कौन दिलों की जाने!
अठारह
तीसरे दिन विनय अपनी दीदी के घर था। रानी को उसका आना अच्छा तो लगा, किन्तु थोड़ा आश्चर्य भी हुआ, क्योंकि विनय ने अपने आने के सम्बन्ध में कोई पूर्व सूचना नहीं दी थी। विनय ने सोचा था कि जब जीजा जी ने जरूरी बात करने के लिये बुलाया है तो रानी को तो अवश्य ही बताया होगा। इसीलिये उसने अलग से रानी को सूचना देनी आवष्यक नहीं समझी थी। जब विनय घर पहुँचा तो रमेश ऑफिस जा चुका था।
रानी — ‘विनय, बिना किसी सूचना के अचानक कैसे आना हुआ?'
‘जीजा जी ने फोन किया था कि कोई जरूरी बात करनी है। मैंने सोचा, आपके साथ बात करके ही फोन किया होगा, इसलिये सीधा चला आया।'
‘मुझे तो ऐसा कुछ बताया नहीं कि तुम आने वाले हो।'
रानी को भनक भी नहीं थी कि रमेश ने विनय को आलोक के साथ उसके सम्बन्ध को लेकर कोई बात करने के लिये बुलाया होगा। अपनी बात को जारी रखते हुए कहा — ‘चलो कोई बात नहीं। यह बताओ, घर पर सब कुशल—मंगल है, माँ कैसी है?'
‘माँ ठीक है। उम्र की वजह से शरीर तो कम काम कर पाता है, लेकिन दिमाग पूरी तरह से दुरुस्त है। याददाश्त पूरी तरह से कायम है। आपको बहुत याद करती है।'
‘भाभी, बहू और पिंकु कैसे हैं, अनिल का कारोबार कैसा चल रहा है?'
‘सब ठीक हैं। पिंकु तो ‘बुआ दादी, बुआ दादी कब आयेंगी' बोल—बोल कर आपको बहुत याद करता है। पिछली बार जब आप आई थीं तो आपसे बहुत घुलमिल गया था। अनिल बहुत मेहनत कर रहा है, उसने अपना कारोबार बहुत बढ़िया सेट कर लिया है। माँ और अनिता दोनों ने कहा था कि आपको साथ लेता आऊँ। बोलो, चल सकती हो?'
‘नहीं, अभी तो नहीं। लेकिन, जल्दी ही आऊँगी। अब यह बताओ, नाश्ते में क्या लोगे, पराँठा या सैंडविच?'
‘नाश्ता तो मैंने रास्ते में कर लिया था। चाय के साथ बिस्कुट वगैरह जो भी घर में हो, ले लूँगा।'
रानी जब रसोई में चाय बना रही थी तो विनय ने रमेश को कॉल करके अपने आने की सूचना दी। रमेश ने उसे कहा कि चाय पीने के बाद ऑफिस आ जाना।
चाय पीते हुए रानी ने पूछा — ‘रिटायरमेंट के बाद कैसा महसूस कर रहे हो, टाईम पास कैसे करते हो?े'
‘अभी तो दो ही महीने हुए हैं। सुबह की दिनचर्या निपटाने के बाद अनिल के शोरूम पर चला जाता हूँ। ढाई—तीन बजे आकर लंच करके घंटा—आधा घंटा सो लेता हूँ। शाम किसी—न—किसी दोस्त से मुलाकात और ईवनग वॉक में गुज़र जाती है। लेकिन सोचता हूँ, किसी समाजसेवी एन.जी.ओ. को ज्वॉइन कर लूँ, क्योंकि अपने लिये तो बहुत काम कर लिया, अब समाज की सेवा करके कुछ ऋणमुक्त होने को मन करता है। गुरु जी कहा करते हैं, सेवा ही भगवान् की भक्ति है। जैसे वस्त्र के एक सिरे को खींचने से सम्पूर्ण वस्त्र खचा चला आता है, उसी प्रकार समष्टि के छोटे—से—छोटे रूप के साथ सेवा—भाव से संयुक्त होने पर सम्पूर्ण समष्टि के साथ सम्बन्ध हो जाता है और शनैः शनैः इस समष्टि के स्वामी से संयुक्त होकर हम उसके भी प्रिय पात्र बन जाते हैं। शर्त है, अपनी की जा रही सेवा के बदले कुछ धन—मान—पुरस्कारादि पाने की भावना अपने मन में न रखी जाए।'
‘बहुत अच्छी सोच है। गुरु जी का तो कहना ही क्या, वे तो बहुत ही सरल ढंग से जीवन के गूढ़तम रहस्य उद्घाटित कर देते हैं। सामने वाले व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह कितना समझ पाता है और उस पर कितना अमल करता है। बिज़नेसमैन तो कभी रिटायर होता ही नहीं।'
उपरोक्त कथन का अन्तिम अंश कहते हुए अनजाने ही रानी अपने वैवाहिक जीवन में पति से बहुत कम समय मिलने की अपनी व्यथा को ही प्रकट कर गई थी, किन्तु विनय का ध्यान इस ओर नहीं गया।
‘दीदी, अब मैं जीजा जी से मिलने ऑफिस जा रहा हूँ। कोई विशेष कार्य न हुआ तो वहीं से वापस निकल जाऊँगा।'
‘ऐसा कैसे हो सकता है? तुम अपने जीजा जी से मिल आओ, मैं खाना बना कर रखती हूँ। वैसे तो तुम्हारे जीजा जी दोपहर का खाना साथ लेकर गये हैं, फिर भी अगर उन्हें फुर्सत हो तो साथ लेते आना।'
‘चलो, देखता हूँ,' कहकर विनय रमेश के ऑफिस जाने के लिये घर से निकल लिया।
विनय के आते ही रमेश ने इन्टरकॉम पर अपने असिस्टैंट को हिदायत दी कि जब तक मैं न कहूँ, किसी को अन्दर मत आने देना और न ही कोई कॉल ट्रांसफर करना जब तक कि कोई इमरजैंसी कॉल न होे। इसके बाद विनय से दो—चार परिवार सम्बन्धी औपचारिक बातें करने के पश्चात् रमेश अपने मन्तव्य सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से पूछने लगा — ‘विनय, बाबूजी की जालन्धर ट्रांसफर होने से पहले की बातें तो तुम्हें याद होंगी?'
‘किस तरह की बातें, जीजा जी?'
‘बचपन की, दोस्तों की।'
‘हाँ, याद हैं। हम चार—पाँच दोस्त खूब खेला—कूदा करते थे। उस समय मैं पाँचवीं या छटी कक्षा में पढ़ता था।'
‘तुम जिस मकान में किराये पर रहते थे, उसके साथ वाले घर में आलोक नाम का कोई लड़का रहता था?'
‘हाँ, वह भी हमारे साथ खेला करता था। आलोक उस समय शायद आठवीं में था। बड़ा अच्छा लड़का था। पढ़ाई में भी होशियार था।'
‘तुम्हारा और तुम्हारी दीदी का उसके साथ कितना मेलजोल था, कभी वे अकेले भी खेलते थे?'
‘हमारा एक—दूसरे के घर काफी आना—जाना रहता था। हम सभी बच्चे अक्सर मिलकर खेला करते थे। गिल्ली—डंडा, छट्टपु आदि खूब खेलते थे। आजकल तो उस तरह का ‘स्ट्रीट—प्ले' कहीं देखने तक को नहीं मिलता। दीदी एक—आध विषय में कमज़ोर थी। कभी—कभार आलोक से पढ़ाई में भी मदद ले लिया करती थी।'
‘तुम लोगों के जालन्धर से वापस आने के बाद भी क्या तुम लोगों के आलोक या उसके परिवार से सम्बन्ध रहे?'
‘जालन्धर में हम लोग शायद पाँच—छः साल तक रहे थे। वहाँ से वापस आने पर आलोक या उसके परिवारवालों से कभी सम्पर्क नहीं हुआ, क्योंकि तब पापा ने जो घर किराये पर लिया था, वह पुराने घर यानी आलोक के घर से काफी दूर था। सुना था कि कॉलेज के बाद वह एम.ए. करने के लिये पटियाला चला गया था और एम.ए. करने के बाद वहीं किसी कॉलेज में लेक्चरार लग गया था। उसके बाद की तो कोई जानकारी नहीं। लेकिन जीजा जी, इन सारी बातों को आज कैसे ले बैठे, आपने तो मुझे कोई जरूरी बात करने के लिये बुलाया था?'
‘विनय, जरूरी बात आलोक से ही सम्बन्धित है। दरअसल तीन—चार महीने पहले हम एक शादी में गये हुए थे। वहाँ मैं अपने दोस्तों के संग मस्त था और तेरी दीदी अपनी सहेलियों के साथ एन्जॉय कर रही थी। वहीं उसे आलोक मिल गया था। तेरी दीदी ने मुझसे भी मिलवाया था। तब से तेरी दीदी और आलोक एक—दूसरे को कई बार मिल चुके हैं। शुरू में आलोक अपने घर पर भी आया था, किन्तु तब मैं मुम्बई गया हुआ था। रानी के मुताबिक एक बार वह भी उससे मिलने पटियाला जा चुकी है, वह भी मेरी अनुपस्थिति में यानी जब मुझे अचानक दिल्ली जाना पड़ा था। उसी दिन मेरे दिल्ली जाने के बाद रानी उससे मिलने पटियाला पहुँच गई थी। मेरे एक मित्र ने बताया कि रानी और आलोक को उसने पंचकूला में एक पब्लिक फंकशन में इकट्ठे भी देखा था।'
रमेश ने एक ही बार में आलोक और रानी के सम्बन्ध में जितनी जानकारी उसके पास थी, सारी—की—सारी विनय के समक्ष रख दी।
‘दीदी जानती है कि ये सारी बातें आपको मालूम हैं?'
‘हाँ, उससे पूछने पर ही मुझे मालूम हुई हैं। मैं रानी को बता चुका हूँ कि जिस तरह से उनके बीच नज़दीकियाँ बढ़ रही हैं, वह मेरे लिये बर्दाश्त करना मुश्किल है। मैं उसे यह भी कह चुका हूँ कि वह इस दोस्ती को एक सपने की तरह भूल जाये और आगे से कभी भी उससे मिले नहीं, किन्तु वह ऐसा करने को तैयार नहीं। कहती है कि वे बचपन के दोस्त हैं, मिलने—जुलने में क्या बुराई है? अब तुम्हीं बताओ, इस तरह की बातें समाज में खुलने पर बदनामी के सिवाय क्या हासिल होगा?'
‘जीजा जी, जैसा मैंने आलोक को बचपन में देखा है, उसके अनुसार दीदी और वह अगर मिलते—जुलते हैं तो इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। आज वह बात नहीं रही कि पुरुष किसी स्त्री का दोस्त है या स्त्री किसी पुरुष से मित्रवत् व्यवहार करती है तो उन्हें शक की निगाह से ही देखा जाये। हाँ, इतना जरूर कहूँगा कि दीदी को आपसे कोई बात छिपानी नहीं चाहिये। दाम्पत्य जीवन में दुराव—छिपाव नहीं होना चाहिये।'
‘जैसा तुम कह रहे हो, यदि ऐसा हुआ होता तो यह नौबत ही नहीं आती। लेकिन, यहाँ स्थिति अलग है। पूछने पर तो रानी शायद सच बता देती है, किन्तु अपने आप नहीं बताती।'
‘अगर ऐसा है तो मैं दीदी से बात करता हूँ। आओ घर चलते हैं।'
‘मैं तो अपना टिफिन लेकर आया हूँ, तुम चलो। जैसी भी बात हो, मुझे सूचित करना।'
‘जरूर।'
मानव—स्वभाव ही ऐसा है कि जब व्यक्ति अपने मन की उलझन किसी विश्वासपात्र के समक्ष कह लेता है तो उसका मन हल्का हो जाता है। विनय से बात करके रमेश ने भी स्वयं को काफी हद तक हल्का अनुभव किया।
विनय घर आया। रानी उत्सुक थी यह जानने के लिये कि रमेश ने विनय को क्यों बुलाया था। विनय के मन में दुविधा थी कि बात कहाँ से और कैसे शुरू करे। जब व्यक्ति के मन में किसी प्रकार की दुविधा के भाव होते हैं तो उसके भाव चेहरे पर झलके बिना नहीं रहते। कहते हैं न कि ‘चेहरा मन का दर्पण होता है।' मन के भाव छुपाये नहीं छिपते। इस दुनिया में कोई विरला ही होता है जो अपने मन में चल रहे द्वन्द्व को चेहरे पर प्रतिबिम्बित न होने देने में सिद्धहस्त हो। विनय ठहरा साधारण व्यक्ति। रानी समझ गयी कि जरूर कोई—न—कोई बात रमेश ने की होगी जिससे विनय का मन दुविधाग्रस्त है। फिर भी इस बात को न छेड़कर कहा — ‘आओ विनय, खाना खा लो।'
विनय ने खाना खाया जरूर, लेकिन बेमन से। जब वह खाना खा चुका, तब रानी ने पूछा — ‘भइया, क्या बात है, किसी गहरी सोच में डूबे हुए लगते हो?'
हौसला—सा करके विनय ने बात आरम्भ की और साथ ही सोफे पर रखे अपने मोबाइल की रिकार्डिंग ऑन कर दी। रानी विनय की ओर देख रही थी, इसलिये विनय द्वारा रिकार्डिंग ऑन करने की ओर उसका ध्यान नहीं गया। विनय ने बात आरम्भ की — ‘दीदी, जीजा जी मुझ से आलोक के बारे में पूछ रहे थे।'
रानी एकबारगी सकते में आ गयी कि रमेश ने उसके छोटे भाई को भी आलोक—प्रसंग में क्योंकर घसीट लिया। फिर भी धैर्य रखते हुए पूछा — ‘क्या पूछ रहे थे?'
‘यही कि बचपन में हम लोगों में कितनी घनिष्ठता थी?'
‘तुमने क्या कहा?'
‘यही कि हम एक—दूसरे के घर अक्सर आया जाया करते थे, मिलजुल कर खेला करते थे और कि आलोक एक अच्छे स्वभाव का लड़का था, पढ़ाई में होशियार था।'
‘और.......?'
‘फिर जीजा जी ने बताया कि तीन—चार महीने पहले एक विवाह—समारोह में जिसमें आप लोग गये हुए थे, वहाँ आलोक भी आया हुआ था और आपकी उससे मुलाकात हुई। जीजा जी ने यह भी बताया कि तब से आप दोनों कई बार मिल चुके हो, यहाँ तक कि आप उससे मिलने पटियाला भी जा चुकी हो।'
‘और.........?'
‘जीजा जी को आपका इस प्रकार आलोक से मिलना—जुलना अच्छा नहीं लगता।'
‘विनय, आलोक और हम बचपन के दोस्त हैं। एक लम्बे अन्तराल के बाद मिले हैं। तुम्हीं बताओ, यदि हम एक—दूसरे से मिलते हैं तो इसमें बुराई कहाँ है, विशेषकर तब जबकि तुम्हारे जीजा जी के पास मेरे साथ समय बिताने के लिये कभी फुर्सत ही नहीं होती!'
‘दीदी मिलने—जुलने में तो कोई बुराई नहीं, लेकिन इस तरह के मेल—मुलाकात अगर जीजा जी को बिना बताये होते हैं तो निश्चय ही सोचने का विषय बनता है। मेरी समझ में तो इस दोस्ती को बहुत बढ़ावा देना उचित नहीं।'
‘विनय तुम शायद कहना चाहते हो कि आलोक क्योंकि पुरुष है और मैं एक स्त्री, इसलिये इस दोस्ती को बढ़ावा देना उचित नहीं; किन्तु सोचो, यदि मैं एक पुरुष होती अथवा आलोक एक स्त्री होता और हम एक लम्बे समय के बाद मिले होते तो भी क्या हमारी दोस्ती पर किसी को कोई ऐतराज़ होता! नहीं न। तो फिर आज के समय में जब दुनिया कहीं—की—कहीं पहुँच चुकी है, एक स्त्री और एक पुरुष की दोस्ती में भला किसी को क्योंकर ऐतराज़ होना चाहिये। भइया, तुम भी पुरुष हो, मेरी बात का बुरा मत मनाना। लेकिन सवाल है पुरुष के अहम् का। स्त्री यदि किसी पुरुष से दोस्ती रखना चाहती है तो उसके पति को ऐसा व्यवहार नागवार गुज़रता है, क्योंकि इससे पुरुष (पति) के अहम् को चोट पहुँचती है और कोई विरला पुरुष ही इस प्रकार की मानसिकता से बच पाता है।'
विनय सोचने लगा, दीदी बात तो ठीक कह रही है, किन्तु मैं इनके सामने जीजा जी की सोच तथा पारिवारिक बन्धनों की बात कैसे रखूँ? जब और कुछ न सूझा तो अपनी ओर से बात खत्म करते हुए इतना ही कहा — ‘दीदी, मैं आपसे छोटा हूँ। फिर भी मैं चाहता हूँ कि यह दोस्ती उसी हद तक रहे कि आपसी रिश्तों में दरार का कारण न बने। रहीम जी की सीख को हमें स्मरण रखना चाहियेः
‘रहिमन' धागा प्रेम का, मत तोड़ो चिटकाये।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाये।।
‘मुझे उम्मीद है कि मेरी बात का बुरा न मना कर इस पर शान्त मन से विचार जरूर करोगी। अपनी इज्जत अपने हाथ होती है। दूसरी बात यह भी है कि यदि आपके तथा जीजा जी के रिश्ते में किसी तरह की खटास पैदा होती है तो इससे हम सभी को विशेषकर माँ को सबसे अधिक कष्ट होगा, इस बात का भी ध्यान रखना। अब मैं चलता हूँ।'
विनय की बात पर बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये रानी ने कहा — ‘माँ को कहना, मैं जल्दी ही आऊँगी। भाभी को मेरी नमस्ते, बहू, अनिल और पिंंकु को मेरा प्यार देना।'
साँझ ढले घर पहुँच कर विनय ने रिकार्डिड मैसेज़ रमेश को व्हॉटसएप्प कर दिया। विनय का रिकार्डिड मैसेज़ पढ़ने के बाद रमेश मन में विचार करने लगा कि लगता तो नहीं कि रानी टस—से—मस होगी, लेकिन जिस तरह से विनय ने सारे मामले में अपने विचार रानी के समक्ष रखे हैं और अन्त में दो—टूक बात कही है — मैं चाहता हूँ कि यह दोस्ती उसी हद तक रहे कि आपसी रिश्तों में दरार का कारण न बने।......मुझे उम्मीद है कि मेरी बात का बुरा न मना कर इस पर शान्त मन से विचार जरूर करोगी....माँ की उम्र का भी वास्ता दिया है। इसके मद्देनज़र मुझे भी ‘वेट एण्ड वॉच' करना चाहिये। इसी विचार के चलते उसने दस—पन्द्रह मिनट बाद ही विनय को ‘धन्यवाद' का मैसेज़ कर दिया। रात को घर आकर भी उसने इस विषय पर कोई बात नहीं की और न ही रानी ने कुछ पूछा।
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