सर्वे भवन्तु सुखिनः
डा. फादर वलन अरासू सेंट अलायसिस महाविद्यालय में प्राचार्य के रूप में कार्यरत है। उन्होंने मसीही दर्शन के साथ ही भारतीय सनातन दर्शन का भी गहन अध्ययन किया है। उन्होंने जीवन, मृत्यु के बाद की स्थितियों पर एक तुलनात्मक सारगर्भित एवं संक्षिप्त प्रकाश डाला है।
मृत्यु से साक्षात्कार का अनुभव मुझे उसी प्रकार है जिस प्रकार आसन्न मृत्यु की संभावना से उबर कर लोग नवीन जीवन प्राप्त कर पाते है। वर्ष 1997 में एक वाहन दुर्घटना के परिणाम स्वरूप मैं गंभीर अवस्था में चेतना शून्य हो गया था, जीवित रहने की आशा की कोई किरण दिखायी नही दे रही थी, लेकिन मेरी जिजिविषा प्रबल थी। मैं जीना चाहता था। केवल एक ही विश्वास था, परमेश्वर का, मैं जानता था कि उसकी इच्छा के बिना मनुष्य चाहकर भी उसकी शरण प्राप्त नही कर सकता। प्रभु के प्रति मेरे अटूट् विश्वास ने मुझे वह सम्बल दिया और मैं मृत्युंजय बन गया। मेरा विश्वास है कि परमेश्वर के प्रति अटूट् विश्वास आपको वह शक्ति प्रदान करता है, जिससे आप कठिन से कठिन स्थिति से बाहर आ पाते है। मृत्यु तो अवश्यम्भावी हैं, कोई अमर होकर नही आता, लेकिन अपने अस्तित्व को उसके हाथों में सौंपकर आप मृत्यु के साक्षत्कार को अपनी दृढ इच्छाशक्ति के बल पर टाल सकते है।
जीवन तथा जीवन की सार्थकता के विषय में भारतीय तथा पाश्चात्य वांगमय विभिन्न विचारों से भरे पडे हैं लेकिन एक मूल विचार से सभी सहमत है कि हानि लाभ, जीवन मरण, यश अपयश परमेश्वर के हाथ में है। संसार में यदि कोई भी घटना घटित होती है तो उसके पीछे कोई न कोई कारण होता है। किसी भी मनुष्य का जन्म एक घटना ही है। यह हमें अवश्य सोचना चाहिये कि परमेश्यर ने यदि हमें जीवन देकर सृष्टि का हिस्सा बनाया है तो इसका कुछ न कुछ कारण अवश्य है। जिस प्रकार दिव्य चेतनायें किसी खास प्रयोजन से जन्म लेकर सृष्टि में आती है और मानव मात्र के कल्याण की परियोजना पर कार्य करती है, उसी प्रकार साधारण मनुष्य भी अपने छोटे छोटे मानवीय प्रयासों से मानव तथा अन्य जीवों के प्रति दया, प्रेम, करूणा, अहिंसा आदि के भाव बाँट सकता है। यही जीवन की सार्थकता है।
संसार में प्रतिक्षण अनेकों जीव मृत्यु को प्राप्त होते है, लेकिन कुछ लोग ऐसे होते है जिनके बिछोह से मन आँसुओं के सागर में डूब जाता है। वस्तुतः ऐसे लोग ही सही जीवन जीते है। मनुष्य को चाहिये कि परमात्मा के उस प्रयोजन को समझने का प्रयास करें कि उसके जन्म तथा जीवन का क्या उद्देश्य हो सकता है ? यदि वह यह विचार करने में अपने को असमर्थ पाता है तो कम से कम उसे यह अवश्य मान लेना चाहिये कि वह मनुष्य है इसलिये उसकी सोच तथा दृश्टिकोण मानवीय ही होना चाहिए।
भारतीय आध्यात्मिक चिंतन में मृत्यु के पश्चात भौतिक शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाने तथा आत्मा का परमात्मा (परम तत्व) में विलीन हो जाने का सिद्धांत प्रचलित है। यह भी कि मनुष्य के कर्म के आधार पर उसे आगे विभिन्न योनियों में शरीर धारण करना होता है। इसे उसके कर्मों का प्रतिफल कहा जाता है। यह भी विचार प्रचलन में है कि मन, वचन, कर्म से ईष्वर के प्रति समर्पित मनुष्य आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
मसीही चिंतन पुनर्जन्म पर विश्वास न कर पुनर्जीवन पर विश्वास करता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि मनुष्य दो प्रकार से षरीर धारण करते है, प्रथम आध्यात्मिक शरीर तथा दूसरा पार्थिव शरीर। आध्यात्मिक षरीर मृत्यु के पश्चात कब्र में विश्राम करते हुए प्रभु ईशु के पुनः अवतरण की प्रतीक्षा करते है। इस स्थिति में मृत शरीर छोड चुकी आत्माएँ शोधक अग्नि के माध्यम से शुद्ध होते रहने का प्रयास करती है ताकि पवित्र होकर स्वर्ग में प्रवेश प्राप्त कर सकें। इस प्रकार अनंत उद्धार (मोक्ष) प्राप्त कर सकें। प्रभु के पुनः मनुष्य रूप में प्रगट होने के पश्चात कब्र में विश्रांत शरीर पुनः आध्यात्मिक देह धारण कर प्रभु ईशु के साथ ही स्वर्गारोहण करते हैं। जो आत्माएँ शोधित अग्नि की शोधन प्रक्रिया के पश्चात भी अपने कर्मों के आधार पर शोधित नही हो पाती वे नरक में स्थान पाती है जिसे शैतान का स्थान कहा जाता है। यह निर्णय न्याय प्रक्रिया के द्वारा प्रभु ईशु के द्वारा किया जाता है।
जीवन परमात्मा का दिया हुआ वरदान है। वह कब तक रहेगा, इसे प्रभु के अतिरिक्त कोई नही जानता। जीवन पर हमारा वश नही है, लेकिन जीवन जीने की प्रकृति पर हमारा वश अवश्य है। हमारा विश्वास है कि जितना जीवन प्रभु ने मनुष्य को दिया है, उसका सदुपयोग दीन दुखियों की सेवा, पतितों के उद्धार में किया जाये तो मनुष्यता पर लोगों का विश्वास बढेगा, संपूर्ण सृष्टि आनंद से भर उठेगी।