Faisla - 4 in Hindi Moral Stories by Divya Shukla books and stories PDF | फैसला - 4

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फैसला - 4

फैसला

(4)

मै निष्प्राण - सी हो गई, जैसे हाथ - पाँव से जान ही निकल गई बहुत डर गई थी तभी उनका हाथ मेरे कंधे से होता हुआ मेरे वक्ष को टटोलने लगा तो अचानक बिजली के करेंट सा लगा मुझे और एक झटके से मै दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल आई | पसीने से तरबतर पूरा शरीर मै बहुत घबरा गई थी लेकिन वह तो एकदम नार्मल थे, कहने लगे, " अरे बहू | उतर क्यूँ गई कुछ भूल गई क्या ? चलो बैठो जल्दी जाओ नहीं तो पहुँचने में देर हो जायेगी | " मै मूर्ति सी कार में जा कर बैठ गई | मायका आ गया पर पूरे रास्ते एक शब्द भी नहीं बोली |

बहुत बड़ा सदमा था यह मेरे लिये, किससे कहूँ कौन मेरी बात पर यकीन करेगा | विजयेन्द्र को क्या कहूँ ...कैसे कहूँ ...कैसी गन्दी हरकत की उनके पापा ने कितना दुःख होगा उन्हें --इसी सोचविचार में उलझी रही |

अप्पा ने कहा भी, " अरे मेरी बेटी इतनी चुप कैसे है क्या हुआ बेटा ? "

" कुछ नहीं अप्पा बस थक गई हूँ ... " अन्नी को लगा प्रेगनेंसी की वजह से सुस्त हूँ पर मेरे सामने उन्होंने अप्पा को कुछ नहीं बताया कि वह नाना बनने वाले है ---

इस घटना से मुझे बहुत मानसिक आघात लगा | परीक्षा भी निकट थी और मेरी तबियत भी ढीली ढाली रहने लगी थी | किसी तरह पढाई शुरू की | दोस्तों ने नोट्स भी जुटा दिए थे और टीचरों ने भी सहायता की लेकिन इम्तिहान बहुत अच्छे नहीं हुये...…

पास हो जाऊं यही बहुत था मेरे लिये | किसी तरह पेपर ख़तम हुये | इन दो -तीन महीनों में विजयेन्द्र दो बार आये | एक दो- दिन रुक कर चले गये, इस बीच कई बार मैने उनसे बात करने की सोची भी फिर टाल दिया | पेपर देने के बाद बताएँगे | कही ऐसा न हो गुस्से में विजयेन्द्र मुझे इम्तिहान देने से मना ही न कर दें, | बाद में अवसर देख कर जब मैने उन्हें सारा वाकिया बताया तो वह एकदम से भड़क गये पहले तो सारी बात बहुत ध्यान से चुपचाप सुनी फिर मुझ पर ही बरस उठे और मुझे ही खरीखोटी सुना डाली , " फ़ालतू बकवास बंद करो तुम्हारा दिमाग खराब है, इलज़ाम लगाते तुम्हे शर्म नहीं आई | " -- वह एक दिन ही रुके पर मुझसे बात भी नहीं की और चले गये |
पेपर ख़तम होने के महीने भर बाद ही मेरा बुलावा आ गया | मुझे जाना पड़ा | इस बार जाते समय मै फूट फूट कर बहुत रोई अपनी अन्नी और अप्पा से लिपट के, --

हमारे यहाँ पहला बच्चा मायके में ही होता है इसलिये आठवां महिना लगते ही अन्नी ने मुझे बुलवा लिया | वैसे तो वहां अम्मा जी भी बड़ा ख्याल रखती थी पर विजयेन्द्र पता नहीं किस मिटटी के बने थे | मै जितना ख्याल करूँ, कितना भी प्यार करूँ, उनके लिये मेरी जरूरत बिस्तर तक ही थी, बहुत दुःख होता था मुझे | सात, आठ मास के गर्भ में औरत के शरीर में बदलाव तो आता है और माँ बनने की रौनक भी..... पर मेरा पति मुझे ताने मारता, " कितना बेडौल शरीर हो गया है पेट कितना निकल आया है अच्छी भली फिगर थी सत्यानाश कर लिया है | बाद में भी सारा बदन ढीला ढाला हो कर लटक जायेगा | बहुत शौक था न बच्चे का ...अगर बेडौल हुआ शरीर तो मुझे दोष मत देना - "
बहुत बेइज्जती लगी मुझे और दुःख भी हुआ | कैसा पति है इसे सिर्फ मेरे जिस्म से मतलब है मुझे चाहे जितनी परेशानी हो, पर इनकी जिस्मानी भूख को शांत करना अभी इस हालत में भी मेरी ड्यूटी है, अब यह बात कोई बेटी अपने माँ बाबा से कैसे कहे -..…

अरे, यह बात तो शर्म के मारे ससुराल में भी नहीं बता सकती | मै गुजरती रही इस तकलीफ से और अपने बच्चे की सलामती के लिये ऊपर वाले से दुआ मांगती रही | .ऐसे में मायके आकर लगा सजायाफ्ता कैदी को उसके टार्चर से कुछ दिन की रिहाई मिल गई | पैरोल पर ही तो आई थी मै, फिर उसी सोने चांदी की जेल में जाना था जो दूर से बहुत सुनहरी थी पर काले अँधेरे के सिवा कुछ नहीं था वहां |

वक्त आने पर राघव मेरी गोद में आया | इसे जन्म देते समय केस उलझ गया और मै मरने से बची, पर रुई- सा- नरम गोलगदबदा सा राघव इतना प्यारा था कि उसे गोद में लेते ही सारी पीड़ा सारा कष्ट न जाने कहाँ गायब हो गया | चार महीने बाद राघव को लेकर मै ससुराल गई | सब बहुत खुश थे आखिर वारिस जो आया था मंत्री ठाकुर कामेश्वर प्रताप सिंह जी के खानदान का -- खुशियाँ मनाई गई खूब दान दक्षिणा दी गई --

मेरी दोनों ननदों को भतीजे के जन्म पर भारी भरकम नेग मिला | इसी बीच एक दिन मै बैंक गई लाकर खोलने पर वहां जाकर मुझे पता चला कि लाकर तो सिर्फ विजयेन्द्र के नाम है | मै उसे नहीं खोल सकती | ऐसा कैसे हो सकता है, लाकर तो ज्वाइंट खुलवाया था हम दोनों के नाम अम्मा जी यानी मेरी सास जी ने | ख़ासतौर पर अपने बेटे को सहेजा था कि लाकर में विजयेन्द्र और मेरा दोनों का नाम होगा | बहुत सदमा लगा इसलिए की मुझे धोखे में क्यों रखा! बता तो देते क्या फर्क पड़ता दोनों में किसी का भी नाम हो| फिर हमने तो कहा भी नहीं, था अम्मा जी ने ही साथ भेजा था | याद आया उस समय पेपर पर दस्तखत तो करवाये थे पर अब पता चला वह मुझे बेवकूफ बनाया था | मेरे मायके का भी काफी जेवर उसी में रखा था | घर आकर अम्मा को बताया तो उन्हें देख कर लगा उन्हें बुरा तो लगा पर वह मजबूर थी कुछ नहीं बोली | विजयेन्द्र से पूछने पर वह बिगड़ गये, " हां मैने सिर्फ अपने ही नाम खुलवाया है तो ? तुम क्या करोगी, तुम कैसी औरत हो पति पर भरोसा नहीं है इतना लालच है तुम्हारे भीतर --- "

मै सहम कर पहले तो चुप हो गई, पर इतना कहे बिना नहीं रह सकी, " न लालच नहीं दुःख हुआ है तुम्हारे धोखे से आखिर झूठ क्यों बोला अगर कहते तो मना थोड़ी करती मुझे तो भरोसा था पर शायेद तुम्हे नहीं इसीलिये ऐसा धोखा क्यों ? "

बाद में अम्मा जी के मुंह से बात निकल गई | लाकर अकेले के नाम करने का आदेश ससुर जी का ही था -- इंटर किसी तरह पास हो गई थी | कालेज में एडमिशन नहीं ले पाई | राघव नन्हा सा था, सोचा प्राइवेट बीए कर लेंगे यही ससुराल में ही रह कर पर न तो कोई मुझे किताबें ला कर देता न ही फ़ार्म |विजयेन्द्र से बहुत मिन्नत की, प्यार से कहा पर अनसुना कर दिया ...आखिरकार मेरे सब्र का बाँध टूट गया उस रात मै रोई और मेरा जोरदार झगड़ा हुआ | गुस्से में विजयेन्द्र कह बैठे, “ पापा ने मना किया है पढ़ाने को.…

अब बच्चा है ... उसे देखो, क्या कानून सीखना है पढ़ कर ? ”

मुझे बिलकुल भी यकीन नहीं हुआ | मुझे लगा यह खुद चाहते है ऐसा और पापा पर थोप रहे है | उन्होंने तो अप्पा से कहा था मै जितना पढना चाहूँ पढूं | यहाँ कोई काम भी तो नहीं था, पर यह बात सच थी, अन्नी की आलमारी में मिले लिफ़ाफ़े में मंत्री कामेश्वर प्रताप सिंह का ही पत्र था उन्हीँ की हैंडराइटिंग में जो उन्होंने अपने पुत्र को लिखा था, जिसमे मुझे आगे पढने पर रोक के साथ ही मेरे हाथ में पैसा भी न दिया जाय इसकी सख्त हिदायत थी |

कितनी अजीब बात थी | ये खानदानी लोग थे | जिनके हाथ पाँव बाँधने के तरीके भी कितने अलग थे, जकड़ भी देते थे जंजीरों से और दिखती भी नहीं कोई जंजीर -

इस जकड़न का दर्द वही बता सकता है जिस पर गुजरती है | धीरे धीरे सब राज खुलने लगे | विजयेन्द्र कुछ नहीं करते थे | बाप का पैसा इफरात था और वह इकलौते बेटे चाहे जितना उड़ायें | सिर्फ शराब छोड़ बाकी सभी दुर्गुण थे उनमें, पर मैने क्या कसूर किया था ? सब कुछ था घर में | मुझे कोई कमी नहीं थी सिर्फ किताबें नहीं मिलती और पैसा तो मेरे पास उतना ही होता जितना अन्नी, अप्पा मुझे दे कर भेजते या अप्पा जब आते तो पकड़ा जाते | मै उनसे भी नहीं कह सकती थी यह सब | उन्हें दुःख होता | वह तो सोचते होंगे कि मुझे कोई कमी नहीं है यहाँ | मै सोचती धीरे -धीरे सब ठीक हो जाएगा | अपने पति को मै मना लूंगी अब रहना तो यही है | बहुत कोशिश करती राघव के साथ उसके पापा का भी पूरा ख्याल रखती | कभी दिन अच्छे भी गुजरते पर यह समय बहुत कम आता |

एक रात अपने बेटे को मै अपना दूध पिला रही थी, कि विजयेन्द्र ने उसे गोद से छीन लिया | वो चीख कर रोने लगा -मैने उसे लेना चाहा तो वह बोले, " इसे अपना दूध क्यूँ दे रही हो अब छह महीने का हो गया इसे डिब्बे वाला दूध दो, कहा था न तुमसे तुम्हारी इतनी खूबसूरत फिगर बिगड़ जायेगी और मुझे बेडौल औरतों से घिन आती है, अगर तुम्हारा यही रवैया रहा तो इसे आया के पास सुलाना होगा,

फुल टाइम नैनी रख दूंगा | "

मुझे बहुत गुस्सा आया मेरी सहनशक्ति खतम होने लगी थी | मैने विजयेन्द्र से कहा --
" अपने बच्चे को तो दूध पिलाऊंगी ही मै और इसे इसकी माँ ही पालेगी कोई आया नहीं इसे आप जान लीजिये यहाँ इस बात पर कोई समझौता नहीं बस "

धीरे -धीरे राघव दो साल का हो गया | अब उसे खिलाने में सब को बहुत अच्छा लगता | उसकी हरकतें बड़ी प्यारी होती | उसके बाबा दादी उसे बहुत दुलारते | मै भी एक बुरा सपना समझ कर वह घिनौना हादसा करीब -करीब भूल ही रही थी कि विजयेन्द्र किसी काम से हफ्ते भर को कहीं चले गये | मै अपने कमरे में अकेले ही सो रही थी, पास में राघव था | अचानक नींद में अहसास हुआ कोई हाथ मेरे चेहरे मेरे ओठों पर रेंग रहा है | गहरी नींद से अचकचा कर उठ बैठी और एक साया तेज़ी से कमरे के बाहर चला गया | मै जल्दी से पीछे भागी तो देखा कुछ दूर पर मेरे पति के पिता जी जाते दिखे | उस दिन के बाद मै अकेली नहीं सोई, एक नौकरानी मेरे बेड के पास नीचे बिछा कर सोती, पर इस बार तो उन्होंने हद्द ही कर दी | कभी राघव को गोद लेने के बहाने ही मेरे शरीर को हाथ लगा देते | कोई मौका नहीं चूकते वह | विजयेन्द्र के वापस आने पर मैने फिर उनसे कहा | इस बार उन्होंने मुझसे कुछ नहीं कहा पर अपने पापा से कोई बात जरुर की | महीनों बाप बेटे में अबोला रहा | अब वह मुझसे भी बात नहीं करते.... बस राघव को दुलारते मगर
वह मुझे जब भी देखते एक अजीब - सी कामुक चमक कौंधती उनकी आँखों में, मानो मुझे निगल जायेंगे | उनका स्पर्श जहाँ भी लगता शरीर में, मै रगड़ कर धो आती |

इधर विजयेन्द्र भी मुझ पर खीजने लगे थे | पिता ने हाथ सिकोड़ लिये थे और उन्हें खुला खर्च करने में दिक्कत आ रही थी | इसकी खीझ और गुस्सा वह मुझ पर निकालते | यह कुछ महीने चला और आखिर पुत्र ने पिता से माफ़ी मांग लिया कि उसे गलतफहमी हुई | मैने ही उसे भड़काया | आखिर धन का पलड़ा भारी हो गया | एक बार अम्मा और दोनों ननदें कहीं गई थी | राघव को बुखार था मै घर पर रुक गई | नौकर चाकर तो थे ही अचानक कामेश्वर प्रताप सिंह, मेरे ससुर जी दौरे से वापस आ गये | मुझे अकेली पाकर मेरे कमरे में आये इस बार उन्होंने बिना लागलपेट के सीधे अपनी बात कह दी,

" मेघा तुम समझ नहीं रही या समझना ही नहीं चाहती, तुम मुझे बहुत प्यारी हो मेरी बात क्यूँ नहीं मान लेती, मै तुम्हे कोई कमी नहीं होने दूंगा | तुम कालेज में दाखिला ले कर अपनी पढ़ाई भी पूरी करना, मेरे पास बहुत पैसा है और मेरा बेटा मेरे खिलाफ कभी नहीं जायेगा, अगर उसने कोई हिमाकत की भी तो उसे बेदखल कर दूंगा अपनी जायजाद से | सुना तुमने ....अब मान भी जाओ न "
कहा और मुझे अपनी बाहों में भरने लगे |

मैने उन्हें झटक दिया | धक्का दे कर मुश्किल से खुद को अलग किया और क्रोध और घृणा से भर कर कहा, " आप बाप - बेटे मिल कर फैसला कर लीजिये मुझे किसके साथ रहना है | मै एकसाथ दोनों की बीवी बन कर नहीं रह सकती, और हाँ ! अगर आपने मेरे साथ कभी जबरदस्ती की तो मै अप्पा से सब बता दूंगी और आत्महत्या कर लूंगी राघव के साथ | मेरे बाबा आग लगा देंगे यहाँ वह आपको नहीं छोड़ेंगे " वह बाहर चले गये |

मै देर तक शावर के नीचे खड़ी अपने शरीर को रगड़ कर धोती रही और आंसू बहते रहे | अपने चेहरे को साबुन से कई बार धोया | तन पर मानो कांटे उग आये हो |

अब पानी सर के ऊपर आ गया था | सोचा अम्मा से कहूँ फिर लगा उन्हें कितना दुःख होगा अपने पति के दुष्कर्म को जान कर, फिर भी मैने उन्हें बताया | वह सब सुनती रही और इतना ही बोली,

" हमें पता था यह होगा फिर लगा डाइन भी सात घर छोड़ देती है …

हो सकता है बहू को बख्श दें पर ये नहीं सुधरेंगे, तुम किसी से कहना नहीं बेटा ......समधी जी से तो बिलकुल मत कहना " इतना कह कर वह भीगी आँखे चुपके से आंचल से पोछती हुई कमरे से चली गई, और -मै अवाक् रह गई, उस पल वह मुझे बड़ी निरीह और असहाय लगी …

दो तीन दिन बाद विजयेन्द्र वापस आ गये | मैने सोचा, आज रात इनसे बात करुँगी, मेरे लिये यहाँ रहना बहुत मुश्किल है | उस दिन इनका मूड भी बहुत अच्छा था | रात को जब चेंज करके मै सोने आई तो विजयेन्द्र बड़े रोमांटिक मूड में मेरा इंतजार कर रहे थे, " मेघा कितनी देर लगा दी आओ न कब से इंतजार कर रहा हूँ "

और मेरा हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया, हालाकिं यह हफ्ते भर बाद वापस आये थे फिर भी मैने मना किया ----- " सुनो आज नहीं मेरा मन खराब है आज तुमसे बात करनी है " मेरी बात अनसुनी कर करीब आ गये अपना हक वसूलने मै आँखे बंद करके एक बुत की तरह पड़ी रही | वह मनमानी करते रहे | मैने आँखे खोली तो मुझे विजयेन्द्र का चेहरा कामेश्वर प्रताप सिंह में बदलता दिखा -

दोनों की शक्लें आपस में गड्मड होने लगी, मैने अचानक विजयेन्द्र को धक्का दे कर हटा दिया |
" मेघा क्या हुआ, किसी अच्छे साइकेट्रिक को दिखालो अब तो पागलपन के दौरे भी पड़ने लगे है तुम्हे अच्छा भला मूड बिगाड़ दिया, भाड़ में जाओ तुम " कह कर करवट बदल ली पर मुझे नींद कहाँ |

राघव को सीने से लगा कर सारी रात आँखों में ही काट दी |

सुबह नाश्ते के बाद लान में हम दोनों अकेले बैठे थे | विजयेन्द्र मुझसे रात की बात से अभी भी नाराज़ थे, हालाकिं मैने माफ़ी मांग ली थी और पहले कभी ऐसा किया भी नहीं था, फिर भी उनका मुंह सूजा ही था |

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