दिल की ज़मीन पर ठुकी कीलें
(लघु कथा-संग्रह )
25--स्वाभिमान?
अपने परिवार के हर सदस्य के लिए गर्व से फूली रहने वाली सुमेधा महाजन का अपने पति के जाते ही गर्व का गुब्बारा पिचककर हवा में झूलने लगा | जीवन की आपाधापी से बड़े ही स्वाभाविक स्वर में झूमने वाली सुमेधा हतप्रभ हो पुत्रवधू का चेहरा ताकती रह गई ।
बेटे-बहू के बीच ख़लिश है, ये तो काफ़ी दिन पूर्व आभास हो चुका था किंतु बच्चों पर माँ-बाप के संबंधों का ख़राब प्रभाव पड़ रहा था जो स्वाभाविक ही था !
बच्चे नहीं कहते उन्हें जन्म दो, अपने को गौरवान्वित महसूस करने के लिए तुम उन्हें जन्म देते हो
माला जानती थी सौरव का मस्तमौला स्वभाव ! अरे पालन-पोषण नहीं कर सकते तो किसी प्राणी को इस धरती पर लाने की आखिर ज़रुरत क्या है ? नहीं जन्म देने की ज़रूरत थी बेटियों को।
महाजन साहब कहते एक बेटी बहुत है, आज महँगाई के ज़माने में एक ही बच्चे को खूब अच्छी तरह पाल-पोसकर उसे क़ाबिल बना देना ही बहुत बड़ी चुनौती है किन्तु बहू का कहना था कि दो बच्चे ज़रूरी हैं, एक -दूसरे का साथ देने के लिए |बात ठीक थी किन्तु उसके लिए तैयारी रखनी भी ज़रूरी थी |
सुमेधा को लगता कि सास -ससुर होने के नाते वे कैसे बेटे-बहू से इस प्रकार की बात कर सकती है ?वह पति को भी चुप रहने के लिए कहती|दूसरे \गर्भ धारण की बात सुनकर सुमेधा ने पूछा ;
" क्या दूसरे बच्चे को पालने के लिए मानसिक व फाइनैंशयली तैयारी है तुम्हारी ? " पहली बच्ची को तो सुमेधा टाँगे टाँगे फिरती थी | बहू काम पर जाती, सुमेधा आया पर बच्चों को छोड़ने के पक्ष में नहीं थी | इसीलिए उसने स्पष्टता करनी चाहिए |
"मै इतनी समर्थ हूँ कि अकेली ही पाल लूँगी |" बहू ने अकड़कर जवाब दिया था |
दूसरी बेटी भी बहुत प्यारी, सुकुमारी सी हुई | जो दादा-दादी पहले दूसरे बच्चे के जन्म के पक्ष में न थे, अब वही बच्ची उनकी आँखों का तारा बन गई थी |
बच्चे बड़े हो गए | दोनों पति-पत्नी की दुनिया पोतियों के इर्द-गिर्द सिमट आई थी | बेटे-बहू की खटर-पटर ने अब भयानक रूप ले लिया | जब बहू अपशब्दों से सबसे बात करने लगी तब सुमेधा ने उसे समझाने की कोशिश की |
"स्वाभिमान से जीना सिखाऊँगी अपनी बेटियों को ---उन्हें क्या दबके रहना सिखाऊँगी मैं ? " बहू गुर्राई | सुमेधा ने चुप्पी साध ली, बहस करने से कोई लाभ नहीं था और सुमेधा की समझ में यह नहीं आ रहा था कि क्या उसकी बहू स्वाभिमान और अभिमान में अंतर समझती है ?"
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