Bahikhata - 5 in Hindi Biography by Subhash Neerav books and stories PDF | बहीखाता - 5

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बहीखाता - 5

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

5

मिडल स्कूल

यह सन् 1960 की बात है जब मैं प्राइमरी की पढ़ाई पूरी करके मिडल स्कूल में पहुँच गई थी। मिडल स्कूल कोई अलग स्कूल नहीं था। एक ही स्कूल की आमने-सामने दो इमारतें थीं। एक इमारत में प्राइमरी की पढ़ाई और दूसरी इमारत में मिडल और हॉयर सेकेंडरी की पढ़ाई हुआ करती थी। मेरे छठी कक्षा में पहुँचने और दूसरी इमारत में जाने से पहले ही मेरी बड़ी बहन आठवीं पास करके स्कूल छोड़कर जा चुकी थी। उसने मैट्रिक करने के लिए किसी प्राइवेट कालेज में दाखि़ला ले लिया था। इसका कारण उसकी बड़ी उम्र का होना था। वह सन् 1947 के भारत-पाक विभाजन के समय सात वर्ष की थी। इसलिए वह स्कूल में दाखि़ला लेने के समय आवश्यक आयु से दो वर्ष बड़ी होने के कारण आठवी के बाद मैट्रिक करना चाहती थी। सो, मैं छठी कक्षा में पहुँचकर दूसरी बिल्डिंग में चली गई लेकिन अपने आप को अकेला अनुभव करने लगी। ऐसा लग रहा था कि मैंने किसी नये स्कूल में प्रवेश लिया हो और एक स्थान से दूसरे स्थान जाने में मैं खुद को सुरक्षित नहीं समझती थी। इसलिए एक अजीब प्रकार का डर मेरे अंदर बैठने लगा - पता नहीं, मिडल स्कूल में जाकर क्या होगा ?

हमारे स्कूल में बच्चों के लिए खेलने का कोई प्रबंध नहीं था। बस, सारा समय पढ़ाई में ही निकल जाता था। जहाँ प्राइमरी क्लास में पहली से लेकर पाँचवी तक मेरी एक ही टीचर थी, वहीं मिडल में एक दिन में ही चार चार अध्यापिकायें देखने को मिलतीं। हिंदी, पंजाबी और गणित की अध्यापिकाओं के साथ साथ अब अंग्रेजी की टीचर भी आ गई थी क्योंकि छठी कक्षा से हमें अंग्रेजी भी लग गई थी। मैं क्लास में टीचरों को ही देखती, सोचती, परखती रहती। स्मार्ट टीचर को मैं अधिक ध्यान से देखती। मुझे इस प्रकार लगता कि टीचर आम मनुष्य से बिल्कुल अलग प्रकार के जीव होते हैं। मुझे अध्यापिकायें किसी भिन्न देश की वासी लगा करतीं। मैं यही सोचती रहती, ये कैसे घरों में रहती होंगी ? क्या खाती होंगी ? कैसे उठती-बैठती होंगी ? कई बार अध्यापिकाओं की ओर देखती-देखती उनके विषय में सोचती-सोचती यह भूल ही जाती कि वे क्या पढ़ाकर गई हैं। मैं घर आकर कैलेंडर अथवा दीवार पर टंगी किसी अन्य वस्तु को ब्लैक-बोर्ड के रूप में कल्पित कर लेती और अध्यापिकाओं की भाँति ही सबक पढ़ाने लग जाती। मुझे अध्यापिका बनना बहुत अच्छा लगता था। मिडल स्कूल में आकर एक अन्य बात का अंतर पड़ गया था। वह यह कि यहाँ शिफ्ट सुबह की थी। अब स्कूल जाने के लिए मुझे सुबह जल्दी उठना पड़ता था। यहाँ स्कूल में हम अभी फ्रॉक ही पहन रही थीं। मेरा अपने आप में गुम रहने का स्वभाव अभी भी बरकरार था। मैं अभी भी किसी से सहज ही डर जाती थी। यह शुक्र था कि स्कूल का वातावरण ऐसा था कि कोई भी किसी पर व्यर्थ का रौब नहीं डाल सकता था। वैसे चूचो के मामा वाली कहानी अब धूमिल होना प्रारंभ हो गई थी। चूचो से मिलने का अब मेरे पास समय ही नहीं था। मेरे पास अब अन्य बहुत कुछ अच्छा करने के लिए हो गया था। मिडल स्कूल में इतने विषयों की भिन्नता मुझे बहुत अच्छी लग रही थी।

अंग्रेजी मेरा मनभावन विषय बन गया। मैं अंग्रेजी के शब्दों को बहुत मन लगाकर सीखती। मैंने एक डायरी लगा ली जिसमें मैं एक तरफ अंग्रेजी के शब्द लिख लेती और उसके सामने पंजाबी में उसके मायने। यह एक प्रकार की मेरी डिक्शनरी ही थी। मैं इन शब्दों को हर रोज़ याद करती। इस प्रकार मेरे शब्द-भंडार का विस्तार हो रहा था। मुझे अंग्रेजी और पंजाबी मनचाहे विषय लगते, पर मेरे नंबर सदैव हिंदी में ही अधिक आते।

अब उम्र बड़ी हो रही थी और मेरे खेलने के तरीके भी बदल रहे थे। गुड्डा-गुड्डी के खेल पीछे रहे गए थे। स्कूल से लौटते हुए राह में ही बर्फ़ के गोलों की ओर दौड़ पड़ती थी। स्कूल के करीब ही झूलने के लिए हिंडोले लगे हुए थे। और भी कई प्रकार के झूले थे, पर मैं हिंडोले में झूलने के बाद ही घर को लौटती थी। मेरा अधिक समय अब पढ़ाई में ही बीतता। मेरी लिखने की तेज़ स्पीड देख घर में सभी हैरान होते। मैं हर वर्ष अच्छे नंबरों से पास होती। मेरे भापा जी को मेरे नंबर देखकर चाव चढ़ जाता। उन्हें यकीन होता कि मैं पास तो हो ही जाऊँगी। इस प्रकार पास होते होते मैं आठवीं कक्षा में पहुँच गई।

आठवीं कक्षा में कुछ परिवर्तन देखने को मिलने लगे। हमारी एक किताब में एक अध्याय शारीरिक परिवर्तन के बारे में था। शरीर में जो परिवर्तन आने लगते हैं, उनके विषय में उसमें उल्लेख किया गया था, पर अजीब बात यह थी कि यह अध्याय हमें पढ़ाया ही नहीं गया। टीचर जानबूझ कर इसको छोड़ गई थी। लड़कियाँ इस बारे में परस्पर फुसफुसाती रहतीं। मैं दूसरों से साल भर छोटी थी इसलिए मुझे वे यूँ ही समझकर मेरे साथ कोई बात साझी न करतीं। हमारी कक्षा में एक और तब्दीली दिखाई देने लगी कि बहुत सारी लड़कियाँ फ़्रॉक की जगह सलवार-कमीज़ पहनने लग पड़ीं। वह आपस में एक-दूजे से सवाल-से भी पूछती रहतीं। मुझे कुछ कुछ समझ में भी आता, पर पूरी तरह नहीं। हम बैंचों पर बैठा करती थीं। लड़कियाँ एक-दूसरे को उठाकर पूछतीं कि कहीं उसने बैंच तो नहीं रंग दिया और खीं-खीं करके ज़ोर ज़ोर से हँसने लग जातीं। एक दिन एक लड़की ने मुझसे बैंच पर से उठने को कहा। मैं उठ खड़ी हुई। वहाँ कुछ भी नहीं था। सभी लड़कियाँ हँसने लगीं। मुझे लग रहा था, जैसे वे मुझे तुच्छ-सा समझ रही थीं। मुझे अपना आपा घटिया-सा महसूस होने लगा। मैंने वह चैप्टर जिसे हमें पढ़ाया नहीं गया था, खुद पढ़ लिया। इसको पढ़कर मैं कुछ कुछ शारीरिक परिवर्तनों के बारे में समझने लग पड़ी थी, पर मेरे शरीर में अभी ऐसा कोई भी परिवर्तन नहीं हो रहा था। यह बात भी मुझे तंग कर रही थी। मुझे लगता था कि मैं इन लड़कियों के बराबर नहीं हूँ। सबसे पहले तो मैंने घर में ज़िद करके सलवार-कमीज़ पहनी शुरू कर दी। जब कभी मेरे बीजी कहीं गए होते, मैं अपनी फ्रॉक के निचले हिस्से को काटकर कमीज़ बनाने की कोशिश करती। कुछ हद तक सिलाई मैंने अपनी भाबो जी से और कुछ स्कूल से सीख ली थी। नौवीं कक्षा में मैंने गणित के साथ साथ गृह विज्ञान का विषय भी ले रखा था जिसमें सिलाई-कढ़ाई का काम भी सिखलाया जाता था। सलवार कमीज़ पहनकर मैं स्वयं को अन्य लड़कियों की भाँति महसूस करने लगी थी। परंतु मेरे शरीर में वह तब्दीली अभी भी नहीं आई थी जिसकी मैं प्रतीक्षा कर रही थी। मैं अंदर ही अंदर एक प्रकार से तड़फने लगी। मैं चाहती थी कि मैं भी शीघ्र से शीघ्र बाकी लड़कियों की तरह फुसफुसाकर बातें कर सकूँ। एक दिन मैंने सयानी औरतों को बातें करते हुए सुना कि पन्द्रह साल की उम्र तक तो सभी लड़कियों को मासिक धर्म आ जाता है, पर किसी किसी को तो इससे पहले भी आ जाता है। शायद मुझे क्लास में तंग करने वाली लड़कियाँ जिन्हें मासिक धर्म शुरू हो चुका था, आयु में मुझसे बड़ी थीं या उन्हें यह जल्दी ही शुरू हो चुका था। मगर मैं अभी बारह वर्ष की ही थी। मेरा मन बेसब्रा होने लगता और सोचती कि मैं पन्द्रह की क्यों नहीं हो जाती। एक दिन मेरे मन में कुछ ऐसी खब्त उठी कि मैंने एक कपड़े का पैड बनाया और उसको नेल पालिश लगाकर रख लिया ताकि मैं अन्य लड़कियों को महसूस होने वाली बातों को महसूस कर सकूँ। लेकिन कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था। मेरा अंतर्मुखी स्वभाव मुझे यह बात किसी से साझी करने नहीं दे रहा था। एक सहमापन, एक डर, एक शरम मुझे दूसरों से बात करने से रोक रही थी। इस प्रकार मेरे अंदर एक दूसरी ही दुनिया बस रही थी और मैं बाहर की दुनिया से टूट रही थी।

(जारी…)