राय साहब की चौथी बेटी
प्रबोध कुमार गोविल
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इस तरह आनन- फानन में हुई शादी ने घर में सबको असमंजस में डाल दिया।
अम्मा ने तो इस शादी के बाद ख़ुद को घोर उपेक्षित और अपमानित महसूस किया ही, वकील साहब ने भी हताश होकर दुनिया छोड़ दी।
कहते हैं कि जब सहारे का कोई बड़ा छप्पर गिरता है तो मदद करने वाले छोटे- मोटे सहयोगी और तत्पर होकर सहायता करते हैं। अम्मा को भी सहारे के लिए अपना यही तीसरा बेटा दिखा।
अम्मा ने महसूस किया कि पिता को खो देने के बाद इसी बेटे ने अम्मा को सबसे ज़्यादा सांत्वना भी दी, और सहारा भी। ये लड़का और इसकी बहू भी शायद अम्मा की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ मनमानी कर लेने के कारण अब किसी पश्चाताप का ताप महसूस भी करते हैं।
इस बेटे ने अपनी शादी के लिए अम्मा को मनाते वक़्त ये जो कह दिया था कि मेरी एक बात मान लो, तो मैं तुम्हारी सौ मानूंगा। बेटे का यही वचन ज़िन्दगी भर अम्मा का आसरा रहा।
यही कारण था कि जब अम्मा नौकरी से रिटायर हुईं तो उन्होंने इसी तीसरे बेटे के साथ रहने का मन बनाया।
तीनों बेटे राजस्थान में ही होते हुए भी अम्मा इसी के साथ रहने दिल्ली चली आईं, जहां अब ये रह रहा था।
यहीं से छोटे बेटे और बेटी के लिए रिश्ते ढूंढने की कोशिश हुई और दोनों का विवाह भी यहीं रहते हुए किया गया।
अम्मा ने दोनों बच्चों का विवाह करते समय दो बड़े बेटों के होते हुए भी इसी तीसरे को अपना दायां हाथ बनाया।
अब अम्मा अपने सब कर्तव्यों और जिम्मेदारियों से निवृत्त होकर तीसरे बेटे के परिवार का ही एक अभिन्न हिस्सा बन गईं जहां अब दो छोटे बच्चे भी हो चुके थे।
नौकरी करते हुए बेटा बहू, और अम्मा के संरक्षण में पलते दोनों छोटे बच्चे, एक लड़की और एक लड़का!
सच पूछो तो ये अम्मा की कहानी का अंत नहीं, बल्कि यही आरंभ था।
तो अब शुरू होती है राय साहब की चौथी बेटी की कहानी...
इंसान बचपन, जवानी और प्रौढ़ावस्था में तो अपनी ज़िंदगी को जीने में व्यस्त होता है, लोगों के साथ होता है, अपने कर्तव्यों के साथ होता है लेकिन बुजुर्ग होते ही बस खुद अपने साथ होता है, अपने गुज़रे वक़्त के साए के साथ होता है, बीती घटनाओं के अक़्स के साथ होता है, और होता है अपनी बीती उम्र की रसीदों के साथ।
अम्मा की दिनचर्या बहुत व्यवस्थित थी।
सुबह उठने के साथ घर के सभी सदस्यों की आपाधापी और काम पर जाने की चिल्ल- पौं के छंटने के बाद अम्मा का दिन शुरू होता था।
जहां आम घरों में बुज़ुर्ग होते जा रहे लोगों के हाथ में रुद्राक्ष की माला होती है, अम्मा के हाथ में टीवी का "रिमोट" होता, और होती अकेले घर में फैली- पसरी लंबी दोपहरी।
अपने दैनिक क्रिया कलाप और नाश्ते से निवृत होकर अम्मा काफ़ी समय टीवी के सामने गुजारतीं।
इस बीच आने वाला कोई भी कार्यक्रम, सीरियल या फ़िल्म तीखी टिप्पणी और कटाक्ष से केवल इसलिए ही नहीं बच पाती थी कि अम्मा घर में अकेली हैं तो किससे कहें? अम्मा खुद से भी कह लेती थीं।
यदि दुनियां में संचार की कोई बेतार प्रविधि होती होगी तो किसी ज्ञान -विज्ञान या समाचार के बोर कार्यक्रम के निर्माता तक अम्मा की ऐसी टिप्पणियां ज़रूर पहुंचती होंगी- उंह, दिमाग़ चाट गया कमबख्त!
पर ऐसी बात नहीं थी कि अम्मा सिर्फ़ आलोचना ही करें, फ़िल्म या सीरियल को अम्मा जी भर के सराहती भी थीं।
- गोविंदा कितना बढ़िया नाचे है... अमिताभ को देखो, आंखों में आसूं ला दिए... दिलीप कुमार तो आज भी रंग जमा देता है...जैसी टिप्पणियों को भी वहां किसी श्रोता की दरकार नहीं होती थी, अम्मा तो खुद अपने से ही कह लेती थीं।
इन कार्यक्रमों पर अम्मा की जानकारी और पकड़ इतनी मज़बूत होती थी कि कभी- कभी तो नई पीढ़ी के बच्चे और उनके दोस्त- सहेलियां भी उलाहना पा कर सहम जाते।
एक दोपहर टीवी पर फ़िल्म चल रही थी कि स्कूल से बच्चे भी अम्मा के पास आकर बैठ गए।
बच्चों के साथ उनके एक दो दोस्त भी थे।
एक दोस्त ने कहा - ये आयशा टाकिया तो "जो जीता वही सिकंदर" में भी थी न सलमान खान के साथ।
अम्मा फ़ौरन बोल पड़ीं- वो तो आयशा टाकिया नहीं, आयशा जुल्का थी बेटा, और आमिर खान के साथ थी, सलमान नहीं था उसमें।
बच्चा एकदम सहम गया और झिझक कर चुपचाप फ़िल्म देखने लगा। उसे शायद अचानक आज स्कूल में हिंदी के मास्टरजी द्वारा सिखाया गया मुहावरा भी अच्छी तरह समझ में आ गया - "पुराने चावल"!
अम्मा छोटा- बड़ा लगभग हर त्यौहार पूरी तैयारी और मनोयोग से मनाती थीं यद्यपि वकील साहब को कभी मंदिर- पूजा में कोई रुचि नहीं रहती थी।
वैसे अम्मा का त्यौहार मनाने का उपक्रम भी किसी श्रद्धा या आस्था से ज़्यादा अपने बच्चों और विद्यार्थियों को संस्कार देने का काम ही ज़्यादा लगता था।
किसी रूढ़ि या अंधविश्वास को अम्मा ने कभी नहीं माना। वो व्रत अवश्य करती थीं किन्तु उनके पास उपवास करने के व्यावहारिक, वैज्ञानिक और शारीरिक कारण होते थे। उन्होंने कभी बच्चों से ये नहीं कहा कि व्रत -तप पूजा से किसी की कोई मनोकामना पूरी होगी।
अम्मा ने जिस संस्थान में पूरी उम्र अब तक नौकरी की थी वहां खादी के कपड़े पहनने की अनिवार्यता थी। किन्तु अम्मा ने अब रिटायर हो जाने के बाद भी खादी पहनना छोड़ा नहीं था।
ये बात अलग है कि समय के साथ - साथ देश के खादी बनाने वाले संस्थानों ने भी तरक्की कर ली थी और अब वो पॉली खादी, खादी सिल्क, खादी डेनिम आदि जैसे आधुनिक और महंगे कपड़े बनाने लगे थे।
तो लोगों ने, जहां पहले वो हाथ की कती गाढ़ी खादी पहनते थे,अब तरह- तरह की आधुनिक खादी पहननी शुरू कर दी थी।
अब पैंसठ - सत्तर साल की उम्र हो जाने के बाद ये सब बातें अम्मा के लिए कोई बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह गई थीं।
जैसे- जैसे उनकी आयु बढ़ती जा रही थी, उनके भीतर एक अविश्वास की भावना घर करती जा रही थी।
परन्तु दिलचस्प बात ये थी कि अम्मा का ये संदेह या अविश्वास केवल महिलाओं के लिए या उनके बारे में ही होता था।
अम्मा के दोपहर को खाना खाकर थोड़ी देर के लिए आराम करने के लिए लेट जाने पर अम्मा की सोच में ऐसी कोई न कोई महिला आती और अम्मा की कोपभाजन बनती।
अम्मा की सोच के दालान में किसी फ़िल्म की पटकथा की तरह ही बीती बातें चलतीं - "बेचारा भारतभूषण इतना सीधा -सादा है कि मीना कुमारी के साथ बैजू बावरा जैसी ज़बरदस्त हिट फ़िल्म का सारा पैसा भी घरवालों के कहने पर यूं ही लुटा दिया। अब अपना इतना आलीशान बंगला कुल पच्चीस हज़ार रुपए में बेच दिया..."
इतने में आंगन में झाड़ू लगाने के लिए सफ़ाई करने वाली औरत पिछवाड़े का दरवाज़ा ज़ोर से भड़भड़ा देती और अम्मा की तंद्रा भंग हो जाती फ़िर उन्हें उठकर दरवाज़ा खोलने के लिए आना पड़ता।
- ये टाइम है तुम्हारा आने का? दिन भर तो गंदा पड़ा रहा अब किसके लिए साफ़ - सफ़ाई करोगी। बच्चे सुबह ही खेलते यहां, अब तो चले गए।
महिला नीची गर्दन किए जल्दी - जल्दी झाड़ू लगाती जाती।
दरवाज़ा बंद करके अम्मा फ़िर थोड़ी देर के लिए जा लेटती और उन्हें सुबह अख़बार में पढ़ी वही खबर फ़िर से याद आने लगती, कि अपने तंगहाली के दिनों में एक फिल्मस्टार ने अपना बंगला बेचा।
भारतभूषण वही फ़िल्म स्टार था जिस के साथ कभी अम्मा के साथ विवाह का रिश्ता लाया गया था। अब तो फ़िर से उसके दिन गर्दिश में थे।
अम्मा की निगाह घड़ी पर जाती और सहसा उन्हें ध्यान आता कि उन्हें खाना खाए दो - तीन घंटे हो चुके हैं, तो वो रसोई का रुख करतीं और चंद पलों में ही गैस पर चढ़ी कढ़ाई के गर्म तेल में आलू के चिप्स तले जाने की महक घर भर में फ़ैल जाती।
कुछ ही देर में बच्चे भी स्कूल से लौट आते और अम्मा उनकी तीमारदारी में लग जाती थीं।
छोटे बेटे के लिए वो उससे पूछ -पूछ कर उसका मनपसंद कुछ खाने को बनातीं और बिटिया को वो मिल जाता जो भाई ने कह कर अपने लिए बनवाया होता।
शाम को बहू के ऑफिस से लौटने के बाद अम्मा जैसे आज़ाद हो जाती थीं, फ़िर न उन पर बच्चों की जवाब देही रहती, और न घर की।
लेकिन ये आज़ादी बस चंद घंटों की ही रहती। अगला सवेरा होता कि अम्मा फ़िर से मोर्चा संभाल लेती थीं।
सुबह - सुबह काम वाली बाई आती। वह खाना और नाश्ता बनाती। फिर बर्तन साफ करने वाली। फ़िर कपड़े धोने वाली। कचरा लेने वाली। अख़बार वाला, दूध वाला, आदि आदि।
सब अम्मा को खुश करने की कोशिश करते।
काम वाली कहती - देखो अम्मा जी, आज अभी तक किसी की भी काम वाली नहीं आई है, मैं सबसे पहले आ गई।
अम्मा कहतीं - तुम्हारे पास काम क्या है घर में, बस मुंह उठाया और चली आईं। वो बेचारी स्तब्ध रह जाती।
किसी - किसी दिन काम वाली लगभग भागती- दौड़ती सी घर में घुसती और दीवार घड़ी की ओर देखती - देखती अम्मा को लक्ष्य करके कहती - हाय, आज तो मुझे बहुत देर हो गई अम्मा जी, मेरे घर का काम निपटाने में।
अम्मा का जवाब होता- तो ये कौन सी नई बात है, तुम्हारा मन कहां लगता है यहां काम पे आने में।
बाई मायूसी से सिर झुका कर काम में लग जाती।
बाई दोपहर का भोजन बना कर वापस जाती थी। परिवार उसी कैंपस में रहता था जहां बहू की नौकरी थी। बहू बड़े ओहदे पर थी, और उसका रुतबा वहां अच्छा खासा था। बहू भी लंच टाइम में घर आती और खाना खाकर वापस जाती थी। बच्चे स्कूल से उसके चले जाने के बाद ही घर आते थे।
किसी - किसी दिन बहू को खाना खाने आने में देर हो जाती। ऐसे में कभी तो बाई खाना बना कर रख जाती थी, या फ़िर देर तक रुक कर "मैडम" के आने का इंतजार किया करती।
कभी बाई अम्मा से इजाज़त मांगती - अम्माजी, आज मैं मैडम और बच्चों का खाना बना कर रख कर चली जाऊं? मुझे घर पर ज़रूरी काम है।
टी वी के सामने बैठी अम्मा की आवाज़ आती- देख कर हिसाब से खाना बनाना, रोटियों का अड्डूर चिन कर मत रख जाना।
बाई सोचती रह जाती कि अम्मा ने उससे ये कौन सी भाषा बोली। पर वो अपने हिसाब से अनुमान लगा कर खाना बनाने लगती।
किसी- किसी दिन वो किसी भी जल्दी में न होती। अम्मा से कहती- मैं मैडम को गर्म खाना खिला कर ही घर जाऊंगी, मुझे कोई जल्दी नहीं है घर जाने की।
ऐसा कह कर वो कमरे में टीवी देख रही अम्मा के पास आ बैठती और टीवी देखने लग जाती।
अब वो ये आशा करती कि अम्मा आज उसकी कर्तव्य परायणता से खुश होकर कुछ अच्छा कहेंगी। पर अम्मा कहतीं - तुम्हें तो टीवी के सामने बैठने का कोई बहाना चाहिए।
काम वाली बाई बेमन से कार्यक्रम पर आंखें गढ़ाए बैठी रहती।
दोपहर को खाना खाकर लेटती अम्मा किसी दिन अपनी किसी बहू पर अपनी सोच केन्द्रित कर देती थीं और तब मन ही मन सोचने लगती थीं- उसे देखो, उसका कभी मन ही नहीं करता कि आकर मुझसे मिल जाए। खुद न आए तो ना सही, पर कभी बच्चों से भी नहीं कहती कि जाकर अम्मा से मिल आओ।
बहू के संग बेटा भी लपेटे में आ जाता। अम्मा अपने से ही कहती थीं- जब तक शादी नहीं हुई थी, तब तक हर बात में अम्मा - अम्मा करता रहता था, कभी एक रुमाल भी मुझसे पूछे बिना नहीं खरीदा उसने, अब देखो, उसे मेरी चिंता ही नहीं है।
ज़मीन - मकान तक मुझसे पूछे बिना पक्का कर आता है,सब बहू का ही किया धरा है, उसी के बहकावे में सब भूल गया है, जाने दो, मेरा क्या है! मेरी तरफ़ से तो बस, जहां रहें अच्छी तरह रहें सब।
अम्मा टी वी से बोर होकर उठ जाती थीं और फ़िर अलमारी में से अपनी कोई पुरानी डायरी या कॉपी लेकर उसमें समय बिताने के लिए कभी घर के सब लोगों के नाम लिखतीं और कभी पुरानी चिट्ठियों से सबके पते उतार कर सहेजतीं।
कभी दोपहरी में अम्मा घर के सब नए- पुराने फोटो एलबम लेकर बैठ जाती थीं और घंटों तक उन्हें देखती और अलग अलग तरह से उनके क्रम बदलती रहती थीं।
धीरे- धीरे ऐसा लगने लगा था कि अम्मा निर्जीव और अदृश्य चीज़ों के प्रति बेहद दयालु दृष्टिकोण रखने लगीं और आसपास के अपने परिजनों के प्रति उनमें काफ़ी कटुता भर गई थी।
जो अम्मा किसी सीरियल के पात्र के दुखों पर गहरी सहानुभूति जताती थीं, वही घर में काम करने वाली महिलाओं की हर बात में मीनमेख निकालती थीं।
किसी दिन घर में काम करने वाली बाई किसी भी काम में ज़रा भी ढील या लापरवाही दिखा दे तो अम्मा उसे डांटने का कोई मौक़ा नहीं गवाती थीं।
कभी - कभी बहू को ऐसा लगता था कि शायद अम्मा खाने- पीने की बहुत शौक़ीन हैं और इसीलिए खाना बनाने वाली बाई के उनका मनपसंद स्वादिष्ट खाना न बना पाने के कारण ही उससे खीजी रहती हैं।
अतः जब बहू को अपने काम से थोड़ा भी अवकाश मिलता तो वो कुछ न कुछ अच्छा बना कर घर के सभी लोगों, अम्मा, बच्चों आदि को खुश करने की कोशिश करती थी।
बड़े ओहदे पर काम करने वाली बहू की अपनी कार्य व्यस्तताएं भी बहुत होती थीं, जो अम्मा को अखरती थीं। जबकि बेटे की पोस्टिंग दूर अलग अलग जगह होते रहने के कारण वो ज़्यादातर साथ में नहीं रह पाता था।
कामकाजी महिलाओं की ज़िन्दगी की ये उलझन बहू और अम्मा दोनों को ही कभी संतुष्ट नहीं कर पाती।
उच्च शिक्षित महिलाओं की नियति अपनी नौकरियों को लेकर यही रहती थी कि न उगली जाए और न निगली जाए।
दिन जा रहे थे।
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