बहीखाता
आत्मकथा : देविन्दर कौर
अनुवाद : सुभाष नीरव
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माहौल
हमारी गली का माहौल पूरी तरह पंजाबी था। हमारी गली क्या, पूरा मुल्तानी ढांडा ही पंजाबी था। जो हिंदू थे अथवा किसी अन्य कौम के थे, वे भी पंजाबी ही बोलते थे। पंजाबी यूँ बोलते कि मानो पंजाबी में ही सोचते होंगे। कुछ मुल्तानी लोग भी मुहल्ले में रहते थे। असल में, मुल्तानियों के कारण ही इस इलाके का नाम मुल्तानी ढांडा पड़ा हुआ था। वह कुछ भिन्न प्रकार की पंजाबी बोलते। वे जब साधारण बातचीत भी कर रहे होते तो यूँ प्रतीत होता मानो लड़ रहे हों। मुझे उनकी बातचीत सुनने में बड़ा मज़ा आता। ‘घ’ और ‘ध’ का उच्चारण वे बिल्कुल भिन्न अंदाज में करते। हिंदी और पंजाबी का मिलाजुला-सा प्रभाव पड़ता।
उन दिनों ट्रांजिस्टर नये नये आए थे। घरों में तो ये आम ही बजा करते, पर लोग इन्हें हाथों में भी उठाये फिरते। जिस भी गली में से गुज़रो, रेडियो पर चलते गाने सुनाई देते। बच्चों के कार्यक्रम भी होते। ख़ास तौर पर इतवार को छुट्टी होती तो सभी लोग रेडियो के इर्द-गिर्द बैठ जाते। पंजाबी के प्रोग्राम में आशा सिंह मस्ताना, सुरिन्दर कौर, प्रकाश कौर के गीत बजते। शमशाद बेगम की तेज़ आवाज़ सबसे अलग ही पहचानी जाती थी। अमृता प्रीतम भी एक कार्यक्रम पेश किया करती थी जिसका नाम था - ‘आवाज़ की दुनिया के दोस्तो’। यह प्रोग्राम भी बहुत लोकप्रिय था। लोग प्रोग्राम सुनते ही नहीं थे बल्कि उनके बारे में बातें भी करते और फिर उनकी बड़ी उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा भी। मैं इन प्रोग्रामों को बड़े ध्यान और शौक से सुना करती। सुरिन्दर कौर, प्रकाश कौर के गानों को खुद भी गुनगुनाने की कोशिश करती।
हमारी गली की सुबह ‘विविधभारती’ की धुन से शुरू होती, पर लोग बहुत पहले उठ गए होते। गुरद्वारे जाने वाले तो तड़कसार ही उठ खड़े होते। बंगला साहिब और शीश गंज यद्यपि अधिक दूर नहीं थे, पर उससे कहीं अधिक नज़दीक गली नंबर तीन में भी एक लोकल गुरद्वारा था। हमारी गली के अधिकतर लोग वहीं जाते थे। सवेरे उठते ही लोग गली में बिछाई गई चारपाइयाँ उठाकर घरों के अंदर ले जाते। या उन्हें खड़ा करके बच्चों को सरकारी नालियों पर हगने के लिए बिठा देते। जब तक घरों के अंदर टाॅयलेट नहीं बने थे, लोग खास तौर पर बच्चे सरकारी नालियों पर ही बैठते थे। बड़े लोग सरकारी शौचालय में जाते। फिर भंगी आकर सफाई करने लगते। बच्चे तैयार होकर अपने अपने स्कूल चले जाते। कामों वाले काम पर चले जाते। उसके पश्चात फेरियों वाले आ जाते। कभी सब्ज़ी वाला आ रहा होता और कभी अख़बारों की रद्दी लेने वाला। कभी कोई सिंगियाँ लगाने वाला आ रहा होता और कभी कोई बर्तन या कोई अन्य वस्तु बेचने वाला। गली में अच्छी-खासी चहल-पहल रहती। घर के कामकाजों से फुर्सत पाकर स्त्रियाँ एक स्थान पर इकट्ठी होकर मुहल्ले भर की चुगलियाँ कर मारतीं। सर्दी के मौसम में गली में चारपाइयाँ बिछाकर टोलियों में बैठकर धूप सेंकतीं और गर्मियों में किसी छाया का आसरा ढूँढ़ लेतीं। गांवों की तरह ज्यादा दरख़्त तो थे नहीं, पर माहौल सारा गांव वाला ही था। शाम को बच्चे स्कूलों से लौटने लगते। कामों पर गए लोग भी लौटते। रसोइयों में माह की दाल के पतीले उबलने लगते। तड़कों की खुशबू से सारा मुहल्ला ही महक उठता। लोग ऊँची आवाज़ में बातें करते। रेडियो बज रहे होते। सारा वातावरण सुहावना-सा बन गया होता। रोटी-पानी करके लोग गली में चारपाइयाँ बिछा लेते और गई रात तक बातें करते रहते। घरों के मर्द तो आम तौर पर गली में ही सोया करते, पर कई घरों की स्त्रियाँ और बच्चे भी बाहर ही सोते।
मेरे पिता घर में नहीं रहते थे। वह सढौरे में थे। इन्हीं दिनों में अचानक तार आई कि उनका एक्सीडेंट हो गया है। हुआ यह कि एक इतवार को उन्होंने केश सहित नहाकर बालों को खुला छोड़ा हुआ था। वहाँ उनका काम एक आरा मशीन पर था। उस दिन भी अचानक उनको कुछ चीरना पड़ गया। खुले बालों का उन्हें ध्यान ही नहीं रहा और आरे में उनके बाल फंस गए। यह तो गनीमत थी कि उन्होंने ज़ोर लगाकर सिर को पीछे खींच लिया और बच गए, नहीं तो उनका सिर ही आरे से कट जाता। उनकी जान तो बच गई थी, पर सिर की खोपड़ी उधड़ गई। इस प्रकार बचाव करते समय कुछ और चोंटें भी उन्हें आईं। मेरी माँ ख़बर सुनते ही तुरंत सढौरे चली गई। चोट इतनी अधिक थी कि वह जल्द ठीक नहीं होने वाली थी। उसमें काफी समय लगने की संभावना थी। इसलिए वह भापा जी को अपने संग दिल्ली ले आईं। उन्हें सेहतमंद होने में काफ़ी दिन लग गए। धीरे धीरे जब वह काम करने योग्य हुए तो उन्होंने दिल्ली में ही जमनापार कोई नौकरी कर ली। इस प्रकार, अब भापा जी भी दिल्ली में रहने लग पड़े थे। दिल्ली के माहौल में अब वह भी शामिल थे। मुझे उनका घर में रहना बहुत अच्छा लगता। मुझे उनके साथ विशेष प्यार था। वह भी मेरा बहुत मोह करते थे। मुझे याद है कि भापा जी को पंजाबी फिल्में देखने का बहुत शौक था। पहाड़गंज, मेन बाज़ार में एक सिनेमा होता था - इम्पीरियल। यह आज भी है। वहीं जब कोई पंजाबी फिल्म लगती, भापा जी मुझे और काका को फिल्म दिखाने ले जाते। मुझे ‘जीजा जी’, ‘दो लच्छियाँ’ आदि कुछ फिल्में अभी भी याद हैं जिनमें आम तौर पर हीरोइन निशी हुआ करती थी और एक कोमेडियन गोपाल सहगल हुआ करता था। इन फिल्मों में कई गाने शमशाद बेगम के गाये होते थे।
भापा जी के घर आ जाने से हमारा नया रुटीन शुरू हो गया। हम सब शाम को गली नंबर तीन के गुरद्वारे में चले जाते। मेरी बड़ी बहन सिंदर गुरद्वारे में कीर्तन करती और साथ ही हारमोनियम भी बजाती। भापा जी जोड़ी बजाते। मैं भी उनके संग बैठकर बहन की सुर से सुर मिला रही होती। यह सिलसिला काफी समय तक चलता रहा। फिर हमारा एक रिश्तेदार देविंदर सिहं म्युजिक की एम.ए. करके आ गया। अब वह भी गुरद्वारे आकर कीर्तन करने लगा था। हारमोनियम भी वही बजाता। हारमोनियम के स्थान पर बहन अब ढोलकी बजाने लगी थी और मैं बहन के सामने ढोलकी के साथ लगकर बैठी रोड़ा बजाती। गुरपर्व का दिन आता तो पाठ खुल जाते। रौलां (पाठ करने की बारी) लगा करतीं। मैं पाठ बहुत सुन्दर कर लेती थी। बाणी को मैं सही सुरों में पढ़ती। मैं अकेली ही नहीं मुहल्ले की अन्य लड़कियाँ भी रौलां लगातीं। लोकल गुरद्वारे में ही गुरपर्व मनाये जाते। गुरपर्व के दिन रागियों के अलावा कव्वाल कव्वालियों के जरिये भी शबद-गायन किया करते। अन्य गायक भी आते। कवि दरबार भी आयोजित होते। प्रीतम सिंह कासद, बरकत राम बरकत, बलवंत सिंह निरवैर जैसे पंजाबी कवि आकर अपनी कविताएँ पढ़ते। कई मुसलमान कव्वाल भी गुरुओं के जीवन पर आधारित कव्वालियों का गायन किया करते। वातावरण बहुत ही खुशगवार होता। मेरे ऊपर इस सबका बहुत गहरा प्रभाव पड़ रहा था। मैं स्वयं भी गुरपर्व के दिन कीर्तन किया करती।
सिर्फ़ यही नहीं, पूरे मुहल्ले में गुरपर्वों के अलावा दशहरा, दीवाली, होली और लोहड़ी के पर्व भी बड़ी धूमधाम से मनाये जाते। मुझे याद है कि दशहरे के दिनों में मुहल्लों में होने वाली रामलीला हम खास शौक से देखने जाया करते। हालाँकि हर मुहल्ले में अपनी अपनी रामलीला होती थी लेकिन बड़ी रामलीला रामलीला मैदान में होती। हम कम से कम एकबार अवश्य रामलीला ग्राउंड में होने वाली रामलीला देखने जाते। इसके पश्चात दीवाली की रोशनियों वाली रौनक में भी हम पूरी तरह शामिल हुआ करते। इस प्रकार भारतीय विरासत केवल किताबों में ही नहीं बल्कि पहाड़गंज के समूचे माहौल में से ही झलकती थी और हर कोई सहजता से ही उस विरसे का हिस्सा बन जाता था। होली पर्व के करीब गलियों में सांग बनकर आते और अक्सर कृष्ण के जीवन की घटनाओं को गीतों के माध्यम से संवाद की शक्ल में पेश किया जाता। हम बच्चे अपने घर की छतों पर चढ़कर इन सांगों को देखा करते। कृष्ण-राधा बनी जोड़ी के संगीतमय संवाद की कुछ सतरें मुझे अभी भी स्मरण हैं जो इस प्रकार हैं -
राधा - मेरी मटकी छिक्के तों उतारी ते दुध दही सारा रोड़िया
वे श्याम तू दुध दही सारा रोड़िया...
कृष्ण -मैं नहीं खाधा नी दुध दही तेरा कि छोड़ मैंनूं घर जाण दे
नी राधे छोड़ मैंनूं घर जाण दे...
इसके अलावा होली के दिनों में ही मुहल्लों में महाभारत में से कथायें भी करवाई जातीं। ये कथायें रात के भोजन के बाद अर्थात सात या आठ बजे शुरू होती थीं। मैं अपनी गली की लड़कियों के साथ यह कथा अवश्य सुनने जाती। कथा रात रातभर चलती रहती, इसलिए लोग अपने साथ खाने का सामान अवश्य ले जाते। चाय वहीं पर मिलती थी। इन दिनों कीएक घटना मुझे याद है। मुझे आलू के मिर्चों वाले चिप्स बड़े अच्छे लगते। एक दिन मैंने इसे खरीदने के लिए चोरी की। बीजी की पैसों वाली कटोरी रसोई में रखी होती थी। मैंने कटोरी में रखे पैसों में से दो दुव्वनियाँ चुरा ली थीं। अगले दिन ही मेरी माँ को पता चल गया था। मेरी माँ से भापा जी को जब यह पता चला तो उन्होंने मुझे इतने ज़ोर का थप्पड़ मारा था कि मेरे होश गुम हो गए थे। जिस दिन भापा जी को पता चला, उस रात मैं उनसे बचने के लिए कथा सुनने गई हुई थी और देर रात तक नहीं लौटी थी। जब सोचा कि भापा जी अब सो गए होंगे, मैं चुपके से आकर गली में बिछी हुई चारपाई पर ही सो गई थी। भापा जी ने तड़के ही मुझे घर के अंदर ले जाकर ‘ठांय’ करता थप्पड़ मेरे मुँह पर जड़ दिया था। मेरा कसूर था, इसलिए मैंने चुपचाप यह थप्पड़ खा लिया था। यह भापा जी का मेरी ज़िन्दगी में पहला और अन्तिम थप्पड़ था जिसने मेरी चोरी की घटना को डर में बदल दिया था कि मैं सारी उम्र चोरी करने के विचार को ही भुला बैठी थी। अभी भी जब बचपन में होली के दिनों में होने वाली कथा को याद करती हूँ तो भापा जी का वह थप्पड़ याद आ जाता है।
होली के दिनों में यद्यपि रौनकें लगतीं, गली के लोग एक-दूसरे को रंग लगाते, पर मेरी भाबो जी को होली से बड़ी नफ़रत थी। होली के दिनों में वह बाहरी दरवाज़ा अंदर से बन्द कर देते और मेरी सहेलियों के दरवाज़ा पीटने पर भी न खोलते, बल्कि उन्हें इतना डांटते-फटकारते कि वे दुबारा आने की हिम्मत न करतीं। इस प्रकार बचपन में होली न खेलने की इजाज़त मेरे जीवन की स्थायी आदत बन गई। अब भी मुझे होली के दिनों में बाहर जाने से डर लगता है।
इन सभी त्योहारों की एक खास बात यह थी कि ये सभी पंजाबी भाषा में ही मनाये जाते। सारा पहाड़गंज उस समय पंजाबी ही बोलता था। यहाँ तक कि मुहल्ले की रामलीला भी पंजाबी में ही खेली जाती। तात्पर्य यह कि उन दिनों बेशक कोई किसी भी जाति, धर्म का था, पर हर कोई पंजाबी ही बोलता था।
मैं मिडल करके हॉयर सेकेंडरी में पहुँच गई थी। सहजता से नौवीं पास कर ली और दसवीं में आ गई। यहाँ मैं अपनी उस पंजाबी की टीचर सोमावंती को बहुत मिस करने लगी जिससे मैंने पंजाबी कविता को सही अर्थों में समझना सीखा था। सोमावंती के पास केवल आठवीं तक पढ़ाने का ही सर्टिफिकेट था, हालाँकि उसके पास पढ़ाने की योग्यता उस टीचर से कहीं अधिक थी जो हमें हॉयर सेकेंडरी में पढ़ाया करती थी। मैंने अपनी मुश्किल सोमावंती बहन जी को बताई और उसने मुझे यह अनुमति दे दी कि मैं जब भी चाहूँ, उसके घर में पढ़ने के लिए आ सकती हूँ। इस प्रकार गाहे-बेगाहे मैं सोमावंती बहन जी के पास पढ़ने जाने लग पड़ी। इसके लिए उन्होंने मेरे से कोई फीस की मांग नहीं की। पढ़ने में मैं होशियार तो थी ही, स्कूल के अन्य कामों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थी। मुझे याद है कि स्कूल में हम दो लड़कियों ने यू.पी. की भाषा में छोटा-सा प्रहसन भी किया था जो सबको पसंद आया था।
दसवीं कक्षा की परीक्षा आने वाली थी। इन दिनों हमारी दसवीं कक्षा द्वारा ग्यारहवीं कक्षा को विदायगी पार्टी दी जानी थी। मैं सहेलियों के साथ मिलकर पार्टी के प्रबंध में व्यस्त हुई पड़ी थी। विदायगी पार्टी का दिन आ गया। हम सभी लड़कियाँ बढ़िया बढ़िया कपड़े पहनकर स्कूल पहुँचीं। पार्टी शुरू हो गई। अचानक कुछ कुछ अजीब-सा महसूस होने लगा। मैं समझ गई कि शरीर की जिस तब्दीली की मैं पिछले तीन सालों से प्रतीक्षा कर रही थी, यह वही थी। मैं घर की ओर दौड़ी क्योंकि वहाँ तो मेरे पास कोई भी इंतज़ाम नहीं था। घर आकर मैंने माँ को बताया। वह खीझती हुई बोली, “यह क्या स्यापा डाल लिया !“ माँ का यह वाक्य मेरे शरीर में एक कंपकंपी छोड़ गया। ऐसा प्रतीत हुआ मानो किसी ने मेरी सारी ताकत ही खींच ली हो। एक डर-सा मेरे अंदर बैठ गया।
(जारी…)