राय साहब की चौथी बेटी
प्रबोध कुमार गोविल
6
संगम से लौटने के बाद छुटकी बिटिया का नाम त्रिवेणी ही पड़ गया।
लालाजी मरने से पहले सारे घर वालों को रोने की मनाही कर गए थे,लेकिन शायद इसीलिए अब सारे घर वालों को संगम के तट पर जाकर एक साथ रोना ही पड़ा। कुदरत की लीला भी अपरम्पार!
छुट्टियां बीतते ही सब वापस लौट आए।
वकील साहब के पिता लालाजी के गुजरने के बाद मानो सब अपने अपने घर के बड़े हो गए। एक बादल था जो सब पर छांव किए हुए था, जब छितरा कर छिन्न -भिन्न हुआ तो जगदीश भवन की रौनकें ले गया।
सबसे बड़े बेटे को पगड़ी पहना दी गई जिसे घर में सब पहले से ही सेठजी कहते थे। सरकारी महकमे में इंजीनियर बन कर भी अब वो सेठजी ही थे।
अब बड़ी बहू का नाम तो सेठानी पड़ ही जाना था।
वकील साहब का नाम भी प्रचलित था ही, वो अपने विद्यालय के वाइस प्रिंसिपल बन कर भी वकील साहब ही बने रहे।
उनसे छोटे भाई जो अब परिवार के साथ दिल्ली में आकर बस गए थे, बच्चों के साथ - साथ घर के सब बड़ों के लिए "डैडी" बन गए।
चौथे भाई, जिन्हें सब भाभियां "मिस्टर" कहती थीं, अब कानपुर चले आए।
सबसे छोटे भाई घर में छोटे लाला कहलाते थे। उन्हें भी सरकारी महकमे में नौकरी मिल गई और वो अब राजस्थान में आ गए।
परमेश्वरी को वकील साहब का सबसे बड़ा बेटा अपने बचपन से "अम्मा" ही कहता था, तो अब बाक़ी बच्चों ने भी अम्मा कहना शुरू कर दिया।
इस तरह एक पूरी पीढ़ी बदल गई।
दोनों बहनों और पांचों भाइयों के घर अपने अपने नौकरी के नगरों में फैलते अलग - अलग हो गए।
लालाजी के घर में उनके दूसरे भाई का परिवार रहने लगा। कुछ एक कमरे पुराने सामान को रख कर बंद कर दिए गए।
अब सब बच्चों का मेल- मिलाप भी काफ़ी कम हो गया।
एक ही तौलिया से बदन पौंछ कर अलमारियों से किसी का भी निक्कर, पायजामा, चड्डी या कमीज़ पहन लेने वाले भाइयों के शहर, राज्य, देश तक अलग- अलग होने लग गये।
कॉलेज के परिसर में वकील साहब को मिला घर कच्चा था। अब घर में प्राणियों की संख्या बढ़ जाने से छोटा भी पड़ता था।
इन्हीं दिनों कॉलेज के अहाते में कुछ नए, पक्के मकान बनाए गए। इन्हीं में से एक मकान वकील साहब को भी मिल गया।
वकील साहब का बड़ा लड़का जो शुरू से बाहर ही रह कर पढ़ा था, उसने भी पढ़ाई पूरी हो जाने पर नौकरी के लिए आवेदन शुरू किया।
संयोग से उसे राजस्थान में ही सरकारी नौकरी मिल गई।
ये जगह घर से कुछ दूर ज़रूर थी पर फिर भी अब वो जल्दी -जल्दी घर आने लगा। छोटे भाई - बहन और खुद वकील साहब और अम्मा कभी -कभी उसके पास जाने लगे।
नौकरी मिल जाने के बाद घर में अम्मा और वकील साहब की राय बनी कि अब उसका विवाह कर देना चाहिए।
इस विवाह का विचार आते ही लड़कियां देखी जाने लगीं। जल्दी ही वकील साहब और अम्मा को एक लड़की पसंद आ गई। अम्मा और वकील साहब दोनों ही इस विचार के थे कि लड़की पढ़ी- लिखी हो।
इस परिवार में ही नहीं, बल्कि पूरे खानदान में इस शादी के लिए सबके मन में बड़ी उत्सुकता थी।
इसका एक कारण तो ये था कि ये खानदान की नई पीढ़ी में पहली शादी थी। इसके साथ ही नई पीढ़ी के विवाहोत्सवों का लंबा चलने वाला सिलसिला शुरू होने वाला था।
दूसरा कारण ये था कि परिवार में बहुत सारे लोगों ने कभी राजस्थान देखा नहीं था, और अब शादी के बहाने यहां आने का मौक़ा मिल रहा था।
पर तीसरा और सबसे संवेदन शील कारण ये था कि ये परिवार के उस लड़के की शादी थी जिसने परिवार में कदम रखते ही अपनी मां को खो दिया था और बाद में उसकी पढ़ाई तो अधिकतर बोर्डिंग स्कूल में हुई तथा उसकी परवरिश परमेश्वरी अर्थात राय साहब की चौथी बेटी ने इस खानदान की बहू बन कर की।
इतने सारे कारणों के साथ - साथ एक कारण ये भी जुड़ गया कि पंडित के निकाले मुहूर्त के अनुसार ये शादी गर्मी की छुट्टियों में हो रही थी, जो सभी के लिए बेहद सुविधाजनक समय था। हर घर में ज़्यादातर बच्चे पढ़ने वाले ही थे।
वकील साहब को जब सबके "ज़रूर" आने के उत्साह वर्धक संदेश मिलने शुरू हुए तो उन्होंने अपने कॉलेज के प्रबंधन को अपनी समस्या बताई।
तत्काल समाधान किया गया और निदेशक ने कहा कि छुट्टियों में यहां भी सब छात्रावास ख़ाली ही रहते हैं,आप आराम से शादी एक छात्रावास से ही कीजिए।
सभी को आनंद आ गया। जब सारे परिवार में ये खबर गई कि विवाह समारोह एक प्रसिद्ध -प्रतिष्ठित कॉलेज परिसर में हॉस्टल में हो रहा है तो अधिकांश लोगों ने शादी से आठ- दस दिन पहले ही आने का प्रोग्राम बना लिया।
छोटे से गांव के मनोहारी वातावरण में विद्यार्थियों के कमरों में रहते हुए सभी रस्में और कार्यक्रम संपन्न हुए। भोजन व्यवस्था भी हॉस्टल के कॉमन मैस में हुई।
बच्चों ने शादी के एक सप्ताह पहले से ही साथ में छात्रावास के बड़े और खुले परिसर में ख़ूब आनंद लिया। रोज़ धमाल होता, गीत संगीत और डांस के दौर चलते। बल्कि एक दिन तो बच्चों ने बाकायदा एक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया जिसमें एक नाटक भी खेला गया। कई दिन की तैयारी और रिहर्सल के बाद शानदार प्रदर्शन हुआ।
संयोग से बारात जिस जगह जा रही थी वो भी राजस्थान का एक प्रतिष्ठित विद्यालय ही था। वहां बारात का शानदार स्वागत हुआ और ये शादी पूरे खानदान में एक यादगार शादी सिद्ध हुई।
सबके पुराने दिनों की यादें भी ताज़ा हो गईं।
देखते - देखते राय साहब की चौथी बेटी यानी अम्मा सास भी बन गईं। अम्मा की अपनी ही तरह एक पांच बहनों और एक भाई के शिक्षित परिवार से बहू अाई।
समय कितनी तेज़ी से बीत जाता है इसका अहसास सबको अब जाकर हुआ जब लालाजी की इस लाडली बहू की बहू भी आ गई।
इस लगातार बढ़ते हुए कॉलेज में बीएड भी खुल गया था।
अम्मा जैसे एक बार फिर से मानो राय साहब की चौथी बेटी बन गईं। उन्हें याद आया कि कभी वो भी बीएड करना चाहती थीं। लेकिन बीए करते ही शादी हो जाने के चलते नहीं कर सकीं।
अब घर के दरवाज़े पर ही ये मौक़ा मिल रहा था। बस ज़रूरत थी तो केवल इस बात की, कि अम्मा थोड़े दिन के लिए अपने लंबे चौड़े कुनबे को भूल जाएं।
और अम्मा सचमुच विद्यार्थी बन गईं।
अम्मा नियमित रूप से कॉलेज जातीं।
अम्मा तो अठारह साल से उसी परिसर में विद्यार्थियों को पढ़ा रही थीं। तो उनकी कक्षा में उनके साथ उनकी कुछ शिष्याएं भी होती थीं, कुछ पड़ोस की भांजी- भतीजियां भी, कुछ सहेलियों की बच्चियां भी।
जो अम्मा बरसों से स्कूल में पढ़ा रही थीं, वो रात को बैठ कर "लेसन प्लान" बनातीं, कि कक्षा में कैसे पढ़ाना है। जब उनकी क्लास की बाक़ी सब लड़कियां स्कूल में पढ़ाने की तैयारी में साड़ी बांधना सीखती तब अम्मा अपनी साड़ियों में से एक चुन कर उस पर कलफ़ लगातीं ताकि वो ज़रा कड़क दिखे।
अम्मा मनोयोग से पढ़तीं। छुट्टी के दिन उनका कोई बेटा उनकी कॉपी पर कवर चढ़ाता, कोई उनके कलम में स्याही भरता, कोई बेटा कभी देर हो जाने पर उन्हें सायकिल पर कॉलेज छोड़ने जाता।
जब अम्मा का कोई टेस्ट होता तो बड़ी बिटिया खाना, नाश्ता सब अपने हाथ से बना कर अम्मा को रसोई से ज़रा राहत देती, और जब अम्मा का रिजल्ट आता तो सब बच्चे उनकी मार्क्सशीट उनके हाथ से छीन कर दौड़ जाते और देखते कि अम्मा पास हुईं या फेल... और फिर घर भर के लिए आटे या सूजी का हलवा बनता।
और अम्मा ने बीएड कर लिया।
जब अगले साल अम्मा की नई नई आयी बहू ने भी बीएड में एडमिशन लिया तो अम्मा का पलड़ा ही भारी था, क्योंकि अम्मा ये सब कवायद पहले ही कर चुकी थीं।
चाहे सच ये था कि ये बड़ा बेटा अम्मा का अपना जाया बेटा नहीं था लेकिन दोनों ओर से ही सद्भाव, सम्मान, विश्वास, आत्मीयता और स्वीकार ऐसा था कि इस बात पर सहसा विश्वास नहीं किया जा सके।
संयोग देखिए, कि बड़े बेटे का स्थानांतरण भी अब जयपुर में हो गया जहां से ये गांव बहुत नज़दीक था, जहां सब रहते थे, वकील साहब और अम्मा की नौकरी थी, बच्चे पढ़ते थे।
वहां लड़कों की पढ़ाई की कोई माकूल व्यवस्था भी नहीं थी, और जो भी सुविधा थी वो केवल छोटे बच्चों के लिए ही थी।
अगले ही साल बड़ा बेटा जब अपनी धर्मपत्नी को जयपुर अपने साथ रहने के लिए ले गया तो अपने तीनों छोटे भाइयों को भी उनकी आगे की पढ़ाई के लिए अपने साथ ले आया।
अम्मा ने चारों बेटों को एक साथ रहने के लिए घर से विदा किया। इस कहानी के साथ आगे बढ़ने से पहले ये देखना दिलचस्प था कि बड़ा बेटा आत्मनिर्भर और सक्षम होते ही अपने छोटे भाइयों को अपने साथ रखना चाहता था।
उसने अपनी पूरी शिक्षा अपने घर से दूर रहते हुए बोर्डिंग स्कूल में पूरी की थी, किन्तु अब वो अपने सभी भाइयों को किसी बोर्डिंग स्कूल में भेजने से बचाने के लिए अपने साथ रहने के लिए ले आया।
बड़े बेटे ने जो फ़ैसला किया उसे उसकी धर्मपत्नी ने भी उतनी ही तत्परता से माना।
शायद इसीलिए पुराने लोग कहा करते थे कि लड़की किसी भरे -पूरे परिवार से लेनी चाहिए। ये नई बहू भी एक संपन्न शिक्षित परिवार से आई थी और अपने कुल छः बहन -भाइयों में सबसे बड़ी थी।
अम्मा के पास अब दोनों बेटियां ही रह गईं।
दिन गुजरते रहे। छुट्टियों में सब भाई -बहनों का अम्मा के पास इकट्ठा होकर मिलना होता था।
कुछ साल बीते कि पहले बड़ी बहन की, और फ़िर एक - एक करके दो और भाइयों की शादियां भी हो गईं।
यहां पर ज़िन्दगी के सागर में आराम से बहती अम्मा की नाव ने फ़िर एक ज़बरदस्त तूफ़ान झेला।
वकील साहब साठ साल की उम्र होने पर नौकरी से रिटायर हुए ही थे कि एकाएक एक दिल के दौरे के बाद इस दुनिया को अलविदा कह गए।
अम्मा पर वज्रपात हुआ।
ऐसा नहीं था कि अम्मा को ज़िन्दगी और मौत का फलसफा मालूम न हो, उन्होंने अपनी अब तक की ज़िन्दगी में ढेरों ज़िंदगियां भी देखीं तो दर्जनों मौत भी। मगर ये हादसा शायद पहली बार अम्मा के मन में कुछ कड़वाहट भर गया।
क्या है? ये ज़िन्दगी आख़िर चाहती क्या है?
वे राय साहब की चौथी बेटी थीं।
पांचों बहनों में सबसे ज़्यादा सुन्दर और सबसे ज़्यादा शिक्षित। पर अकेली उन्हें ही ऐसा पति मिला जो उन्हें मिलने से पहले ही एक पुत्र का पिता था, विधुर था।
ख़ैर, यहां भी अम्मा अपनी सब देवरानियों, जेठानियों और ननदों में सबसे ज़्यादा खूबसूरत और पढ़ी- लिखी थीं, किन्तु जहां सबने घर पर बैठे -बैठे भी अपने पतियों पर हुकुम चलाया, घर पर ज़मीन जायदाद जोड़ी, वहीं पर अम्मा ने लगातार नौकरी कर के, कमा कर भी अपने पति की बुद्धिमत्ता की लक्ष्मण रेखा कभी पार न की। जो कुछ कमाया, न किसी जेवर- कपड़े में, न ज़मीन- जायदाद में, न किसी शेयर- डिबेंचर में, केवल और केवल अपने बच्चों की अच्छी पढ़ाई और बेहतर ज़िन्दगी बनाने में खर्च किया।
सारी उम्र सादगी से खादी के कपड़े पहने।
लेकिन अब विधाता उनकी कच्ची गृहस्थी की परवाह किए बिना अपने सभी भाई -बहनों से पहले छोटी सी उम्र में वकील साहब को उठा ले गया।
अम्मा को एक बार फिर नियति के इम्तहानों के लिए छोड़ दिया गया था।
घर में पांच साल बाद अम्मा अपनी नौकरी से रिटायर होने वाली थीं, अभी एक बेटे और एक बेटी की शादी करनी बाक़ी थी, और अम्मा की ज़िन्दगी की गाड़ी का दूसरा पहिया निकल कर ओझल हो गया।
ये सब कारण अच्छी भली ज़िंदगी में, उनकी सोच में कड़वाहट न घोलते तो और क्या होता?
लालाजी का जो मकान था, जिसमें सभी भाई बहनों का हिस्सा भी था, और कानूनी हक़ भी, उस पर किसी भी परिवार ने अब तक कोई दावा न जताया था।
परिवार की दरियादिली का आलम ये था, कि लालाजी के पुश्तैनी गांव की ज़मीन तो एक कन्या पाठशाला चलाने के लिए दान में दे दी गई। उसके साथ बना मकान परिवार के शुभचिंतक और सेवक रहे एक पंडित परिवार को बिना किसी आशा -प्रत्याशा के रहने के लिए सौंप दिया गया।
और जो शहर में बना "जगदीश भवन" था, उसके अधिकांश हिस्से को लालाजी के दूसरे भाई के परिवार को दे दिया गया।
जो हिस्सा लालाजी के पास अंतिम दिनों में उनके रहने के लिए छोड़ा गया था, वो या तो बंद था, या जर्जर अवस्था में बिना रंग रोगन और मरम्मत के ऐसे ही पड़ा था।
एक बार उनके किसी पुत्र ने कोशिश भी की, कि इसका भी निस्तारण इस तरह हो, जिसने परिवार का मान- सम्मान बना रहे, चाहे किसी को भी इसका आर्थिक लाभ न मिले।
लेकिन इस हिस्से की अलग से कोई अहमियत कागज़ों में न होने से इसका निस्तारण बेहद कठिन था।
इसे न तो बेचा जा सकता था, और न ही किसी को मालिकाना हक़ के साथ दिया जा सकता था।
कोशिश की गई कि इसे किसी को रहने के लिए किराए पर ही दे दिया जाए ताकि मिलने वाले किराए से इसकी मरम्मत और देखभाल हो सके और इसका अस्तित्व बचा रह सके।
पर सभी भाइयों के दूर - दूर और व्यस्त रहने तथा नई पीढ़ी की उदासीनता के चलते ऐसा न हो सका।
कुछ समय बाद लालाजी का जन्मशताब्दी वर्ष आया तो एक बार फ़िर ये कोशिश हुई कि इस मौक़े पर पूरा परिवार मिले, और लालाजी की जन्मशती मनाने के साथ- साथ इस मकान पर भी कोई उचित निर्णय लिया जाए।
भावना, जिज्ञासा और तफ़रीह के वशीभूत सब आकर इकट्ठे हो तो गए, किन्तु मकान पर कोई सर्वसम्मत निर्णय न हो सका।
तब तक ज़माना काफ़ी बदल चुका था।
लोगों के सोचने का तरीक़ा व्यावहारिक हो चुका था। नई नस्ल की पुराने शहर के बीच खड़े खंडहर में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
बिखरे काम को समेटने की कोशिश जो भी आगे बढ़कर करता, उस पर ही ये आक्षेप लगते कि वो सामूहिक सम्पत्ति को अकेला हड़पने की कोशिश कर रहा है।
बच्चे हंसी मज़ाक में अपने बड़ों की बात को ये कह कर टाल देते कि इसे ब्लास्टिंग करके गिरा दो, और सब इसकी ईंट पत्थर के कुछ टुकड़े धरोहर के रूप में साथ ले जाओ।
बात खत्म हो गई और पीढ़ियों की धरोहर पर नई उम्र की नई फसल का नज़रिया भी स्पष्ट हो गया।
"नई उम्र की नई फसल" संयोग से उस फ़िल्म का ही नाम था, जिसके निर्माता परिवार की ओर से कभी राय साहब की चौथी बेटी के लिए बंबई के एक सिनेमा हीरो बनने के ख्वाहिश मंद लड़के का रिश्ता लाया गया था।
अब ये सब बातें इतिहास के धुंध में गुम गुबारों की धूल के अक्स जैसी थीं, इनका वजूद ही क्या!
***