Tumne kabhi pyar kiya tha - 4 in Hindi Love Stories by महेश रौतेला books and stories PDF | तुमने कभी प्यार किया था? - 4

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तुमने कभी प्यार किया था? - 4

 
 
वर्षों बाद उसे अपने पुराने दिन याद आने लगते हैं। अहिल्या की तरह पत्थर बनी बातों को समय जगा देता है। भोर की मंत्र की तरह मैं उसे याद आने लगती हूँ। अपने मन को वह खोलने की कोशिश करता है -
तुम्हारी बात का
कोई किनारा दबा हुआ है,
तुम्हारे पैर का
कोई कदम रूका हुआ है,
तुम्हारे हाथ का
कोई स्पर्श सहमा हुआ है,
तुम्हारी मुस्कान का
कोई किनारा छूटा हुआ है,
तुम्हारे नाम के
अक्षर-अक्षर उखड़े हुये हैं,
तुम्हारी घर का
कोई कोना टूटा हुआ है,
तुम्हारी आशा का
कोई किनारा दबा हुआ है।
वह उस गली में आना चाहता है, जहाँ मैं रहा करती थी।वर्षों पहले वह वहाँ आया था। इतने सालों में शहर भी बदल गया था।रोडवेज का बस अड्डा उसे याद था। तब नया-नया बना था, तो अच्छा लगता था । अबकी बार उसमें पुरानपन आ गया था। कंकड़-पत्थर साफ नजर आ रहे थे।मेरे बारे में भी उसके मन में कुछ ऐसे ही विचार आये होंगे। उसके जीवन में जो भी जब आया वह उसका हमेशा कृतज्ञ रहा। सीधा रास्ता वह भूल चुका था। उसने अपने ड्राइवर को अनेक मोड़ मुड़वाये। और बीच-बीच में मेरी गली के कालेज का पता लोगों से पूछा।अन्त में उसने कार को राज स्कूल पर रोका और ड्राइवर से वहीं पर कार को पार्क कर इंतजार करने को कहा। वहाँ पर किसी बुजुर्ग ने उसे बताया कि इस विद्यालय को बनाने के लिये जमीन चन्द राजघराने ने दी थी,कभी।वह कुमाऊँ के कत्यूरी और चन्द राजाओं के इतिहास के विषय में थोड़ी-बहुत जानकारी रखता था। वह मेरी गली को खोजने के लिये एक गली में प्रवेश किया। उसके हाथ में दो किताबें थीं। कुछ दूर गली में जाकर उसने लोगों से स्कूल के बारे में पूछा। हिम्मत हारकर उसने रिक्शा किया और स्कूल तक पहुँच गया। रिक्शेवाले को दस रुपये देकर लौटा दिया। स्कूल के गेट पर ताला लगा था। उसे मेरे घर का अंदाजा नहीं हो रहा था। इधर-उधर कुछ देर वह देखता रहा। लेकिन भाग्य वहाँ नहीं मंडरा रहा था।किसी से पूछने में भी वह हिचकिचा रहा था। उसने एक किताब स्कूल के अन्दर डाली।फिर रिक्शा किया और अपनी कार तक पहुँच, ड्राइवर को गेस्ट हाउस चलने को कहा।
गेस्ट हाउस जाकर उसने चाय पी और टेलीविजन देखा। दूसरे दिन वहाँ से एअरपोर्ट रवाना हो गया।
चार-पाँच महिने बाद वह फिर मेरे उसी शहर में आया जहाँ मैं पली -बढ़ी थी। इस बार वह रास्ता भटका नहीं। कार निश्चित जगह पर पार्क कर, रिक्शे से स्कूल तक पहुँचा। रिक्शे को छोड़, स्कूल के पास खड़ा हो गया। स्कूल बंद था क्योंकि छह बज चुके थे।विद्यालय के सामने के घर गिरा दिये गये थे।वहाँ पर नयी बहुमंजलि इमारत बनने वाली थी। सामने छोटे से मैदान में बच्चे खेल रहे थे। उसने सोचा, कभी वह भी ऐसे ही बैफिक्र खेला करता था।तब किसी की तलाश नहीं होती थी। और बीते समय पर मन नहीं घूमता था।
उसने एक घर में पूछा "इस बगल वाले स्कूल की प्रिंसिपल कोई जोशी थी क्या?" अन्दर से आवाज आयी "नहीं,वह तो राजकीय कन्या विद्यालय में थी।" वह वहाँ से आगे बढ़ा और एक बुजुर्ग आदमी से पूछा, उसने बताया "हाँ थी, वे अब रानीपोखर में रहते हैं।टेलीफोन एक्सचेंज से पता कर लो।" फिर उसने एक और व्यक्ति से पूछा, उसने अनभिज्ञता व्यक्त की और कहा सामने वाली दुकान में पूछ लो। वह सामने वाली दुकान पर गया और जानकारी माँगी।दुकानदार बोला "उनका तो देहांत हो गया है। लगभग दस -बारह साल हो गये हैं।उनके बच्चे रानीपोखर में रहते हैं।"
उसे बहुत दुख हुआ।मेरी माँ की आत्मा के लिये मन ही मन शान्ति माँगी। पुरानी बातें एक-एक कर उसे याद आ गयीं।आगे कुछ नहीं सूझा।वहाँ से लौट, उस गली में आया जहाँ कभी मेरा घर था।
पूरी गली को ध्यान से देख ,मेरे वहाँ होने की कल्पना करता रहा। फिर रिक्शा ले,कार तक आया फिर गेस्ट हाउस आ गया। रास्ते भर सोचता रहा " उसे पूछना चाहिए था कि रानीपोखरी में कौन-कौन रहते हैं? मेरे वहाँ रहने की पुष्टि करनी चाहिए थी।" लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। दूसरे दिन शहर छोड़, चला गया।
दिल्ली एअरपोर्ट पर उसने अपने विचार और भावनाएं इस प्रकार व्यक्त की -
“बहुत सी खबरें लाया हूँ
अपनों के लिये
परायों के लिये,
जैसे बादल फटना
मकानों-दुकानों का बहना
सड़कों का चित्त होना
पगडण्डियों का दबना,
भ्रष्टाचार के बीच सदाचार की पंक्तियाँ,
अंधाधुंध दौड़ में प्यार का दबना,
धरती की हरियाली,
शब्दों की टकराहटें,
सीमा पर शहीदों की चितायें,
राजनीति का गिरना,
राजा का लुप्त रहना,
भाषाओं का भू-स्खलन,
हमारा लापता होना,
उदासी के बीच
नक्षत्रों सी टिमटिमाहट।
बहुत सी खबरें लाया हूँ
अपनों के लिये
परायों के लिये।“
और अपने शहर में पहुँच कर उसने लिखा-
“ तेरी ही बातों को
मैं सगुन बना लूँगा,
विदा होने की घड़ी को
याद बना दूँगा,
तेरी बिछी आँखों को
मन से पिरो लूँगा,
उदास चेहरे में
खुशी मिला लूँगा ,
मैं इस घड़ी को
नया नाम दे दूँगा,
अटके सब भावों को
शब्दों में बाधूँगा ।
तेरी ही बातों को
मैं सगुन बना लूँगा,
आने वाली हर सुबह में
तुझे मुझे जपना है,
कनखनियों से आती यादों का
एक पहाड़ बनना है,
पैर तले लगी माटी से
पगडण्डी लम्बी करनी है,
अनकहे प्यार को सुनकर
अपनी जिजीविषा सुलझानी है,
दुख की सोच जो बनी यहाँ
उसे सुख तक लाना है,
गत मिले हाव-भावों को
कान पकड़कर बैठाना है ,
लोगों की आती भीड़ से
कदम अलग करके जाना है।
इस विदाई में कुछ फूल लेने हैं
फूलों की तरह खिल
इक सुवास तुम तक पहुँचानी है,
मैं कौन हूँ ?
खोजा नहीं गया हूँ,
मेरी टूट -फूट में
मेरी उम्र दिखती है ,
पर मेरी आत्मा में अभी
फूल खिला करते हैं,
सपने जब भी आयेंगे छनकर
देश बनकर खिलखिलाना तुम
अभेद्य सीमा के लेख बन
कहीं उतर जाना
हँसकर तुम,
या कोई रूप धर
मेरी हँसी में मिल जाना।
यह समय मुझसे छूटता है
वह समय मुझे पकड़ता है
यदि गीत बना तो गुनगुनया करना
यदि याद बना तो दोहराया करना,
यदि राह हुआ तो चला करना
यदि उत्कर्ष लिया तो उड़ा करना।
मैं विदा हुआ , पर एक कदम आगे चला हूँ,
स्वर की तरह ,स्वर में आ गया हूँ
पतझड़ भी मन में है, उत्सव भी घर में है ,
विदा होने के बाद ,मैं तेरी यादों से घिरा हूँ,
विदा होने के बाद ,मैं तेरी आँखों से बँधा हूँ ।“
 
वह अनदेखे भविष्य की तरह कभी प्रकट और कभी विलीन होता रहा।
 
** महेश रौतेला