Suhagraat in Hindi Women Focused by Dr. Dilbag Singh Virk books and stories PDF | सुहागरात

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सुहागरात

सुहागरात

मीनू का पारा चढ़ा हुआ था| शायद वह कहीं से लड़ कर आई थी| आते ही अंटी ने उसे मुकेश को साथ ले जाने को कहा| दांत पीसते हुए वह मुकेश को पीछे आने का इशारा करके आगे चल पड़ी| वह मुकेश को कमरे में ले जाती है| मुकेश कमरे में आकर बैड पर बैठ जाता है| मीनू कमरे का दरवाजा बंद करते हुए बुडबुडा रही है, “क्या हमारे पास दिल नहीं होता? क्या हम सिर्फ जिस्म हैं? क्यों दुनिया हमें बस हवस मिटाने का साधन समझती है?”

“तूने खुद चुना है ये धंधा, फिर शिकवा क्यों?” – रमेश ने मीनू की बुडबुडाहट सुनकर कहा|

“खुद चुना है... कैसा मजाक करते हो तुम| ऐसी अपमान भरी ज़िंदगी कोई क्यों चुनेगा? ये तो मुकद्दर का खेल है या फिर अपनों की दगाबाज़ियाँ, जिसने पल-पल मरने को मजबूर किया हुआ है|” – मीनू ने बैड पर बैठते हुए कहा|

“किन अपनों ने दगाबाजी की है तेरे साथ?”

“ तू ये पूछ, किसने नहीं की|”

“तो बता|” – मुकेश ने बात को आगे बढ़ाया|

“क्या तुमने यही पूछने के लिए पैसे खर्च किए हैं?” – मीनू की आवाज़ में व्यंग्य था|

“नहीं, पर रात बहुत लम्बी है| अपने पास बहुत समय है| मैं तेरी बातें सुन भी सकता हूँ और अपने पैसों की कीमत वसूल भी कर सकता हूँ|”

“पर तुझे क्यों जानना है ये सब? तू कोई पत्रकार तो नहीं? तू किस मकसद से आया है यहाँ?” – मीनू ने सचेत होते हुए कहा|

“ नहीं, नहीं... तू डर मत, मैं कोई पत्रकार नहीं हूँ, न कोई जासूसी करना मेरा मकसद है| मैंने तो बस तेरी सुन्दरता के चर्चे सुने थे| बस उसी सुन्दरता का आनन्द मानने के मकसद से आया हूँ|”

“फिर इस सुन्दरता का लुत्फ़ क्यों नहीं उठाता? क्यों फालतू की बातों में उलझा हुआ है?”

“सुन्दरता का आनन्द तो उठाना ही है, पर हम इंसान हैं, मशीन तो नहीं| बातों से थोड़ी जान-पहचान हो जाएगी, फिर जिस्म का खेल आनन्ददायक हो जाएगा|”

“तू बड़ा अजीब आदमी लगता है मुझे ...|” – मीनू ने हँसते हुए कहा और तुरंत गंभीर होकर बोली, “पर तू कहता सही है|”

मीनू लम्बी साँस छोड़ते हुए खड़ी हुई| मेज पर पड़े जग में से पानी का गिलास भरकर पानी पिया और फिर वापस बैड पर बैठते हुए बोली, “पर हमें अब कोई आनन्द नहीं आता| यहाँ आने वाले सब जल्दी में होते हैं| सब के सब भूखे, जिस्म के भूखे| आते ही टूट पड़ते हैं और भूख मिटाते ही फुर्र हो जाते हैं| किसी को आनन्द आया या नहीं, कोई जिक्र नहीं करता| दरअसल किसी से इतना सम्पर्क ही कहाँ होता है हमारा| न हमें कोई ज़रूरत होती है, न सामने वाले के पास समय| इस धंधे में जब से आई हूँ, तू मुझे मिला पहला व्यक्ति है, जिसे कोई जल्दी नहीं| तूने पूरी रात के पैसे खर्चे हैं, जबकि लोग घंटे के पैसे देते हैं| पूरी रात के पैसे खर्च कर जब कोई हमें होटल लेकर जाता है, तो पाँच-छः आदमी तो होते ही हैं, भले ही हमें दो-तीन कहा जाता है, पर हम आदी हो चुकीं हैं इन बातों की| हमें पता होता है, कि रात का मतलब है आठ घंटे और इस दौरान हमें जिस्म और रूह दोनों को छलनी करवाना होता है|”

“तेरी बातें सुनकर मेरी नजरों में तेरी तस्वीर कुछ अलग तरह की बनती जा रही है|”

“कैसी तस्वीर?”

“पता नहीं, पर वह एक वेश्या की नहीं है| क्या तू मुझे अपना अतीत बता सकती है?”

“हा...हा...हा...” – मीनू बनावटी-सी हँसी हँसती है| कुछ भी तो नहीं बताने लायक अब| बस अंटी का ये अड्डा ही मेरा अतीत, वर्तमान और भविष्य है| पाँच साल से यहाँ पर हूँ| हर रात अपने जिस्म को हैवानों के आगे खुद को नोंचवाने के लिए फैंकती हूँ| हवस के पुजारियों से अपना बलात्कार ख़ुद करवाती हूँ|”

“फिर तू यहाँ से चली क्यों नहीं जाती?”

“ये रास्ता एकतरफा है| लड़कियाँ इस धंधे में आ सकती हैं, पर इस धंधे से बाहर जा नहीं सकती|”

“तू कैसे आई इस धंधे में?”

“बड़ा ज़िदी हैं| क्या ये पूछना ज़रूरी है? तू क्यों नहीं अपने पैसे वसूलता? क्यों मुझे भूला हुआ वक्त याद करवाने पर तुला हुआ है?”

मुकेश मीनू को अपनी गोद में खींच लेता है और बड़े प्यार से उसकी पीठ सहलाते हुए कहता है, “तुझे मेरे पैसों की इतनी चिंता क्यों है? चिंता न कर, जो यहाँ आया है, वो ब्रह्मचारी तो होगा नहीं| मैं कीमत वसूलूँगा, पर तुझे देख कर, तेरी बातें सुन कर लगता है, कि तू अच्छे खानदान की लड़की है| तूने ख़ुद ही कहा, कि तेरे अपनों की दगाबाजियों के कारण तू यहाँ है| ये दुनिया है ही ऐसी| मैं जानना चाहता हूँ, कि किस-किस ने दगाबाजी की है तुझसे|”

“क्या तू उनसे बदला लेगा?” – मीनू ने जोर का ठहाका लगाते हुए कहा|

“नहीं, पर मेरी इच्छा है इसे जानने की|”

“क्या करेगा जान कर|” – मीनू फिर गंभीर हो गई|

“सबके अपने दगाबाजी करते हैं| कई बार दूसरों के अनुभव आपकी ज़िंदगी आसान बना देते हैं| मुझे कोई समाज सुधारक मत समझ लेना| मैं भी दुनिया के तमाम लोगों की तरह स्वार्थी हूँ| मैं भी अपनी भूख मिटा रहा हूँ| लोगों को सिर्फ जिस्मानी भूख होती है, जबकि मुझे जिस्म की भूख के साथ-साथ मानसिक भूख भी है| मुझे दोनों मिटानी हैं| इसी कारण तेरे साथ बातें कर रहा हूँ, तुझे सवाल कर रहा हूँ, तुझे जानने की कोशिश कर रहा हूँ| तू बता, अपने लिए न सही, मेरे लिए ही| तू ऐसे समझ, कुछ कीमत मैं इस तरह से वसूलूँगा|”

मीनू मुकेश के गले से लिपट जाती है| बड़े दिनों के बाद आज उसका जिस्म होश में आया है| आज वह ख़ुद को मुकेश को सौंपने को ख़ुशी-ख़ुशी तैयार है| मुकेश उसे प्यार से चूमता है, उसके बालों में हाथ घुमाता है, उसकी आँखों से आँखें मिलाता है| मीनू की आँखों में आँसू भर आते हैं| मुकेश बड़े प्यार से उसकी आँखें पोंछता है| मीनू अब अपना अतीत उसे सुनाने लगती है| वह कहती है, “वह एक अच्छे परिवार की लड़की है| उसका दाखिला बढ़िया स्कूल में करवाया गया था, लेकिन उसके माँ-बाप की आपस में बनती नहीं थी| कुछ समय बाद दोनों ने अलग-अलग रहने का फैसला लिया| तलाक के बाद मेरी माँ ने दूसरी शादी कर ली| मैं अपनी माँ के साथ नए घर आ गई| यहाँ भी मेरा दाखिला बढ़िया स्कूल में करवाया गया| शुरू में सब ठीक रहा, लेकिन मेरे हुस्न ने मुझे बर्बाद कर दिया| मेरी चढ़ती जवानी ने, मेरे सौतेले पिता की नीयत खराब कर दी| मौका पाकर वह मेरी इज्जत लूट लेता है| कच्ची कली को खिलने से पहले ही मसल दिया जाता है| मुझे बाली उम्र में ही ज़िंदगी का कड़वा घूँट भरना पड़ता है| माँ सब कुछ जानते भी चुप रहती है, पता नहीं वह मजबूर थी या इसके पीछे उसका भी कोई स्वार्थ था| हाँ, अब वह मेरी शादी जल्दी करवाने की फिराक में थी| सौतेले पिता को इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी| इन हालातों में, मेरी शादी ऐसे परिवार में कर दी जाती है, जो किसी भी स्तर पर हमारे मुकाबले का नहीं था| घर तो घर, पति भी मेरी लिए एक और कड़वी घूँट था| वह अनपढ़ और माँ का पिच्छलग्गू था| रोज मार-पीट करता था| ऐसे हालातों में मैंने एक ऐसा कदम उठा लिया, जो मेरे लिए घातक सिद्ध हुआ| मुझे पड़ोस के एक लड़के से प्यार हो गया| मैं उसके साथ घर से भाग गई| कुछ दिन अच्छे बीते, लेकिन जल्द ही उस लड़के का दिल भी मुझसे भर गया और वह मुझे दलाल के पास बेच गया| दलाल मुझे अंटी के पास बेच गया| उस दिन के बाद मैं महज जिस्म हूँ| न मुझे किसी पर एतबार है, न कोई तमन्ना है, पर आज फिर लगता है, कि मीनू फिर ज़िंदा हो गई है, पर...?”

“पर क्या?”

“तूने अच्छा नहीं किया| तूने मर चुके दिल को फिर ज़िंदा कर दिया है| इसको फिर मारना होगा|”

“तू ख़ुद ही तो कह रही थी, कि क्या हमारे पास दिल नहीं होता? क्या हम सिर्फ जिस्म हैं?”

“वो तो दो पल का गुबार था, पर अब यह दो पल का गुबार नहीं रहा|”

“आते समय तू बड़े गुस्से में थी, क्या बात थी?” – मुकेश ने बात को बदलते हुए कहा|

“मैंने बताया तो है, कि जब कोई हमें होटल लेकर जाता है, तो कहा जाता है, कि दो-तीन आदमी हैं, और अक्सर इससे ज्यादा ही होते हैं| वैसे यह सामान्य बात है, पर आज वहशियत की हद हो गई| आज सारा दिन मैं होटल में एक अमीरजादे और उसके पाँच दोस्तों की भूख मिटा रही थी| उन सभी ने जवानी में कदम रखा ही था और वे बी.एफ. से प्राप्त अनुभवों को मुझ पर आजमा रहे थे| बड़ी मुश्किल से मुकर्रर वक्त पूरा करके आई थी| आते ही पता चला, कि पूरी रात बुक है| उस पल तो यह लगा था, कि रात को भी सोना नसीब नहीं होगा, पर अब लगता है, कि ऐसी रात का जागरण तो मैं रोज कर सकती हूँ| यह तो सुहागरात है|”

“सुहागरात?” – मुकेश ने हैरान होकर पूछा|

“आज पहली बार किसी ने मेरे दिल की बात को सुना है, मेरे दर्द को समझा है| जिस रात में ऐसा प्यार मिले, वो सुहागरात नहीं तो और क्या है?”

बातें करते-करते वे जिस्म के खेल में उतर जाते हैं| आज मीनू अपना बलात्कार नहीं करवा रही, बल्कि वो एक सुहागन बनी हुई है, परन्तु पहले की रातें यहाँ बहुत लम्बी होती थीं, वहीं आज की रात बड़ी तेजी से बीत जाती है| लगता है, जैसे वक्त को पर लग गए हों| सवेर हो जाती है| मुकेश ने अब जाना है| वह कपड़े पहनने लगता है| मीनू उठ कर उसके गले से लिपट जाती है| वह उससे उसके बारे में पूछती है| मुकेश बताता है, कि वह भी ज़िंदगी के दुखों से दुखी है| उसका घर है, परिवार है, बच्चे हैं, पर दुःख हैं, कि पीछा नहीं छोड़ते| वह मीनू की पकड़ को ढीला करते हुए कहता है, “देख मीनू, यह मत सोचना, कि मैं तुझे इस दलदल से बाहर निकाल लूँगा| मैं समाज सुधारक नहीं, बल्कि परिवार वाला हूँ| अगर परिवार वाला न भी होता, तो भी तुझे यहाँ से न निकाल पाता| मुझमें इतनी दिलेरी नहीं है|”

मीनू फिर जोर से गले से लिपट जाती है और कहती है, “मुझे अब इस दलदल से बाहर निकलना भी नहीं| बाहर कौन-सा समतल मैदान है, बाहर भी तो दलदल ही है| क्या भरोसा है, कि आगे धोखे नहीं मिलेंगे| मैं अब इस दलदल की आदी हो चुकी हूँ, बस एक ही इल्तिजा है...” – मीनू ने मिन्नत करते हुए मुकेश से कहा| मुकेश इस बात को सुनते ही भीतर तक काँप उठा| अंदर के डर को छुपाते हुए वह बोला, “बता?”

“तू कभी-कभार आ जाया करना या मुझे बुला लिया करना| ज्यादा नहीं तो महीने में एक बार| रात की कीमत का आधा हिस्सा मेरा होता है और आधा अंटी का| तू सिर्फ अंटी का हिस्सा दे दिया करना| अगर वो भी न दे सके, तो कोई बात नहीं| वो मैं दे दिया करूँगी| मैंने पैसे जोड़कर कौन-से महल बनाने हैं| कपड़े ही खरीदने होते हैं, एक साड़ी कम ले लूँगी, पर तेरे साथ गुजारी रात मुझे इतना सुकून देगी, कि मैं दुखों को आसानी से सह लूँगी|”

मुकेश की घबराहट खत्म हो जाती है| हालाँकि उसने स्पष्ट कह दिया था, कि वह उसे दलदल से बाहर नहीं निकाल सकता, फिर भी इल्तिजा की बात सुनकर उसे लगा था, कि वह उससे कुछ ऐसा न माँग ले, जिसे वह पूरा न कर सके| वैसे वह बाध्य नहीं था, कोरा जवाब दे सकता था, मगर रात भर में बने रिश्ते के बाद, वह कोरा जवाब देकर खुद को नीचे नहीं गिराना चाहता था| मीनू की इल्तिजा सुनकर उसे तसल्ली होती है| अब वह भी मीनू को गर्मजोशी से गले से लगा लेता है|

दिलबागसिंह विर्क