कर दम लिया।

अम्मा जब भी विचलित होती थीं तो सोच के तराजू पर एक ओर अपना दुःख रखती थीं और दूसरी तरफ अपनी बहन का।

फिर अम्मा अकेली बैठी हंसती थीं, इस आंखों पर काली पट्टी बांध कर खड़ी बेबस न्याय की देवी पर।

और जब हंसते -हंसते आंखें छलक उठें तो उठ कर रसोई में आ जाती अम्मा।

बच्चे जब अम्मा को इस हालत में देखते तो सोचते, अम्मा ने ज़रूर दोपहर की चाय के साथ पकौड़े बनाने को प्याज़ काटी होगी।

***