Ek April ki kahaani in Hindi Moral Stories by Neerja Dewedy books and stories PDF | एक अप्रैल की कहानी

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एक अप्रैल की कहानी

एक अप्रैल की कहानी

नीरजा द्विवेदी

शीला एक अंतर्देशीय पत्र लेकर विचारमग्न खड़ी थीं. उनके पति ने धोखे से बेटी के मंगेतर का पत्र खोल दिया था और अपराध बोध से ग्रस्त होकर झिझकते हुए बोले थे—

“मैं भूल गया था कि अब बेटी की शादी तय हो गई है तो उसके लिये भी पत्र आ सकता है. मैंने अपना पत्र समझकर बिना देखे हुए पत्र खोल दिया. मैंने पत्र पढ़ा नहीं है”—और सकुचाते हुए पत्र पुत्री को देने के लिये शीला के हाथ में थमा दिया था.

पापा के दृष्टि से ओझल होते ही नीरजा ने शर्माते हुए मम्मी के हाथ से पत्र लेने के लिये जैसे ही अपना हाथ आगे बढ़ाया था कि चील की तरह झपट्टा मारते हुए उसकी छोटी बहिन सुषमा चपलता से पत्र छीनकर उड़नछूँ हो गई. उसके पीछे-पीछे छोटा भाई राजीव भी कुलांचे भरने लगा और फिर दोनों की छीनाझपटी में जब पत्र के चिथड़े होने की नौबत आने लगी और मम्मी की डाँट पड़ी तब पर नुचे पक्षी की दशा में पत्र नीरजा के हाथ लग पाया. वह पत्र खुल जाने या फट जाने से इतना परेशान नहीं हुई जितना कि अब उस पत्र की विषयवस्तु की जानकारी मिलने से विचारमग्न हो गई. पत्र इस प्रकार सम्बोधित था—

1 अप्रैल 1964.

प्रिये नीरजा

आशा है तुम सब लोग कुशल से होगे. एक गम्भीर समस्या उत्पन्न हो गई है. मुझे ट्रेनिंग के लिये अगले माह ही एक वर्ष के लिये रूस जाना है. मैं चाहता हूँ कि अगले सप्ताह में हम लोग रजिस्टर्ड मैरिज कर लें अन्यथा एक वर्ष के बाद ही छुट्टी मिलेगी. वीसा बनवाने में भी समय लगेगा. वापसी डाक से अपनी सहमति के विषय में सूचित करना. पत्र में केवल ‘यस’ या ‘नो’ लिख देना. आगे की बात मैं पिताजी से कर लूँगा. उत्तर की प्रतीक्षा में ---

शुभेच्छु तुम्हारा --- महेश.

वास्तव में महेश सन 1963 बैच के आई.पी.यस. प्रशिक्षु थे और इस समय मसूरी की प्रशासनिक अकैडमी में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे. इसी समय उनकी और नीरजा की सगाई हो गई थी. उस समय माता-पिता की सहमति से विवाह तय कर दिये जाते थे. विवाह पूर्व लड़के या लड़की के एक-दूसरे को देखने या मिलने-जुलने का चलन नहीं था तो ऐसे में परस्पर पत्राचार करना तो अकल्पनीय बात थी. नीरजा एक तो पत्र देखकर संकुचित थी ऊपर से पत्र की विषयवस्तु ने उसे चिंतित कर दिया था. उसने पत्र कई बार पढ़कर अपनी मम्मी को थमा दिया. अचानक उसके मानस में पत्र लिखने की तिथि बिजली की तरह तड़क उठी—‘’एक अप्रैल सन उन्नीस सौ चौंसठ.’’

पत्र पढ़ते ही नीरजा को ऐसा प्रतीत हुआ कि हो न हो यह पत्र एक अप्रैल को लिखा गया है अतः यह महेश जी की शरारत है परंतु जब उसके मम्मी-पापा ने पत्र देखा तो उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं. उसके मम्मी-पापा महेश के भोले चेहरे को देखकर भ्रमित हो गये थे और किसी तरह यह मानने को तैयार न थे कि यह उनकी शरारत हो सकती है और उन्होंने नीरजा को ऐप्रिल फूल बनाने के लिये यह पत्र लिख दिया है. उनकी रात की नींद और दिन का चैन हराम हो गया.

नीरजा को विश्वास हो गया था कि यह पत्र एक अप्रैल को लिखा गया है अतः यह अवश्य महेश जी की शरारत है परंतु उसके मम्मी-पापा किसी तरह इस बात से सहमत न थे. उसने देखा कि पत्र लेकर उसकी मम्मी पापा को आफिस से बुला लाई हैं और दोनों जने विचारग्न होकर आंगन में चिंतित मुद्रा में टहल रहे हैं.

अगले दिन नीरजा की मम्मी ने कहा कि तुम पत्र के उत्तर में महेश को लिखो कि ” वह हम लोगों से इस विषय पर फोन से वार्तालाप करें.”

महेश ने भी कल्पना नहीं की थी कि कोई लड़की इतनी मूर्ख होगी कि अपने मंगेतर के पत्र को माता-पिता को दे दे या सार्वजनिक कर दे. जैसी आशा थी उधर से न कोई उत्तर आया और न ट्रेनिंग का समाचार मिला. महेश माउंट आबू में ट्रेनिंग करते पाये गये.

चौदह जून उन्नीस सौ पैंसठ को नीरजा और महेश का पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हुआ. उस समय महेश की ए.यस.पी. ट्रेनिंग के पद पर ललितपुर में नियुक्ति थी. विवाह के उपरांत जुलाई में नव दम्पति ललितपुर आ गये. एक दिन महेश को जंगल में बसे एक गाँव में पड़ी डकैती के स्थल पर जाँच करने जाना था. अपराध का स्थान ललितपुर से काफी दूर था अतः महेश नीरजा को भी अपने साथ ले गये और रात्रि विश्राम के लिये वे लोग सघन जंगल के बीचोबीच में स्थित एक डाकबंगले में रुके. चारों ओर साल, पीपल, शीशम, आम के घने वृक्ष थे. डाकबंगले का बाह्य परिवेश अत्यंत सुंदर था. सामने एक सुंदर, गोल चबूतरा था जिसके बगल की क्यारियों में गुलाब और मौसमी पुष्प लगे हुए थे. वहाँ पहुँचते-पहुँचते संध्या हो गई थी और पूर्णिमा का थाली जैसा चाँद चारों ओर अपनी चांदनी का प्रकाश विकीर्ण करते हुए जंगल की रमणीकता को और अधिक मोहक बना रहा था. इतने में डाकबंगले के बाहर जंगल से गीदड़ों के समवेत स्वर ने वातावरण को भयानक बना दिया. चौकीदार ने कहा— “साहब! यहाँ बिजली रात को नहीं रहती. मैं लालटेन जला कर रख देता हूँ. कमरे में वक्त ज़रूरत के लिये मोमबत्ती और माचिस रख देता हूँ. कभी-कभी जंगली जानवर आ जाते हैं, आप लोग रात में बाहर टहलने न निकलना, दरवाज़े ठीक से बंद कर लेना.’’

डाकबंगले के पिछले बरामदे में गार्ड के सिपाहियों ने अपने बिस्तर लगा लिये थे. रात को भोजन से निवृत होने के पश्चात नीरजा के पापा का नामाराशी चपरासी राधेश्याम जिसको वे लोग उसकी देखभाल करने की आदत के कारण गार्जियन नाम से सम्बोधित करते थे, के विदा ले लेने के पश्चात नीरजा और महेश कक्ष की जंगल की ओर की खिड़की खोल कर बाहर देखने लगे. रात के नौ बजे थे पर जंगल के नीरव वातावरण को बीच-बीच में झींगुर की झनकार संगीतात्मक बना रही थी. बंगले के एकदम बाहर जंगल में रहने वाले हिरणों के शेर को देखकर सतर्क करने वाले स्वर वातावरण को रोमांचक बना रहे थे. महेश को सोने से पूर्व कमरे के दरवाज़ों को अच्छी तरह बंद करने और तकिये के नीचे रखते समय रिवौल्वर में गोली भरते देखकर नीरजा ने सशंकित होकर महेश को देखा तो उन्होंने उत्तर दिया--- “यह डकैतों का इलाका है. सावधान रहना है.”

अगले दिन महेश प्रातः साढ़े आठ बजे जीप से घटना स्थल के मुआयने के लिये चले गये. नीरजा तैयार होकर बाहर चबूतरे पर बैठ गई. पहली बार भाई-बहिन भी साथ न थे और न ही महेश जी तो समय काटना दूभर हो गया था. कितनी देर पुस्तकें पढ़ती? जंगल में कोयल कूक रही थी तो स्वयं ‘कू’-‘कू’ कर उसे चिढ़ाने का मनपसंद शौक भी पूरा नहीं कर सकती थी. सुरक्षा में खड़े ग़ार्ड के संतरी को देखकर उसे नया-नया मेमसाहब बनने का कर्तव्य निभाना आवश्यक था. वह मन मसोस कर रह गई. महेश सरकारी कार्यवश बाहर गये थे और एक बजे के पहले उन्हें वापस नहीं आना था तो वह कमरे में जाकर लेट गई. अचानक उसे महेश के पहली अपरैल उन्नीस सौ चौंसठ के पत्र की स्मृति हो आई. वैसे तो नीरजा शैतानियों से दूर रहती थी. यह काम उसकी छोटी बहिन सुषमा और भाई राजीव के जिम्मे रहता था परंतु उस दिन महेश को आने में विलम्ब हो रहा था, दोपहर के तीन बजने वाले थे अतः नीरजा को शैतानी सूझी. मन में सोचा कि शादी के पहले जनाब जी ने ऐप्रिल फूल बनाया था, आज मैं शरारत करती हू. अचानक बाहर बरामदे में वायरलेस सेट पर ए.यस.पी. साहब के लौटने की सूचना सुनाई दी और गार्ड के हवलदार द्वारा सिपाहियों को सतर्क रहने के लिये कहा गया.

नीरजा ने झट से उठकर चारपाई पर तकिये रक्खे और चादर से ऐसे ढंक दिये जैसे कोई लेटा हो. पुस्तक आधी खुली अवस्था में सिरहाने रख दी. चप्पलें चारपाई के पास अव्यवस्थित करके रख दीं. कमरे के पीछे जंगल की ओर खुलने वाले दरवाज़े को खोल दिया और स्वयं जाकर शीघ्रता से स्नानगृह के दरवाज़े के पीछे छिप गई. महेश ने दरोगा जी को विदा कर दिया और गुनगुनाते हुए कमरे के अंदर प्रवेश किया. पी कैप और बेंत मेज़ पर रक्खा. अब बड़े प्यार से हौले से चादर छूते हुए आवाज़ लगाई—“नीरजा आ आ आ आ’’.(आवाज़ चीख में बदल गई.)

बिस्तर पर चादर से ढँके हुए तकिये, जंगल की ओर का दरवाज़ा खुला, सिरहाने अधखुली पुस्तक, बिस्तर के किनारे अव्यवस्थित चप्पलें और नीरजा को वहाँ न देखकर छोटे कप्तान साहब के होश उड़ गये. अभी-अभी डकैती के घटनास्थल से आये थे. घबराये हुए दौड़कर स्नानगृह में झांकते हुए उन्होंने गार्जियन को आवाज़ लगाई—“राधेश्याम! मेमसाहब कहाँ आ आ?

मामला बिगड़ते हुए देखकर नीरजा झट से स्नानगृह के बाहर निकल कर सामने खड़ी हो गई. उसने देखा उखड़ी-उखड़ी श्वांसें, उड़े-उड़े बाल, पीला पड़ा चेहरा, हवाइयाँ उड़ी हुई मुखाकृति, हकलाते से घबराये स्वर में हड़बड़ाते हुए महेश जी उसे सामने देखकर सकपकाये खड़े थे. प्रवेश द्वार से अंदर आते हुए गार्जियन अचम्भित सा दोनों की ओर देखते हुए घटना जानने का प्रयास करते हुए बोला—

‘’जी साहब.’’

नीरजा ने स्थिति सम्हालते हुए शीघ्रता से उत्तर दिया—

“खाना लगा दो.” महेश को प्रकृतस्थ होने में समय लगा. नीरजा ने कभी शैतानी न करने की शपथ खाई.