Nishchhal aatma ki prem pipasa - 12 in Hindi Fiction Stories by Anandvardhan Ojha books and stories PDF | निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 12

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 12

हमदम मेरे, जो बात तुमको चहिये थी खुद बतानी,

वह हवा का एक कतरा था, कह गया सारी कहानी।...

पाँच-छह महीने बाद मैं, शाही और ईश्वर सर्वत्र एक साथ दिखने लगे। ईश्वर ने कानपुर की 'हरी कॉलोनी' (Green colony ) के एक क्वार्टर में अपना आशियाना बनाया था, जो हमारे ठिकाने से बहुत दूर नहीं था। उनके पास एक अच्छा पाकशास्त्री भी था, जो बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाता था। आये दिन उनके गाँव से कोई-न-कोई व्यक्ति स्वादिष्ट व्यंजन लिए चला आता और ईश्वर अपने घर हमें आमंत्रित करते। मेस के उबाऊ एकरस भोजन से पके हुए हम दोनों उत्साह से ईश्वर के घर जाते। शाम से देर रात तक वहीं जमे रहते और रात का भोजन करके लौटते। बातचीत में मैं ईश्वर से हमेशा पूछा करता कि वह इतना कम क्यों बोलते हैं, इस तरह गुमसुम रहने की वज़ह क्या है, अपने मन की परतें वह खोलते क्यों नहीं, मित्रों के बीच ऐसी परदादारी क्यों? वह बस मुस्कुराकर रह जाते। उनके मन के अवगुंठन की गाँठ खुलती ही नहीं थी।....

विगत पांच-छह महीनों में मैंने खूब ध्यान-साधन किया, आत्माओं का आह्वान कर उनसे बहुत-बहुत बातें कीं। रात्रि-जागरण का प्रभाव तो शरीर पर पड़ना ही था, वह तो पड़ा; लेकिन इससे अर्जन यह हुआ कि मेरी पुकार सटीक पड़ने लगी। वांछित आत्माएं मेरी पुकार पर आ जातीं और कभी-कभी 'मिस कॉल' भी लग जाते। निचले तल पर भटकती अवांछित आत्माओं में से कोई एक मेरी अनवधानता का लाभ उठाकर मेरे ग्लास में आ जाती और बोर्ड पर तीव्रता से दौड़ लगाती रहती। इतनी तीव्रता से कि ग्लास का पीछा करने में मेरा हाथ पिछड़ जाता। ऐसी आत्माएं अनर्गल भी बोलतीं और अपना दुःख-दर्द, राग-विराग भी सुनातीं।

लेकिन, अब तक ऐसा ही हुआ था कि मैं किसी आत्मा-विशेष को पुकारता और वह आ जाती अथवा कोई अन्य अनजानी-अपरिचित आत्मा आ धमकती। ऐसा कोई संयोग तब तक नहीं बना था कि बोर्ड पर उपस्थित अन्य कोई सहभागी किसी दिवंगत व्यक्ति के स्वरूप का ध्यान करे और मैं उसके ध्यान को लक्ष्य कर उस आत्मा का आह्वान करूँ। हाँ, ये ज़रूर है कि पांच-एक महीनों के प्रसार में चालीस दुकान वाली आत्मा ने मेरा पीछा कभी नहीं छोड़ा था। वह बीस-पच्चीस बार मेरे पास आई थी और उसके अवतरित होते ही मैं उससे पिंड छुड़ाने के यत्न में परेशान होता।

प्रायः प्रतिदिन हम तीनों मित्र मिलते--लंच समय में, ऑफिस से छूटने के बाद और कार्यालय में काम करते हुए भी हम पिछली रात की कारगुजारियों की बातें करते, नयी-पुरानी आत्माओं के किस्से मैं विस्तार से सुनाता। ईश्वर बहुत रूचि लेकर उन्हें सुनते। शाही तो इन चर्चाओं के प्रत्यक्षदर्शी ही थे। वह मेरी बातों की तस्दीक करते, लेकिन बीच-बीच में यह टोका भी लगाते रहते कि 'अब दिन-रात यही बातें होंगी क्या?' चूँकि ईश्वर इस क्रिया-कलाप की सिर्फ कथाएं ही सुनते रहते थे, अतः उनकी जिज्ञासा प्रबल थी। वह विस्तार से सबकुछ जानना चाहते, बातें खोद-खोदकर पूछते थे।

एक दिन दफ्तर के मध्यावकाश में हमारा त्रय हमेशा की तरह एक ही टेबल पर एकत्रित था। भोजन करते हुए पिछली रात की बातें चल रही थीं। चालीस दुकान वाली आत्मा चर्चा के केंद्र में थी और वह शाही भाई के विनोद का कारण भी बनी रहती थी। ईश्वर अपनी जिज्ञासा को दबा नहीं सके, मुझसे बोले--"यार, किसी दिन यह कृत्य मेरे घर पर करो, मैं भी तो देखूँ यह सब कैसे होता है, कैसे करते हो तुम!'

मैंने कहा--'जब कहो, आ जाता हूँ तुम्हारे यहां। वैसे, तुम भी तो बैचलर क्वार्टर आ सकते हो। घर से खाना-वाना खाकर आ जाओ और रात हमारे साथ बिताओ। परमानंद होगा।'

ईश्वर ने कहा--'नहीं, यह तो मुश्किल है।'

शाही ने पूछा--'क्यों?'

ईश्वर बोले--'घर पर छोटा भाई भी है न। उसे अकेला छोड़कर आना ठीक नहीं होगा। तुम्हीं दोनों आओ और आज ही आओ। खाना वहीं बनवा लेता हूँ तुम्हारा।' यह प्रलोभन बड़ा था। तय रहा कि आज रात का बैठका ईश्वर के घर होगा।...

वह १९७६ की वासंती शाम थी। मैंने दफ्तर से लौटकर स्नान किया। झोले में यन्त्र-तंत्र और धोती रखी और बोर्ड को पेपर-पैक किया तथा शाही के साथ मैं ईश्वर के क्वार्टर पहुंचा। शाम ढलान पर थी। हमने वहाँ पहुँचते ही चाय पी और बातें करते रहे। वहीं पहली बार (संभवतः) हम ईश्वर के सुदर्शन और प्रतिभाशाली अनुज (हरिश्चन्द्र दुबे) से मिले, जिन पर ईश्वर की गहरी प्रीति थी। रात के भोजन के बाद मैं और शाही सिगरेट फूँकते हुए ईश्वर के साथ गप्प करते टहलते रहे और मध्यरात्रि की प्रतीक्षा में समय व्यतीत करते रहे।

रात बारह के बाद जब हम तीनों मित्र बोर्ड पर बैठे तो मेरे मन में अचानक ये ख़याल आया कि क्यों न आज एक नया प्रयोग करूँ, जैसा औघड़ बाबा ने मेरे साथ पहली-पहली बार किया था, वैसा प्रयोग! अर्थात, ईश्वर से ही कहूँ कि वह जिस आत्मा से बातें करना चाहते हैं, उस व्यक्ति का ध्यान करें और मैं उसे बुलाने का प्रयत्न करूँ। यह प्रयोग मेरी परीक्षा भी था और मेरी ध्यान-शक्ति का परीक्षण भी। मैंने ईश्वर से कहा--'चलो, आज ऐसा करता हूँ, तुम जिनसे बात करना चाहते हो, उनका ध्यान करो और उनकी छवि को अपने मानस-पटल पर स्थिर करके उनसे यहाँ आने का निवेदन करो। मैं उन्हीं को बुलाकर तुम्हारी उनसे बात करवाने की चेष्टा करता हूँ।' मेरे इस प्रस्ताव को सुनकर ईश्वर घबराये और आत्म-रक्षा के ख़याल से बोले--'नहीं, नहीं... ऐसा क्यों? तुम जो रोज़ करते हो, जिन्हें बुलाते हो, उन्हीं को बुलाओ। मैं तो सिर्फ यह देखना चाहता हूँ कि यह सब होता कैसे है।' मैंने उन्हें समझाया और अंततः कहा कि 'मैं स्वयं अपनी परीक्षा लेना चाहता हूँ भाई!' वह मेरी बात मानने को तैयार नहीं थे। तब शाही ने मेरा साथ देते हुए ईश्वर से कहा--'अरे भाई, तुम किसी का भी ध्यान करो न। रोज़ तो ओझा खुद किसी को बुला लेता है या कोई बिन बुलाये ही आ जाता है और यह उसी के साथ रात-भर जागकर बातें करता है। आज ओझवा की पंडिताई की परीक्षा ही हो जाए।'

बड़ी जद्दोज़हद के बाद ईश्वर किसी व्यक्ति का ध्यान करने को राज़ी हुए। मुझे या शाही को बिलकुल पता नहीं था कि ईश्वर किनका ध्यान कर रहे हैं, किसे आमंत्रित कर रहे हैं।

अब मेरा कौशल कसौटी पर था। मैं सघन ध्यान में निमग्न हुआ और परा में पुकार फेंकने लगा--निरंतर। यहां, उस क्षण-विशेष के अपने अनुभव को थोड़े शब्द देना चाहूंगा। क्योंकि वह मेरे लिए भी सर्वथा नवीन अनुभव था। ध्यान की सघनता जैसे ही बनी, मुझे प्रतीति हुई कि कोई काला परदा मेरे ललाट पर आ गिरा, फिर उसमें एक तिल बराबर छिद्र-सा दिखा। मैंने बंद आँखों से दोनों दृष्टि-धारों को एक साथ केंद्रित किया और उसी छिद्र से पुकार भेजने लगा।

यह सब कृत्य करने में पांच मिनट भी न लगा होगा कि मेरे चेतन-तल पर किसी आत्मा ने दस्तक दी। अब जानना यह था कि उपस्थित आत्मा वही है, जिसे बुलाया गया है अथवा कोई अन्य अनजानी अात्मा। मैंने उससे उसका परिचय पूछा। आत्मा ने बताया कि वह ईश्वर के गृह-प्रदेश बांदा से आई है और उसका नाम अमुक (नाम अब स्मरण में नहीं) है। मैंने और ध्रुव ने देखा कि आत्मा का नाम सुनकर ईश्वर विस्मित हुए थे। मैंने ईश्वर से इशारों में जानना चाहा कि वह वांछित आत्मा ही है न। ईश्वर ने स्वीकृति में सिर हिलाया।

वह आत्मा भी एक व्यग्र आत्मा थी। उसमें भी अत्यधिक विचलन था। वार्तालाप के आरम्भ में ही वह आत्मा ईश्वर से लगातार क्षमा माँगने लगी और पश्चाताप प्रकट करने लगी। उसने अपने अपराध की स्वीकृति भी दी और कहा कि 'भइया, हमसे गलती हो गई थी, हमको माफ़ कर दीजिये । आप माफ़ न करेंगे तो मुझे चैन न मिलेगा।' मैं और शाही दोनों हतप्रभ थे कि आखिर ये माजरा क्या है? आत्मा इस तरह भाव-विगलित होकर ईश्वर से क्षमा-दान क्यों चाह रही है?

बातें परत-दर-परत खुलती गईं और रात के दो-ढाई बज गए। आत्मा ने ही सारी बातों का खुलासा किया। और, इस खुलासे से जो कथा उभरकर सामने आई, वह संक्षेप में इस प्रकार है--'ईश्वर के गाँव में, कई वर्ष पहले, होली के दिन नशे की हालत में दो गुटों के बीच हिंसक झड़प हो गई थी। कुछ दिनों बाद एक पक्ष के किसी युवक की मृत्यु हो गई थी। पुलिस-मुकदमा हुआ था। गाँवों में दांत-कटे की दोस्ती भी होती है और कट्टर दुश्मनी भी। इस फसाद में उस पक्ष के लोगों ने स्वार्थ-साधन के लिए द्वेषवश ईश्वर का नाम भी अकारण घसीट लिया था। न्याय की लम्बी लड़ाई लड़कर ईश्वर बेदाग़ बचकर निकल तो आये, लेकिन इसका उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा था।' उस दिन जो आत्मा प्रकट हुई थी, वह उसी मृत व्यक्ति की थी। उस व्यक्ति को अपने किये का घोर पछतावा था; क्योंकि वह स्वयं उस विवाद का सूत्रधार था और इसीलिए बार-बार ईश्वर से क्षमा-याचना कर रहा था।

परा-जगत् से संपर्क के इस अभियान से कोई ऐसी कथा निकलकर सामने आएगी, इसकी तो हमें कल्पना भी नहीं थी। हम हतप्रभ, हतवाक् थे। ईश्वर ने कथा और उस व्यक्ति की पुष्टि की। वह स्वयं चकित थे और जो कुछ उन्होंने अपनी गंभीरता की चादर में छिपा रखा था, वह उस रात प्रकट हो गया था। हवा का एक कतरा कह गया था सारी कहानी।...

मैं अपने परीक्षण में सफल हुआ था और इससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ा था। उस रात (रात क्या, सुबह कहिये) जब हम बोर्ड से उठने को हुए तो मैंने ईश्वर-जैसे सबल और दृढ इच्छाशक्ति वाले अपने मित्र की आँखों में पहली और अंतिम बार नमी देखी थी। लेकिन वह कहीं गहरे असीम संतोष का अनुभव भी कर रहे थे, जैसे कोई बड़ा बोझ कलेजे से हट गया हो।....

(क्रमशः)