Nishchhal aatma ki prem pipasa - 13 in Hindi Fiction Stories by Anandvardhan Ojha books and stories PDF | निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 13

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 13

काश, समुद्र का जल पीने लायक़ होता...

ईश्वर सामान्य-जन से भिन्न होते हैं। भिन्न होते हैं, तभी तो ईश्वर होते हैं। मेरे मित्र ईश्वर भी उस कच्ची उम्र से ही थोड़े भिन्न थे। उन्होंने कोई व्यसन नहीं पाल रखा था, पूजा-पाठी थे, कंठी-माला धारण करते थे और मेरे-शाही के धूमपान के व्यसन तथा कभी-कभी पान-तम्बाकू-भक्षण की भर्त्सना करते थे। मुझे लगता है, आरम्भ से ही उनका झुकाव भगवद्भक्ति की ओर था। बाद में सुनने में आया था कि उन्होंने इस दिशा में बहुत गति भी पायी थी।

खैर, उस रात ईश्वर के घर परा-संपर्क की सफलता से कई लाभ हुए। सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि ईश्वर का मुझ पर अटूट विश्वास जम गया, उनकी प्रीति और निकटता मुझे सहज सुलभ होने लगी तथा दूसरी यह कि उसी रात मैंने जाना कि मैं अभेद्य काली चादर को भेद सकता हूँ। युवावस्था की पहली पायदान पर ही ईश्वर को ऐसे कटु अनुभव से गुज़रना पड़ा था कि वह निःसंग और एकाकी रहने के अभ्यासी हो गए थे शायद।...

अब मेरे इस कार्य-व्यापार के दो नहीं, तीन अड्डे हो गए--एक तो मेरा कुँवारा क्वार्टर (मित्रवर विनोद कपूर का सुझाया प्रयोग) और दूसरा ईश्वर का निवास तथा श्रीलेखा दीदी का घर। जैसा स्मरण है, मैंने ईश्वर के निवास पर परलोक-निवासिनी उनकी बड़ी माँ से भी बात करवायी थी। तब किसी कारणवश शाही हमारे साथ नहीं थे, लिहाज़ा ईश्वर के अनुज हरि हमारे साथ बोर्ड पर बैठे थे और अपनी बड़ी माँ से प्राप्त हो रहे उत्तरों से चकित-विस्मित हो रहे थे।

बड़ी दीदी के पास जाना तो साप्ताहिक अवकाश में होता, लेकिन अब उपर्युक्त दोनों ठिकानों पर जोर-शोर से आत्मा का आह्वान होने लगा। मैंने लक्ष्य किया कि चालीस दुकानवाली आत्मा सिर्फ बैचलर क्वार्टर की बैठकों में आती थी, अन्यत्र नहीं। वह बहुत दिनों तक तो महज़ पुरुषों के अवगुण का गान और भर्त्सना करती रही। अपनी बात कहते हुए वह अभद्र भाषा का प्रयोग भी करने लगती और मुझे उसे रोकना-टोकना पड़ता। एक बार वह बोली--'दुनिया के तमाम मर्द नाक़ाबिले ऐतबार होते हैं।" मैंने उसे याद दिलाया कि 'एक अदद पुरुष तो मैं भी हूँ। फिर मेरा भरोसा आप कैसे कर रही हैं?' उसने तुरत उत्तर दिया--'आपकी बात और है। मुझे तो बस, आपका ही सहारा है। अपनी बात मैं और किससे कहूँगी भला?' इतना कहकर वह बोर्ड के दो अक्षरों को बार-बार छूने लगी--'hi-hi-hi....' ! थोड़ी देर में मैंने समझा कि वह ठिठिया रही है। उसकी पीड़ा बड़ी थी। जीवन में मिली हुई त्रासद पीड़ा से उसकी मुक्ति नहीं थी और वह बहुत बेचैन रहती थी। निरंतर मुझसे सहायता की याचना करती थी और मैं समझ नहीं पाता था कि मैं किस तरह उसकी मदद कर सकता हूँ। कभी वह कहती, 'मुझे बहुत सारा पानी पिला दीजिये।' एक बार मैंने उससे पूछा था--'आपको पानी पिलाने के लिए मुझे क्या करना होगा ?' उसने कहा था--'मेरा नाम लेकर जल पीपल के पेड़ में डाल दीजिये। उसे मैं ग्रहण कर लूँगी।' मैंने पूछा--'आपका नाम तो मुझे ज्ञात ही नहीं है, लूँगा कैसे? अपना नाम तो बताइये।' थोड़ी देर वह ठिठकी रही, फिर बोली--'मैं तो अपना नाम भूल गई हूँ बिलकुल, 'आप चालीस दुकानवाली' ही कहेंं न।" कल ही ऐसा करने का मैंने उससे वादा किया। दूसरे दिन ऑफिस जाने के पहले स्नान करके मैंने एक पात्र में जल लिया और फ़र की भीगी तौलिया लपेटे आहाते के एक छोर पर खड़े पीपल-वृक्ष तक गया तथा चालीस दुकानवाली का स्मरण कर पेड़ की जड़ों में जल डाल आया।

जल डालकर जब मैं लौट रहा था तो मैंने देखा कि बैचलर क्वार्टर के अहाते में खड़े लक्ष्मीनारायणजी मुझे घूर रहे हैं। जब मैं उनके पास से गुज़रा तो एक व्यंग्यपूर्ण मुस्कराहट के साथ वह बोले--'डर के मारे ही पूजा-पाठ भी करने लगे हो क्या…?' मैं कुछ बोला नहीं, उनके बगल से चुपचाप निकल गया।

दूसरे दिन की बैठकी में मेरी पुकार को नाकाम करते हुए चालीस दुकानवाली मेरी गिलसिया में आ बैठी। मैंने कहा--'मुझे किसी और से बात करनी थी और वह भी जरूरी बात… आप क्यों आ गईं ?' वह हठपूर्वक बोली--'लेकिन मुझे किसी और से नहीं, आप ही से बात करनी है और वह भी जरूरी बात है।' मैंने कहा--'शीघ्र कहिये, क्या कहना है आपको?'
बोली--'मैं आपकी शुक्रगुज़ार हूँ, आपने मुझे पानी दिया है न आज, इसलिए !'
मैंने पूछा--'चलिए अच्छा हुआ, वह जल आपको मिल गया, क्षुधा शांत हुई आपकी?'
उसने निराश भाव से कहा--'गला तर हुआ, प्यास नहीं बुझी... ! वो पानी बहुत कम था न !'
मैंने पूछा--'अरे, तो कितना जल उतनी दूर तक ले जाता मैं? कितने जल से प्यास बुझेगी आपकी ?'
वह बहुत वाचाल थी। उसने तत्काल कहा--'अनन्त प्यास है मेरी ! अगर समुद्र का जल पीने लायक़ होता और उसे आप मेरे नाम तर्पण करके दे देते तो शायद मेरी प्यास बुझती, मेरे शरीर का दाह कम होता, मेरे कलेजे को ठंढक मिलती।'
मैंने क्षुब्ध भाव से कहा--'आप जानती हैं, मुझ अपात्र से यह संभव नहीं है। वैसे, समुद्र के जल से आपका दैहिक ताप तो कम हो सकता था और आपके कलेजे को ठंढक भी पहुँच सकती थी, लेकिन आपकी प्यास नहीं बुझ सकती थी; क्योंकि वह जल पीने लायक नहीं है !' मेरी बात सुनकर उसने फिर -'hi-hi-hi....' की टेक पकड़ ली।
मैं समझ गया कि उसे फिर अपनी अनंत पीड़ा की कथा सुनानी शुरू कर देनी है… ! मैं उससे लौट जाने का आग्रह करने लगा।
लेकिन, उसे विदा करना मेरे लिए हमेशा बहुत कठिन रहा। वह दुखी आत्मा एक बार आ धंसे, तो फिर लौटना ही नहीं चाहती थी। उसकी बातों से, उसकी प्रगल्भता से और उसकी मारक पीड़ा से अब मुझे हमदर्दी होने लगी थी और औघड़ बाबा तथा श्रीलेखा दीदी के अनुसार ये अच्छे लक्षण नहीं थे।…
(क्रमशः)