Desh Virana - 23 in Hindi Motivational Stories by Suraj Prakash books and stories PDF | देस बिराना - 23

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देस बिराना - 23

देस बिराना

किस्त तेइस

मैं धीरे-धीरे बोलना शुरू करता हूं - इस दर्द की भी बहुत लम्बी कहानी है मालविका जी। समझ में नहीं आ रहा, कहां से शुरू करूं। दरअसल आजतक मैंने किसी को भी अपने बारे में सारे सच नहीं बताये हैं। किसी को एक सच बताया तो किसी दूसरे को उसी सच का दूसरा सिक्का दिखाया। मैं हमेशा दूसरों की नज़रों में बेचारा बनने से बचता रहा। मुझे कोई तरस खाती निगाहों से देखे, मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं है लेकिन आपने मुझे जिस संकट में डाल दिया है, पूरी बात बताये बिना नहीं चलेगा। दरअसल मोना सिख हूं। सारी समस्या की जड़ ही मेरा सिख होना है। आपको यह जान कर ताज्जुब होगा कि मैंने सिर्फ चौदह साल की उम्र में घर छोड़ दिया था और आइआइटी, कानपुर से एमटैक और फिर अमेरिका से पीएचडी तक पढ़ाई मैंने खुद के, अपने बलबूते पर की है। वैसे घर मैंने दो बार छोड़ा है। चौदह साल की उम्र में भी और अट्ठाइस साल की उम्र में भी। पहली बार घर छोड़ने की कहानी भी बहुत अजीब है। विश्वास ही नहीं करेंगी आप कि इतनी-सी बात को लेकर भी घर छोड़ना पड़ सकता है। हालांकि घर पर मेरे पिताजी, मां और दो छोटे भाई हैं और एक छोटी बहन थी। दुनिया की सबसे खूबसूरत और समझदार बहन गुड्डी जो कुछ अरसा पहले दहेज की बलि चढ़ गयी। इस सदमे से मैं अब तक उबर नहीं सका हूं। मुझे लगता है, दोबारा सिरदर्द उखड़ने की वज़ह भी यही सदमा है। अपनी बहन के लिए सब कुछ करने के बाद भी मैं उसके लिए खुशियां न खरीद सका। लाखों रुपये के दहेज के बाद भी उसकी ससुराल वालों की नीयत नहीं भरी थी और उन्होंने उस मासूम की जान ले ली। उस बेचारी की कोई तस्वीर भी नहीं है मेरे पास। बहुत ब्राइट लड़की थी और बेहद खूबसूरत कविताएं लिखती थी। गुड्डी के जिक्र से मेरी आंखों में पानी आ गया है। गला रुंध गया है और मैं आगे कुछ बोल ही नहीं पा रहा हूं। मालविका जी ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख दिया है।

मुझे थोड़ा वक्त लगता है अपने आपको संभालने में। मालविका जी की तरफ़ देखता हूं। वे आंखों ही आंखों में मेरा हौसला बढ़ाती हैं। मैं बात आगे बढ़ाता हूं - हां, तो मैं अपने बचपन की बातें बता रहा था। मेरे पिता जी कारपेंटर थे और घर पर रह कर ही काम करते थे। हम लोगों का एक बहुत पुराना, बड़ा सा घर था। हमारे पिता जी बहुत गुस्से वाले आदमी थे और गुस्सा आने पर किसी को भी नहीं बख्शते थे। आज भी अगर मैं गिनूं तो पहली बार घर छोड़ने तक, यानी तेरह-चौदह साल की उम्र तक मैं जितनी मार उनसे खा चुका था उसके बीसियों निशान मैं आपको अभी भी गिन कर दिखा सकता हूं। तन पर भी और मन पर भी। गुस्से में वे अपनी जगह पर बैठे बैठे, जो भी औजार हाथ में हो, वही दे मारते थे। उनके मारने की वजहें बहुत ही मामूली होती थीं। बेशक आखरी बार भी मैं घर से पिट कर ही रोता हुआ निकला था और उसके बाद पूरे चौदह बरस बाद ही घर लौटा था। एक बार फिर घर छोड़ने के लिए। उसकी कहानी अलग है।

यह कहते हुए मेरा गला भर आया है और आंखें फिर डबडबा आयी हैं। कुछ रुक कर मैंने आगे कहना शुरू किया है :

- बचपन में मेरे केश बहुत लम्बे, भारी और चमकीले थे। सबकी निगाह में ये केश जितने शानदार थे, मेरे लिए उतनी ही मुसीबत का कारण बने। बचपन में मेरा सिर बहुत दुखता था। हर वक्त जैसे सिर में हथौड़े बजते रहते। एक पल के लिए भी चैन न मिलता। मैं सारा-सारा दिन इसी सिर दर्द की वजह से रोता। न पढ़ पाता, न खेल ही पाता। दिल करता, सिर को दीवार से, फर्श से तब तक टकराता रहूं, जब तक इसके दो टुकड़े न हो जायें। मेरे दारजी मुझे डॉक्टर के पास ले जाते, बेबे सिर पर ढेर सारा गरम तेल चुपड़ कर सिर की मालिश करती। थोड़ी देर के लिए आराम आ जाता लेकिन फिर वही सिर दर्द। स्कूल के सारे मास्टर वगैरह आस पास के मौहल्लों में ही रहते थे और दारजी के पास कुछ न कुछ बनवाने के लिए आते रहते थे, इसलिए किसी तरह ठेलठाल कर पास तो कर दिया जाता, लेकिन पढ़ाई मेरे पल्ले खाक भी नहीं पड़ती थी। ध्यान ही नहीं दे पाता था। डाक्टरों, वैद्यों, हकीमों के आधे अधूरे इलाज चलते, लेकिन आराम न आता। मुझे अपनी बाल बुद्धि से इसका एक ही इलाज समझ में आता कि ये केश ही इस सारे सिरदर्द की वजह हैं। जाने क्यों यह बात मेरे मन में घर कर गयी थी कि जिस दिन मैं ये केश कटवा लूंगा, मेरा सिर दर्द अपने आप ठीक हो जायेगा। मैंने एकाध बार दबी जबान में बेबे से इसका जिक्र किया भी था लेकिन बेबे ने दुत्कार दिया था - मरणे जोग्या, फिर यह बात मुंह से निकाली तो तेरी जुबान खींच लूंगी।

शायद रब्ब को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन मैंने भी तय कर लिया, जुबान जाती है तो जाये, लेकिन ये सिरदर्द और बरदाश्त नहीं होता। ये केश ही सिरदर्द की जड़ हैं। इनसे छुटकारा पाना ही होगा। और मैं घर से बहुत दूर एक मेले में गया और वहां अपने केश कटवा आया। केश कटवाने के लिए भी मुझे खासा अच्छा खासा नाटक करना पड़ा। पहले तो कोई नाई ही किसी सिख बच्चे के केश काटने को तैयार न हो। मैं अलग-अलग नाइयों के पास गया, लेकिन ये मेरी बात किसी ने न मानी। तब मैंने एक झूठ बोला कि मैं मोना ही हूं और मेरे मां-बाप ने मानता मान रखी थी कि तेरह-चौदह साल तक तेरे बाल नहीं कटवायेंगे और तब तू बिना बताये ही बाल कटवा कर आना और मैंने नाई के आगे इक्कीस रुपये रख दिये थे।

नाई बुदबुदाया था - बड़े अजीब हैं तेरी बिरादरी वाले। वह नाई बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ था। उस दिन मैंने पहली बार घर में चोरी की थी। मैंने बेबे की गुल्लक से बीस रुपये निकाले थे। एक रात पहले से ही मैं तय कर चुका था कि ये काम कर ही डालना है। चाहे जो हो जाये। एकाध बार दारजी के गुस्से का ख्याल आया था लेकिन उनके गुस्से की तुलना में मेरी अपनी ज़िंदगी और पढ़ाई ज्यादा ज़रूरी थे।

वैसे हम लोग नियमित रूप से गुरूद्वारे जाते थे और वहां हमें पांच ककारों के महत्व के बारे में बताया ही जाता था। फिलहाल ये सारी चीजें दिमाग में बहुत पीछे जा चुकी थीं।

जब मैं अपना गंजा सिर लेकर घर में घुसा था तो जैसे घर में तूफान आ गया था। मेरे घर वालों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह घुन्ना-सा, हर बात पर मार खाने वाला तेरह-चौदह साल का मरियल सा छोकरा सिक्खी धर्म के खिलाफ जा कर केश भी कटवा सकता है। मेरी बेबे को तो जैसे दौरा पड़ गया था और वह पछाड़ें खाने लगी थी। सारा मौहल्ला हमारे आंगन में जमा हो गया था। मेरी जम कर कुटम्मस हुई थी। लानतें दी गयी थीं। मेरे दारजी ने उस दिन मुझे इतना पीटा था कि पिटते-पिटते मैं फैसला कर चुका था कि अब इस घर में नहीं रहना है। वैसे अगर मैं यह फैसला न भी करता तो भी मुझसे घर छूटना ही था। दारजी ने उसी समय खड़े-खड़े मुझे घर से निकाल दिया था। गुस्से में उन्होंने मेरे दो-चार जोड़ी फटे-पुराने कपड़े और मेरा स्कूल का बस्ता भी उठा कर बाहर फेंक दिये थे। मैं अपनी ये पूंजी उठाये दो-तीन घंटे तक अपने मोहल्ले के बाहर तालाब के किनारे भूखा-प्यासा बैठा बिसूरता रहा था और मेरे सारे यार-दोस्त, मेरे दोनों छोटे भाई मेरे आस-पास घेरा बनाये खड़े थे। उनकी निगाह में मैं अब एक अजूबा था जिसके सिर से सींग गायब हो गये थे।

उस दिन चौबीस सितम्बर थी। दिन था शुक्रवार। मेरी ज़िंदगी का सबसे काला और तकलीफ़देह दिन। इस चौबीस सितम्बर ने ज़िंदगी भर मेरा पीछा नहीं छोड़ा। हर साल यह तारीख मुझे रुलाती रही, मुझे याद दिलाती रही कि पूरी दुनिया में मैं बिलकुल अकेला हूं। बेशक यतीम या बेचारा नहीं हूं लेकिन मेरी हालत उससे बेहतर भी नहीं है। अपने मां-बाप के होते हुए दूसरों के रहमो-करम पर पलने वाले को आप और क्या कहेंगे? खैर, तो उस दिन दोपहर तक किसी ने भी मेरी खाने की सुध नहीं ली थी तो मैंने भी तय कर लिया था, मैं इसी गंजे सिर से वह सब कर के दिखाऊंगा जो अब तक मेरे खानदान में किसी ने न किया हो। मेरे आंसू अचानक ही सूख गये थे और मैं फैसला कर चुका था।

मैंने अपना सामान समेटा था और उठ कर चल दिया था। मेरे आस पास घेरा बना कर खड़े सभी लड़कों में हड़बड़ी मच गयी थी। इन लड़कों में मेरे अपने भाई भी थे। सब के सब मेरे पीछे पीछे चल दिये थे कि मैं घर से भाग कर कहां जाता हूं। मैं काफी देर तक अलग अलग गलियों के चक्कर काटता रहा था ताकि वे सब थक हार कर वापिस लौट जायें। इस चक्कर में शाम हो गयी थी तब जा कर लड़कों ने मुझे अकेला छोड़ा था। अकेले होते ही मैं सीधे अपने स्कूल के हैड मास्टरजी के घर गया था और रोते-रोते उन्हें सारी बात बतायी थी। उनके पास जाने की वजह यह थी कि वे भी मोने सिख थे। हालांकि उनका पूरा खानदान सिखों का ही था और उनके घर वाले, ससुराल वाले कट्टर सिख थे। वे मेरे दारजी के गुस्से से वाकिफ थे और मेरी सिरदर्द की तकलीफ से भी। मैंने उनके आगे सिर नवा दिया था कि मुझे दारजी ने घर से निकाल दिया है और मैं अब आपके आसरे ही पढ़ना चाहता हूं। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा था। वे भले आदमी थे। मेरा दृढ़ निश्चय देख कर दिलासा दी थी कि पुत्तर तूं चिंता न कर। मैं तेरी पढ़ाई-लिखाई का पूरा इंतजाम कर दूंगा। अच्छा होता तेरे घर वाले तेरी तकलीफ को समझते और तेरा इलाज कराते। खैर जो ऊपर वाले को मंजूर। उन्होंने तब मेरे नहाने-धोने का इंतज़ाम किया था और मुझे खाना खिलाया था। उस रात मैं उन्हीं के घर सोया था। शाम के वक्त वे हमारे मोहल्ले की तरफ एक चक्कर काटने गये थे कि पता चले, कहीं मेरे दारजी वगैरह मुझे खोज तो नहीं रहे हैं। उन्होंने सोचा था कि अगर वे लोग वाकई मेरे लिए परेशान होंगे तो वे उन लोगों को समझायेंगे और मुझे घर लौटने के लिए मनायेंगे। शायद तब मैं भी मान जाता, लेकिन लौट कर उन्होंने जो कुछ बताया था, उससे मेरा घर न लौटने का फैसला मज़बूत ही हुआ था। गली में सन्नाटा था और किसी भी तरह की कोई भी सुगबुगाहट नहीं थी। हमारा दरवाजा बंद था। हो सकता है भीतर मेरी बेबे और छोटे भाई वगैरह रोना-धोना मचा रहे हों, लेकिन बाहर से कुछ भी पता नहीं चल पाया था। रात के वक्त वे एक चक्कर कोतवाली की तरफ भी लगा आये थे - दारजी ने मेरे गुम होने की रिपोर्ट नहीं लिखवायी थी। अगले दिन सुबह - सुबह ही वे एक बार फिर हमारे मोहल्ले की तरफ चक्कर लगा आये थे, लेकिन वहां कोई भी मेरी गैर-मौजूदगी को महसूस नहीं कर रहा था। वहां सब कुछ सामान्य चल रहा था। तब वे एक बार फिर कोतवाली भी हो आये थे कि वहां कोई किसी बच्चे के गुम होने की रिपोर्ट तो नहीं लिखवा गया है। वहां ऐसी कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करायी गयी थी।

उन्होंने तब मेरे भविष्य का फैसला कर लिया था। पास ही के शहर सहारनपुर में रहने वाले अपने ससुर के नाम एक चिट्ठी दी थी और मुझे उसी दिन बस में बिठा दिया था। इस तरह मैं उनसे दूर होते हुए भी उनकी निगरानी में रह सकता था और जरूरत पड़ने पर वापिस भी बुलवाया जा सकता था। उनके ससुर वहां सबसे बड़े गुरुद्वारे की प्रबंधक कमेटी के कर्त्ताधर्ता थे और उनके तीन-चार स्कूल चलते थे। ससुर साहब ने अपने दामाद की चिट्ठी पढ़ते ही मेरे रहने खाने का इंतजाम कर दिया था। मेरी किस्मत खराब थी कि उनके ससुर उतने ही काइयां आदमी थे। वे चाहते तो मेरी सारी समस्याएं हल कर सकते थे। वहीं गुरूद्वारे में मेरे रहने और खाने का इंतजाम कर सकते थे, मेरी फीस माफ करवा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया था। उन्होंने मुझे अपने ही घर में रख लिया था। बेशक स्कूल में मेरा नाम लिखवा दिया था लेकिन न तो मैं नियमित रूप से स्कूल जा पाता था और न ही पढ़ ही पाता था। हैड मास्टर साहब ने तो अपने ससुर के पास मुझे पढ़ाने के हिसाब से भेजा था लेकिन यहां मेरी हैसियत घरेलू नौकर की हो गयी थी। मैं दिन भर खटता, घर भर के उलटे सीधे काम करता और रात को बाबाजी के पैर दबाता। खाने के नाम पर यही तसल्ली थी कि दोनें वक्त खाना गुरूद्वारे के लंगर से आता था सो पेट किसी तरह भर ही जाता था। असली तकलीफ पढ़ाई की थी जिसका नाम सुनते ही बाबा जी दस तरह के बहाने बनाते। मैं अब सचमुच पछताने लगा था कि मैं बेकार ही घर से भाग कर आया। वहीं दारजी की मार खाते पड़ा रहता, लेकिन फिर ख्याल आता, यहां कोई कम से कम मारता तो नहीं। इसके अलावा मैंने यह भी देखा मैं इस तरह घर का नौकर ही बना रहा तो अब तक का पढ़ा-लिखा सब भूल जाऊंगा और यहां तो ज़िदगी भर मुफ्त का घरेलू नौकर ही बन कर रह जाऊंगा तो मैंने तय किया, यहां भी नहीं रहना है। जब अपना घर छोड़ दिया, उस घर से मोह नहीं पाला तो बाबा जी के पराये घर से कैसा मोह। मैंने वहां से भी चुपचाप भाग जाने का फैसला किया। मैंने सोचा कि अगर यहां सिंह सभा गुरूद्वारा और स्कूल एक साथ चलाती है तो दूसरे शहरों में भी चलाती ही होगी।

तो एक रात मैं वहां से भी भाग निकला। बाबाजी के यहां से भागा तो किसी तरह मेहनत-मजदूरी करते हुए, कुलीगिरी करते हुए, ट्रकों में लिफ्ट लेते हुए आखिर मणिकर्ण जा पहुंचा। इस लम्बी, थकान भरी और तरह तरह के ट्टे मीठे अनुभवों से भरी मेरी ज़िंदगी की सबसे लम्बी अकेली यात्रा में मुझे सत्रह दिन लगे थे। वहां पहुंचते ही पहला झूठ बोला कि हमारे गांव में आयी बाढ़ में परिवार के सब लोग बह गये हैं। अब दुनिया में बिलकुल अकेला हूं और आगे पढ़ना चाहता हूं। यह नाटक करते समय बहुत रोया। यह जगह मुझे पसंद आयी थी और आगे कई साल तक साल की यानी जिस कक्षा तक का स्कूल हो, वहीं से पढ़ाई करने का फैसला मैं मन-ही-मन कर चुका था। इसलिए ये नाटक करना पड़ा।

वहां मुझे अपना लिया गया था। मेरे रहने-खाने की स्थायी व्यवस्था कर दी गयी थी और एक मामूली-सा टेस्ट लेकर मुझे वहां के स्कूल में सातवीं में दाखिला दे दिया गया था। मेरी ज़िंदगी की गाड़ी अब एक बार फिर से पटरी पर आ गयी थी। अब मैं सिर पर हर समय पटका बांधे रहता। एक बार फिर मैं अपनी छूटी हुई पढ़ाई में जुट गया था। स्कूल से फुर्सत मिलते ही सारा वक्त गुरूद्वारे में ही बिताता। बहुत बड़ा गुरूद्वारा था। वहां रोजाना बसों और कारों में भर भर कर तीर्थ यात्री आते और खूब चहल-पहल होती। वे एक आध दिन ठहरते और लौट जाते। मुझे अगली व्यवस्था तक यहीं रहना था और इसके लिए ज़रूरी था कि सब का दिल जीत कर रहूं। कई बार बसों या कारों में आने वाले यात्रियों का सामान उठवा कर रखवा देता तो थोड़े बहुत पैसे मिल जाते। सब लोग मेरे व्यवहार से खुश रहते। वहां मेरी तरह और भी कई लड़के थे लेकिन उनमें से कुछ वाकई गरीब घरों से आये थे या सचमुच यतीम थे। मैं अच्छे भले घर का, मां बाप के होते हुए यतीम था।

अब मेरी ज़िंदगी का एक ही मकसद रह गया था। पढ़ना, और सिर्फ पढ़ना। मुझे पता नहीं कि यह मेरा विश्वास था या कोई जादू, मुझे सिरदर्द से पूरी तरह मुक्ति मिल चुकी थी। वहां का मौसम, ठंड, लगातार पड़ती बर्फ, पार्वती नदी का किनारा, गर्म पानी के सोते और साफ-सुथरी हवा जैसे इन्हीं अच्छी अच्छी चीजों से जीवन सार्थक हो चला था। यहां किसी भी किस्म की कोई चिंता नहीं थी। स्कूल से लौटते ही मैं अपने हिस्से के काम करके पढ़ने बैठ जाता। मुझे अपनी बेबे, बहन और छोटे भाइयों की बहुत याद आती थी। अकेले में मैं रोता था कि चाह कर भी उनसे मिलने नहीं जा सकता था, लेकिन मेरी भी जिद थी कि मुझे घर से निकाला गया है, मैंने खुद घर नहीं छोड़ा है। मुझे वापिस बुलाया जायेगा तभी जाऊंगा।

मैं हर साल अपनी कक्षा में फर्स्ट आता। चौथे बरस मैं हाई स्कूल में अपने स्कूल में अव्वल आया था। मुझे ढेरों ईनाम और वजीफा मिले थे।

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